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बात-बात में बोध
किसी ने पूछा था- आ भिक्षु ने एक युक्ति से इसका समाधान दिया । उन्होंने बताया एक वैद्य से एक अन्धा व्यक्ति पूछता है कि वैद्यराजजी ! इस नगर में सवस्त्र व्यक्ति कितने हैं और निर्वस्त्र कितने ? वैद्य ने औषध के प्रयोग से उसका अन्धापन मिटा दिया । अब वह स्वयं सवस्त्र और निर्वस्त्र का निर्णय कर लेता है। स्वामीजी ने इस युक्ति के द्वारा उसे समझाया कि शुद्ध साधु का मापदण्ड मैं तुमको बता देता हूं, कौन शुद्ध साधु, कौन अशुद्ध इसका निर्णय तुम स्वयं कर लो । वत्स ! तुम्हारी जिज्ञासा का भी यही समाधान है, जो पांच महाव्रतों का पालन करे वह शुद्ध साधु है और वही गुरु रूप में नमस्कार के योग्य हैं ।
कमल -- पर यह भी तो अन्तरङ्ग पक्ष है ।
व्यक्ति के अन्दर कौन झांकता व्यवहार को देखकर ही
है । हमारा निर्णय तो बाहरी वेशभूषा व होता है ।
मुनिवर - यह कठिनाई तो है । बाहर जो कुछ दिखता है वह सब सही हो कोई जरूरी नहीं । व्यक्ति अपने आपको छिपाना बहुत जानता है । होता कुछ है, दिखाता कुछ और है । पर सच्चाई भी लम्बे समय तक आवृत नहीं रहती है । कागज के फूल दूर से आकर्षक लग सकते हैं किन्तु पास में आते ही उनकी कृत्रिमता प्रकट हो जाती है । व्यवहार के द्वारा भी हम काफी हद तक सत्य के निकट पहुंच सकते हैं। शुद्ध साधु के हर व्यवहार में साधना की झलक दिखाई देगी। वह गृहत्यागी और अकिञ्चन होगा। वह अपने कार्यों से दूसरों को कष्ट नहीं पहुंचायेगा । वह स्वच्छन्द और उच्छृङ्खल नहीं होगा। अपने शास्ता के अनुशासन का पालन करेगा ।
कमल- क्या बाहरी वेश-भूषा का भी कोई सम्बन्ध है साधु से ?
मुनिवर -- बाहरी वेश-भूषा भी साधु की पहचान का कारण बनती है, इस दृष्टि से उसका भी महत्त्व है । साधु अगर गृहस्थ की तरह वेशभूषा रखे तो वह साधु के रूप में पहचाना नह । जाता ।
एक बार की बात है - एक व्यक्ति अपने छोटे लड़के को साथ लेकर संतों के दर्शनार्थ आया। एक मुनि उस समय दांत साफ कर रहा था । बच्चा उस मुनि को वन्दना करने पास में आया । मुंह पर
वस्त्रिका न देखकर वह बिना हाथ जोड़े एक क्षण यों ही खड़ा रहा। फिर दौड़कर अपने पिता के पास आ गया और बोला, "बापू ! बो तो कोई आदमी है, साधु कोनी ।" पिता उसकी नादानी पर
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