Book Title: Bat Bat me Bodh
Author(s): Vijaymuni Shastri
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 113
________________ बात-बात में बोध मुनि-विषय थोड़ा गहरा होता जा रहा है, तुमलोग ध्यान से सुनना । जैसा पहले बताया जा चुका है कि मोहनीय कर्म की सात प्रकृतियों के उपशम, क्षय या क्षयोपशम होने से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। सम्यक्त्व प्राप्त होने पर भी उस जीव में अप्रत्याख्यानी कषाय चतुष्क का प्रबल उदय रहता है । इसी कारण उस व्यक्ति में त्याग की भावना पैदा नहीं होती है। कमल-मुनिवर ! अभी आपने उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम शब्दों का प्रयोग किया था, इनका क्या अर्थ है ? मुनि-विषय फिर लम्बा हो रहा है । देखो, जीव में पांच भाव पाये जाते हैं । १. औदयिक २. औपशमिक ३. क्षायिक ४. क्षायोपशमिक ५. पारिणामिक । कमों के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम से होने वाली आत्मा की अवस्था औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक कहलाती है । इन पांच भावों से होने वाली आत्म परिणति पारिणामिक भाव है। १. उदय-कर्मों की अनुभूति को उदय कहते हैं। २. उपशम-उदय शृखला में प्रविष्ट मोह कर्म का क्षय हो जाने पर शेष मोह कर्म का सर्वथा अनुदय होने की अवस्था को उपशम कहते हैं। ३. क्षय-कर्मों का समूल नाश होना क्षय है। ४. क्षयोपशम - उदयावलि में प्रविष्ट धाति कर्म का क्षय और उदय में न आये घाति कर्म का उपशम यानी विपाक रूप में उदय न होना क्षयोपशम है। ५. परिणाम-अपने-अपने स्वभाव में परिणत होने को परिणाम कहते है । उदय आदि अजीव हैं, औदयिक आदि पांच भाव जीव है। ये पांच भाव जीव का मूल स्वरूप है। कमल-बड़ी कृपा की। अब अप्रत्याख्यानी कषाय चतुष्क का अर्थ भी स्पष्ट कराव मुनिवर ! मुनि-कषाय चतुष्क का अर्थ है-क्रोध, मान, माया, लोभ । अप्रत्याख्यानी क्रोध की भूमि की रेखा से, मान की अस्थि के स्तम्भ से, माया की मैढे के सींग से, लोभ की कीचड़ के रंग से तुलना की जा सकती है। दूसरे शब्दों में कषाय की ऐसी ग्रन्थि जो चार मास तक भी म खुले । इस स्थिति के कारण व्यक्ति जानता हुआ भी, त्याग और धर्म की अच्छा समझता हुआ भी उस दिशा में कभी प्रवृत्त नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178