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बात-बात में बोध
जिसमें चैतन्य न हो, जानने व सुख-दुःख के संवेदन की प्रवृत्ति न हो वह अजीव है। इसके मुख्य भेद पांच है-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशा स्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय । जब हम लोक स्थिति का वर्णन करते हैं तो जीवास्तिकाय जिसका विवेचन प्रथम तत्त्व के रूप में कर दिया गया है, साथ में और जोड़ देते हैं । ये षड् द्रव्य भी कहलाते हैं । द्रव्य शब्द का प्रयोग अन्य धर्म-दर्शनों में व विज्ञान जगत में भी हुआ है । अस्तिकाय शब्द जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ है, प्रदेश-समूह। ये पांचों द्रव्य जीव व जगत के उपकारी है । · जैसे- धर्मास्तिकाय चलने में व अधर्मास्तिकाय ठहरने
में सहयोगी है। कमल-वात समझ में नहीं आई। चलने व ठहरने में वृद्ध, बीमार या छोटे
बच्चे को तो सहारे की जरूरत रहती है पर क्या प्राणी मात्र को
धर्मा स्तिकाय व अधर्मास्तिकाय का सहारा जरूरी है ? मुनिराज-- गति, स्थति चाहे प्राणी की हो चाहे जड़ पुद्गल की, इन तत्त्वों
का सहारा लेना जरूरी है । जैसे–मछलियां अपनी ताकत से चलती हैं पर जल को उनको सहारा है । गाड़ी अपनी ऊर्जा से चलती है पर चना पटरी के गति सम्भव नहीं है। उड़ते हुए पक्षी के लिए वृक्ष ठहरने में निमित्ति बनता है। यद्यपि रुकने की प्रक्रिया में पक्षी स्वतंत्र है फिर भी वृक्ष उसमें सहयोगी बनता है। वैसे ही चेतन व अचेतन पदार्थों में गतिस्थिति स्वसापेक्ष होते हुए भी धर्मास्तिकाय अधर्मास्ति
काय का सहयोग अनिवार्य है। विमल-क्या आकाशास्तिकाय के अलावा अन्य द्रव्य भी लोक व अलोक दोनों
में व्याप्त है ? मुनिराज- शेष पांच द्रव्यों में काल को छोड़कर चार द्रव्य लोक परिमाण हैं
और व्यवहारिक काल जो सूर्य व चन्द्रमा की गति से सम्बन्ध रखता
है वह सिर्फ मनुष्य लोक में है। विमल-लोक-अलोकव्या आकाश को क्या असीम कहा जा सकता है ? मुनिराज-अलोकाकाश को असीम कहा जा सकता है, लोकाकाश को नहीं।
जहां तक जीव व पुद्गल की गति है वहीं तक लोकाकाश है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्सटीन द्वारा की हुई लोक- अलोक की व्याख्या जेन दर्शन से काफी सामञ्जस्य रखती है। उन्होंने बताया-"लोक परिमित है, लोक से परे अलोक अपरिमित है । लोक के परिमित होने का कारण यह है कि द्रव्य अथवा शक्ति लोक के बाहर नहीं जा
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