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जैन धर्म और विज्ञान
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सुनिवर - पहली बात तो है उपवास किसी बाध्यता से नहीं किया जाता । व्यक्ति स्वेच्छा से अपनी आत्म उज्ज्वलता के लिये उपवास करता है । दूसरी बात भूखे रहना उपवास का बाह्य रूप हैं । इसके द्वारा होने वाले आन्तरिक लाभों को लोग नजरन्दाज कर 'चंचलता को मिटाने का, अनेक शारीरिक विजातीय तत्त्वों के निवारण
देते हैं 1 मन की
।
आरोग्यवृद्धि का यह अमोघ साधन है जो व्यक्ति १५ दिन में कम से कम एक
किसी ने ठीक कहा है कि उपवास कर लेता है वह पेट इन लाभों को जान लेने के
की अनेक बीमारियों से बच जाता है । बाद उपवास के बारे में निश्चित ही व्यक्ति की भ्रान्तियाँ मिट जायेगी ।
ओमप्रकाश -- व्रत उपवास की बात समझ में आ गयी पर आजीवन अनशन की बात तो मेरे मित्रों को बड़ी खटकती है । वे इसे आत्महत्या का रूप बतलाकर जैन धर्म पर व्यंग्य कसते हैं ।
नजदीक जान
सुनिवर - - पहली बात तो यह समझ ले कि आत्म हत्या को जैन धर्म में घोर अपराध कहा गया है। ऐसे में क्या वह स्वयं ही आत्म हत्या जैसी कोई पद्धति को मान्यता दे सकता है ? जैन धर्म अनशन की इजाजत देता है पर किसको और किस परिस्थिति में यह अपेक्षा भी समझनी जरूरी है । अनशन का अधिकारी वही व्यक्ति हो सकता है जिसे जीवन में कोई लाभ व विकास होता नजर न आये, पदार्थों के प्रति जिसकी कोई रुचि न रही हो, मृत्यु का समय जिसे पड़ता हो। इस प्रकार की परिस्थितियों में बिना किसी आकांक्षा के व्यक्ति द्वारा अनशन स्वीकार करना जैन धर्म में विहित माना गया है । अनशन पूर्वक मृत्यु को यहां महोत्सव बताया गया है । कोई वीर व्यक्ति ही इसे स्वीकार करता है। एक बार संत विनोबा ने कहा था - जीने की कला सब धर्म सिखाते हैं पर मरने की कला सिर्फ जैन धर्म ही बताता है। उन्होंने एक बार अपनी भावना रखी थी कि मैं भी जैन धर्म की पद्धति के अनुसार मरना पसन्द करता हूँ। हमने देखा, अन्तिम समय में उन्होंने अपनी मन पसन्द मृत्यु का वरण किया और अनशनपूर्वक देह का उत्सर्ग किया । इसलिये अनशन जैसे वीरतापूर्ण कार्य के लिए आत्म हत्या का आरोप लगाना नासमझी की ही बात कही जा सकती है ।
ओमप्रकाश - लेकिन ऊपरी तौर पर अनशन और आत्म हत्या दोनों एक
समान लगते हैं !
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