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नौ तत्त्व, षड़ द्रव्य
(संतों का स्थान, मुनिराज आसन पर विराजे हुए हैं, सामने विमल कमल दोनों भाई बद्धाञ्जलि होकर वंदन कर रहे हैं।) विमल कमल -- मत्थएण वंदामि, मत्थएण वदामि । मुनिराज-लगता है, उस दिन की चर्चा ने तुम लोगों के मन में और अधिक
जिज्ञासा को जगा दिया है। विमल-बिलकुल सही फरमाया, मुनिवर ! कमल-आपने सम्यक्त्व के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए बताया था कि
सम्यक्त्वी को नौ तत्त्व व षड द्रव्य का ज्ञान होना जरूरी है । इसके साथ ही आपने, देव, गुरु और घम की जानकारी और उन पर सुदृढ़ श्रद्धा रखने पर बल दिया था। देव, गुरु व धर्म के विषय को हमने समझा, आज हम नो तत्त्व व षड् द्रव्य के विषय में आपसे जानना
चाहते हैं। मुनिराज-मूल तत्त्व दो ही हैं-जीव और अजीव । हम जब मोक्ष के साधक
बाधक तत्त्वों की चर्चा करते हैं तो इनके जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये नौ भेद किये जाते हैं । दिगम्बर परम्परा में पुण्य और पाप को बन्ध में अन्तनिहित कर लेने से मूल तत्त्वों में उनकी गणना नहीं की गई, अतः वहां तत्त्वों की संख्या सात ही मान्य है। लोक स्थिति की जब व्याख्या करते हैं तो इन दो तत्त्वों के धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, पुदगलास्तिकाय और जीवास्तिकाय ये छः भेद कर दिए
जाते हैं। विभल-हम इनके बारे में विस्तार से जानना चाहते हैं। मुनिराज-तुम्हारी जिज्ञासा को देखकर मैं एक-एक तत्त्व की अलग-अलग
व्याख्या करना उचित समझता हूं। नौ तत्त्वों में सबसे पहला है - जीव। जीव उसे कहते हैं जो चेतनामय हो, जिसमें सुख-दुःख का संवेदन हो व जानने की क्षमता हो। अपेक्षा की विविधता से जीव
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