Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान की परिभाषा और लक्षण
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एकनाथ की पत्नी ने उत्साहपूर्वक ब्राह्मणों के लिए बनाया हुआ भोजन चमार लोगों को दे दिया । गिरिजाबाई ने ब्राह्मणों के लिए फिर से रसोई बना ली। परन्तु सारे नगर में यह बात फैल गई कि एकनाथ में ब्राह्मणों के लिए बनाया हुआ भोजन चमारों को दे दिया। सभी ब्राह्मणों ने मिलकर निश्चय किया कि एकनाथ के घर कोई भोजन के लिए न जाये । एकनाथ ने नम्रतापूर्वक बहुत समझाया, पर ब्राह्मणों ने इन्कार कर दिया । श्रद्धालु एकनाथ को ब्राह्मणों के इन्कार से बड़ी चिन्ता हुई। सोचन लगे- "पितर तृप्त न हुए तो क्या होगा?" परन्तु उनके श्रीखण्ड नामक नौकर ने कहा - "आप निश्चिन्त रहिए, इस प्रकार दिये हुए श्राद्ध भोजन से पितर अवश्य तृप्त होंगे।" कहते हैं, पितरों ने स्वयं
आकर थाली में परोसा हुआ अन्न ग्रहण किया। इससे एकनाथ को बहुत ही प्रसन्नता हुई । ब्राह्मणों को इस घटना से बहुत लज्जित होना पड़ा।
वास्तव में श्राद्ध में निमित्त बने हुए भोजन का दान-सम्यक् विभाग के रूप में चमार लोगों को देकर एकनाथजी ने अपना दान और श्राद्ध दोनों सार्थक किये। . दान का संविभाग अर्थ तभी सार्थक होता है, जब दाता की वैसी भावना बनें और वह स्वेच्छा से दान के लिए प्रेरित हो । दान में तो ऐश्वर्य और स्वैच्छिक अहोभाव की भूमिका पाई जाती है कि मेरे पास जो कुछ है, उसे मैं सबको कैसे बाढूँ?
इस प्रकार संविभाग रूप दान में दान की सभी व्याख्याएँ आ जाती है।
यथा संविभाग का प्राचीन आचार्यों ने जो अर्थ किया है, वह इस प्रकार है -
"यथासिद्धस्य स्वार्थे निवर्तितस्येत्यर्थः अशनादेः समितिसंगतत्वेन पश्चात्कर्मादिदोष परिहारेण विभजनं
साधवे दानद्वारेण विभागकरणं यथासंविभागः ।" १
- जिस प्रकार अपने (गृहस्थ के) घर में आहारादि अपने लिए बना हुआ है, उसका एषणा समिति से संगत पश्चात्कर्म आदि आहार दोषों को टालकर साधु-साध्वी को दान के द्वारा विभाग करना यथासंविभाग है।