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देव, गुरु और धर्म
वे राग द्वेष मुक्त हो जाते हैं और चारित्रिक क्षमता से वे परिपूर्ण होते हैं । अन्तराय कर्म का क्षय होने से उनमें अनन्त पराक्रम होता है। इन चार गुणों के अलावा ऐसी आत्माओं में आठ प्रातिहार्य गुण
और पाये जाते हैं। कमल--आठ प्रातिहार्य गुण से क्या मतलव ? मुनिराज-प्रातिहार्य गुण से तात्पर्य है-विशेष चामत्कारिक अतिशय । इन
आठ प्रातिहार्यों में कुछ देवताओं द्वारा निर्मित व कुछ योगजन्य होते हैं ये संख्या में आठ होते हैं-(१) अशोक वृक्षः (२) पुष्प वृष्टि (३) दिव्य ध्वनि (४) देव दुन्दुभि (५) स्फटिक सिंहासन (६) भामण्डल (७) छत्र (८) चामर । ये सब अहंतों के साथ जुड़े
होते हैं। विमल-पर उपरोक्त चामत्कारिक अतिशय तो कोई इन्द्रजालिक भी मन्त्र क
प्रयोग से जनता को दिखा सकता है। मुनिराज-ऐसा भी होता है, पर अर्हतों के ये बिना किसी मन्त्रादि के प्रयोग
से निष्पन्न होते हैं । ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षय होने से प्राप्त होने वाले
चार गुण मूल हैं, अशोक वृक्ष आदि आठ गुण तो सहभावी हैं। कमल -तो क्या ये चार गुण प्रकट होते ही शेष आठ गुण स्वतः निष्पन्न हो
जाते हैं ? मुनिराज-यहां भी एक बात समझने की है । चार गुण सामान्य केवलियों में
भी पाये जाते हैं किन्तु आठ प्रातिहार्य उनमें प्रकट नहीं होते । आठ प्रातिहार्य गुण केवल उनमें ही पाये जाते हैं जिनके तीर्थङ्कर गोत्र बंधा होता है। धर्म तीर्थ की स्थापना करने के कारण अहं तों को तीर्थङ्कर
भी कहते हैं। कमल-अहतों को अन्य नामों से भी पुकारा जाता है क्या ? मुनिराज-अर्हतों को कई नामों से पुकारा जाता है जैसे-सर्वज्ञ, सर्वदशी,
यथार्थवादी, जिन, देवाधिदेव आदि । उनके लिये कुछ भी अज्ञात नहीं होता इसलिये वे सर्वज्ञ व सर्वदर्शी कहलाते हैं । यथार्थ तत्त्व का निरूपण करने से वे यथार्थवादी कहे जाते हैं। उन्होंने क्रोधादि कषायों को शान्त करके अपनी आत्मा पर विजय प्राप्त कर ली इसलिये जिन कहलाते हैं। वे देवों के भी देव होते हैं इसलिये देवाधिदेव कहे जाते
है । ये सब अहं तों के पर्यायवाची शब्द हैं । विमल-मुनिवर ! क्या वे देव हम मनुष्यों की तरह आकारवान होते हैं या
शक्तिस्वरूप, निराकार ?
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