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बात-बात में बोध
८.
अदत्तादान विरमण ६. मैथुन विरमण १०. परिग्रह विरमण ११. श्रोत्रे न्द्रिय निग्रह १२. चक्षु इन्द्रिय निग्रह १३. घ्राणेन्द्रिय निग्रह १४. रसनेन्द्रिय निग्रह १५. स्पर्शनेन्द्रिय निग्रह १६. मन निग्रह १७. वचन निग्रह १८८. काय निग्रह १६. भण्डोपकरण रखने में अयतना न करना २०. शचिकुशाग्रमात्र दोष सेवन न करना ।
कमल --- प्राणातिपात आदि आस्रवों को योग आस्रव के भेद बताए गए, वैसे ही प्राणातिप्रात विरमण आदि संवर के भेदों को अयोग संवर के नहीं कहकर व्रत संवर के भेद बताए गए इसका क्या कारण है ? मुनिराज -- इसका कारण है - प्राणातिपात आदि प्रवृत्तियां सब योग रूप हैं । इसीलिए उनको योग आस्रव के भेदों में लिया। अयोग संवर शुभ अशुभ दोनों तरह की प्रवृत्ति का निरोध होने पर घटित होता है । प्राणातिपात आदि प्रवृत्तियों का त्याग करने का अर्थ है अशुभ प्रवृत्ति को छोड़ना । शुभ प्रवृत्ति तो तेरहवें गुणस्थान तक चालू रहती है अतः प्राणातिपात विरमण आदि संवर व्रत संवर के भेद के रूप में लिये गये हैं ।
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की प्रवृत्ति से होने वाली
भेद हैं - १.
कम खाना
सातवां तत्त्व है -- निर्जरा। शुभ योग आत्मा की आंशिक उज्ज्वलता निर्जरा है। इसके १२ अनशन - उपवास आदि तपस्या २. ऊनोदरी - भूख से ३. भिक्षाचरी- नाना प्रकार के अभिग्रहों से अपनी चर्या को संयमित करना, इसका दूसरा नाम वृत्ति संक्षेप भी है ४. रस परि त्याग - दूध, दही आदि विगय का त्याग ५. काय क्लेश- आसनादि के द्वारा शरीर को साधना ६ प्रतिसंलीनता - इन्द्रियों को विषयों से दूर हटाना ८. प्रायश्चित्त- अतिचार विशुद्धि का उपाय ६. विनय - निरभिमानता १०. वैयावृत्त्य - आचार्य, तपस्वी, रुग्ण आदि की सेवा ११. स्वाध्याय - मर्यादापूर्वक सत्साहित्य का अध्ययन १२. ध्यान — एकाग्र चिंतन या योग निरोध १३. व्युत्सर्ग - विसर्जन करना । विसर्जन के कई प्रकार हैं, जैसे - वस्त्र, पात्र, शरीर आदि का विसर्जन । इनमें पहले छः भेद बाह्य तप के हैं और अन्तिम छः भेद आभ्यन्तर तप के हैं ।
कमल -- इन भेदों का आधार क्या है ?
मुनिराज - अनुशन आदि छः निर्जरा के भेद शरीर से ज्यादा सम्बन्ध रखते
है। वे बाहर से दिखाई देने वाले हैं। प्रायश्चित्त आदि छः भेद अन्तर्मन से ज्यादा सम्बन्धित है । लक्ष्य भेद से निर्जरा दो प्रकार की
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