Book Title: Bat Bat me Bodh
Author(s): Vijaymuni Shastri
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 76
________________ नौ तत्त्व, षड् द्रव्य ६३ ज्ञान के धनी होते हैं । मानसिक संवेदन की वहाँ नो संज्ञी कहा गया है । आत्मिक उपयोग विकसित होने के कारण अपेक्षा नहीं रहती है । इस दृष्टि से उनको असंज्ञी अवस्था ज्ञानावरणीय आदि घाति कर्मों के उदय के कारण उत्पन्न स्थिति है । केवलियों के इन कर्मों का क्षय होने से उनको नो असंज्ञी कहा गयाह । मुनिराज - विमल - आपने एक बात अभी कही कि जिनमें मानसिक संवेदन नहीं होता है। वे जीव असंज्ञी कहलाते हैं। यहाँ एक जिज्ञासा उठती है कि इस प्रकार के जीवों को सुख-दुःख की अनुभूति कैसे होगी ? 'अगर सुखदुःख की अनुभूति ही नहीं तो फिर उनमें जीवत्व कैसे ? -मन नहीं तो क्या, ऐन्द्रियक चेतना तो है ही । उनको भी सुखदुःख का अनुभव होता है पर मनुष्य की तरह व्यक्त नहीं होता है । मन न होने पर भी ये जीव सुख की प्राप्ति व दुःख की निवृत्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं । इनमें भी नाड़ीतन्त्रीय चेतना विद्यमान रहती है । सामने आना, जाना व अस्पष्ट बोलना आदि क्रियाएं भी असंज्ञी जीवों में जीवत्व को प्रमाणित करती है । कमल - पर एकेन्द्रिय पृथ्वी आदि जीवों में ये क्रियाएं भी देखने को नहीं • मिलती हैं । मुनिराज - सूक्ष्म क्रियाएं उनमें भी होती हैं । सुख-दुःख का संवेदन उनमें भी होता है । भगवान ने पृथ्वीकाय के जीवों की कष्टानुभूति की तुलना मूक बधिर, अन्धे व पंगु पुरुष के कष्ट से की है। ऐसे व्यक्ति को कष्ट होता है पर वह बता नहीं पाता । वनस्पति में जीवत्व अनेक वर्षों पूर्व महान् वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बसु ने सिद्ध कर दिया था । प्रयोगों द्वारा सिद्ध हो गया है कि वनस्पति प्रसन्नता का भाव लेकर आने वाले व्यक्ति को देखकर प्रफुल्लित होती है और क्रूर भावों वाले व्यक्ति को देखकर सिकुड़ जाती है । इसलिए असंज्ञी जीवों के जीवत्व में आशंका करना व्यर्थ है । जीव तत्त्व का लम्बा-चौड़ा विस्तार है । हम जब चार गतियों के आधार पर चर्चा करते हैं तो जीव के चार भेद हो जाते हैं- नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव । इन्द्रियों के आधार पर एक इन्द्रियवाले, दो इन्द्रियवाले, तीन इन्द्रियवाले, चार इन्द्रियवाले, पांच इन्द्रियवाले, यो पांच भेद हो जाते हैं । इस तरह और भी अनेक भेद किये जा सकते हैं । जीव तत्त्व को सुनने के बाद अब अजीव तत्त्व के बारे में सुनो । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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