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३० बर्व ३५, कि०४
भमेकान्त हैं। फलतः चारित्र ही मुख्य है। जो जितना अन्तरंग व हैं इन सेमीनारों के विकृत-रूप, सम्मिलित होने वाले बहिरंग चारित्री होगा वह उतना ही 'जिन' और जैन के अनेकों महारथियों के आचार-विचार और धन के अप-व्यय निकट होगा। हां, इस चारित्र में शक्ति की अल्प व महत के विविध आयाम । किसी का कहना था कि उनके नगर व्यक्तत: की अपेक्षा अल्प -बहत्व अवश्य है-अल्प अणुव्रत मे पिछले वर्षों मे घटित एक सेमीनार में कुछ वाचकाचार्य व महत् महाव्रत कहलाता है। श्रावक का चारित्र अणुव्रत ऐसे भी थे जो नई पीढ़ी पर बिना छने पानी और कन्दमूल और मुनि का महाव्रत रूप है—पर, है वह सभी चारित्र। सेवन की छाप छोड गए और कुछ ने तो रात्रि-भोजन उक्त चारित्र के परिप्रेक्ष्य में आज की स्थिति क्या है? त्याग जैसे मोटे नियमो का भी उल्लघन किया। यह विचारणीय विषय बन रहा है।
उक्त प्रसगो मे सोचना पडेगा कि इन सेमीनारों के ___ आज लोगों में सम्यग्दर्शन प्राप्त करने को दबाव डाला आयोजन दुरूह तत्त्व-ज्ञान के आदान-प्रदान मात्र के लिए जाता है, आधुनिक के सन्दर्भ मे ज्ञान के विस्तार का हो या आचार-विचार का मूर्त-रूप प्रस्तुत करने के लिये निर्देश दिया जाता है, आध्यात्मिक चर्चाएं होती है । सम्मे- भी ? आज जबकि शास्त्रों-सम्बन्धी खोजों के प्रसगो से लनो और सेमीनारो के आयोजन किये जाते है--आदि ! भण्डार भर चुके है-लोग इतना लिख चुके है कि उन्हे यदि उक्त सभी आयोजन आचरण मे उतरने की ओर पढ़ने और छपाने वाले भी दुर्लभ हो रहे है। इन प्रभत अग्रसर दिखाई देते हों तो सभी सकल्प और आरम्भ शुभ लेखों और अनुवादो ने मूल भाषा और भावों को लोगो हैं। पर अधिकाशत: ये आयोजन क्या है ? चर्चाए क्या की आँखो से दूर-सा जा पटका है-वे आचार्यों के मूलहैं ? और सेमीनार क्या है ? इनके वास्तविक रूपो पर भावो से दूर जा पड़े है और वाह्याचार-विचार (प्रगट मे लोगों की दृष्टि नही । अन्यथा-क्या कषायपोपण और जैनत्व दर्शाने वाली-प्रभावक क्रिया) से भी शून्य जैसे हो आचार-विचार शून्यता में की जाने वाली सम्यग्दर्शन की रहे है । तब क्यों न मूल ग्रन्थो के पठन-पाठन की परिचर्चाएँ धर्म से दूर नहीं ? क्या वर्तमान उत्सव व सेमी- पाटी का पुनः प्रयत्न किया जाय और क्यो न मृत-आचारनारों के आयोजन प्रायः प्रभूत सम्पत्ति व्यय करने वाले विचार प्रसार के लिए चारित्र विषयक ग्रन्थो के शोध व और साधारण ज्ञान-पिपासुओं को लाभ देने से दूर नही? मूर्त आचार प्रस्तुत करने के मार्ग खोजे जाए? द्रव्य उधर क्या दोनों के ही मूल मे चारित्र का अभाव नही ? बहतों लगे या दिखावे मे ? जरा सोचिये ! मे प्रकट कषाय-मान आदि दृष्टिगोचर हैं नो बहुतो मे लोभादि के सद्भाव रूप अन्तरंग कलुषता और वाह्याचार- ३. धम का मूल अपरिग्रह शून्यता।
जिन धर्म वीतराग का धर्म है और इसकी भूमिका मे वर्तमान सेमीनार क्या कुछ दे जाते हैं, ये लेने वाले अपरिग्रह की प्राथमिकता है, चौबीसो तीर्थकर भी वीतजानें । पर अनुभव तो ऐसा है कि एक ओर जहा उत्सवो राग पहिले और धर्म-उद्घोषक बाद में बने पूर्ण ज्ञानी होने व सेमीनारो मे पठित कतिपय निबन्ध बहुत घिसे-पिटे और पर ही उनकी दिव्य-देशना हुई। फलतः जितने अशों में कई २ जगह वाँचे होते है-उनमें पिष्ट-पेषण भी अधिक जीव वीतरागी-अपरिग्रही होगा वह उतने अशों मे जैनी मात्रा में लक्षित होते हैं, तो दूसरी ओर बहुत से नये होगा। तीर्थकर महावीर का युग एक ऐसा युग था प्रबन्ध कुछ बुद्ध-वोधितो तक ही सीमित रह जाते है और जब हिंसा का बोलबाला था और उस समय लोगों का कई वाचकों में तो आचार-विचार सम्बन्धी मूर्तरूप भी परि. आकर्षण केन्द्र जीवो का चीत्कार बना हुआ था-वे अहिंसा लक्षित नहीं होता। ऐसे सेमीनारो में अधिकांश लोगों को का उपदेश चाहते थे । सयोग से ऐसे समय मे तीर्थकर की खासकर स्थानीय युवापीढ़ी को धर्म के अनुकूल कुछ नहीं सर्वधर्म-उद्घोषक देशना हुई और लोगों ने उसमें से एकमिल पाता और कभी-कभी तो इ: सेमीनारों से विप. मात्र वांछित धर्म-अहिंसा को प्रमुखता देकर महावीर रीत प्रभाव होता भी देखा जाता है जैसे—युवक जान लेते की देशना को मात्र अहिंसा धर्म विशेषण से प्रतिबद्ध कर