Book Title: Bat Bat me Bodh
Author(s): Vijaymuni Shastri
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 156
________________ नयवाद १४३ पर्यायवाची होने पर भी भिन्न-भिन्न अर्थो के द्योतक हैं । एक कवि, मेधावी या विद्वान हो जरूरी नहीं। किशोर-शब्द नय और समभिरूढ़ नय में क्या अन्तर है ? महावीर प्रसाद-शब्द नय निरुक्त का भेद होने पर भी अर्थ भेद नहीं मानता, समभिरूढ़ उनमें अर्थ भेद करता है, यही इनका अन्तर है । सातवां नय और अधिक गहराई में जाता है। इसका नाम है- एवं भूत नय । शब्द का अपनी अर्थ क्रिया में परिणत होना एवं भूतनय का विषय है। एक साधु तपस्वी. है किन्तु तपस्या करता है तभी वह तपस्वी है, भिक्षा करता है उस समय एवं भूतनय उसे तपस्वी नहीं कहता, भिक्षु कहेगा। इसके अनुसार वस्तु तभी परिपूर्ण है जब वह अपने गुण से युक्त व अपनी क्रिया में प्रवृत्त हो। किशोर-समभिरूढ़ और एवंभूत में क्या अन्तर है ? महावीर प्रसाद--अन्तर तो बहुत स्पष्ट है। समभिरूढ़ नय शब्द गत क्रिया में अप्रवृत्त को भी तपस्वी, भिक्षु आदि शब्दों से पुकारता है, एवंभूतनय को यह मान्य नहीं है। इन सातो नयों में प्रारम्भिक नय विस्तृत और स्थूल विषय वाले हैं और आगे के नय क्रमशः संक्षिप्त और सूक्ष्म विषय वाले हैं । नेगम नय का विषय सव-असत् दोनों तरह के पदार्थ हैं। संग्रह नय केवल सत् पदार्थ पर विचार करता है। व्यवहार नय संग्रह द्वारा प्रतिपाद्य विषय को भी खण्ड-खण्ड करके विचार करता है । ऋजुसूत्रनय केवल वर्तमान पर्याय पर विचार करता है। शब्द नय लिङ्गादि के भेद से शब्द के अर्थ में अन्तर देखता है। समभिरूढ़ नय लिङ्गादि एक होने पर भी एकार्थक शब्दों में अर्थ भेद से भिन्नता करता है और एवंभूत नय वाच्यार्थं में परिणत शब्द को ही स्वीकार करता है । किशोर-आपने जिन सात नयों का विवेचन किया उन सबका अभिप्राय भिन्न-भिन्न है। क्या इनमें परस्पर विरोध उत्पन्न नहीं होता ! महावीर प्रसाद-अभिप्राय भिन्न होने पर भी इनमें परस्पर विरोध नहीं होता क्योंकि ये सब परस्पर सापेक्ष हैं। एकान्तिक आग्रह इनमें नहीं है। अगर आग्रहभाव हो तो नय दुनय बन जाए। वैचारिक आग्रह को लेकर जहां अनेक धर्म-दर्शनों की उत्पत्ति हुई वहां जैन दर्शन में तत्त्ववोध कीये विविध दृष्टियां मान्य होने से कहीं कोई विरोध का स्वर नहीं उभरा। हर पदार्थ में भेद और अभेद, अस्तित्व और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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