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बात-बात में बोध पर सुदृढ़ आस्था रखने की बात कही थी। आज हम उपरोक्त
तीनों शब्दों के बारे में जानकारी करना चाहेंगे। मुनिराज-वत्स ! देव, गुरु और धर्म ये तीन रत्न हैं जिनकी सम्यक् पहचान
होना जरूरी है। पहचान के अभाव में कई बार रत्न के स्थान पर व्यक्ति कंकरों को बटोर लेता है। सम्यक्त्व की स्वीकृति के साथ ही व्यक्ति इस आस्था को जगाता है
"अरहंतो महदेवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो,
जिणपण्णत्तं तत्तं, इय सम्मत्तं मए गहियं" इस शास्त्रोक्त गाथा का अनुवाद है
देव मेरे दिव्य अहं न, श्रेष्ठ सारे लोक में, साधना धन साधु मेरे सुगुरु पथ आलोक में, धर्म वह जो साघना पथ केवली उपदिष्ट है,
आत्म निष्ठामय अमल सम्यक्त्व मुझको इष्ट है ।। संक्षेप में देव, गुरु व धर्म की इतनी सी पहचान है। अर्हत-देव होते है, साधु जो साधना पथगामी है-गुरु होते हैं, केवलियों द्वारा
प्ररूपित साधना पथ-धर्म होता है। विमल-पर इतने मात्र से तो मन को संतोष नहीं हुआ। कमल-हमें इन तीनों विषयों पर विस्तार से समझाने की कृपा करावें । मुनिराज-तो फिर एक-एक शब्द को ही मैं खोलकर समझा देता है। पहला
शब्द है-देव। जैसा की बताया जा चुका है, कि अर्हत हमारे देव है। अहद-पंच परमेष्ठी में प्रथम. पद के अधिकारी हैं। अहंत उस महान आत्मा को कहते हैं जिन्होंने चार घनघाती कर्मों का नाश कर
दिया। कमल-चार घनघाती कर्म कौनसे होते है ! मुनिराज-कर्मों के आठ प्रकार हैं-(१) ज्ञानावरणीय (२) दर्शनावरणीय
(३) वेदनीय (४) मोहनीय (५) आयुष्य (६) नाम (७) गोत्र (८) अन्तराय। इनमें ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और
अन्तराय ये चार घनघाती कर्म कहलाते हैं । विमल-इन चार को ही घनघाती कहने का क्या कारण है ! मुनिराज-आत्मा के मौलिक गुण आनन्द व पराक्रम को नष्ट करने के
कारण इनको घनघाती कर्म कहा है। ज्ञानावरणीय का नाश होने से आहेत अनन्तज्ञान के धनी होते हैं । दर्शनावरणीय कर्म का नाश होने से उनका दर्शन असीम हो जाता है। मोहनीय कर्म का नाश होने से
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