Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान की परिभाषा और लक्षण शुष्क कल्पवृक्ष के प्रतीक थे - तपस्या से शरीर सूख गया। श्री श्रेयांसकुमार के यहाँ जब दूसरे दिन अनायास ही भगवान ऋषभदेव पहुँच गये तो उन्हें अपने यहाँ आया हुआ इक्षुरस दिया । वह दान महादान था, वही भगवान ऋषभदेव के शरीर पोषण के माध्यम से उनके रत्नत्रय को समृद्ध बनाने का कारण बना इसलिए उस दान को स्व-परानुग्रहकारक कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। इस प्रकार के जितने भी दान आगमों में वर्णित हैं, वे ही स्व-परानुग्रहकारक होने से दान के उद्देश्य को सार्थक करते हैं, अन्य प्रकार के नहीं। .
___ परानुग्रह का दूसरा अर्थ भी इसी से मिलता-जुलता है – दान द्वारा दूसरों के रत्नत्रय की उन्नति करना । यद्यपि परानुग्रह के साथ स्वानुग्रह तो गर्भित है ही; तथापि परानुग्रह बुद्धि की मुख्यता आचार्य ने दान के साथ अनिवार्य बताई है। इस प्रकार के परानुग्रह में भी त्यागी श्रमण-श्रमणी, मुनि, साध्वी आदि सुपात्र होते हैं। "मेरे दान से इनका ज्ञानादि रत्नत्रय बढ़ेगा, इनके शरीर में सुखसाता रहेगी तो ये धर्मवृद्धि करेंगे, हजारों व्यक्तियों को सन्मार्ग का उपदेश देंगे और पथभ्रष्ट को सुपथ पर लायेंगे।" इस प्रकार की परानुग्रह बुद्धि जब दान के साथ
आती है तो वह दान देदीप्यमान हो उठता है । उस दान से दाता और आदाता दोनों की आत्मा में चमक आ जाती है।
इसी प्रकार की कथा गन्धश्रेष्ठी के बारे में भी आती है।
परानुग्रह के तीसरे अर्थ के अनुसार दान के द्वारा दूसरों की धर्मवृद्धि में सहयोग रूप में अनुग्रह करना है। दान देने के पहले या पीछे भी दाता की जहाँ यह भावना रहती है कि इस दान से आदाता के जीवन में धर्मवृद्धि हो, वह धर्म के उत्तम अंगों से विभूषित हो, उसका जीवन धर्म से ओतप्रोत और धर्म में हर समय सुदृढ़ बना रहे। इस प्रकार की भावना से दिया गया दान परानुग्रहकारक होता है।
__यह परानग्रहपूर्वक दान धर्म-प्राप्ति कराने के लिए होता है। विशेषतः उस समय यह विशेष रूप से परानुग्रहकारक होता है, जब व्यक्ति अपनी घृणित एवं हिंसापरक आजीविका एवं पूर्वज परम्परा के कारण पाप में डूबे रहे हों, तब उन्हें धर्म में संलग्न करने के लिए अपने धन, साधन आदि का दान दिया जाये।