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बात-बात में बोध
रमेश निराकार स्वरूप को इन चम चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता और न
किसी वैज्ञानिक उपकरण के सहारे भी। ज्ञान नेत्र उद्घाटित होने पर ही उसे जाना/देखा जा सकता है। भगवान ने उस अवस्था का वर्णन करते हुए बताया है“सम्वे सरा णियति, तक्का जत्थण विज्जई, मई तत्थ ण गाहिया।" सब स्वर जहां से लौट आते हैं, तक की जहां तक पहुंच नहीं है और बुद्धि का जो विषय नहीं है ऐसी उस अवस्था को केवल अनुभव ही किया जा सकता है । पहाड़ की तलहटी में खड़ा व्यक्ति पहाड़ पर क्या दृश्य है, जान नहीं सकता । ऊपर चढ़कर ही वह उन नयनाभिराम दृश्यों को देख सकता है । वैसे ही आत्मा के स्वरूप को ज्ञान के
शिखर पर आरूढ़ होकर ही जाना जा सकता है। राजेश-तुम ज्ञान के जिस शिखर पर आरूढ़ होने की बात कह रहे हो वह तो
कुछेक योगियों के लिए ही संभव है पर आधुनिक विज्ञान की पहुँच
तो सर्वत्र हैं, क्या विज्ञान द्वारा आत्मा का अस्तित्व स्वीकृत है ? रमेश-विज्ञान इस विषय में एक मत नहीं है। जैन दर्शन सम्मत आत्मस्वरूप
को वह भले नहीं मानता हो पर जीवन के आधारभूत सूक्ष्मतत्त्व को वह अवश्य स्वीकार करता है। शरीर और इन्द्रियों से आगे भी कोई एक ऐसी महाशक्ति है जो हर प्राणी में विद्यमान है । कुछ वैज्ञानिकों ने आत्मा को सिद्ध करने का प्रयत्न भी किया है। अमेरिका के डॉ. विलियम मैकडूगल ने एक ऐसी मशीन का निर्माण किया जो ग्राम के हजारवें भाग तक को बता सके। उन्होंने उस मशीन को मरणासन्न व्यक्ति से जोड़ दिया। वह रोगी जब तक जीवित रहा, मशीन की सुई एक बिन्दु पर स्थिर थी, ज्यों ही रोगी के प्राण निकले, सुई उस बिन्दु से पीछे हट गई। मरने के साथ ही रोगी का वजन आधा छटांक घट गया। मैकडूगल ने और भी ऐसे प्रयोग किये और वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि जीवन का आधारभूत तत्त्व अतिसूक्ष्म है और उसका निश्चित वजन भी है। स्वीडिश के एक वैज्ञानिक डॉ. नेल्स जैकबसन ने भी इसी तरह का प्रयोग किया। उसने मरणोन्मुख व्यक्ति को अत्यधिक संवेदनशील तराजू पर लेटा दिया, जैसे ही उसकी मृत्यु हुई तराजू की सुई २१ ग्राम पीछे चली गई। डॉ० जैकबसन ने बताया-मरते समय शरीर
से एक तत्त्व निकलता है जो भारयुक्त होता है और वही आत्मा है। राजेश-क्या जैन दर्शन भी आत्मा को भारयुक्त मानता है ?
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