Book Title: Bat Bat me Bodh
Author(s): Vijaymuni Shastri
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 168
________________ जातिवाद की अतात्त्विकता मनोहर-क्या जानकारी की ? चन्दू-दोनों लड़के आपकी ही स्कूल के कक्षा १० के विद्यार्थी है जी। माता, पिता, भाई, बहिन व घर के बारे में भी आप पूछे तो बताऊ जी। मनोहर-बस रहने दे, नहीं पूछना कुछ भी, जा उनको अन्दर ले आ। चन्दू-अभी लाता हूँ जी। (दोनों लड़कों का अन्दर प्रवेश) दोनो लड़के-प्रणाम, सर ! मनोहर-आओ, बैठो। नंद-अभी आप कोई पाठ कर रहे थे क्या ? मनोहर-नहीं, नहीं, मैं तो धर्म युग पत्रिका पढ़ रहा था। इसमें एक निबन्ध का शीर्षक है-“जात पांत पछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि को होई” मुझे बड़ी अच्छी लगी ये पंक्तियां। बस इनको ही गुनगुना रहा था। नंद-इन पंक्तियों का अर्थ क्या है ? मनोहर-सीधा-सा अर्थ है। भगवान के दरबार में कौन किस जाति का है, ___ यह पछा नहीं जाता। जो प्रभु को शुद्ध मन से भजता है वही भगवान को प्यारा है। नंद-भगवान के दरबार में भले ही कोई न पूछे, हमारी इस दुनिया में तो जाति पर पहले ध्यान दिया जाता है । मनोहर-ये जातियां तो सामाजिक व्यवस्था मात्र है। समाज के ढांचे को सुसंगठित बनाए रखने के लिए मुख्य रूप से चार अपेक्षाएं होती है-पहली ज्ञान और आचरण की शक्ति, दूसरी सुरक्षा की व्यवस्था, तीसरी कृषि व व्यापार की क्षमता और चौथी सेवा भावना। इन चार अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार जातियों का निर्माण हुआ। कालांतर में इन जातियों के अलावा भी अपने-अपने कर्म के अनुसार अन्य अनेकानेक जातियों का विकास हुआ। इन जातियों में जिने जाति के लोगों के व्यवहार, क्रिया कलाप व खान-पान शुद्ध थे वे उन्नत जातियां कहलायी। और जिनका व्यवहार अशिष्ट व खान-पान अशुद्ध था वे नीची जातियां कहलायी। जैन दर्शन का मन्तव्य है कि जाति जन्मना न होकर कर्मणा होनी चाहिए क्योंकि व्यक्ति की सही पहचान उसकी भाषा, व्यवहार व खान-पान आदि लक्षणों से होती है न कि जाति से। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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