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बात-बात में बोध
दृष्टि में जैन धर्म विश्व धर्म बनने की क्षमता रखता है। एक और प्रश्न जो मुझे कुरेद रहा है वह है, जो धर्म इतना महान है उसके
अनुयायियों की संख्या इतनी कम क्यों है ? प्रो ओमप्रकाश-तुम्हारा प्रश्न उचित है । पहली बात तो है जैन धर्म ने
संख्यात्मकता से भी अधिक गुणात्मकता पर ध्यान दिया। दूसरी बात-भगवान महावीर जैसा सक्षम नेतृत्व जैन धर्म में नहीं रहा जो पूरे विश्व को अपने व्यक्तित्व से प्रभावित कर सके और विरोधी विचार वाले व्यक्तियों के बीच भी सामंजस्य स्थापित कर सके । तीसरी बात-कालान्तर में जैन धर्म को कष्टसाध्य माना जाने लगा। चौथी बात-जातिवाद से मुक्त जैन धर्म में जातिवाद ने अपनी जड़ें जमानी शुरू कर दी। पाँचवीं बात-प्रभावशाली आचार्यों की परम्परा में काल का लम्बा अन्तराल रहा । छठी बातजैन अनुयायियों द्वारा जैन-जीवन शैली को महत्त्व कम दिया गया। इस प्रकार के और भी कारण हो सकते हैं, जेन अनुयायियों की अल्प संख्या में । फिर भी संतोष का विषय है कि संख्या को बढ़ाने के लिए जैन धर्म ने कभी अपने आदर्श को नीचे नहीं गिराया। हजार काच के टुकड़ों से भी ज्यादा मूल्यवान एक असली रत्न होता है। वैसे संख्या भले ही कम हो पर अपनी विशेषताओं के कारण जैन धर्म
विश्व के सभी धर्मों में अपना गुरुतर स्थान रखता है । कमल-इसे तो अस्वीकार नहीं किया जा सकता। प्रो० ओमप्रकाश-ये विशेषताएं मैंने मोटे तौर पर तुमको बतायी है। अगर
तुम जैन धर्म के बारे में विस्तार से जानना चाहो ता आचार्य श्री
तुलसी व युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ के साहित्य को पढ़ो। विमल-सर, हकीकत में जैन धर्म के सिद्धान्त बहुत ऊंचे हैं। अब सिर्फ एक
जिज्ञासा शेष रह गयी है। वह है जैन धर्म को स्वीकार करने वाले व्यक्ति का जीवन केसा होना चाहिये। एक जैन कहलाने वाले
व्यक्ति की क्या विशेष पहचान होनी चाहिये ? प्रो. ओमप्रकाश-अच्छा प्रश्न किया है। जैन धर्म में सिद्धान्त से भी ज्यादा
महत्त्वपूर्ण जीवन व्यवहार का पक्ष है। जो धर्म दर्शन लोक जीवन को उन्नत नहीं बनाता, वह कोरे सिद्धान्तों के बल पर अपनी तेजस्विता को बढ़ा नहीं सकता। जीवन व्यवहार के सम्बन्ध में अनेक सूत्र जेन ग्रन्थों में भरे पड़े हैं। वि. सं. २०४६ योगक्षेमवर्ष में आचार्य श्री तुलसी ने उन बिखरे हुए सूत्रों को व्यवस्थित करके
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