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खुद परमात्मा है लेकिन प्रकृति ने ऐसा तो कैसा प्रेशर डाला कि परमात्मा पद आवृत हो गया और सामनेवाला चोर, गुंडा, आतंकवादी दिखने लगा ! प्रकृति का दबाव क्या ऐसा-वैसा है ?
निकलते समय प्रकृति स्वतंत्र है लेकिन बनते समय नहीं है। व्यवहार आत्मा ने जो कुछ भाव किया, दूसरे शब्दों में जिस तरह की दखलंदाज़ी की, वैसी ही प्रकृति सर्जित हो गई। फिर वह खुलती भी अपने स्वभाव से ही है। उसमें फिर और कुछ चलेगा ही नहीं । पसंद आए या न आए फिर भी । उदाहरण के तौर पर मूल में व्यवहार आत्मा अगर गुस्से की दखलंदाज़ी करे तो वैसी ही प्रकृति बन जाती है। फिर जब वह छूटे, तब वह वैसा ही गुस्सा करती है। तब अंदर व्यवहार आत्मा को अच्छा नहीं लगता लेकिन फिर उसमें प्रकृति क्या करे? यानी आत्मज्ञान के बाद अंदर की डखोडखल बंद हो जाती है इसलिए आत्मा, आत्मा के स्वभाव में रहता है और प्रकृति, प्रकृति के स्वभाव में। बीच में दखलंदाज़ी के रूप में भ्रांति से जो ऐसा हो रहा था कि 'मैं कर रहा हूँ,' वह बंद हो जाता है, स्वरूप ज्ञान की प्राप्ति के बाद ।
'दादा' निरंतर खुद की प्रकृति की प्रत्येक क्रिया को 'देखते' ही रहते थे, 'देखते' ही रहते थे...
कारण प्रकृति और कार्य प्रकृति - कार्य प्रकृति में कोई भी बदलाव नहीं किया जा सकता लेकिन कारण प्रकृति में थोड़ा बहुत किया जा सकता है। उदाहरण के तौर पर चोरी की आदत हो तो दृढ़ निश्चय कर-करके उसमें से बाहर निकल सकता है, उतना परिवर्तन करने का अधिकार है। अर्थात् कारण प्रकृति सूक्ष्मरूपी है । उसे समझकर वहाँ पर परिवर्तन करने के बजाय लोग कार्य प्रकृति में परिवर्तन करने जाते हैं । जो अंत में तो व्यर्थ साबित होता है!
खुद के पास जितना ज्ञान है, उतना पुरुषार्थ हो पाता है। सतज्ञान, वे पूर्ण भगवान हैं। जितने अंश तक भगवान उसके पास है उतना ही पावरफुल उसका पुरुषार्थ है ! सर्जन ज्ञान के अनुसार होता है और विसर्जन प्रकृति के अधीन होता है यानी कि साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स ।
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