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नौ तत्त्व, षड्द्रव्य
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एक ही प्रकार का योग बन्धन व निर्जरा दोनों काम करता है। योगों की प्रवृत्ति के पीछे दो कारण है जिनसे दो कार्य निष्पन्न होते हैं । पहला - मोहनीय कर्म का उपशम, क्षय, क्षयोपशम जो कि कर्म तोड़ने में निमित्तभूत है, दूसरा - नाम कर्म का उदय भाव जो कि बन्धन का निमित्तभूत है ।
-बन्धन और निर्जरा साथ-साथ होगी फिर तो जीव की मुक्ति होना कभी संभव ही नहीं ।
कमल
सुनिराज - कषाय जैसे जैसे क्षीण होने लगता है बन्धन भी वैसे वैसे स्वल्प होने लगता है, अशुभ योग का अस्तित्व फिर रहता नहीं, मात्र शुभ योग की प्रवृत्ति होती है, उसमें भी आत्मा की उज्ज्वलता ज्यादा होती है, बन्धन बहुत स्वल्प होता है । बालू की रजों की तरह कर्म स्पश मात्र करते हैं पर टिक नहीं पाते हैं । एक अवस्था ऐसी भी आती है जब व्यक्ति सम्पूर्णतया कर्ममुक्त हो जाता है ।
आस्रव के पन्द्रह भेद और किए जाते हैं जो योग आस्रव के अवान्तर भेद हैं
ELIZA
१. प्राणातिपात आसव २. मृषावाद आस्रव ३. अदत्तादान आखव ४. मैथुन आलव ५० परिग्रह आस्रव ६० श्रोत्रेन्द्रिय आस्रव ७. चक्षु इन्द्रिय आव८. घ्राणेन्द्रिय आस्रव ६. रसनेन्द्रिय आस्रव १०. स्पर्शनेन्द्रिय आव ११. मन आस्रव १२, वचन आस्रव १३. काय आस्रव १४. भण्डोपकरण आस्रव १५. शुचिकुशाग्र मात्र आस्रव । कमल-भण्डोपकरण व शुचि कुशाग्रमात्र आस्रव के अर्थ को समझाने की कृपा
करें ।
मुनिराज - पहला है - वस्त्र, पात्र आदि को यत्न से न रखने रूप। दूसरा है- - स्वल्प मात्र भी दोष सेवन प्रवृत्ति रूप ।
तत्त्व है संवर | कर्मों का निरोध करने वाली आत्मा की प्रवृत्ति संवर है । संवर, आस्रव तत्त्व का प्रतिपक्षी है । आस्रव की तरह संवर के भी २० भेद हैं ।
१. सम्यक्त्व संवर २. व्रत संवर ३ अप्रमाद संवर ४. अकषाय संवर ५. अयोग संवर |
इनमें पहले दो संवर त्याग करने से होते हैं । अप्रमाद आदि तीन तपस्या व साधना के द्वारा प्राप्त उज्ज्वलता से निष्पन्न होते हैं। I मुख्य भेद ये पांच ही हैं। शेष पन्द्रह भेद व्रत संवर के अन्तर्गत आ जाते हैं । वे ये हैं- प्राणातिपात विरमण ७. मृषावाद विरमण
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