Book Title: Anekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 99
________________ श्रावक के व्रत पंग्रचन्द्र शास्त्री व्रत का भाव विरति-विरक्तता है। साधुवर्ग संसार- 'यत् खलु कषाययोगात् प्राणाना द्रव्य-भावरूपाणाम् । शरीर भोग से निविण्ण होता है और श्रावक संसार-शरीर व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ।।'भोगो मे रहते हुए इनमे मर्यादाएँ करता है और अभ्यासपूर्वक धीरे-धीरे साधु-सस्था तक पहुचाता है । मर्यादा बाँध कषाय के योग-निमित्त अर्थात् वशीभूत होकर किसी कर भव-बन्ध कारक पापजनक क्रियाओ का त्याग करना जीव के द्रव्यरूप अथवा भावरूप या दोनो प्रकार के प्राणो यानी स्थूलरीति से पापो का त्याग करना अणुव्रत कहलाता का हरण करना-प्राणो को बाधा पहुचाना हिमा है। है । ऐसी अणुव्रती दशा में कोध, मान, माया, लोभ कपायो भावार्थ ऐसा है कि प्राण दो प्रकार के माने गए है---पाच का शमन, इन्द्रिय-जय की प्रवृत्ति भी मुख्य है। वास्तव में इन्द्रियाँ, मन-वचन-कायरूप तीनो बलो, आयु और श्वासोधर्म निवत्तिमार्ग है, और प्रवृत्ति से उसका सबध येवल च्छ्वागो में से किसी एक के हरण करने अथवा किसी एक आत्मा तक सीमित है। इसका अर्थ ऐसा है कि आत्म- का धान पहुचाने का नाम हिंसा है-यदि उन करने मे प्रवृत्ति के लिए पर-निवृत्ति आवश्यकीय साधन है। अत क्रोध, मान, माया अथवा लोभ किसी एक का भी सहकार श्रावक आत्म-विघातक पाँच पापो के त्याग पर बल देता है। क्योकि बिना कषायो के जाग्रत हुए पाप कर्म नही है और पाप त्यागरूप अहिंसा आदि पाँच अणुव्रतो को होता। अत मानव को अपनी कषायो पर अकुश रखना नियमत. पालता है। जिन अणुव्रतो को नियमत पालता चाहिए। उक्त दश प्रकार के प्राणो को ही दो अपेक्षाओ है उन अणुव्रतो के संबंध मे यहाँ चर्चा की जाती है, वे से (बहिरंग और अंतरंग) द्रव्य प्राण और भावप्राण नामों इस प्रकार है से कहा गया है। इन दोनों प्रकार के प्राणों की रक्षा करना धर्म है। ऐसा कहा गया है कि-'आत्मनः प्रति१. अहिंसा-अणुव्रत २. सत्य-अणुव्रत ३ अचीर्य-अणुव्रत कूलानि परेषा मा समाचरेत् ।'--अर्थात् सब आत्माओं को ४. ब्रह्मचर्य-अणुव्रत ५. परिग्रह परिणाम अणव्रत, इन्ही का अपने ममान ही समझना चाहिए । जब हमे सुई चुभने पर क्रमश वर्णन किया जाता है। दुग्न होता है तब दूसरो को भी सुई मे दुख होना अवश्य भावी है। जैनाचार्य इसकी अत्यन्त गहराई में चले गए है (१) अहिंसा अणुव्रत-बहुत से लोगों का ऐसा और उन्होने हिंसा से बचने के लिए यहाँ तक कह दिया है विचार है कि जीवो को उनके मौजूदा शरीर से पृथक् कर कि मन से, वचन से, काया से, समरंभ से समारंभ से, देना-मृत्यु को पहुंचा देना ही हिंसा है। और उनके कृत से, कारित से, अनुमोदना से, क्रोध, मान, माया, लोभ रीर में आत्मा को रहने देना हिसा है। इसका तात्पर्य से या इन्द्रिय पुष्टि के बहाने से भी किसी जीव को कष्ट ऐसा हुआ कि जिन्होने जन्म से आज पर्यन्त किसी जीव के नहीं देना चाहिए। प्राणों का हरण नही किया वे सब अहिंसक है और ऐसे बहुत से आदमी आज मिल भी जाएँगे। पर, मात्र ऐसा ही जन-साधु महाव्रती होते हैं, उनके सभी प्रकार की नहीं है। जैनाचार्यों ने हिंसा-अहिंसा का जितना सूक्ष्म और हिंसा का सर्वया त्याग होता है। पर, श्रावक के हिंसा का विशद विवेचन किया है वैसा विवेचन निश्चय ही किसी त्याग मर्यादा पूर्वक यानी स्थूल रीति से होता है। इसका अन्य ने नहीं किया। उन्होंने कहा है अर्थ यह है कि श्रावक गृहस्थ होता है और उसे आवश्यक

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