Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान : अमृतमयी परंपरा बल, बुद्धि में जिस योग्य था, उसे उसी प्रकार के कर्म में दक्ष करने को शिक्षणप्रशिक्षण दिया गया । लौकिक विधाओं का शिक्षण श्री ऋषभदेव ने स्वयं के एक सौ एक पुत्र दोनों पुत्रियों को दिया, तदुपरान्त उन विद्याविशेषज्ञों ने प्रजा को प्रशिक्षित कर सामाजिक संगठन, शासन-प्रशासन आदि के क्रिया कलापों में व्यवस्था का सूत्रपात किया था । मोक्ष पुरुषार्थ के लिए राजा ऋषभदेव स्वयम्भू दीक्षित हुये। वे केशलुंचन कर निर्ग्रन्थ अवस्था में छह माह के लिए ध्यानस्थ हो गये । और आहारचर्या को उठे तो 'आहारदान' की विधि से अनभिज्ञ लोग उन्हें आहारदान नहीं कर सके। क्रमशः तेरह माह नौ दिन बाद वैशाख शुक्ला तीज को राजा श्रेयांस ने पूर्व जन्म आधार पर आहारदान की विधि को जान लिया तथा नवधा भक्ति के साथ मुनिराज ऋषभनाथ को ईक्षु रस (गन्ने का रस) का आहार कराया। इस चिर प्रतिक्षित महापुण्य कृत्य 'आहारदान' से स्वर्ग के देव भी आल्हाद से भर गये और अनुमोदना करते हुए दिव्य पंचाश्चर्य को उद्यत् हो गये । आकाश से रत्नवृष्टि, पुष्पवृष्टि, दुन्दुभीवादन, जयनिनाद एवं सुगन्धित शीतल मन्द फुहारों से वातावरण आनंद से भर गया । इस दान महात्म्य की सूचना तत्कालीन चक्रवर्ती सम्राट भरत को हुई तो उन्होंने स्वयं उस दान तीर्थ हस्तिनापुर में आकर राजा श्रेयांस का सम्मान कर 'दान तीर्थंकर' की उपाधि से विभुषित किया । वह काल विशेष 'अक्षय पुण्य दिवस अक्षयतीज' के रूप में सर्वोत्कृष्ट शुभ मुहुर्त मांना गया। अत: जैनों में ही नहीं जैनेतरों में इसे अन्य दानों के साथ 'कन्या दान' अर्थात् शुभविवाह का 'अनसूझा साया' मान महान दिवस की मान्यता प्राप्त है। यह स्थान विशेष भी 'दान तीर्थ' मंगलतीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कालान्तर में इसी मंगल क्षेत्र हस्तिनापुर में त्रैपदधारी त्रैतीर्थकरों के चार-चार कल्याणक हुये हैं। तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ, श्री कुंथुनाथ, श्री अरहनाथ । तीनों ही तीर्थंकर अर्थ पुरुषार्थ में श्रेष्ठतम चक्रवर्ती सम्राट, काम पुरुषार्थ में सर्वश्रेष्ठ कामदेव तथा धर्म प्रवर्तक तीर्थंकर मोक्ष मार्ग बताने वाले अरिहंत भगवान् हुये।
यह 'अक्षय दान पर्व' सर्व शुद्ध शुभ मुहुर्तों में से एक है । अतः अक्षयदान फल सिद्धत्व प्रदायक है। इस दिन सर्वाधिक महत्त्व आहार दान का है। अतः सत्पात्रं निग्रन्थ गुरुओं को आहार में ईक्षुरस अवश्य दिया जाता है। साथ ही गन्ने के रस की प्याऊ, शर्बत-लस्सी का वितरण परम्परा बन गया है।