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बात बात में बोध
अनेक अन्य धर्मी राजाओं के यहां पर भी अनेक महत्वपूर्ण पदों पर जैन लोग काम करते थे, ऐसा इतिहास में उल्लेख मिलता है । अन्य धर्मावलम्बी राजाओं पर भी निश्चित रूप से जैन धर्म की गहरी छाप थी ऐसा कहा जा सकता है ।
कमल-प्रोफेसर महोदय ! यह भी बताएं कि आपने जैन धर्म किसी के प्रभाव में आकर स्वीकार किया या अपने स्वतन्त्र चिंतन से !
प्रो० ओमप्रकाश केसी बचकानी बात कर रहे हो ? मैं कोई अनपढ़ अनभिज्ञ तो नहीं जो प्रभाव में आकर किसी का पल्ला पकड़ लूं । व्यक्तिविशेष के प्रभाव से स्वीकृत धर्म आत्मगत नहीं होता । प्रभाव हटते ही वह छूट जायेगा । मैंने जैन धर्म अपनी समझ से व इसकी विशेषताओं के कारण स्वीकार किया है ।
विमल - अव बताने की कृपा करें कि जैन धर्म में वे कौन-सी विशेषताएं हैं जिनसे आकृष्ट होकर आप इसके अनुयायी बने ?
प्रो० ओमप्रकाश -- तुम्हारी जिज्ञासा है तो सुनो। पहली विशेषता है— जैन धर्म में गुणों की पूजा है, किसी व्यक्ति विशेष की नहीं । जैन धर्म के मन्त्र " नमस्कार महामन्त्र" में किसी व्यक्ति को नमस्कार नहीं किया गया है । आत्म-विकास की भूमिका को इसमें महत्त्व दिया गया है । विमल -बात कुछ समझ में नहीं आई। अगर व्यक्ति विशेष की मान्यता नहीं तो फिर ऋषभ, पारस या महावीर के गुणगान क्यों किए जाते हैं ? फिर तो निराकार व निरंजन की ही पूजा होनी चाहिए ।
प्रो० ओमप्रकाश - उचित है तुम्हारा प्रश्न ऋषभ, पारस या महावीर के गुणगान का अर्थ यह मत समझो कि हम उन व्यक्तियों की पूजा करते हैं। ये नाम तो मात्र पहचान के लिए हैं । इन नामों के माध्यम से हम उन आत्माओं को वन्दन करते हैं जिन्होंने परमात्म स्वरूप को प्राप्त किया । इन नामों के और भी बहुत व्यक्ति हो सकते हैं, किन्तु हमारा उनसे कोई सम्बन्ध नहीं । सम्बन्ध है तो मात्र आत्मगुणों में स्थित ऋषभादि महापुरुषों से । आचार्यों ने तो यहां तक लिखा है" हमारा महावीर नाम से राग नहीं है, न कपिल आदि अन्य मुनियों से तनिक रोष । जो सत्य मार्ग के उपदेष्टा हैं व जो राग-द्वेषमुक्त हैं वे सभी हमारे लिए वन्दनीय हैं । जैसे फल के साथ छिलका जुड़ा रहता है वैसे ही हर आत्मा के साथ कोई न कोई नाम व रूप जुड़ा होता है । पूजा गुण युक्त आत्मा की होती है, किसी नाम या रूप की नहीं । नाम व रूप तो उस आत्मा की स्मृति व पहचान के माध्यम हैं ।
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