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बात-बात में बोष
कराने व पानी पिलाने में मोहजन्य करुणा आत्मा का नहीं शरीर का पोषण वहां ध्येय द्वारा त्याग को नहीं भोग को बढ़ावा इन सब कारणों से इसे भी लोक धर्म की संज्ञा ही दी
रहित करुणा । भोजन की प्रधानता रहती है । रहता है । इस प्रवृत्ति के मिलता है ।
जायेगी ।
विमल -- मां-बाप की सेवा व देश की रक्षा के लिये युद्ध करना तो धर्म का ही अन होगा ?
मुनिवर - आत्मधर्म की कसोटी एक ही है जो ऊपर बतायी गयी। मां-बाप से लेकर राष्ट्र तक व्यक्ति का स्वार्थ जुड़ा है। जहां कुछेक के साथ अपनापन है वहां परायापन भी सुनिश्चित है । स्व की सुरक्षा, मातापिता की सेवा करना हर व्यक्ति का नैतिक दायित्व है और अपने कर्त्तव्य की पूर्ति है । इसे आत्मधर्म न कहकर लौकिक धर्म ही कहना चाहिये ।
कमल - क्या धर्म भी कई तरह का होता है ?
मुनिवर - शुद्ध आत्मधर्म तो एक ही तरह का है जिसे लोकोत्तरधर्म भी कहते हैं। आत्मधर्म के अलावा लौकिक कर्त्तव्य, दायित्व के लिए भी धर्म शब्द का प्रयोग होता है, जैसे- ग्रामवासियों का अपने ग्राम के प्रति कर्त्तव्य ग्रामधर्म, राष्ट्र के प्रति नागरिकों का कर्त्तव्य राष्ट्रधर्म, अपने कुल के प्रति उसके सदस्यों का दायित्व कुलधर्म आदि आदि । कर्त्तव्य के सिवाय स्वभाव अर्थ में भी धर्म शब्द का प्रयोग होता है । जैसे - अग्नि का धर्म उष्णता है, पानी का धर्म शीतलता है, आंख का धर्म देखना है, इसी प्रकार सब इन्द्रियों का अपना अलग-अलग धर्म है ।
विमल - क्या धर्म शाश्वत है और इसमें परिवर्तन की कोई गुंजायश नहीं है ? मुनिवर -- जैसा कि बताया गया धर्म शब्द अनेकार्थक है धर्म को अगर हम अध्यात्म धर्म के संदर्भ में देखें तो वह शाश्वत और अपरिवर्तनशील है । अहिंसा, सत्य अचौर्य, बह्मचर्य और अपरिग्रह ये अध्यात्म धर्म के शाश्वत सिद्धान्त हैं । इनमें न तो कभी परिवर्तन हुआ और न भविष्यकाल में होने का है । अध्यात्म धर्म के और नैतिक कत्तव्य अर्थ में प्रयुक्त धर्म परिवर्तनशील भी है ।
अलावा लोक व्यवहार शाश्वत नहीं है और
कमल -- मुनिवर ! एक वैभव सम्पन्न व्यक्ति धर्म क्यों स्वीकार करेगा ?
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