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जैन धर्म और विज्ञान
ने संसारी व्यक्तियों के लिये यथाशक्ति इन नियमो को स्वीकार करने की बात कही। असंयमजन्य विकृतियों से बचने के लिए भगवान ने संयम पर बल दिया। पर इसका अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति अपनी इच्छाओं का दमन करे । संयम का तात्पर्य है--- व्यक्ति स्वयं पर नियंत्रण रखे, निरंकुश न बन जाये, भोग-परिभोग की सीमा रखे। अतिभोग और निरंकुश मनोवृत्ति के दुष्परिणामों से हर व्यक्ति परिचित हैं। भोगवादी
संस्कृतियां भी आज त्याग और संयम की ओर मोड़ ले रही है। ओमप्रकाश --- युग की भाषा है-- आवश्यकताओं को बढ़ाओ क्योंकि
आवश्यकता आविष्कार की जननी है। जैन धर्म इसके विपरीत
आवश्यकताओं को घटाने की बात कहता है, यह कहां तक संगत है ? मुनिवर-जिनका लक्ष्य मात्र धन व सुख सुविधा के साधन अजित करना है वे
"आवश्यकताओं को बढाओ” इस सिद्धान्त में विश्वास रखते हैं। किन्तु जीवन को सुख व शान्ति से जीना जिनका ध्येय है वे आवश्यकताओं को बढ़ाने की बात नहीं सोच सकते। सीमित आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है पर जब इच्छाएं अनियन्त्रित और असीमित हो जाती हैं तो उनकी पूर्ति करना कठिन हो जाता है । भगवान का वचन है --'जहा लाहो तहा लोहो' जैसे 'लाभ होता है घेसे ही लोभ बढ़ने लगता है। एक इच्छा पूरी हुई कि अगणित नई इच्छाएं जन्म लेने लगती हैं। असीम इच्छाओं की पूर्ति संग्रह और शोषण को बढ़ावा देती है । सामाजिक विषमता को भी पनपने का मौका मिलता है। वहां अर्थ अर्जन के साधनों की शुद्धि भी नहीं रह सकती। इसीलिए तो गृहस्थ को अल्प मारम्भ और अल्प परिग्रह का विवेक दिया गया। बहु र रम्भ और बहु परिग्रह अनेक दोषों को पैदा करते है। जैन धर्म ने निठल्ला बैठे रहने की बात नहीं कही किन्तु गलत उपायों से धन अर्जित करने का निषेध किया है। आवश्यकताएं सीमित होंगी तो गलत साधनों को काम में लेने की जरूरत ही नहीं रहेगी। न वहां शोषण, संग्रह, सामाजिक-विषमता
आदि दोषों के लिए भी अवकाश रहेगा। ओमप्रकाश-कहते हैं कि जैन धर्म में व्रत उपवास व बड़ी-बड़ी तपस्याओं को
बहुत महत्त्व दिया जाता है, क्या यह सच है ? मुनिवर-यह बात अधूरी समझ के कारण कह दी जाती है। हकीकत यह है
कि जैन धर्म में सर्वाधिक महत्त्व आत्म समाधि को दिया जाता है ।
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