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बात-बात में बोध
शिव को देव
आगे उन्होंने बताया - गुरु अगर ब्राह्मण होता है तो बतायेगा और ब्रह्मभोज को धर्म कहेगा । वह अगर भोपा होगा तो धर्मराज को देव और भोपों को भोजन कराना व दक्षिणा देने को धर्म कहेगा। वह अगर कामड़िया होगा तो रामदेवजी को देव व जम्म की रात जगाना, कामड़ियों को भोजन कराना धर्म बतायेगा । वह यदि मुल्ला होगा तो अल्लाह को देव बतायेगा व हलाल करने को धर्म कहेगा। गुरु अगर त्यागी, तपस्वी श्रमण निर्ग्रन्थ होता है तो अर्हतों को देव व वीतराग द्वारा भाषित तत्त्व को धर्म बतायेगा । इसलिये गुरु की परख होनी बहुत जरूरी है क्योंकि देव और धर्म की सही पहचान गुरु पर ही निर्भर करती है । विमल - इसी सन्दर्भ में एक प्रश्न फिर शेष रह गया, सभी शुद्ध साधुओं को अगर गुरु मान लिया जायेगा तो क्या सामान्य व्यक्ति के सामने कठिनाई उपस्थित नहीं होगी, वह किस-किसका स्मरण करेगा व किसको छोड़ेगा ? एक समस्या यह भी आएगी कि अगर सभी साध गुरु बन जायेंगे तो उनका शिष्य कौन रहेगा ? मुनिवर - यों तो सभी साधु स्वयं में गुरु की तरह पूज्य हैं । फिर भी वे सब एक आचार्य के शिष्य कहलाते हैं । ' णमो आयरियाण' में धर्माचार्य को नमस्कार किया गया है। आचार्य धर्म संघ का नेतृत्व करते हैं, साधु-साध्वियों की साधना में सहयोगी बनते हैं, अर्हतों के उत्तराधिकारी होते हैं । इसलिए नाम-स्मरण विशेष रूप से उनका ही किया जाता है । उदाहरणार्थ- - तेरापंथ धर्म में सात सौ से अधिक साधु-साध्वियां हैं। गुरु होते हुए भी वे सब अपने को शिष्य मानते
हैं और गुरु के रूप में आचार्य श्री तुलसी को स्वीकार करते हैं । कमल - गुरु की पहचान के बाद अब हम आप से धर्म के बारे में जानना
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चाहते हैं ।
मुनिवर - आचार्यवर ने अपनी कृति जैन सिद्धांत दीपिका में धर्म की एक छोटी सी परिभाषा बतायी है - आत्मशुद्धिसाधनं धर्मः - आत्मा की शुद्धि के साधन को धर्म कहते हैं ।
विमल - आत्मशुद्धि के साधनों के बारे में भी भिन्न-भिन्न अवधारणाएं हैं जैसे कोई व्यक्ति स्नान करने को, कई पूजा पाठ करने को शुद्धि का सोधन मानते हैं, कोई और कुछ मानते हैं । आपका इससे क्या अभिप्राय है ?
मुनिवर - अपेक्षा भेद से आत्मशुद्धि के साधनों के भी कई भेद किये जा सकते
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