Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान की परिभाषा और लक्षण संविभाग की व्यापकता एवं दार्शनिकता ही है। देने वाला दाता देता है अहंकार से भरकर और लेनेवाला ग्रहीता लेता है सिर नीचा करके। देनेवाला अपने को उपकारी मानता है और लेनेवाला अपने को उपकृत । यही कारण है कि 'दान' शब्द से पूर्व कुछ विशेषण जोड़ दिये गये है - अनुकंपादान, आहारदान, आदि।
दान शब्द का अर्थ है - देना । क्या देना? किसको देना? क्यों देना? इसका कोई अर्थ-बोध दान शब्द से नहीं निकल पाता । शायद, इन्हीं समस्याओं के समाधान के लिए 'दान' शब्द को युग युगान्तर में परिभाषित करना पड़ा है। परन्तु कोई भी परिभाषा 'दान' शब्द को बाँधने में समर्थ नहीं हो सकी। 'दान' शब्द के सम्बन्ध में भेद-प्रभेद होते ही रहे हैं, मत-मतान्तर चलते ही रहे हैं, वाद-विवाद बढ़ते ही रहे हैं।
तस्यैव सफलं जन्म तस्यैव सफला क्रिया । - सफलं गृहधान्यादि येन दानं कृतं शुभम् ॥
जिसने सुपात्र के लिये दान दिया है उसी का जन्म सफल है उसकी समस्त क्रियाएँ सफल हैं और उसकी गृह धन धान्यादिक विभूति का प्राप्त करना सफल है। इसी तरह योगबिन्दु में लिखा है -
पात्रे दीनादिवर्गे च, दानं विधिवदिष्यते ।
पोष्यवर्गाविरोधेन, न विरुद्धं स्वतश्च यत् ॥२ अन्य महर्षि ने भी दान के बारे में इसी प्रकार का लिखा है -
सुपात्र दानात् च भयत् धनाढ्यो, धन प्रभावेन करोति पूण्यम् । पूण्य प्रभायात सुरलोक वासी पूनर्धनाढ्यः पुनरेय (पुण्य) भोगी॥
१. दान विचार।
२. योगबिन्दु : श. १२१