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देव, गुरु और धर्म
हैं। मैं उन सब भेदों की चर्चा न करके मुख्य दो भेदों की चर्चा कर देता हूँ। पहला संवर दूसरा निर्जरा । जिस क्रिया के द्वारा कर्मों की रुकावट हो वह संवर है । जिसके द्वारा पूर्व संचित कमों का नाश हो वह निर्जरा है। इन दो साधनों में सभी साधन समाहित हो जाते हैं। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप व क्षमा आदि दश धर्म इनका ही
विस्तार है। विमल-मुनिवर : अभी आपने जो व्याख्या की वह सिद्धान्तपरक थी । हमारा
निवेदन है आप धर्म की व्यावहारिक व्याख्या करें जिससे वह सीधी
हमारे गले उतर जाये। मुनिवर----आचार्य भिक्षु ने धर्म को सरल ढंग से समझने की एक सुन्दर पद्धति
हमको बतायी है। उन्होंने बहुत संक्षेप में धर्म को समझने के कुछ गुर बताये, जेसे-१. धर्म त्याग में है, भोग में नहीं २. धर्म भगवान की आज्ञा में है, आज्ञा से बाहर नहीं ३. धर्म संयम में है, असंयम में नहीं ४. धर्म उपदेश द्वारा हृदय परिवर्तन में है, बल प्रयोग में नहीं ५. धर्म अनमोल है, मूल्य से खरीदा नहीं जाता। ये पांच सूत्र ऐसे हैं जिनमें धर्म की पूरी व्याख्या का समावेश हो गया है। कौन-सा कार्य धर्म है, कौन-सा नहीं, यह उपरोक्त कसौटी के द्वारा जाना जा
सकता है। कमल- तो क्या कुएं, वावड़ी, धर्मशाला व अनाथालय बनाना, भूखे को
भोजन कराना व प्यासे को पानी पिलाना आदि कार्य धर्म नहीं है ? मुनिवर -- आत्म धर्म के अलावा भी धर्म शब्द का प्रयोग लोक व्यवहार में
किया जाता है। कुएं, बावड़ी बनाना आदि कार्यों में धर्म शब्द कर्तव्य अर्थ का वाचक बन जाता है। यह लोक का उपकार है, जनता का सहयोग है, इसे आत्म धर्म की कोटि में नहीं लिया जा सकता। धर्म ही अगर कहना चाहें तो लोक धर्म कहा जा सकता है। अगर कुएं बनाना आदि कार्यों में आत्म धर्म मान लिया जाये तो धर्म के अधिकारी सिर्फ धनिक व्यक्ति ही रह जायेंगे। गरीब तो धर्म की आराधना कभी कर ही नहीं सकते। धर्म कुछ ही व्यक्तियों
की बपौती नहीं है। वह तो सार्वजनीन व सर्व कल्याणकारी है । विमल-पर, भूखे को भोजन कराना या किसी को पानी पिलाना आदि कार्य
तो बिना करुणा के होते नहीं हैं अतः इनको धर्म मानने में क्या
दिक्कत है ? मुनिवर-करुणा के भी दो रूप हैं, पहली-मोहजन्य करुणा, दूसरी-मोह
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