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बात-बात में बोध
आत्मा की उस परम भूमिका की प्राप्ति के लिए तप भी एक माध्यम है किन्तु तपस्या का अर्थ उपवास आदि कर लेना मात्र ही नहीं है । ओमप्रकाश — तो क्या व्रत उपवास से भिन्न भी तपस्या का कोई स्वरूप जैन धर्म में है ?
- मुनिवर - यही मैं बता रहा था। जैन धर्म एकांगी और रूढ़ नहीं है । उसमें तप के बारह प्रकार बताये गये हैं । उपवास तो बाह्य तप के रूप में माना गया है। ध्यान, सेवा, स्वाध्याय, विनय आदि को आभ्यन्तर तप बताया गया है। आभ्यन्तर तप हर मुमुक्षु आत्मा के लिये विशेष लाभदायक होते हैं। कहा तो यहां तक गया है कि एक व्यक्ति अगर सात लव यानी चार सवा चार मिनट का भी ध्यान कर ले तो उसको दो दिन के उपवास जितना लाभ हो जाता है। उपवास आदि से ज्यादा महत्त्व ध्यान आदि तप का है । व्रत उपवास तो आभ्यन्तर तप के पूरक हैं 1 पेट भरा होगा तो आलस्य बढ़ेगा, ध्यान व स्वाध्याय में भी स्थिरता नहीं आएगी । उपवास व तपस्या का भी जैन धर्म में स्थान है, किन्तु आत्म समाधि खण्डित न हो, मन में किसी प्रकार की ग्लानि पैदा न हो, इस बात का विवेक रखने की प्रेरणा भी उपस्या के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ी हुई है। किसी प्रकार की जबरदस्ती या विवशता तपस्या में निषिद्ध है । जैन धर्म में हर वर्ष लाखों उपवास व ऊपर की तपस्याएं होती है ।
अनेक छोटी
छोटी लड़कियां भी आठ-आठ दिन का तप करती है, किन्तु राब तपस्याएं प्रसन्नतापूर्वक की जाती हैं ।
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ओमप्रकाश - उपवास आदि तपस्या से क्या विज्ञान भी सहमत है ? - मुनिवर -- पूरी तरह सहमत है । स्वास्थ्य विज्ञान में
उपवास को रोगमुक्त होने में सबल माध्यम बताया गया है । प्राकृत चिकित्सा में शरीर शुद्धि के लिए कई दिनों का उपवास कराया जाता है । आयुर्वेद मैं लंघन को परम औषध के रूप में स्वीकार किया गया है । महात्मा, गांधी ने अपने जीवन में अनेक उपवास किये थे । अनेक समस्याओं से मुक्ति के लिये भी उन्होंने उपवास के सफल प्रयोग किये । पाश्चात्य देशों में कई स्थानों पर फास्टिंग अर्थात् उपवास को रोग निवारण का सर्वोत्तम उपाय माना गया है ।
ओमप्रकाश - मुनिवर ! सामान्य आदमी सोचता है कि खाने को उसके पास है फिर क्यों भूखा रहा जाये ? क्या भूखा रहने से उपवास का लाभ है !
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