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कुदरत है और उनके मिलने से जो शरीर बना, वह प्रकृति है ! प्रकृति में करनेवाले (अहंकार) की ज़रूरत है। कुदरत में करनेवाला नहीं होता । कुदरत खुद ही कुदरती रचना है । प्रकृति में पुरुष का वोट ( सहमति) है, कुदरत में नहीं है । उसमें मात्र साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स ही हैं।
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[ १.२ ] प्रकृति, वह परिणाम स्वरूप से
कहावत है कि प्रकृति और प्राण साथ में जाते हैं। क्या यह सही है? आत्मज्ञान मिलने के बाद यदि गाढ़ आवरणवाली प्रकृति हो तो उसमें कोई फर्क नज़र नहीं आता। बाकी साधारण आवरणवाली प्रकृति तो खत्म हो जाती है, इसीलिए इस अक्रम में तो कई बार ऐसा लगता है कि यह कहावत गलत हो गई !
खाना-पीना, सोना, काम करना, मान-अपमान, यह सब प्रकृति करवाती है, आत्मा नहीं । कर्म ही प्रकृति है । प्रकृति प्रारब्ध है, इफेक्ट है। जो प्रकृति का यह गुह्य साइन्स समझ ले, वह पार उतर जाए !
प्रकृति ज़बरन नचाती है और खुद मानता है कि 'मैं नाचा!' यह सब प्रकृति करवा रही है, ऐसा जो जानता है, वह प्रकृति से अलग ही है ! वह अलग रहकर पूरी प्रकृति का नाटक होने देता है। खुद उसे 'देखता' रहता
है!
प्रकृति परवश है, स्ववश नहीं है, फिर वह भले ही कोई भी हो ! केवलज्ञान के बाद कषाय संपूर्ण रूप से नष्ट हो जाते हैं लेकिन मोक्ष में जाने तक प्राकृत अवस्थाएँ रहती हैं।
स्वसत्ता और परसत्ता के लाइन ऑफ डिर्माकेशन समझ जाने के बाद परसत्ता में डखोडखल (दखलंदाज़ी) न करे तो एकाध जन्म में वह छूट जाता है। परसत्ता की बाउन्ड्री क्या है ? दादाश्री ने चरोतरी पटेलवाली भाषा में स्पष्ट कह दिया है कि 'इस वर्ल्ड में ऐसा कोई भी नहीं जन्मा है कि जिसे संडास जाने की भी स्वतंत्र शक्ति हो !' अब अगर इतनी भी शक्ति नहीं है तो और कौन सी शक्ति हो सकती है?
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