Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान की परिभाषा और लक्षण
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दान और संविभाग यथाशक्ति संविभाग ही दान है। आद्य शंकराचार्य ने दान का अर्थ किया है – “दानं संविभागः ।" दान का अर्थ है – सम्यक् वितरण - यथार्थ विभाग अथवा संगत विभाग । अपने पास जो कुछ है, उसका यथाशक्ति उचित विभाजन करने के अर्थ में दान शब्द का प्रयोग स्वामित्व, स्वत्व, ममत्व और अंहत्व की वृत्ति को कोई गुंजाइश ही नहीं देता। . इसलिए संविभाग के अर्थ में जो दान है, वह दान का परिष्कृत अर्थ है और इसी अर्थ में दान को जैन धर्म ने स्वीकार किया है। सद्गृहस्थ श्रावक के लिए बारहवाँ यथासंविभागवत निश्चित किया है, वहाँ दान शब्द में अंहत्व, हीनत्व-गौरवत्व की भावना आ जाने के अंदेशे के कारण दान शब्द का प्रयोग न करके 'यथासंविभाग' का प्रयोग किया गया है। बाद में इस व्रत का नाम
अतिथि-संविभागवत रूढ़ हो गया। ... जैन गृहस्थ श्रावक अपने समस्त परिग्रह का परिमाण (मर्यादा) करता है, वह भी मर्यादा से उपरान्त वस्तु या साधनों को अपनी न मानकर समाज की अमानत मानता है और समय-समय पर समाज के विशिष्ट सत्कार्यों में या अमुक योग्य पात्रों को देता रहता है। वह दान के योग्य पात्रों में कई बार कई संस्थाओं को भी देता है। उन्हें भी अतिथि समझता है, क्योंकि संस्थाओं के प्रतिनिधियों के आने की भी कोई तिथि नियत नहीं होती । यही कारण है कि 'यथासंविभाग' शब्द बाद में घिसता-घिसता 'अतिथि संविभाग' के रूप में प्रचलित हो गया।
दान के सभी लक्षणों का इसमें समावेश हो जाता है । क्योंकि स्वपरानुग्रह रूप उद्देश्य तो 'यथा' शब्द में गर्भित हो ही जाता है। क्योंकि जब देने वाला दान देते समय पात्र की स्थिति, आवश्यकता एवं उसके योग्य वस्तु का विचार करेगा, तो उसमें परानुग्रह तो आ ही जायेगा, स्वानुग्रह भी, दान देने वाला समाज के ऋण से मुक्त होकर उपकृत होता है अथवा अपनी आत्मा के लिए प्रतिलाभ प्राप्त करता है, इस प्रक्रिया में आ जाता है। स्वत्व अहंत्व-विसर्जन भी इसमें गतार्थ है । इस व्रत में 'यथा' शब्द ही एक ऐसा पडा है, जो दान के साथ सब प्रकार का विवेक करने के लिए प्रेरित करता है। 'यथा' शब्द के प्रकाश में