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नमस्कार महामंत्र
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( कर्म मात्र ) जिनका नष्ट हो गया, सभी आवरण जिनके छूट गए, व अपने चिन्मय स्वरूप में जो विराजमान हैं ।
तपन - सिद्ध कहाँ रहते हैं मुनिवर !
मुनिमतिधर - कर्मों का भोग जिनका बाकी है वे ही संसार में रहते हैं । सिद्धों के इस संसार में रहने का कोई कारण नहीं रहा । वे चिन्मय स्वरूप आत्माएँ मोक्ष में अवस्थित रहती हैं ।
तीसरे पद में आचार्यों को नमस्कार किया गया है। आचार्य अरहन्तों की अनुपस्थिति में धर्म - शासन के एक मात्र अधिकारी होते हैं । वे आचार धर्म का दृढ़ता से पालन करते हैं और शिष्य - शिष्याओं को भी आचार पालन की प्रेरणा देते हैं ।
चौथे पद में उपाध्यायों को नमस्कार किया गया है। उपाध्याय उनको कहते हैं जिनका ज्ञान सागर की तरह विशाल होता है, जो धर्म संघ में श्रुत की परम्परा को विकसित करते हैं । पांचवें पद में साधुओं को नमस्कार किया गया है । साधु वे होते है ओ संयम की साधना में तत्पर रहते हैं । आचार्य के अनुशासन को श्रद्धा से स्वीकार करते हैं । जागरुक रहते हुए धर्म की अखण्ड आराधना करने का प्रयास करते हैं । दुनिया में इस तरह का यह प्रथम मंत्र है जिसमें सभी विशिष्ट आत्माओं का समावेश हो जाता है। इसके पीछे जैन धर्म की उदार दृष्टि है। इसमें गुण की महिमा बताई गई है, व्यक्ति विशेष की नहीं । तपन - एक प्रश्न मेरे मन को कुरेद रहा है कि यह मंत्र शब्दों का समूह ही तो है फिर इसका अतिरिक्त प्रभाव क्या हो सकता है ?
सुनि मतिधर - तुम शब्द की शक्ति से परिचित नहीं हो शिष्य ! स्वामी विवेकानन्द के जीवन का एक प्रसंग है, सुनी । जब वे विदेश यात्रा पर थे, एक जगह उन्होंने शब्द की शक्ति पर प्रवचन दिया । भीड़ में से एक व्यक्ति उनके पास आकर बोलामहात्माजी ! शब्द की ताकत पर आपने बड़ा वर्णन किया पर मेरी समझ में कुछ नहीं आया ।
तपन - फिर उन्होंने क्या किया ?
मुनि मतिधर - विवेकानन्द ने अपना तेवर बदलते हुए उस व्यक्ति से कहा
बेवकूफ ! इतनी छोटी-सी बात भी समझ में नहीं आई, बड़े मूर्ख हो ! सामने वाला व्यक्ति गुस्से में आ गया और स्वामीजी को गालियां
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