Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान : अमृतमयी परंपरा भावों का तार न तोड़ा जाय, तब तक वह दान नहीं कहलाता । इसी कारण प्राचीनकाल में राजा या किसी धनिक को जब दान देना होता तो प्रायः ऋषिमुनियों की साक्षी से वह राजा या धनिक संकल्प लेता था । वह संकल्प-ममत्व त्याग का होता था, वही दान का प्राण होता था। संकल्प इसलिए किया जाता था कि कदाचित् मन पुनः लोभवश या स्वार्थवश फिसल न जाय । . .
राजा हरिश्चन्द्र ने जब विश्वामित्रजी को दान देने का विचार किया तो विश्वामित्रजी ने अपने सामने उनसे संकल्प कराया । संकल्प कराने के बाद उस दान को पक्का घोषित करने के लिए उन्होंने ऊपर से दक्षिणा देने की बात रखी; जिसे चुकाने के लिए दानी राजा हरिश्चन्द्र और महारानी तारामती को अपना राजपाट, राजसी वस्त्र, वैभव आदि सर्वस्व छोड़कर काशी जाना पड़ा था और स्वयं उपार्जित धन से अपना गुजारा चलाकर दक्षिणा देने की अवधि निकट आने के कारण पहले तारामती ने अपने आपको बेचकर आधी स्वर्ण-मुद्राएं दक्षिणा के रूप में विश्वामित्र को चुका दी । शेष आधी स्वर्ण-मुद्राओं को राजा हरिश्चन्द्र ने स्वयं एक भंगी के यहाँ बिककर उसके श्मशान में पहरेदारी का कठोर कर्त्तव्य अदा करके चुकाई । इसीलिए राजा हरिश्चन्द्र का दान इस आदर्श एवं न्यायोपार्जित धन से युक्त दक्षिणा के कारण महादान के रूप में प्रसिद्ध हो गया । इस प्रकार से संकल्पबद्ध हो जाने के बाद वह दान आम आदमियों में प्रकट हो जाता था, सार्वजनिक रूप से घोषित कर दिया जाता था।
इसीलिए दान के लक्षण में दान के साथ यह शर्त रखी गई है कि - .. स्वत्व का विसर्जन करना-अपने ममत्व, अहंत्व, स्वामित्व और स्वत्व का सर्वथा उस देय वस्तु पर से त्याग कर देना, छोड़ देना।
विश्वचिंतक लेखक एवं साहित्यकार बर्नाड शा को १९२५ ई. में जब साहित्य के लिए नोबल पुरस्कार मिलने की घोषणा हुई, तब उन्होंने पुरस्कारदाता का सम्मान रखने के लिए उस नोबल पुरस्कार को स्वीकार तो किया, परन्तु उस पारितोषिक की मिलने वाली विशाल रकम को अस्वीकार करते हुए उन्होंने पारितोषिक वितरण व्यवस्थापकों से कहा – “अब मेरे पास अपना गुजारा चलाने लायक धन है, इसलिए मेरी इच्छा है कि पारितोषिक की इस रकम को स्वीडन के गरीब लेखकों में बाँट दिया जाय ।"