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जैन धर्म और विज्ञान
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मिनट भी एक घण्टे के बराबर लगते हैं। समय वही है पर एक स्थिति में वह समय बड़ा सुखद लगता है, दूसरी स्थिति में वही समय बड़ा दुःखद लगता है ।
जैन दर्शन में पदार्थ का एक गुण बताया गया है - अगुरुलघुत्व । पदार्थ अपने स्वरूप में रहता है, उसके परमाणु घटते-बढ़ते नहीं हैं । विज्ञान की यह मान्यता कि तत्त्व जितने हैं उतने ही रहेंगे, इस सिद्धान्त के काफी नजदीक है ।
जैन दर्शन में लोक स्थिति का वर्णन करते हुए धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय इन छः द्रव्यों की परिकल्पना की गई है । इन द्रव्यों में आकाश की तुलना विज्ञान द्वारा सम्मत स्पेस से, काल की टाइम से व पुद्गल की मेटर से की जा सकती है ।
मस्तिकाय की तरह विज्ञान भी लम्बे समय तक ईथर के अस्तित्व को स्वीकार करता रहा है। यद्यपि आधुनिक विज्ञान ईथर के बारे में मतभेद रखता है । वह इस तथ्य को तो मानता है कि मुंह से बोले गये शब्द एक सेकेण्ड में पूरे ब्रह्माण्ड का आठ बार चक्कर काट लेते हैं । बशर्ते कि उनको इलेक्ट्रोमैगनेटिक विकिरण में बदल दिया जाये । इसी कारण हम रेडियो और टेलीविजन पर विश्व के एक छोर से दूसरे छोर तक की आवाज और दृश्यों को पकड़ लेते हैं । इतनी निकटता के बावजूद भी गति और स्थिति में सहयोगी धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय की तरह आधुनिक विज्ञान किसी पदार्थ की सत्ता को
एक मत से स्वीकार नहीं कर सका है ।
ओमप्रकाश - जीव के बारे में विज्ञान की क्या अवधारणा है ? मुनिबर -- जीव के बारे में विज्ञान एक निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया है । कुछेक वैज्ञानिक पुनर्जन्म को स्वीकार करने लगे हैं । पुनर्जन्म की स्वीकृति के साथ जीव के अस्तित्व की स्वीकृति जुड़ी हुई है । डा० इयान स्टीवनसन ने अपनी पुस्तक में पुनर्जन्म सम्बन्धी अनेक प्रमाणिक घटनाओं का वर्णन किया है। परामनोविज्ञान की स्वतन्त्र शाखा का आज विकास हो गया है, जिसमें अनेक वैज्ञानिक इस प्रकार की शोध में लगे हुए हैं | अतीन्द्रियज्ञान और टेलिपेथी के अनेक प्रयोग हमारे सामने आ रहे हैं । जीवित आदमी या पशु-पक्षी के आभामण्डल व मृत या जड़ पदार्थों के आभामण्डल में अन्तर को वैज्ञानिक स्वीकार करने लगे हैं । चेतन प्राणी का आभामण्डल घटता बढ़ता रहता है, उज्ज्वल और
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