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सम्यक्त्व
( संतों का स्थान, संत अपने आसन पर बैठे हैं, विमल, कमल दो भाई मुनि से बात कर रहे हैं 1 )
विमल - कई दिनों से हम दोनों भाई सोच रहे थे कि मुनिवर के पास जाना है किन्तु कुछ तो अध्ययन का भार, कुछ आलस्य के कारण आपकी सेवा का अवसर प्राप्त नहीं हुआ ।
कमल -- यह सौभाग्य आज ही मिलने को था ।
मुनि--अच्छा किया, अब पहले अपना-अपना परिचय दो।
विमल - हम दोनों ईश्वरदासजी जैन के पुत्र हैं। मैं ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ता हूँ ।
कमल - मैं नवीं कक्षा में पढ़ता हूँ ।
विमल - आप कुछ समय दिलाने की कृपा करें तो हम आपसे कुछ जानना चाहते हैं ।
मुनि - अवश्य पूछो, जो तुम जानना चाहते हो । हम संतों का समय तो स्व और पर दोनों के लिए होता है ।
कमल - मुनिराज ! मां के मुंह से हमने कई बार सुना कि इस बार गर्मी में जैन विश्व भारती चलना है, इन दोनों लड़कों को भी ले जाना है । वहां आचार्यश्री के दर्शन करके इन दोनों को सम्यक्त्व दिलानी है । मुनि-यह तो बहुत अच्छी बात है ।
विमल - अच्छी तो होगी ही, मां जिसके लिए कहती है । पर यह सम्यक्त्व क्या चीज है, हम तो समझ नहीं पाए ।
मुनि - सुनो ! सम्यक्त्व का अर्थ है - दृष्टिकोण का सम्यग् होना । जो पदार्थ जैसे हैं उनको उसी रूप में समझना । सम्यक्त्व की प्राप्ति के बिना व्यक्ति की दृष्टि में विपर्यास बना रहता है । वह अनात्म तत्त्वों में आत्मा को और आत्म तत्त्वों में अनात्मा को मान बैठता है । -जो पदार्थ जैसे हैं उनको उसी रूप में समझना, यही अगर सभ्यत्व है, तब तो हर व्यक्ति के लिए यह सुलभ हो जाएगी।
कमल
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