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बात-बात में बोध
मुनिराज-चाहे किसी तरीके से आना हुआ, तुम यहां आए अच्छी बात है।
अब बताओ-क्या त्याग, तपस्या व साधना तुम्हारी दृष्टि में
बेकार है ? महेन्द्र --हां, मेरा ऐसा ही मानना है । मुनिराज-इसके पीछे तुम्हारा क्या चिन्तन है ? महेन्द्र-मेरी दृष्टि में मनुष्य का यह शरीर सुख भोगने के लिये है दुःख पाने
के लिये नहीं, खाने को सब मिलता है, फिर क्यों उपवास करें, मनोरंजन के प्रचुर साधन हैं फिर क्यों संयम व साधना करें। परलोक सुधारने की आशा में इस जीवन को क्यों खराब करें। फिर किसने
देखा है परलोक को। मुनिराज-प्राप्त पदार्थों को छोड़ना क्या दुःखों को निमन्त्रण देना है ? महेन्द्र-इसके अतिरिक्त क्या कहा जा सकता है ? पदार्थ को भोगने का सुख
प्रत्यक्ष और अनुभवगम्य है, उसे कैसे नकारा जा सकता है। मुनिराज--तब तो दुनिया में सबसे अधिक अभागे हम हैं जिन्होंने सब कुछ
त्यागकर अकिञ्चनता का रास्ता स्वीकार किया है। महेन्द्र-अभागा तो क्यों कहूँ! किन्तु इतना अवश्य कहूँगा कि आपने अपने
सौभाग्य को ठुकराकर अच्छा नहीं किया। मुनिराज-महेन्द्र ! तुम अपनी बात को बुद्धि के तराजू से तोल रहे हो, पर अनु
भव के क्षेत्र में उतरे बिना सच्चाई को नहीं समझ सकते । किनारे पर
खड़े रहने वाला क्या सागर की गहराई का अन्दाज लगा सकता है ! महेन्द्र-सूर्य के प्रकाश की भांति जो साफ है उसे केसे झुठलाया जा सकता है। मुनिराज-तुमको अभी काच और हीरे की पहचान नहीं है। तभी ऐसी बात
कह रहे हो। जिस दिन सही पहचान हो जायेगी उस दिन तुम भी त्याग को बुरा नहीं कहोगे। मेरा अनुभव तो यह है कि संसार के सब सुखों से भी अधिक त्याग का सुख है, स्वर्ग के सुख भी उसके सम्मुख
फीके पड़ जाते है। महेन्द्र-स्वर्ग के सुख और नरक के दुःख केवल मन्दबुद्धि लोगों को इहलौकिक
सुखों से वञ्चित रखने के लिए बताये जाते हैं। किसने देखा है स्वर्गनरक को। गोदवाले को छोड़कर पेटवाले की आशा करने की तरह प्राप्त सुखों को छोड़कर अप्राप्त सुखों के लिए वर्तमान जीवन में कष्ट
क्यों उठायें। मुनिराज-महेन्द्र ! ये ज्ञानियों के वचन है इनमें सन्देह के लिए कहीं अवकाश
नहीं। वे ज्ञानी जो प्राणीमात्र के कल्याण की भावना रखते है, जो
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