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बात-बात में बोध
देखने में आँख असमर्थ रहती है । फिर आत्मा तो निराकार ( आकाररहित ) है । बुद्धिगम्य नहीं, अनुभूतिगभ्य है ।
राजेश - जो निराकार है वह अदृश्य है और जो अनुभूतिगम्य है वह बुद्धि की पहुंच से परे है, ऐसे में आत्मा पर विश्वास कैसे किया जा सकता है ? रमेश - बहुत सारे पदार्थ ऐसे हैं जिनकी दृश्य जगत् में कोई सत्ता नहीं है, जो आकाररहित हैं और ऐसे भी हैं जो व्यक्ति की समझ से परे हैं केवल अनुभूतिगम्य ही हैं फिर भी उनको इन्कार नहीं किया जा सकता । अपने प्रिय मित्र का मिलना और बिछुड़ना व्यक्ति के हर्ष और विषाद का कारण बनता है, कोई कहे, उस खुशी और मायूसी को हाथ में लेकर दिखाओ तो क्या दिखाया जा सकता है ? किसी को रात में कोई सुन्दर स्वप्न आता है, कोई कहे उसे प्रत्यक्ष दिखाओ तो क्या यह संभव है ? दिन के प्रकाश में ग्रह, नक्षत्र व तारे सब अदृश्य हो जाते हैं तो क्या वे समाप्त हो जाते हैं ? अतीत में होने वाले दादा, पड़दादा आज हमारे सामने नहीं हैं किन्तु उनका होना असंदिग्ध है । ऐसे और भी बहुत सारे प्रसंग हैं जिनको ज्ञानी पुरुष साक्षात देख सकते हैं, सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति उनको समझ ही नहीं पाता फिर भी उनको नकारा नहीं जा सकता । अगर नकार दिया जाए तो व्यवहार का ही लोप हो सकता है। इसलिए निराकार और अनुभूति - गम्य होने से आत्मा के अस्तित्व में संदेह नहीं किया जा सकता । सुरेश - एक प्रश्न मेरा भी है रमेश ! तुम आत्मा को निराकार और अनुभव -
गम्य बता रहे हो पर हमारे शरीर का तो एक निश्चित आकार है । इस आकार वाले शरीर में वह निराकार आत्मा कहां रहती है ?
रमेश - एक छोटीसी कहानी से मैं इस बात को समझाऊंगा । एक बादशाह था, जो आत्मा परमात्मा में विश्वास नहीं करता था । उसका वजीर परम आस्तिक था । प्रति दिन कुछ समय धार्मिक उपासना व ईश्वर भक्ति में लगाया करता था । एक दिन बादशाह ने अपने बजीर से कहा - वजीर ! तुम आत्मा में परम विश्वास रखते हो, मुझे बताओ कहां रहती है वह आत्मा ? वजीर के लिए यह प्रश्न अजीब पहेली था । तत्काल उत्तर न दे पाने के कारण वजीर ने तीन दिन का समय मांगा। बादशाह से इजाजत लेकर वजीर अपने घर पर आया । अब वह रात दिन एक ही चिन्तन में खोया रहता कि बादशाह को क्या उत्तर दिया जाए ? उसका लड़का बड़ा होशियार था । अपने पिता को यों गुमशुम देखकर समझ गया कि कोई न कोई
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