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व्यवहार में सत्य के अनेक भेद किए गए हैं-जिन बातों के कार्य पर अधिकार हरण करने के कारण चारी में संमिलित करने मे धर्म का घात न हो और जो व्यवहार प्रसिद्ध हों, हो जाते है ऐसे पाप का त्याग करना ही उचित है : इस ऐसी बातें भी सत्य मे गभित है। जैसे-नाम सत्य, स्थापना अण व्रत के धारी का कर्तव्य है कि वह चोरी का प्रयोग सत्य, जनपदसत्य, संभावना सत्य, आदि ।
किसी को न सिखाए, चोरी से आई वस्तुओं का आदानसत्य-अणुवती श्रावक सत्य बोलता है पर ऐसा सत्य प्रदान न करे, राज्याज्ञा के विरुद्ध आचरण न करे, भी नही बोलता है। कटु-बचन, सत्य भले ही कहा जाय, हीनाधिक तौल-माप न करे, मिलावट न करे, आदि : पर वह दूसरों के दिल दुखाने वाला होने से झूठ ही माना ब्रह्मचर्याणवन: जाता है। पर की प्राण-रक्षा के निमित्त बोला गया असद् पुरुषवेद या स्त्रीवेद के उदय से एक दूसरे के साथ (असत्य) रूप वचन भी जीव रक्षा के कारण सत्य है। अतः रमण करने के भाव को अब्रह्म कहा गया है। रमण करे अणुव्रती को अहिंसा की रक्षा के निमिन ऐसे वचनों को या न करे, मन में भावमात्र होना भी ब्रह्मचर्य का भग है। बोलने का भी विधान है। महाव्रती, पर-जीवन की रक्षा इस पाप से आशिक निवृत्ति लेने वाला श्रावक ब्रह्मचर्याणके निमित्त असत्-रूप बचन कदापि नहीं बोलता और ऐसी व्रती कहलाता है। वह अपनी विवाहिता स्त्री, (और स्त्री स्थिति के उत्पन्न होने पर वह मौन रह जाता है। विवाहित-पुरुष) के सिवाय अन्य किसी के प्रति रमण के
सत्य बचन को महत्त्व इसलिए भी है कि सत्य, पदार्थ भाव नही रखता। वह एक दूसरे मे राग बढाने वाली का स्वरूप है। जो द्रव्य या परार्थ जिस रूप है, वह त्रिकाल बातो को न सुनता है और न सुनाता है, उसके अंर्गों को उसी मूलरूप मे रहेगा-उसकी पर्याय भले ही परिवर्तन- भी बुरे भावों से नही देखता । पहिले भोगे हुए भोगों की शील स्वभाव वाली हो। इसलिए जब तक हम सत्य पर याद भी नहीं करता । गरिष्ट भोजन भी नहीं करता और पर नही पहुंचेगे, तव तक हम हित-अहित का बोध न होगा, अपने शरीर को सजाता भी नही है : भाव ऐसा है कि मन हम ग्राह्य एव अग्राह्य मे मे भेद भी न कर सकेगे-हमे को अब्रह्म की ओर ले जाने वाला कोई कार्य नही करता। दुखों से मुक्ति भी न मिल सकेगी। अत. आत्म-लाभ की परिग्रहपरिमारखावत: दृष्टि से भी हमें सत्य व्रत लेना उचित और उपयोगी है। राग या लोभ के वशीभूत होकर धन-धान्य आदि का व्रत में दृढ़ता के लिए निम्न दोषो से भी बचते रहना संग्रह, परिग्रह कहलाता है। वास्तव में मूर्छा यानी ममत्वचाहिए । यथा
भाव ही परिग्रह है। लोग पदार्थों का सग्रह तब ही करते 'मिथ्योपदेशरहोऽभ्याम्ब्यानकटलेखक्रियान्यामापहार है, जब उन्हें पदार्थों के प्रति राग या लोभ होता है। जो साकार मत्रभेदा.।'
लोग अपनी आवश्यकताओ मे कृशता करके उन आवश्यककिसी को मिथ्या उपदेश न दें, किसी के गुप्त रहस्यो ताओं की पूर्ति के लिए यथावश्यक सचय कर उसका को सार्वजनिक रूप से प्रकट न करें, झूठे पत्र तैयार न उपयोग करते है, वे परिग्रह परिमाणाण व्रती है, ऐसे प्रती करें। इन बातों से हम सत्यव्रत की रक्षा कर सकते है। पदार्थों की मर्यादा भी निश्चित कर लेते है और वे मर्यादित ३. प्रचौर्य प्रणुव्रत :
पदार्थ आवश्यकताओं की कृशता की सीमा में होते है। एक प्रमाद-कषाय यानी, क्रोध, मान, माया और लोभ व्यक्ति जब अधिक सग्रह कर लेता है तो दूसरे अभावग्रस्त के वश मे होकर किसी की वस्तु को उसकी अनुमति के और दुखी हो जाते है। राष्ट्रो के पारस्परिक युद्ध भी बिना लेना चोरी है। इस पाप का स्थूल रीति से त्याग परिग्रह-सचय की दृष्टि में ही होते हैं। इसलिए सुख-शान्ति करना अचौर्याण व्रत है। अचोर्याण व्रती को ऐसा कोई कार्य के इच्छुकों को यह व्रत अत्यन्त उपयोगी है। या व्यापार भी नहीं करना चाहिए, जिसमे अनतिकता या दिग्वत: मिलावट का समावेश हो । असली घी मे नकली मिला कर पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण तथा ईशान आदि बेचना और दाम असली के लेना आदि धोखाधटी के सभी चतुष्कोण, ऊर्ध्व और अधो दिशाओं मे आने-जाने की मर्यादा