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बात-बात में बोध
अनुपम-नहीं, नहीं इन निन्दनीय कार्यों में ईश्वर की इच्छा या प्रेरणा कभी
हो ही नहीं सकती। जवाहर-तुम निन्दनीय कार्यों के लिए व्यक्ति को जिम्मेदार ठहराते हो और
अच्छे कामों का श्रेय ईश्वर को देना चाहते हो, यह तो पक्षपात है, तर्क संगत भी नहीं है। सही तो है कि अच्छे और बुरे दोनों तरह के कार्य करने में व्यक्ति स्वतन्त्र है । वह ईश्वर की इच्छा का वशवर्ती नहीं है और न ही वह किसी परम सत्ता के हाथ का खिलौना है । ईश्वर की मर्जी मानकर चलने वाले व्यावहारिक जीवन में बड़ी परेशानी का अनुभव करते हैं। ईश्वरीय गलत धारणा से व्यक्ति हर कार्य को ईश्वर की मर्जी कहकर टालना चाहता है, स्वयं पर किसी प्रकार की कार्य को जिम्मेवारी लेना नहीं चाहता। एक व्यक्ति ने दर्जी को कोट सीने के लिए कपड़ा दिया। तीन दिन में कोट सीलकर देने का दर्जी ने वायदा किया। तीसरे दिन व्यक्ति कोट लेने आया तो उसे निराश होकर लौटना पड़ा। दो-तीन बार चकर उसने फिर लगाये पर कोट तो अभी भी नहीं सिला गया। दर्जी से व्यक्ति ने पूछा कि कोट कब तक सीलकर दे दोगे। दर्जी ने कहा-जिस दिन ईश्वर की मर्जी होगी उस दिन दे दूंगा। वह व्यक्ति वापस कुछ नहीं बोलकर दर्जी के पैसों का गल्ला. उठाकर चलता बना। दी चिल्लाया-मुर्ख ! दिन दहाड़े डाका डाल रहा है। उस व्यक्ति ने कहा-मैं क्या करूं? ईश्वर की ऐसी ही मजीं है। यह क्या मखोल है ? अभी पुलिस को बुलाकर हथकड़ियाँ डलवाता हूं, दजी मलाकर बोला। अब वह व्यक्ति भी तत्काल बोल पड़ा-तुम फिर कोट सीलने में क्यों ईश्वर की मर्जी को बीच में लाते हो? साफ कहोतुम्हारी क्या मर्जी है ? किस दिन दोगे मेरा कोट ? दर्जी लोगों में मजाक का पात्र बन गया। उसने दूसरे ही दिन कोट सीलकर उसके घर पहुंचा दिया। व्यक्ति स्वयं है अपनी मर्जी का मालिक। ईश्वर को बीच में घसीटने
की कोई जरूरत नहीं है। अनुपम --आप तो ईश्वर का खण्डन किए जा रहे है । पर उस परम पिता
ईश्वर के बिना इस संसार की रचना किस ने की! वही तो इस
संसौर का कर्ता, भर्ती और संहता है। जवाहर-कितनी गलत धारणाएं अपने दिमाग में बना रखी है। यह संसार
सदा था, है और रहेगा। न इसको किसी ने बनाया और न कोई
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