Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान : अमृतमयी परंपरा सुनकर आश्चर्य होगा - साढे सत्ताईस लाख रुपये।"
प्रश्नकर्ता ने अविश्वास की मुद्र में कहा - "क्यों फुसलाते हैं, आप ! पचास लाख रुपये का तो केवल शीशमहल ही होगा। इसके सिवाय मिलें वगैरह हैं, सो अलग।"
. सेठ बोले – “आप मेरे कहने का आशय नहीं समझे । अभी तक इन हाथों से सिर्फ साढ़े सत्ताईस लाख ही दिये जा सके हैं । जो इन हाथों से दिये गये हैं और जनता के हित में जिनका उपयोग हुआ है, ये ही केवल मेरे हैं। कितनी थोड़ी-सी पूंजी है मेरी ।" इसलिए हाथ से दिया गया दान ही अपना धन है ।
यही बात नीतिकार भी कहते हैं कि - "किसी विशिष्ट कार्य के लिए जिसे धन तू देगा या जिसका उपभोग प्रतिदिन करेगा, उसे ही मैं तुम्हारा धन मानता हूँ। फिर बाकी का धन किसके लिए रखकर जाते हो ?'
व्यक्ति की वास्तविक पूँजी तो वही है, जो उसके हाथ से दान में दी गई है। जो केवल गाड़कर रखी गई है, वह पूँजी तो यहीं रह जाने वाली है, वह धूल या पत्थर के समान है। इसलिए दान दिया हुआ धन ही परलोक में पुण्य के रूप में साथ जाता है, अन्य धन या साधन तो यहीं पड़ा रह जाता है।
सिकंदर बादशाह ने मरने तक आधी दुनियां की दौलत इकट्ठी कर ली थी और आधी दुनिया का राज जीत लिया था । किन्तु जिस समय वह मरने लगा तो अपने दरबारियों को बुलाकर कहा - "मेरे धन का मेरे सामने ढेर लगा दो, जिससे मैं देखकर संतुष्ट हो सकूँ और साथ में ले जा सकूँ।"
उन्होंने तथा बड़े-बड़े विद्वानों ने कहा – “जहाँपनाह ! इसमें से जमीन या पदार्थ का जरा-सा कण भी, एक तागा भी आपके साथ आनेवाला नहीं है, यह धन और धरती यहीं पड़े रह जायेंगे, किसी के साथ में आते नहीं।"
कहते हैं - सिकंदर को यह जानकर बहुत ही अफसोस हुआ, वह रोने लगा कि "हाय ! मैंने व्यर्थ ही लोगों को सताकर, उखाड़-पछाड़कर इतनी दौलत इकट्ठी की और इतनी धरती पर कब्जा किया । यह तो यहीं धरी रह १. यह ददासि विशिष्टेभ्यो यच्चाश्नासि दिने-दिने ।
तत्ते वित्तमह मन्ये, शेष कस्यापि रक्षसि ॥"