Book Title: Anekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 17
________________ जैन परम्परा में निक्षेप पद्धति चार्य श्लोक ६ पृ० ४। २१. षटखण्डागम पुस्तक ४ खण्ड १ भाग ३, ४, ५ स० १०. द्रव्यस्वभाव प्रकाशक नयचक्र-माइल्लधवल गाथा २७१-२७२ पृ० १३६, स० प० कैलाशचन्द्र शास्त्री। २२. सोऽयमित्यक्षकाण्णादे. सम्बन्धेनान्यवस्तुनि । यदयव ११. षडावश्यकाधिकार गाथा १७ । स्थापनामात्र स्थापना सामिधीयेतो तत्वार्थसार श्लोक १२. गाथा १/१८ । १३. गाथा १२६ । १४. नयानुगतनिक्षे पैरुपायर्भेदवेदने। विरचय्यार्थवाक- र २३. सायार इयरठवणा कित्तिम इयरा हु बिजा पढमा। प्रत्ययात्मभेदान् श्रुतापित्मन् । इयरा खाइय भणिया ठवणा अरिहोय णायन्बो ।। उ० स्वभावप्र शिकनयचक्र स० प० कलाशचन्द शास्त्री लघीयस्त्रम, स्व वृ० श्लोक ७८ । पृ० १३७ । १५. षट्खण्डागम पुस्तक ४ खण्ड १ भाग ३, ४, ५ स० । हीरालाल जैन पृ० ३। २४. गुणगुणान्वा द्रत गत गुणंद्रोग्यते गुणान्द्रोठयतीति वा १६. निमित्तान्तरानपेक्ष सज्ञाकर्म नाम ।। त० रा० वा० ।। द्रव्यम् ।।मवार्थमिद्धि १-५ ।। स० प्रो० महेन्द्रकुमार १/५ पृष्ठ २८ । २५. तत्वार्थमार श्लोक १२ । २६ पञ्चाध्यायी १-७४३। १७. अतद्गुणे वस्तुनिसव्यवहारार्थ पुरुपाकागन्नियुज्यमान २७ पटखण्डागम पुस्तक 6 खण्ड १ पृष्ठ ५। सज्ञाकर्म नाम-सर्वार्थसिद्धि-पूज्यपाद स० प० फूलचद। २८ तत्वार्थवातिकालकार-अनु प० गजाधरलाल जी तथा सि० शा० पृ० १७ । १० मक्खनलालजी पृ० १२६-१२७ । १८. पञ्चाध्यायी-१-७४२ । २६ ममणसुन गाथा ७८३-७८८ पृ० २३८ । १६. मोहरज अतराए हणणगुणादो य णाम अरिहती। ३०. पट्खण्डागम पुस्तक ८ खण्ड व भाग ३, ४, ५। अरिहो पूजाए वा सेसा णार्म हवे अण्ण ॥ द्र० स्वभाव ३१. द्रव्यस्वभाव पकाशकनयचत्र सपादक प० कैलाशचन्द प्रकाशक नयचक गाथा २७३ । शास्त्री गाथा २८२। २०. जैनतर्क भाषा पृ० २५ । —जैन हैपी स्कूल नई दिल्ली (पृष्ठ १२ क शेपाश) दृष्टिकोण वैज्ञानिक था। यह बात उपयुक्त ग्रन्थ के का कहना है कि समुद्र वायु द्वारा प्रवृत्त होता है और लवणाध्यधिकार तथा कालोदध्यधिकार से प्रकट है। दिशाओ में बढता हुआ ४००० धनुष ऊँचाई तक बढ़ता है। पहले अधिकार मे लवण समुद्र का माप, इसकी गहराइयाँ, जीवाजीवाभिगम मे कहा गया है कि ज्वारभाटे का ज्वारभाटीय क्रियाये, विभिन्न द्वीपो की गहराई तथा कारण महापटल की मजबूत हवाये (उदारवात) होती है। जलस्तर का वर्णन है। दूसरे मे कालोदधि का माप, इसके आवश्यक सूत्र से ज्ञात होता है कि भारतीय नौविद्या तथा जल की प्रकृति तथा दूसरे पहलुओ का वर्णन है। वाणिज्य मे बहुत बडे थे । उनका यह काल ६०० ई० पू० तत्त्वार्थवार्तिक मे अकलङ्कदेव ने आठ महत्त्वपूर्ण था । यहाँ समुद्री कप्तान के लिए 'णिज्जामक' शब्द का समुद्रों के नाम दिए है-~-१. लवणोद २. कालोद ३. प्रयोग किया गया है । समराइच्च कहा में भारतीयो की पुष्करोद ४. वरुणोद ५. क्षीरोद् ६. घृतोद् ७. इक्षुद उत्साह और साहसपूर्ण समुद्री यात्रा की कहानिया है । एक ८. नन्दीश्वरोद । बृहत् क्षेत्र समांस की टीका मे सन्दर्भ से यह बात प्रकट है कि भारतीय लोग चीन, स्वर्ण ६. अरुणावरोद । भूमि और रत्नद्वीप बड़े-बड़े जहाजों में जाया करते थे । तत्त्वार्थाधिगम की टीका में भारतीय समुद्रों की र गहराई का वर्णन है। सूत्र ३२ की टीका से ज्ञात होता है इस प्रकार जैन भूगोल अपने अन्तर्गत बहुत सारी कि आन्तरिक और बाह्य समुद्री किनारे तथा समुद्री क्षेत्र भौगोलिक विशेषताओ को अपने गर्भ में छिपाए हए है, के लिए भिन्न-भिन्न शब्दो का प्रयोग होता था। ये शब्द इसका विस्तृत अध्ययन एवं अन्वेपण अपेक्षित है। थे-(१) अन्तरवेला (२) बाह्य वेला (३) अग्रोदक जैनों -जैन मन्दिर के पास बिजनोर, उ० प्र०

Loading...

Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145