Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
View full book text
________________
४३.
दान का महत्त्व और उद्देश्य परलोक में साथ आने वाला है और इहलोक में भी पुण्यवृद्धि करके मनुष्य को सुख पहुंचाने वाला है। इसीलिए अत्रिसंहिता में भारतीय ऋषि का अनुभवसिद्ध चिन्तन फूट पडा -
"नास्ति दानात्परं मित्रमिहलोके परत्र च ।" दान के समान इहलोक और परलोक में कोई मित्र नहीं है। दान इस लोक में भी मित्र की तरह पुण्यवृद्धि होने से सुख-सुविधा और सुख-सामग्री प्राप्त करा देता है, सुख पहुंचाता है और परलोक में भी दान मित्रवत् पुण्य उपार्जित कराकर प्राणी को उत्तम सुख व सामग्री जुटा देता है। इसलिए दान मित्र से भी बढ़कर है। - इसी से मिलती-जुलती एक कहावत लोक-व्यवहार में प्रसिद्ध है - .. "खा गया, सो खो गया, दे गया, सो ले गया।
जोड गया, सिर फोड़ गया, गाड गया, झख मार गया।"
इसका तात्पर्य यह है कि इस संसार में व्यक्ति ने जो कुछ भी धनादि साधन जुटाये हैं, उन्हें स्वयं खानेवाला सब कुछ खो देता है, वह सुकृत के सुन्दर अवसर को हाथ से गवा देता है और जो धन आदि पदार्थ कमा-कमाकर जोड़ता है, न खाता है, न खर्च करता है, न दान देता है, ऐसा व्यक्ति सारे के सारे पदार्थ जोड़-जोड़कर रख जाता है, उसने अपने उपार्जित द्रव्य से कुछ भी सुकृत नहीं कमाया और न ही स्वयं उपभोग किया, उसके पल्ले तो सिर्फ जोड़ने और सहेज कर रखने की माथाकूट ही पड़ी । इतनी सिरफोड़ी करके भी वह कुछ भी लाभ नहीं उठा सका । जो दूसरों की पूजी को हजम कर जाता है या गाड़ जाता है वह तो व्यर्थ ही झख मारता है। इसलिए मनुष्य का वास्तविक धन तो वही है, जो वह दूसरों को दान दे देता है । उसकी वही पुण्य की पूँजी परलोक में उसके साथ जाने वाली है।
इन्दौर के सेठ हुक्मीचन्दजी से किसी ने पूछा - "आपके पास कुल सम्पत्ति कितनी है ? लोगों को आपके धन की थाह ही नहीं मिल रही है। आप लक्ष्मीपुत्र हैं। जनता अनुमान ही अनुमान में गुम है। कोई दस करोड़ रुपये का अनुमान लगाते हैं, कोई बीस करोड़ रुपये का । वास्तविक स्थिति क्या है ?"
सेठ मुस्कराते हुए बोले – “मेरी सम्पत्ति बहुत थोड़ी है। आपकों