Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
View full book text
________________
५०
दान : अमृतमयी परंपरा
की दृष्टि श्लोक की इस लाइन पर पडी, उसने मन ही मन सोचा मुझे दान से रोकने के लिए शायद यह पंक्ति लिखकर टाँगी गई है। अतः उसने उस पंक्ति के नीचे लिख दिया - "श्रीमतामापदः कुतः ।" भाग्यशालियों को आपत्ति कहाँ है ? दूसरे दिन मंत्री अपने लिखित श्लोक की पंक्ति की प्रतिक्रिया जानने की दृष्टि से राजा के पास आया और उसने राजा के द्वारा लिखी हुई उक्त पंक्ति देखी तो सोचा
___ "अभी तक राजा के मन पर कोई असर नहीं हुआ है।" अतः उसने राजा की लिखी हुई पंक्ति के नीचे एक पंक्ति फिर लिख दी - "कदाचित् कुपितो दैवः ।" अगर भाग्य ही कभी कुपित हो गया तो ---- ? राजा ने उसे देखा और मन ही मन मुस्कराकर उसके नीचे यह लाइन लिख दी- "संचितोऽपि विनश्यति ।" यानी संचित की हुई सम्पत्ति भी देव के कुपित होने पर नष्ट हो जाती है, इसलिए धन का संचय करके रखने के बजाय दान करते रहना चाहिए।
निष्कर्ष यह है कि धन का संचय करने की अपेक्षा उसका दान करना बेहतर है, क्योंकि दान करने से बाद में पश्चात्ताप करने का अवसर नहीं आयेगा। स्वेच्छा से दिया गया दान मन को सन्तुष्टि और शान्ति प्रदान करता है। इस सम्बन्ध में चाणक्य नीति' का यह श्लोक बहुत ही प्रेरणाप्रद हैं
"देयं भो ! ह्यधने धनं सुकृतिभिर्नो संचयस्तस्य वै। . श्री कृष्णस्य बलेश्च विक्रमपतेरद्याऽपि कीर्ति स्थिता ।। अस्माकं मधु दान-भोगरहितं नष्टं चिरात्संचितम् ।
निर्वेदादिति नैजपादयुगलं घर्षन्त्यहो ! मक्षिकाः ॥"
मधुमक्खियों का कहना है - "पुण्यात्माओं को धन का केवल संग्रह न करके निर्धनों को दान देते रहना चाहिए। क्योंकि उसी (दान) के कारण कर्ण राजा, बलि राजा और विक्रमादित्य आदि राजाओं का यश आज तक विद्यमान है। आह ! देखो, हमने जो शहद चिरकाल से संचित किया था, उसे न तो किसी को दान दिया और न स्वयं उपयोग किया, इस कारण वह नष्ट हो गया। इसी दुःख से हम मधुमक्खियाँ अपने दोनों पैरों को घिस रही हैं।"
१. चाणक्यनीति ११/१८