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यात्मवाद
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रमेश-तीर्थंकरों ने आत्मा के लिए कहा है---"अरूवी सत्ता" उस आत्मा का
कोई रूप/आकार नहीं है। अमूर्त पदार्थ का कोई वजेन नहीं होता । यह शुद्ध अवस्था की दृष्टि से प्रतिपादन किया गया है। विज्ञान के मंतव्य को जैन दर्शन सांसारिक आत्मा की दृष्टि से स्वीकार करता है। संसारी आत्मा शुद्ध नहीं होती, वह सदा शरीर के साथ जुड़ी रहती हैं। स्थूल शरीर समाप्त होने पर भी तेजस और कार्मण ये दो अतिसूक्ष्म शरीर सदा साथ में रहते हैं। मृत्यु होने पर भी इन दो शरीरों से सम्बन्ध नहीं छुटता। इसीलिए संसारी आत्मा को किसी दृष्टिसे मूर्त / आकारवान कहा गया है । इस दृष्टि से विज्ञान की खोजों
के साथ जेन दर्शन का सामञ्जस्य स्थापित किया जा सकता है। सुरेश-वह महाशक्ति जिसे जैन दर्शन आत्मा कहता है और वैज्ञानिकों ने भी
जिसे किसी रूप में स्वीकार किया है, क्या उसका उत्पादन मस्तिष्क
से नहीं होता है ! रमेश-वैज्ञानिकों ने इसकी भी खोज की है। रूस के एक वैज्ञानिक ने कुत्ते
पर प्रयोग किया। उसने कुत्ते के मस्तिष्क को निकाल दिया, फलस्वरूप वह जड़वत हो गया। तदनन्तर कुत्ते को होश नहीं रहा, न वह मालिक को पहचान सका और न सामने भोजन रखने पर भी उसने तनिक ध्यान दिया। इंजेक्शनों के द्वारा उसे पोषक तत्त्व दिये
जाते। सुरेश-इस प्रयोग से मेरे तक की हो पुष्टि होती है मित्र ! रमेश-इसको गहराई से समझने का प्रयास करो। उस महाशक्ति या चेतना
का उत्पादक मस्तिष्क नहीं हो सकता क्योंकि मस्तिष्क निकालने के बाद भी कुत्ते में चेतना के लक्षण विद्यमान थे वह, जीवित रहा। शारीरिक, मानसिक स्थूल क्रियाएँ बंद हो जाने पर भी सूक्ष्म क्रियाएँ जेसे रक्तसंचरण, श्वासोच्छ्वास की क्रिया, शारीरिक पोषण बराबर चल रहा था। संसार में इस तरह के अगणित प्राणधारी हैं जिनके मस्तिष्क है ही नहीं लेकिन वे चेतनायुक्त है। वनस्पति में जीवत्व है पर उसमें दिमाग नहीं है। एक पागल आदमी का मस्तिष्क निष्क्रिय हो जाता है तो भी उसमें चेतना विद्यमान रहती है। इसलिए मस्तिष्क को चेतना का उत्पादक या आत्मा का स्थान नहीं कहा जा सकता। वह मानसिक चेष्टाओं व स्मृति का साधन मात्र है। चेतना आत्मा का स्वभाव है और वह शरीर में सर्वत्र व्याप्त है । निराकार होने से उस शुद्ध अवस्था
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