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जैन धर्म
बाद में प्रचलित हुआ है । यह धर्म स्वरूप की दृष्टि से सदा एक ही था । नाम की दृष्टि से इसमें परिवर्तन होता रहा है । इस परम्परा की पहचान समय-समय पर निर्ग्रन्थ प्रवचन, आर्हत धर्म व श्रमण धर्म के नाम से होती रही है ।
विमल - मेरा एक मित्र है जो बौद्धमतानुयायी है, बता रहा था कि जैन धर्म तो बौद्ध धर्म की शाखा है, कोई स्वतन्त्र धर्म नहीं । क्या यह कथन सही है ?
प्रो० ओमप्रकाश - - यह तो इतिहास की जानकारी का अभाव है । न केवल जैन अपितु जेनेतर विद्वानों ने भी इस सत्य को स्वीकार किया है कि जैन धर्म एक स्वतन्त्र धर्म है, किसी धर्म की शाखा नहीं ! लोक मान्य बाल गंगाधर तिलक ने लिखा था - बौद्ध धर्म से पहले भी जैन धर्म भारत में फैला हुआ था। सुप्रसिद्ध इतिहास वेत्ता व अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वान हरमन जेकोबी ने भी लिखा था- " जैन धर्म सर्वथा स्वतन्त्र है, वह किसी धर्म का अनुकरण नहीं है ।" महामहोपाध्याय डा० सतीशचन्द्र विद्याभूषण भारत के तात्कालीन राष्ट्रपति महान दार्शनिक डा० राधाकृष्णन ने भी इसी तथ्य को उजागर किया है । भागवत पुराण भी कहता है कि जैन धर्म को ऋषभ ने स्थापित किया। अतः इसमें तनिक भी संदेह के लिए स्थान नहीं कि जैन धर्म एक स्वतन्त्र धर्म है ।
कमल ---- -भारत की धरती पर युगों युगों तक राजतन्त्र चलता रहा है, अनेक राजाओं ने यहाँ शासन किया । क्या राजतन्त्र पर भी कोई प्रभाव रहा, बताने की कृपा करें ?
जैन धर्म का
प्रो० ओमप्रकाश - इतिहास पढ़ने से पता चलता है जैन धर्म को सभी वर्गों ने अपनाया । राजतन्त्र भी जैन धर्म से अछूता नहीं रहा । पुरातत्त्व वेत्ता पी० सी० राय चौधरी के शब्दों में- “श्रेणिक, कुणिक, चन्द्रगुप्त, सम्प्रति, खारवेल तथा अन्य राजाओं ने जैन धर्म को अपनाया । गुजरात नरेश जयसिंह और कुमारपाल ने जैन धर्म को बहुत महत्त्व दिया । सम्राट् अकबर भी महान आचार्य हीरविजयसूरी से बहुत प्रभावित थे ।” अमेरिकी दार्शनिक विल इयरेन्ट ने लिखा है" अकबर ने जैनों के कहने पर शिकार छोड़ा और नियत तिथियों पर पशु हत्याओं पर रोक लगायी। जैन धर्म के प्रभाव से ही अकबर ने अपने द्वारा प्रचारित दीन-इलाही नामक सम्प्रदाय में मांस भक्षण के निषेध का नियम लागू किया था।"
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