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बात बात में बोध
है । पूर्व भव के द्वेषी यक्ष ने उसे अपने स्वीकृत लक्ष्य से च्युत करने के लिए नाना प्रकार के कष्ट दिए । उपसर्ग उत्पन्न करने में उसने कमी नहीं रखी पर उस दिव्य आत्मा ने भी सहनशीलता रखने में हद कर दी। आखिर उस आसुरी शक्ति को उसके सामने झुकना पड़ा। सहयोग और असहयोग दोनों ही प्रकार की घटनाएं पुनर्जन्म व
आत्मा की कालिकता को सिद्ध करती है । महेन्द्र-मुनिवर ! आत्मा अगर एक भव से दूसरे भव में जाती है तो हम
उसको जाते हुए देख क्यों नहीं पाते ! मुनिराज-आत्मा अन्य पदार्थों की तरह आकार वाली नहीं है जो दिखाई दे।
बहुत सारी वस्तुएं ऐसी हैं जो दिखाई नहीं देतीं पर उनकी वास्तविकता को झुठलाया नहीं जा सकता। फूल जब मुरझाता है तब धीरे धीरे वह गन्धहीन हो जाता है, कोई कहे उसकी सुगन्ध बाहर निकलते हुए तो दिखाई नहीं देती तो हंसी ही आयेगी। कोई कहे बहती हुई हवा नजर क्यों नही आती तो यह प्रश्न उचित नहीं होगा। दिन के प्रकाश में चांद, तारे व नक्षत्र दिखाई नहीं देते पर उनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता इसी प्रकार आत्मा के गमन-आगमन को नहीं
देखने से पूर्वजन्म को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। महेन्द्र-आपकी युक्तिपूर्ण बातें मेरे समझ में आ रही है फिर भी एक प्रश्न तो
अब भी शेष रह गया है। मैंने पहले कभी आप जैसे मुनियों से ही सुना था कि आत्मा अजर अमर है, न कभी यह जन्म लेती है, न कभी यह मरती है, न कभी जलती है और न कभी शस्त्रों से कटती है।
ऐसी आत्मा जो न जन्मे, न मरे उसका पुनर्जन्म कैसे हो सकता है ? मुनिराज-इसको भी समझो। आत्मा के दो रूप हैं-एक है द्रव्य आत्मा
यानी आत्मा का मूल रूप, सच्चिदानन्दमय स्वरूप। दूसरा है-भाव आत्मा यानी आत्मा की विविध अवस्थाएं। आत्मा एक शरीर को छोड़ दूसरे शरीर को अपना लेती है फिर किसी नये शरीर को। यह क्रम सतत चालू रहता है। इस तरह आत्मा की उत्तरवर्ती अवस्थायें बदलती रहती हैं किन्तु मूल आत्मा के स्वरूप में कहीं कोई अन्तर
नहीं आता। महेन्द्र-मुनिवर ! यह बताने की कृपा करें कि क्या भारतीय दार्शनिकों के
अलावा पाश्चात्त्य दार्शनिक भी पुनजन्म को मान्यता देते हैं ! मुनिवर-न केवल भारतीय दार्शनिक अपितु पाश्चात्त्य दार्शनिक भी इस
विषय में अपनी स्वीकृति प्रदान करते हैं। विद्वान दार्शनिक प्लेटो ने
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