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१२, बर्ष ३५, कि०१
भनेकान्त स्त्री तथा म्लेच्छों के विषय में विभिन्न मनुष्य शरीर रचना काल में भारत देश की पैमाइश सुनिश्चित रूप में की शास्त्र विषयक सूचनायें हैं। इसमें म्लेच्छों का ५ प्रकार गई थी।
विश्व अथवा भारत के नकशे को बनाने की कला का का वर्गीकरण है--(१) शक (२) यवन (३) चिलात
।
प्रमाण भद्रबाहु के वृहत् कल्पसूत्र (४०० ई० प्र०) (४) शबर तथा (५) बर्बर। जीवाजीवाभिगम के सूत्र
इसमे कहा गया है-- १०५ से १०६ में मनुष्यो के विभाजन का प्रयत्न किया।
तरुगिरिनदी समुद्दो भवणावल्लीलयाविणाय । गया है। यह नहीं कहा जा सकता है कि यह कितना
निद्दीसचित्तकम्म पुन्न कलस सोत्थियाई य ।। वैज्ञानिक है। इसमें दो मुख्य वर्गों की जानकारी है। ये
तत्त्वार्थमूत्र मे जम्बूद्वीप का नकशा बतलाया गया दो वर्ग अनेक उपवों में विभाजित है। बे है-अ
है। सूत्र की टीका से ज्ञात होता है कि प्राचीनकाल के (१) सम्मूच्छिम मनुष्य (२) गर्भव्युत्क्रान्तिक । ब
मनुष्य 'स्केल' के विचार से परिचित थे और एक छोटे मे (१) कर्मभूमक और अन्त:पक । अन्तीपक के २८ भेद ।
'स्केल के आधार लम्बे परिणाम की वस्तु की रचना कर है । जैसे--एकोरक, गूढदन्त तथा शुद्धदन्त इत्यादि।
सकते थे----- तत्त्वार्थमूत्र की अकल देवकृत टीका में अनेक प्रकार "मध्येयप्रमाणावगमार्थ जम्बूद्वीपतुल्याय विष्कम्मा के मनुष्यों और उनके व्यवमाय का वर्णन है।
योजनसहस्रावगाह बुध्याकुशूलाश्चत्वार कर्तव्या.-शलाका ___अगविज्जा (चौथी शताब्दी ई.) में मनुष्य शरीर ।
प्रतिशलाका महाशलाकाख्यास्त्रयो व्यवस्थिता चतुर्थोऽनन रचना शास्त्र विषयक कुछ नथ्य निहित है। इसके २४वे वस्थिन।" अध्याय में मनुष्यो का आर्य और म्लेच्छो के रूप में वहन्क्षेत्र समास के वर्णन मे यह प्रकट है कि यह ग्रन्थ विभाजन है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य नथा शूद्रो का रग अनेक प्रकार के विश्व के चित्रो मे परिचित है। तिलोय. इसमें सफेद, लाल, पीला तथा काना वर्णित है। जीव पण्णत्ति मे आकाश का एक Digrama ic नक्शा दिया विचार मे अनेक प्रकार की जातियों वर्णित है । जैसे- गया है। माधवचन्द्र विद्य (१२२५ ई.) ने एक शब्द असुर, नाग, पिशाच, राक्षस तथा किन्नर । नाप का सबसे संदृष्टि का प्रयोग किया जिसका शायद अर्थ 'भौगोलिक पहले निर्देश सम्भवत तत्त्वार्थाधिगम मूत्र में पाया जाता डाइग्राम' या उदाहरण था। है। इसमे सूत्र विशेष की टीका में अकलङ्कदेव कहते प्रज्ञापना की टीका मे हरिभद्रसूरि (७०५-७६७ ई०) है-आठ मध्य का एक उत्सेधागुल होता है। ५०० ने १२ प्रकार की वनस्पति का वर्णन किया है.---१. वक्ष उत्सेधागुल का एक प्रमाणाङगुल होता है। यह अवसर्पिणी २ गुच्छ ३. गुल्म ४. लता ५. वल्ली ६. पर्वग (गन्ने जैसी) के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट का आत्माङ्गुल है। उस समय ७. तृण ८. वलय ६. हरित १०. औषधि ११. जलव्ह ग्राम, कसबे इत्यादि इसी परिमाण से मापे जाते थे। दूसरे १२. कुहणा (भूमि के अन्दर उगने वाली। कालो मे भिन्न-भिन्न आत्माइगुलों का प्रयोग किया गया। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति और तिलोयपण्णति में विभिन्न प्रमाणाडगुल महाद्वीप, द्वीप, समुद्र, वेदिकायें, पर्वत विमान, प्रकार के व्यवस्थित नगरों का वर्णन है। जेसे-नन्द्यावर्त, तथा नरकपटलो की माप के लिए प्रयुक्त किया गया। इस वर्द्धमान, स्वस्तिक, खेट, कर्बट, पट्टन इत्यादि । अगविज्जा प्रकार यह देखा जा सकता है कि जैन प्रत्येक प्रकार की के २६वें अध्याय में ६४ प्रकार के नगरों का वर्णन हैभौगोलिक वस्तु की माप से परिचित थे। यहाँ तक समुद्रो राजधानी, शाखानगर, पर्वतनगर, आरामबहुल, पविटनगर, का भी परिमाण बतलाया गया है। समुद्र के किनारे के विस्तीर्णनगर । जैनो मे जनपद परीक्षा की परम्परा थी। प्रदेश तथा जलप्राय प्रदेशो का भी माप होता था। जिसने Field Work (फील्डवर्क) तथा क्षेत्रीय भूगोल के तिलोयपण्णत्ति (५०० ई०) मे माप की वही विकसित विकास में अधिक कार्य किया है। दशा है जो कि तत्त्वार्थाधिगम सूत्र की है। द्वीप, समुद्र, सातवी शताब्दी की एक कृति बहत-क्षेत्र समास से वेदी, नदी, झीलें, तालाब, विश्व तथा भरत क्षेत्र यह प्रकट है कि समुद्र विद्या पर लिखने मे जैनों का प्रमाणाङ्गुल के माप से नापे गए हैं। तिलोयपण्णत्ति के
(शेष पृष्ठ १५ पर)