________________
नौ तत्त्व, षड्द्रव्य
लिए की जाती है न कि तड़ी के लिए। वह तो उसके पीछे स्वतः
निष्पन्न हो जाती है। विमल-क्या धर्म और पुण्य में अन्तर है ? मुनिराज-बहुत अन्तर है। धर्म आत्मा की उज्ज्वल प्रवृत्ति है, मुक्ति का
साधन है । पुण्य पौदगलिक है, भौतिक सुख का कारण है और भव भूमण को बढ़ाने वाला है। पुण्य के नो प्रकार हैं--१. अन्न पुण्य २. पान पुण्य ३. स्थान पुण्य ४. शय्या पुण्य ५. वस्त्र पुण्य ६. मन पुण्य ७. वचन पुण्य ८. काय पुण्य ६. नमस्कार पुण्य : वास्तव में ये भेद पुण्य के नहीं, पुण्य के कारणों के हैं। ___ मुनि को अन्न, पानी, स्थान, पाट-बाजोट, वस्त्र का दान करने से
आत्मा उज्ज्वल होती है, कर्मों की अत्यधिक निर्जरा होती है। इनसे जिन पुण्य प्रकृतियों का बंध होता है, उनको क्रम से अन्न पुण्य, पान
पुण्य, स्थान पुण्य, शय्या पुण्य व वस्त्र पुण्य कहते हैं । कमल-पर मुनि को ही देने से पुण्य का बन्ध होता है, ऐसा प्रतिबन्ध क्यों ? मुनिराज-इसके पीछे मुनि के संयम में पोषण देने व उसकी साधना में सह
योगी बनने का भाव प्रमुख है, इसलिए मुनि को ही यहां पात्र बताया
गया है। कमल-क्या दूसरों को देना पुण्य नहीं तो पाप है ! मुनिराज-पाप शब्द नहीं कहकर हम उसे लौकिक दान कह सकते हैं। उसे
हम आध्यात्मिक दान की कोटि में नहीं ले सकते हैं। आगे जो चार पुण्य हैं, वे मन, वचन व काया की सत्प्रवृत्ति और देव, गुरु व धर्म के प्रति नमस्कार से जुड़े हैं। इन क्रियाओं से कर्म निजरा व उसके साथ पुण्य का बन्ध होता है। एक बात यहां और ध्यान रखने की है कि इन सत्प्रवृत्तियों के पीछे जिन कम प्रकृतियों का बन्ध होता है वे जब तक उदय में न आए तब तक द्रव्य पुण्य कहलाते हैं और जब वे कर्म
उदय में आते हैं तब भाव पुण्य कहलाते हैं । कमल-क्या पुण्य की उत्पत्ति धर्म के बिना स्वतंत्र नहीं होती? मुनिराज-ऐसा सम्भव नहीं। अनाज के बिना अगर भूसी हो, आग के बिना
अगर धुंआ हो तो धर्म के बिना पुण्य की उत्पत्ति हो सकती है । ___ अब तुम चौथे पापतत्त्व के बारे में सुनो। अशुभ कर्म पुद्गलों का नाम पाप है। वह पाप अठारह प्रकार का है-१. प्राणातिपात, २. मृषावाद, ३. अदत्तादान, ४. मैथुन, ५. परिग्रह, ६. क्रोध, ७. मान, ८. माया, ६. लोभ, १०. राग, ११. द्वेष, १२. फलर, ३. अम्याख्यान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org