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गुणस्थान
कमल-हम आपको सुनने के लिए ही आये है, मुनिराज ! मुनिवर-मैं तुम्हारी जिज्ञासा को समाहित करने के लिए गुणस्थान के बारे
___ में थोड़ा विस्तार से बताना चाहूँगा। विमल-कृपा करावें। मुनिराज-आत्म विकास की चौदह श्रेणियां हैं। इनको जैन दर्शन में चौदह
गुणस्थान के नाम से पुकारा जाता है। इनके लिए एक और शब्द
का प्रयोग भी होता है-वह है जीवस्थान । विमल-गुणस्थान शब्द से क्या तात्पर्य है ? मुनिराज-आत्म विशुद्धि की तरतमता को जैन दर्शन में गुणस्थान कहा
गया है। कमल-इन चौदह श्रेणियों को बनाने के पीछे आधार क्या है ? मनिवर-कर्मों का हल्कापन व भारीपन, साथ ही पांच आश्रवों की न्यूनाधि
कता गुणस्थानों का आधार है। भारी कर्म वाले व पांच आश्रवों का सेवन करने वाले जीवों की आत्मा अत्यधिक मलिन होती है । हल्के कम वाले व पांच आश्रवों का निरोध करने वाले जीवों की आत्मा उत्तरोत्तर विशुद्ध अवस्था को प्राप्त होती है। आत्म शुद्धि के अनुरूप ही जीव गुणस्थानों में क्रमशः ऊवारोहण करता रहता है। आत्म शुद्धि की सबसे अधिक न्यूनता प्रथम गुणस्थान में है और विशुद्धि की प्रकृष्टता चौदहवें गुणस्थान में है। प्रथम गुणस्थान का नाम है-१. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान-तत्त्वों में जिसकी दृष्टि विपरीत है वह व्यक्ति मिथ्यादृष्टि कहलाता है। मिथ्यारष्टि के आत्मगुणों को मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहते हैं । इस गुणस्थान के अधिकारी व्यक्ति में
मोह कर्म का क्षयोपशम बहुत कम होता है। कमल-क्या मिथ्यादृष्टि व्यक्ति में भी आत्मगुणों का विकास हो सकता है ? मुनिवर-अवश्य हो सकता है। उसमें भी विकास की संभावना विद्यमान है
और सही समझ पाई जाती है। अविकसित चेतना वाले जीवों में अव्यक्त रूप से सही समझ मानी गई है। मिथ्याइष्टि व्यक्ति आत्मा, परमात्मा, बन्धन व मोक्ष के बारे में विपरीत आस्था रख सकता है । किन्तु गाय को गाय समझता है, इसी तरह बहुत सारी बातों को सही समझता है। उसमें भी ज्ञानावरणीय कम का अच्छा क्षयोपशम हो सकता है। कई मिथ्यादष्टि ऐसे भी हैं जो प्रेम, मैत्री, क्षमा, सत्य, ऋजुता आदि को अच्छा समझते हैं। इसी आधार पर उनको प्रथम
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