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वर्ष ३५ : कि०१
जनवरी-मार्च १९८२
त्रैमासिक शोध-पत्रिका
अनेकान्त
बानपुर का प्रसिद्ध ऐतिहासिक सहस्रकूट जिनालय
प्रकाशक
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
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इस अक में
क्रम
विषय १. मन को सीख २. धर्मस्थल में भ० बाहुबली-डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ३. ब्रह्म जिनदास सबधी विशेष ज्ञातव्य-श्री अगरचद नाहटा ४. राम का वन गमन म्बयभ और तुलसी-डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, इन्दौर ५. जैन भूगोल कुछ विशेषताएं-डॉ० रमेशचन्द्र जैन ६. जैन परम्परा मे निक्षेप-पद्धति-श्री अशोक कुमार जैन ७. विश्वधर्म बनाम जैनधर्म-डॉ० महेन्द्रमागर 'प्रचडिया' ८, आ० नेमिचन्द्र सि० चक्रवर्ती–डा. हरीन्द्रभूषण जैन ६. जरा सोचिए : सम्पादकीय १०. साहित्य-समीक्षा
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'अनेकान्त' के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण प्रकाशन स्थान-वीर स्वा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ प्रकाशक-वीर सेवा मन्दिर के निमित्त श्री रत्नत्रयधारी जैन, ८ जनपथ लेन, नई दिल्ली राष्ट्रीयता-भारतीय प्रकाशन अवधि-त्रमासिक सम्पादक-श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागज, नई दिल्ली-२ राष्ट्रीयता-भारतीय स्वामित्व-वीर सेवा मन्दिर २१. दरियागज, नई दिल्ली-२
मै रत्नत्रयधारी जैन, एतद् द्वारा घोषित करता हूँ कि मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपर्युक्त विवरण सत्य है।
रत्नत्रयघारी जैन प्रकाशक
आजीवन सदस्यता शुल्क : १०१.०० ९० वार्षिक मूल्य : ६) रु०, इस अंक का मूरय : १ रुपया ५० पैसे
विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते है । यह आवश्यक नहीं कि सम्पादन
मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो।
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परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् ।
सकलनयविलासितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वर्ष ३५
वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ जनवरी-मार्च किरण १ वीर-निर्वाण सवत् २५०८, वि० स० २०३८
१९८२ मन को सीख "रे मन, तेरी को कुटेव ग्रह, करन विषय को धाव है। इनहो के वश तू जनादि तं, निज स्वरूप न लखावै है। पराधीन छिन-छोन समाकुल, दुरगति-विपति चखाव है ॥ रे मन० ॥ फरस विषय के कारन वारन, गरत परत दुख पाये है। रसना इन्द्रोवश झष जल में, कंटक कण्ठ छिदावे है ॥रे मन०॥ गन्ध-लोल पंकज मुद्रित में अलि निज प्रान खपावे है। नयन-विषयवश दीपशिखा में, अंग पतंग जरावे है॥रे मन०॥ करन-विषयवश हिरन प्ररन में, खल कर प्रान लुभाव है। 'दौलत' तन इनको, जि को भज, यह गुरु सीख सुनावे है ॥ रे मन०॥
-कविवर दौलतराम जी भावार्थ-हे मन, तेरी यह बुरी आदत है कि तू इन्द्रियों के विषयों की ओर दौड़ता है । तू इन इन्द्रियों के वश के कारण अनादि से निज स्वरूप को नहो पहिचान पा रहा है और पराधीन होकर क्षणक्षण क्षीण होकर व्याकुल हो रहा है और विपत्ति सह रहा है। स्पर्शन इन्द्रिय के कारण हाथी गढे में गिर कर, रसना के कारण मछली काँटे में अपना गला छिदा कर, घ्राण के विषय-गंध का लोभी भौंरा कमल में प्राण गँवा कर, चक्ष वश पतंगा दीप-शिखा में जल कर और कर्ण के विषयवश हिरण वन में शिकारी द्वारा अपने प्राण गँवाता है । अतः तू इन विषयों को छोड़ कर जिन-भगवान का भजन कर, तुझे ऐसी गुरु को सीख है।
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धर्मस्थल में भ. बाहुबली
a डा० ज्योतिप्रसाद जैन 'विद्यावारिधि
प्रायः समस्त प्राचीन भारतीय धर्मों का उदय उत्तर पर्याप्त मख्या मे निवास था। चौवीस तीर्थकरो में से भारत में हुआ, किन्तु उनके पोपण, विकास एवं प्रचार- अधिकाश की, और विशेष रूप मे ऋपभदेव, अजितनाथ, प्रसार का प्रधान श्रेय दक्षिण भारत को रहा है। वैदिक चन्द्रप्रभु, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर मत्रों की रचना सरस्वती-यमुना-गगा तटवर्ती ऋपियों की विभिन्ना कालो की अनगिनन खडिन-अखडित मूर्तियों ने की तो वेदों के प्रमुख भाष्यकार सायणाचार्य की यत्र-नन विद्यमानता दक्षिण भारत मे उवा नीर्थकरो की मेघातिथि आदि दक्षिण में हुए। वेदान्त के सर्वोपरि उपासना चिरकाल में चन आने की योक है। किमी भी प्रस्तोता तथा ब्राह्मण धर्मदर्शन में नवप्राण मवार तीर्थकर के गर्भ-जन्म-दीक्षा-ज्ञान-निर्वाण कल्याणको में मे करने वाले शकराचार्य और उनके सुयोग्य गिप्य मडन- कभी दक्षिण भाग ने किगीम्मान में नहीं हा, अन मिश्र ही नहीं प्राय. अन्य समस्त प्रमुख वेदाचार्य तथा वहाँ कोई भी कपाणक क्षेत्र गा मिटान नहीं है, नथापि वणवाचार्य दक्षिण भारतीय थे। नागार्जुन, दिनाग, जैथिभणा की गोभूमिपा, गाधना रान, ममाधिमरणधर्मकीर्ति, धर्मोत्तर प्रभृति उद्भट बौद्धाचार्य भी दक्षिण मे
म्मारक, गटदिर, कलापूर्ण जिनान प. जिनमदिर-नगर, ही हुए, और प्राय समस्त दिग्गज जैनाचार्य भी, विशेषकर
मानम्तम्भ, अनिणय क्षेत्र, कलाधाम और मास्कृतिक केन्द्र दिगम्बर परम्परा के, दक्षिणी ही थे । इस प्रकार भारतीय
कर्णाटक राज्य में तो पग-पग पर प्राप्त होते ही हे आन्ध्र, सस्कृति, साहित्य एव कला के भारतीय धर्मो एव दर्शनी ,
महागाद, तमिल, केरल आदि राज्यों में भी अनेक है। के संरक्षण, पोपण एव विकास में दक्षिण भारत का रोग
कदन, गग, चालुग, गदाट, होमल, विजयनगर, दान उत्तर भारत की अपेक्षा कुछ अधिक ही रहा है. एग
___ मैमूर आदि प्राचीन एव मध्यकालीन गज्या का हृद्थल कथन में कदाचित कोई अत्युक्ति नहीं है।
सुरम्य कर्णाटक देण अपने मास्कृतिक वैभनके कारण महादेश जैनधर्म का प्रसार दक्षिण भारत मे रवय आदिगुरुण भारत के अतीत तथा वर्तमान में भी गौन्यपूर्ण स्थान रखता भगवान ऋषभदेव के समय में ही रहता आया है, यह है। इनी कर्णाटक राज में श्री धर्मस्थल जमा अदभत पुराण प्रसिद्ध तथ्य है। ऐतिहासिक काल में तो प्राय ।
धार्मिक केन्द्र है, जिसके प्रधान आराध्यदेव तो मजुनाथेश्वर प्रारम्भ से ही उस भूभाग मे जैनधर्म के अस्तित्व के महादेव (शिव) हे, किन्तु र पुराहिल-गुजारी वैष्णव लक्ष्य उपलब्ध है । पार्व, महावीर युगीन करकडु, ब्राह्मण होते है. और मर्वोपरि व्यवस्थापक एव प्रबन्धक जीवधर आदि परमधार्मिक जैन नरेश दक्षिणात्य थे। धर्माधिकारी' उपाविधारी हेग्ग है जो जैनधर्मावलम्बी है। चौथी शती ईसापूर्व के मध्य के लगभग अतिम श्रुतकेवलि मुलत. इस स्थान का नाम 'कुड्भा' था। लगभग भद्रबाहु द्वादशवीय महादुष्काल का पूर्वाभास पाकर जब आठ मौ वर्ष पूर्व श्री वर्मण्ण हेगडे अपनी धर्मपत्नी श्रीमती अपने १२००० निर्ग्रन्थ मुनि-शिष्यो सहित उत्तर भारत से अम्मू बल्लालती सहित इम स्थान पर आकर रहने लगे। विहार करके कर्णाटक देशस्थ कटवप्र पर्वत पर पधारे थे, पति-पत्नी दोनो ही धार्मिक मनोवृत्ति के दानशील जैन जो उस समय भी एक पवित्र जैनतीर्थ के रूप में प्रसिद्ध मद्गृहस्थ थे। अपने आवास के निकट ही उन्होंने अपने था, तो यह तभी सभव था जबकि इन प्रदेशो मे जिनधर्म इप्टदेव तीर्थकर चन्द्रनाथ स्वामी का छोटा-सा सुन्दर पहले से ही विद्यमान था और उसके अनुयायियो का यहाँ जिनालय बना दिया। शैवाचार्य अण्णप्पा स्वामी की प्रेरणा
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धर्मस्थल में भ० बाहुबली
एव प्रयास से स्थान के मुख्य आराध्य के रूप में मजुनाथ उत्तुग प्रस्तर प्रतिमा का निर्माणारम्भ किया जो १६३७ में शिव की स्थापना हुई, तथा शनै शनै अन्य देवी-देवताओ पूर्ण हुआ। तदनन्तर उसे कार्कल से धर्मस्थल स्थानांतरित के आयतन स्थापित हए, और १६वी शनी मे उडुप के किया गया जो एक अति दुस्तर एव व्ययसाध्य कार्य था। मोदेमठाधीश्वर वादिर राज स्वामी ने इस क्षेत्र का दुर्योग से रत्नवर्म जी हेग्गड़े का स्वर्गवास हो गया, किन्तु नामकरण 'धर्मस्थल' कर दिया। थी बर्मण्ण हेग्गड़े के उनके योग्य पुत्र एव उत्तराधिकारी, धर्मस्थल के वर्तमान वशज मन्ततिक्रम से इग पुण्यक्षेत्र के धर्माधिकारी होते रहे, धर्माधिकारी श्री वीरेन्द्र हेग्गडे ने पिता के अधूरे छोड़े जिनकी .... कीगवी पीढी चल ही है।
कार्य को भरपूर लगन के साथ पूरा किया। गत ४ फरवरी प्राय सभी जानिया, धर्मो एव सम्प्रदायों के भक्तजन ५९८२ को विशाल पैमाने पर धर्मस्थल के उक्त भ० बडी संख्या में इस क्षेत्र की यात्रा करते है जिसके कारण बाहुबली का प्रतिष्ठापना एवं प्रथम महामस्तकाभिषेक उसकी आय भी प्रभत है। राज्य का सरक्षण एवं प्रश्रय
महोत्सव सम्पन्न हुआ है। भी सदैव प्राप्त रहा। हंग्गटे धर्माधिकारियों ने इस क्षेत्र वर्तमान कर्मभमि के आदियुगीन महामानव भ० के माथ स्वय को आत्ममान किए रखा है, और उसकी वाहवली के विशालकाय उत्तुग विग्रह प्रतिष्ठापित करने ममम्त व्यवस्था, विविध धर्मोत्सवो के आयोजन नपा की जिन परम्परा का एक महसू वर्ष पूर्व मत्रीश्वर मार्वजनिक हित एव जनकल्याणकारी अनेक प्रवृत्तियों को चामुण्डाय ने श्रवणबेलगोल में ॐ नम. किया था, उसकी कार्यान्वित किया है। उनकी गर्पिन एकनिष्ठ माधना महस्राब्दि का ममुपयुक्त समापन धर्माधिकारी श्री वीरेन्द्र एव लगन के फनग्वम्ग म्वय उनका तो गौरवपूर्ण एव हेगडे ने टम उ तुग प्रतिमा की धर्मस्थल के बाहुबली प्रतिष्ठित स्थान बना ही. क्षेत्र की भी मर्वतोमुखी उन्नति विहार में प्रतिष्ठापना द्वारा किया है, जिसके लिए वह होती आई है। 'बसन्त महल' नामक अनिभव्य सभागार माधुवाद के पात्र है। भ० बाहुबली की विशालकाय की अनेक उत्तम कलाकृतियाँ स्व० गजमलय हेग्गड़े द्वारा मूर्तियो मे धर्मस्थल की इस प्रतिमा का छठा स्थान है, निर्मित एवं निर्मापित है। वर्तमान शती के प्रारम्भिक किन्तु आकार की दृष्टि में तीसरा है --केवल श्रवणबेलगोल दशको मे गजा चन्दया हेग्गरे मन्नानक्रम मे १८वे या १६वे (५७) फुट और कार्कल (४२) फुट की मूर्तियाँ ही धर्मस्थल धर्माधिकारी थे। वह बढे प्रतिष्ठित एव गन्यमान मज्जन की इस मूर्ति से अधिक विशाल है, शेग समस्त दक्षिण एव थे उनके उत्तराधिकारी श्री रन्न वर्म हैग्गने को धर्मस्थल के उनर भारतीय बाहुबली मूर्तियाँ आकार में उमसे छोटी है। नवनिर्माण का प्रमुख श्रेय है। अपनी धर्मपत्नी श्रीमती लाचार्य श्री विद्यानन्द जी महाराज के आशीर्वाद ताम्मा जी की प्रेरणा से उन्होने धर्मस्थल में भगवान एय मानिध्य, श्रवणबेलगोला के भट्टारक श्री चासकीर्ति वाहवाली के विशाल विग्रह की स्थापना का सकल्प किया स्वामी जी की अध्यक्षता और साहू श्रेयाम प्रमाद जी तथा और उसके कार्यान्वयन में वह मनोयोग में जुट गए। मंठ लालनन्द्र हीराचद दोपी आदि के सक्रिय सहयोग से मन् १९६७ ई० में कार्कल के णिली श्रेष्ठ रेंजाल गोपाल धर्मस्थल के दम महोत्सव ने आशातीत सफलता प्राप्त घेणे की देखरेख में लगभग एक मी कारीगरी ने ३६ फुट की है। ---ज्योति निकुज, चार बाग, लखनऊ
अभिनन्दन दिनांक ६ फरवरी १९८२ को लखनऊ में इतिहास मनीषी डा० ज्योतिप्रसाद जैन विद्यावारिधि को सप्ततिपूति के उपलक्ष्य में अनेक मान्य विद्वान तथा इष्टमित्रों ने डा० सा० का अभिनन्दन किया तथा डा० सा० के कार्यों को सराहा । उपयोगी विचारगोष्ठी हुई तथा 'ज्योतिनिकुंज' में 'पुरातत्व के माध्यम से इतिहास शिक्षा' प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। डा० सा० को धर्म और समाज के प्रति अनगिनत सेवाएँ हैं। 'अनेकान्त पत्रिका' के माध्यम से भी डा० सा० समाज को काफी देते रहते है। इस पुनीत अभिनन्दन के लिए वीर सेवा मन्दिर की ओर से डा० सा० के शत-शत अभिनंदन !
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ब्रह्म जिनदास सम्बन्धी विशेष ज्ञातव्य
श्री अगरचन्द नाहटा दिगम्बर, संप्रदाय के मरुगुर्जर और हिन्दी भाषा के कार हुए है उन्ही की तरह ब्रह्म जिनदास ने, संस्कृत और जैन कवियो मे १९वी शताब्दी के ब्रह्मजिनदास रास- लोक-भाषा मे बहुत-सी रचनाए की है। राजस्थान और शिरोमणि एव महाकवि माने जाते है। उनके सम्बन्ध में गुजरात के मिलेजुले बागड प्रदेश में उनका विचरण हुआ डा० प्रेमचन्द रावका ने डॉ नरेन्द्र भानावन के निर्देशन मे है। अत ५० जी राजस्थानी-गुजराती दोनो भाषाओ के शोध प्रबन्ध लिखा है जो अभी-अभी श्री महावीर ग्रन्थ कवि माने जा सकते है। पर मेरी राय में ये हिन्दी के कवि अकादमी, जयपुर मे डा० कस्तूरचद जी कामलीवाल के नहीं है, क्योकि हिन्दी भाषा से राजस्थानी एव गुजराती प्रयत्न से प्रकाशित हुआ है। डा० प्रेमचन्द रावका ने अलग व स्वतर भाषाए हैं। ब्रह्म जिनदास को महाकवि अपनी ओर से काफी श्रम करके इस शोध प्रबन्ध को कहा गया है, क्योकि इनकी ३ रचनाए--(१) आदिनाथ तैयार किया है। एव श्री महावीर अकादमी ने जो २० राम (२) रामराम (३) हरिवंश पुराण राम, इन तीनो भागों मे १९वी शताब्दी से २०वी शताब्दी तक के कवियों का ग्रन्थ परिमाण काफी बड़ा है पर ये तीनो रचनाएँ सम्बन्धी जानकारी उनके रचनाओ के प्रकाशन की योजना महाकाव्य की कोटि मे नही आती। ये कथा या चरित्रबनायी है, उसके अन्तर्गत 'महाकवि ब्रह्म जिनदाम व्यक्तित्व काव्य है पर काव्य शास्त्र में जो महाकाव्य के लक्षण एवं कृतित्व' के नाम से डा० प्रेमचन्द रावका का प्रस्तुत ।
बतलाये है, वैमी इन तीनों रचनाओं का वियष बहत शोध प्रबन्ध प्रकाशित किया है। उममे २८० पृष्ठ नो व्यापक एव वडा है। मूल पुराण या चरित्र ग्रन्थ जिनके उनके शोध प्रबन्ध के है। उसके बाद पृष्ठ २८१ से ४१०
आधार से इनकी रचना हुयी है, वे बड़े परिमाण वाले है (१३० पृष्ठों में) ब्रह्म जिनदास की कई रचनाएँ मूलरूप मे इसी से इनका परिमाण बढ जाना स्वाभाविक ही है। तथा कई आशिक रूप में प्रकाशित की गई है। आधारभूत
ब्रह्म जिनदास को 'रास शिरोमणि इसलिए कहा गया ग्रन्थो की सूची मे ११४ ग्रन्थों एवत्रिकाओ की नामावलि
है कि इन्होने रास सज्ञक रचनाए अधिक संख्या में रची दी गई है। उसके बाद नामानुक्रमणिका एव शुद्धिपत्र है।
है। पर वास्तव मे ये कथा ग्रन्थ ही है। ७० रचनाओं मे
से ४० रचनाएं ही 'रास' सज्ञक हैं और ७० रचनाओ मे प्रारम्भ में प्राथमिक वक्तृव्य, डा. नरेन्द्र भानावत का
से ३३ रचनाएँ तो बहुत छोटी-छोटी है जिनका परिमाण प्राक्कथन और डा० रावका की प्रस्तावना और विषयानुक्रम
१०० पद्यों से भी नीचे का है। कुछ रचनाएँ तो ५-७-१५है। प्रस्तुत ग्रन्थ की १ प्रति मुझे सम्मत्यर्थ डा० कासलीवाल
२० गाथाओ की ही है। ऐसी रचनाओ का तो केवल ने भिजवायी है। अत. सक्षिप्त में अपने विचार, सुझाव एव संशोधन इस लेख में प्रकाशित कर रहा हू । आशा है इससे
सख्या को बढाने की दृष्टि से ही भले ही महत्व हो, पर कुछ नयी जानकारी भी प्रकाश में आयगी।
काव्य की दृष्टि से खास महत्व नही है। समग्न ग्रन्थ
परिमाण भी ३० हजार ग्रन्थाग्रन्थ ८३२ अक्षरी अनुपम __ 'ब्रह्म जिनदास' का जन्म सकलकीर्ति रास के अनुसार क्षेत्र का है जो इतनी लम्बी आयु को देखते हुए अधिक नहीं पाटण में हुआ था। क्योकि भट्टारक सकलकोत्ति के कहा जा सकता। ये छोटे भाई और गुरु थे। सकलकीत्ति भी अच्छे साहित्य- ब्रह्म जिनदास और उनके गुरु भट्टारक सकल' कोत्ति १. सकलकोति एव उपलकीर्ति का भी यथा ज्ञातविवरण देना चाहिये था। मकलकीति का जब जन्म सं० १४४३
दिया हुआ है तो सं०१४३७ या २३ मान्य नही हो सकता ।
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ब्रह्म जिनरास सम्बन्धी विशेषज्ञातव्य
और भुवनकीति विशेष रूप से जहाँ रहे और उनकी उरलेख स्वर्गीय मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने अपने भद्रारक गद्दी जिस स्थान पर थी, उसका पता लगाना 'जन गुर्जर कवियो' के भाग १ खण्ड ३ में वर्षों पर्व बहुत ही जरूरी था। क्योकि वहीं उनकी रचनाओं की किया है। आश्चर्य है डा. प्रेमचन्द रावका ने ऐसे प्रसिद्ध प्राचीनतम प्रतियाँ व सर्वाधिक रचनाएँ मिलनी सभव है। ग्रन्थ का भी उपयोग नहीं किया। ब्रह्म जिनदास की ४ पर वहाँ पर अभी तक खोजही नहीं की गई, अन्यथा बहुत- रचनाओ का उरलेख जैन गुर्जर कवियों भाग १ पृष्ठ ५३ सी और महत्व की रचनाएँ और ब्रह्म जिनदास के जीवन मे और ५ ऐसी रचनाओ का उर लेख जो भाग १ के बाद सम्बन्धी विशेष जानकारी मिलनी सभव थी। ब्रहा जिनदास ज्ञात व प्राप्त हुयी उनका विवरण जैन गुर्जर कवियो की छोटी रचनाएँ तो और भी बहुत-सी मिलनी चाहिये भाग ३ के पृष्ठ ४७६ मे किया गया है। पहले भाग में क्योकि कवि ने लम्बी आयु पायी। और उनका मुख्य काम वेवल हरिवंश रास एवं थेणिकरास आदिअत छपा था साहित्य-निर्माण का ही प्रधान रूप से रहा है। भट्टारको यशोधर रास, आदिनाथ रास का आदिअन्त विवरण के साथ ब्रह्मचारी रहते और विचरते रहे है, उनकी अलग भाग ३ में छपा है। तीसरे भाग मे हनुमन्तरास, समर्माकत अलग से कोई जिम्मेवारी प्राय नहीं रहती। आने-जाने रास और सामग्वासो रास की प्रतियाँ तो डा० रावका वाले लोगो से मिलना और उपदेश देना, धार्मिक प्रवृत्तियो को अन्य भण्डारी में मिल गई, पर करकण्टु रास एव धर्म के लिए प्रेरणा करना ये सभी काम भट्टारक रवय करते पच्चीसी की जानकारी उनको नहीं मिल सकी। अत इन है। तथा उनके साथ रहने वाले ब्रह्मचारियो को साहित्य दोनो रचनाओ का विवरण नीचे दिया जा रहा है। रचना आदि के लिए काफी समय मिल जाता है। मै करकड राम (पूजा फल पर) जयपुर गया तब मुझे जो ब्रह्म जिन दास की रचनाओं का आदि-~-वीर जिणेसर प्रणमीने, मरसती स्वामिणि देवि, सग्रह-गुटका दिखलाया गया था, मेरे ख्याल से उस एक श्रीसकलकीरति गुरू वादिमु, बली भुवकीरति मुनि देव ।। गटके मे ही कवि की छोटी-मोटी ३०-४० रचनाएँ होगी। तहा परसादे निरमलो, रास करु अति चग। इस दृष्टि से रावका जी ने यदि अधिक भण्डारो का पूजा फलह वेवरणबु, मनि धरि भाव उनंग ॥२ अवलोकन किया होता तो बहुत-सी और भी रचनाए अत-अचल ठाम देउ निरमलो, मजने स्वामी देव, मिलनी सभव थी। मुझे ताजुब होता है कि नागौर के हदास छड तम्ह तणो, जनमि जनमि करु सेव ॥१ भट्टारकीय भण्डार का भी उन्होने उपयोग नहीं किया, श्री सकलकीरति गुरु प्रणमीने, मुनि भुवनकीरती भवतार । जबकि वह दिगम्बर शास्त्र भण्डारो मे सबसे बड़ा है और रासकीयो मे रुवडो, बह्म जिनदास कहे सार ॥२ नागोर कोई दूर भी नहीं है। इसी तरह ब्यावर के सरस्वती पठइ गुणई जे साभले, मन धरि अविचल भाउ । भवन के ग्रन्थ सग्रह का भी उपयोग किया नही लगता। मन वाछित फल तेलहे, पामे सिवपुरि ठाउ ॥३ इसलिए उनकी खोज मे तो अधूरी ही मानता हु, खैर । धनद नाम गोवलीयो, एक कमल करि चग । जो भी, मेरे जितना भी कर सके, अच्छा ही है मैने थोडी- पूज्या जिणवर मुनिग्ली, फल पाम्या उत्तग ॥४ सी खोज की तो मुझे ऐसी रचनाओ की जानकारी मिल ये कथा रस माभलि. भवियण सयल सुजाण । गई, जिनका उल्लेख रावका जी ने अपने शोध प्रबन्ध में पूजो जिणवर मनिरली, असट पगारि गुण भान ॥५ नही किया है। साधारणतया 'ब्रह्म जिनदास' की रचनाएँ एक कमल फलविस्तर्यो, सरग मुगति लगि चग । श्वेताम्बर भण्डारो मे अधिक नहीं मिलती, विशेषतः अनुदिन जे जिन पूजीसे, तेहने फल उत्तंग ॥६ बीकानेर जैसलमेर आदि पश्चिमी राजस्थान के श्वेताम्बर साचो धरम सुहावणो, थोड़ो कीजे महन्त । भण्डारों में । पर कवि की रचनाओ की भाषा गुजराती वड बीज जिमि रूवडो, फल दीसे अनन्त ॥७ प्रधान होने से गुजरात के श्वेताम्बर भण्डारी मे इति करकंड महामुनीश्वरनीकथा पूजाफलम ममाप्त म.भ. तो मिलती ही हैं । और उन रचनाओ की प्रतियों का
(शेष पृष्ठ पर)
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राम का वन गमन : स्वयंभू और तुलसी
0 डा० देवेन्द्रकुमार जैन .
राम के वन गमन की भूमिका तव शुरू होती है, जब दशरथ ने राम और लक्ष्मण को बुलाकर कहा--तुम यदि बुढापे के कारण दशरथ के मन मे राजपाट राम को मौपने मेरे वेटे हो नो छर सिंहासन ओर धरती भरत को दे दो, का विचार आता है। स्वयभू के पउमचरिउ मे दशरथ को हालाकि मैं जानता हूँ कि भग्त भव्य और त्यागी है। बुढापे की अनुमति उस समय होती है जब प्रतिहार अपने 'चरिउ' के अनुमार भरत इस समय अयोध्या में ही थे। बुढापे का वर्णन करता हआ, गधोदक समय पर न पहचाने उन्हें यह बताया जाता है कि उन्हे राज्य का प्रमुख बनाया की अपनी लाचारी का उल्लेख करता है। --
गया है तो वे आपे से बाहर हो उठते है । वह कैकेयी और हे देव मेरे दिन चले गए, यौवन ढल चका है। जग, दशरथ को भला बुरा कहते है। बूढे पिता दशरथ ने उन्है पहले की आयु को सफेद करती हुई चली आ रही है. और यह आदेश दिया कि दुनिया के इतिहास में तीन बाते अमती की तरह मेरे सिर से आ लगी है। गति नष्ट हो लिखी जा--भरत को राज्य, राम को वनवास और मझे चुकी है। हडियो के जोड बिखर गए है कान सुनते नही प्रव्रज्या। राम भी भगत से यही अनुरोध करते है ! आंखें देखती नहीं। गिर कापता है। मह में वाणी आखिर दोनो के आगे भरत को झकना पडा। गम तब उस लडखडानी है। दान जा चुके है । देह की कीति फीकी पड़ राजपट्ट को बाँध कर लक्ष्मण और सीता देवी के साथ वन गई है। रक्त गल गया है। केवल चमडी बची है, मैमा के लिए कूच कर गए। दशरथ शोक में मग्न है कि मैने ही हूं जैमे मेग दूसरा जन्म हो। अब मेरे पैरो में पहले राम को वनवास क्या दिया ? क्या मैने ऐगा कर प्राकृतिक जैसा पहाडी नदी का वेग नहीं है। मैं कैमे गधोदक मव मत्य का ही पालन किया है। यह प्रकृति अपने प्राकृत मत्य दूर पहुंचाता।
पर टिकी हुई है। क्योकि-'सच्चु महतउ सव्वहो पासिउ।' "गय दियहा जोव्वणु ल्हमि उ देव, सबकी तुलना मे सत्य महान् है। राम पैदल माँ कौशल्या पढमाउसु जट धवलति आय । के पास जाते है। उन्हें इस तरह आते देख वह हैरान है, पुणु अमड इव सीस वलग्ग जाय ॥ हताश वह कारण पृछती है, उत्तर मिलता है-मैने भग्त गइ नुट्टिय विडिय सधिवध । को माग राज्य मर्पित कर दिया ? वह यह नहीं बतातेण सुणति फण्ण लोयण विरध ॥ क्यों और कैसे? जो सौप दिया उसके कारणो को गिनाने मिफ कंपइ मुहे पक्खलइ वाय । मे लाभ भी क्या था ? कौशल्या फूट-फूट कर रोती हुई गय दत सरीर हो णट्ठ छाय।
कहती हैपग्गिलिउ रुहिर विउ गवर चम्म ॥
"हा हा काई वुनु पइ हल हर, महु एत्थु जे हुउ ण णवर जम्म ।
दस रह वम दीव जग सुंदर । गिरिणइ-पवाह ण वहति पाय,
पड विणु को चप्रेराइ, गधोवउ पावउ केम राय ॥" २२/२
पइ विणु को किंदुएण रमेराइ ।।" सुन कर दशरथ को लगता है कि एक दिन ऐसी हा राम हा राम (हलधर) तुमने यह क्या किया? हालन मेरी भी होगी। मैं राम को गजपाट देकर अपना दशरथ कुल दीपक और विश्वसुंदर तुम्हारे विना कौन तप साधूगा । अण्णु तउ कगम । राम को राज्य मिलने हय गज पर बैठेगा, तुम्हारे बिना कौन गेद से खेलेगा? पर कैकेयी जल उठती है वह सीधे अपनी अलकृत वेषभूषा राम माता को समझाते है.---- में दरबार में जाकर राजा से कहती है--यह वह समय है
धीग्यि होहि माए कि रोवहि, कि जब आप मेरे बेटे को राज्य का अनुपालक बनाएँ।
तुहि लोयण अप्पाणु म मोयहि ।
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राम का वन गमन : स्वयंभू और तुलसो
जिह रविकिरण हि समिण पहावइ,
ण गयघट-गिन्दूर-बिहमिय ।। तिह मइ होते भरहु ण भावइ ।
मूर मम-रुहिटा लि चच्चिय । तें कज्जे वणवासे बसखउ ॥"
णिमियरिव्व आणंदु पणच्चिय ।। "तायहो तणउ सज्च पालेवउ ।
गह्यि राज पुणु ग्यणि पराइय। दाहिणदेसे करेविणु थत्ति,
जगु गिलेइ ण सुत्न महाडय ॥ २३/8' तुम्हह पासे एइ सोमित ॥' २३/6
सध्या हो गई वह लाल दिवाई दी मानो मिंदर से हे मा धीरज धारण कगे, क्यो रोती हो? आखे लाल, गजघटा हो, मानो सूर्य के माम और रक्तधारा से पोछो, अपने को शोक मे मत डालो। जिस प्रकार सर्य की अलकृत हो। वह निशाचरी की तरह आनद से नाच उटी, किरणों के मामने चन्द्रमा नही चमकता, उसी तरह मेरे
सध्या चली गई, फिर गत्रि आ पहची जमे वह सोते हुए रहते हुए प्रजा को भरत अच्छा नहीं लगता। इस कारण
विश्व को निगन जाना चाहती है। मै वनवास करना चाहता हूँ। मै पिता के सत्य का पालन
राम अयोध्या में चल कर पास में एक जिन-मन्दिर करूँगा, दक्षिण देश में निवास कर ! लक्ष्मण तुम्हारे पाम में ठहरने है । रात्रि में मिथुन द्वन्द्व देखते हुए--राम आगे आएगा।
बहते है। दूगरे दिन सबेरे जव लोगो को मालूम होता है यह कह कर राम समस्त परिजनो मे पूछ कर चन
कि राम वनवाग के लिए नर गाए हे, तो मैन्य और व दिए । उगवे जाने ही सीता देवी राजभवन से निकली। पीछे लगते ।। तब तक राम गभीर नदी के किनारे पहर कवि स्वयभू की कल्पनाए है --
जाते है। मेना को वापस करते हुए वे-सीता देवी को "ण हिमवतहा गग महाण इ ।
हाथ पर बैठा कर नदी पार कर जाते है। ण छदहो णिग्गय गायत्ती ।।
राम लक्ष्मण और मीता मे सूनी अयोध्या नर-नारियो ण सद्दहो णीसग्यि विहनी।
को अच्छी नहीं लगती। अयोध्या के राज-परिवार में सबसे णाइ कित्ति सप्पुरुप-विमुक्की ।
अधिक दुखी व्यक्ति है.-भरत (पउमरिउ के अनुसार जाइ रभ णियणाणहो चुक्की।" २३/६
भरत राग के वन गमन समय अयोध्या में ही थे) अपने भवन से जानकी इस तरह निकली, जैसे
वनधाम की बात सुन कर वह मूछिन हो जाते है ? होश में
वाम हिमालय से गगा निकली हो, जमे छद से गायत्री निकली
आने पर, वह सबसे पहले कोगल्या के पास जाते है, और हो. मानो शब्द से विभक्ति निकली हा, जस सज्जन से मुक्त कहते है कि गा तुम व्यर्थ क्या रानी हा, मैं राम को ढढ उसकी कीर्ति हो जैसे अप्सरा रभा अपने स्थान से चूक कर लाता है। भरत अयोध्या से निकलता है कई दिनों गई हो!
तक भटकने के बाद, एक लतागृह मे भगत राम के दर्शन सीता माताओ से पूछ कर राम के साथ हो ली। राम करते है। भग्न उनमे लौटने का अरोध करता है इसी के वन गमन की बात सुन कर लक्ष्मण विद्रोह कर देता है। बीच कैकेयी वहाँ आ जानी है। भरत राम से प्रस्ताव वह राम से कहता है कि मैं अभी भगत को पकडता हूँ करता है कि तुम मे ही अयोध्या का राज करा जैसे इन्द्र और आपको असामान्य राज्य देता हूँ।" राम उसे समझाते सग्लोन में करता है। है-ऐसा राज्य करने से क्या लाभ जिसमे पिता के सत्य कंकेयी के मामने राम पूरी दृढ़ता से अपना कथन का नाश होता हो, मैं सोलह वर्ष वनवास के लिए जाऊंगा। दडराते हैदोनो के सवाद के बीच सूर्य डूबता है, और साझ आनी
ण दिण्णु सच्चु ताए तिबार, है ; कवि उसके दृश्य पट पर मानवी अनुभूतियों की
त मइ वि दिण्णु तुम्ह समबार । भयावहता के चित्र अकित करता है
एउ वत्रणु मणेप्पिणु सुह समिद्ध, णाइ सझ आरत्त पदोसिय ।
सइ हत्थे भरह पटु बद्धता ।।
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८, वर्ष ३५, कि० १
अनेकान्तं
पिता ने जो सत्य तुम्हे तीन बार दिया है, वह मैंने
राम चलत अति भयउ विषादू । सौ बार दिया-यह कह कर राम ने कल्याणमय राजपट्ट
सुनि न जाइ पुर आरत नादु॥ भरत के बाँध दिया । (हालांकि इसके पहले वे अयोध्या में सुभंत्र उन्हे छोडने जाता है, राम का अन्तिम पड़ाव यह कर चुके थे। राम वहाँ से चल देते है, भरत और शृंगवेरपुर में है, वहां उनकी भेंट निषादराज से होती है शत्रुघ्न धवल मुनि के पास जाकर यह प्रतिज्ञा करते है कि जो उनका स्वागत करता है। वह सारे कांड के लिए राम के वनवास से लौटने पर, वे उन्हे राज्य वापस देकर कैकेयी को दोषी मानता है। रात भर राम के गुणों का सन्यास ग्रहण कर लेगे। इसके बाद राम की वन यात्रा गान करते हुए सबेरा हो जाता है। शुरू होती है !
कहत राम गुन भा भिनुमारा । ___ मानस मे दशरथ को बुढापे की अनुभूति, दर्पण में
जागे जगमंगल सुखदारा ॥ अयो०६४ कनपटी के ऊपर सफेद बाल दिखने से होती है। उन्हें
श्रृंगवेरपुर मे जनता की वापसी के साथ, राम नाव लगता है कि सफेदी के बहाने बुढ़ापा कह रहा है
से गगा पार करते है। चित्रकूट मे कोल किरात राम का "नृप अब राज राम कहुं देहू ।।
स्वागत करते है। तुलसी के अनुसार राम वनगमन का जीवन जनम लाभ किन लेहू ॥ अयो०/२
वास्तविक प्रारभ चित्रकूट से समझना चाहिए। वसिष्ठ के प्रस्ताव पर पचो की महमति से जब राम
कहेउ राम बन गवनु सुहावा । के राज्याभिषेक की घोषणा होती है तो देवताओं मे हडकप
सुनहु सुमत्र अवध जिमि आवा ॥२॥ मच जाता है, वे सरस्वती के माध्यम से मथरा की बुद्धि
निषादराज जब अपने ठिकाने आता है तो उसे अकेला भ्रष्ट करते है। उत्सव के प्रसग से उसका हृदय जल
देख कर सुमत्र पछाड खाकर धरती पर गिर पड़ता है। उठता हैराम तिलक मुन उर भा दाह । अयो०/१२
निषादराज के समझाने पर सुमंत्र जब अयोध्या लौटता है मथरा भरत की अनुपस्थिति का लाभ उठाते हुए,
तो उसे लगता है कि जैसे मा बाप की हत्या करके आ रहा आखिरकार कैकेयी को वर मागने के लिए राजी कर लेती
है। ग्लानि की तीव्रता से उसके मुंह का रग उड चुका है। है। कोपभवन मे पहुच दशरथ जब, कैकेयी से क्रोध का व कारण पूछते है तो वह कहती है
सुनाते-सुनाते उसका वचन रुक जाता है१. देहु एक वर भरतहि टीका ।
अस कहि सचिव, वचन रहि गयऊ।
हानि ग्लानि सोच बस भयऊ ॥ अयो० १५३ २. तापस वेषि विसेष उदासी।
यह देख कर राजा के प्राण पखेरू उड़ जाते है । चौदह बरस राम वनवासी।।
भरत को ननिहाल से बुलाया जाता है। आशकाओं यह सुन कर दशरथ मूछिन है, राजा के रात भर और अपशकुनो के बीच, भरत अयोध्या में प्रवेश करते हैं तडपने की उस पर कोई प्रतिक्रिया नही होती। सुमंत्र वह जो कुछ नुनते है उसकी प्रतिक्रिया है आक्रोश, घृणा किसी तरह रहस्य का पता लगा कर राम को जब वर्ग के आत्मग्लानि और पश्चात्ताप । कौशल्या उन्हें वनगमन की बारे में बताते है तो वे अपने को बड़भागी मानते है कि सारी पृष्ठभूमि बताती है। राजसभा की मत्रणा और पिता की आज्ञा मानने का अवसर मिला । जाने पर परामर्श के बावजूद भरत चित्रकूट जाकर राम से मिलते दशरथ, राम को बार-बार गले लगाते है। सबसे पूछ कर है। चित्रकूट की सभा के विवरण का विश्लेषण स्वतत्र जब राम वन गमन करते है, तो दशरथ और कौशल्या को विषय है। उसका निष्कर्ष यह हैसीता की चिन्ता सबसे अधिक है। कुल मिला कर अयोध्या
प्रभु करि कृपा पॉवरी दीन्ही । में प्रतिक्रिया यह है
साकत भरत सीस धरि लीन्ही ॥
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राम का का वन गमन : स्वयंभू और तुलसी
इस प्रकार चरिउ और मानम में यह तथ्य समान है स्वीकार करते है कि भरत, जहाँ वर मागने के लिए कि सारा बखेडा उस समय खड़ा हुआ जब बुढापे के कारण कैकेयी को भला-बुरा कहते है, वही कौशल्या के प्रति दारथ ने राम को युवराज बनाने की घोषणा की। चरिउ सद्भाव व्यक्त करते है। तथा राम को वापस लाने के में कैकेयी सीधे दरबार मे जाकर वर मागती है जब कि लिए जाते है । 'चरिउ' मे राम अयोध्या से पैदल जाते है, 'मानस' मे मथरा के उकसाने पर वह ऐमा करती है 'मानम' में रथ मे बैठ कर, बाद में वे उमका परित्याग चरिउ मे राम को युवराज बनाए जाने की घोषणा के करते है। स्वयभू कैकेयी के प्रस्ताव से उत्पन्न विपाद और समय भरत अयोध्या में थे, जबकि 'मानस' के अनुसार आक्रोश की छाया एव सध्या की प्राकृतिक पृष्ठभूमि पर ननिहाल मे। दोनों कवि स्वीकार करते है कि 'प्राकृतिक अकिन करते है । जबकि नुलनी मानवी भावनाओं के उतारसत्य' की रक्षा के लिए, राम ने महर्ष वन जाना स्वीकार चढाव में भरत की आजीवन अनासग वृत्ति, त्याग और किया। प्राकृतिक सत्य से यहाँ अभिप्राय वचन मत्य या उदात्तता को लेकर । दोनो कवि एकमत है, भले ही उसके मर्यादा सत्य से है। "चरिउ' मे दशरथ, राम वन गमन मनोवैज्ञानिक या दार्शनिक कारण अलग-अलग हो । के बाद जैन-दीक्षा ग्रहण करते है जबकि 'मानस' में सुमन
शाति निवाग, ११४ उपानगर, के लौटने के बाद दशरथ की मृत्यु हो जाती है। दोनो कवि
इन्दौर-४५२००६
00
(ठ ५ का शेषाश) (1) धर्म पच्चीसी कडी २७
लिपि में ५०० प्रनिया प्रकाशित की गई ओर लागत मूल्य दोहा --भवि-कमल-रवि सिद्ध जिन, धर्म धुरधर धीर । १ रुपये चार आना रखा गया था----ब्रह्म जिनदास का __ नमन सतिंद । जगतमहरण नमो विविध गुम्बीर ॥? जन्म सवत आदि कुछ भी विवरण नहीं मिलता। उनके चोपाई-मिथ्या विषय में रत जीव, तातै जग में भत्र सदीव, बड़े भ्राता और गुरु सकनकीति ने सवत १४८१ मे विविध प्रकार गहै परजाय, श्री जिन धर्मनी नेक सुहाय ।२ मूलाचार प्रदीप की रवना भाई के अनुग्रह से की। केवल दोहा-बुध कुमुद सशि सुखकरण, भव दुख सागर जान । इमी आधार मे डा० रावका ने ब्रह्म जिनदास का जन्म
कहै ब्रह्म जिनदास यह, ग्रन्थ धर्म की खान । सवत १४५० के लगभग का माना है। पर मेरी राय में धाग | तजे वाचं सुन, मन मे कर उछाह, १८९० के करीब होना चाहिये । ब्रह्म जिनदास की दो ही
ते पावे सुख सासते, मनवाछिन फल लाहि । रचनाओं में सवत मिलता है। स. १५०८ और १५२० । छपनितकृत तत्वसार भापा साथेनी प्रत (पक्ष) पक्ति उमे देखते हर राबका ने हरिवश पुराण के रचना के समय ११ न० ३५-३ आत्मानन्द सभा, भावनगर ।
उनकी आयु ७० वर्ष की मानी है, पर मेरी राय मे उस (जैन गुर्जर कवियो भाग ३ के पृष्ठ ४७६) समय ६० वर्ष मे अधिक की आयु नही होनी चाहिये । ब्रह्म जिनदास के २ रास अब से ५३ वर्ष पहले छप रांवका जी ने ब्रह्म जिनदास की प्राकृत सस्कृत रचनाओ भी चुके हैं। पर उनकी जानकारी डा. रावका को नही के केवल नाम ही दे दिये हैं, यह मैं शोध प्रबन्ध की बडी मिली लगती। मूलचन्द किसनदास कापडिया, सूरत ने कमी मानता हूं। उन रचनाओ का विवरण भी देना विगम्बर जैन गुजराती साहित्योद्वारक फण्ड के ग्रन्थ न २-३ चाहिए था तभी कवि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व का लिखा में ब्रह्म जिनदास रचित (१) श्रीपाल महामुनिरास और जाना पूरा माना जायगा। कृतित्व में उनका समावेश (२) कर्म विपाक रास, वीर सवत २४५३ मे गुजराती है ही।
-नाहटों की गवाड़, बीकानेर
हा
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जैन भूगोल : कुछ विशेषतायें
डॉ. रमेशचन्द जैन
जैनो के अनुसार विश्व नित्य है, इसका कोई उत्पत्ति ३. उपल (चट्टाना और कच्ची धातुओ के अनेक प्रकार आदि और अन्त नही है। यह विश्व दो भागो मे विभाजित ४. चट्टाने ५, नमक अथवा नमकीली चट्टान ६. बजर भमि है-लोकाकाश और अलोकाकाश । लोकाकाश में सभी ७-१३ लौह तथा कच्ची धातुएँ १४. हीरा १५, १६, द्रव्य है। आलोकाकाश मे केवल आकाश है। जनो ने गति १७. दूसरी चट्टानी निमितियाँ १८. सुरमा १६. मगे के और स्थिति के नियामक धर्म और अधर्म दो द्रव्य अलग समान २०. अभ्रक २१-२२ अभ्रक की रेत २३ गोमेदक से माने है। जिन्हे अन्य किसी दर्शन ने नहीं माना है। (कीमती पत्थर का एक प्रकार) २४ रुचक (एक कीमती आलोकाकाश पूरी तरह किसी वस्तु के द्वारा अप्रवेश्य है, पत्थर) २५ अक २६ बिल्लौर के समान स्वच्छ चट्टाने चाहे वस्तु आत्मा हो या पुद्गल (Matter)। पृथ्वी मण्डल २७ लाल तहदार चट्टान की परत २६-४० रत्न, ग्रेनाइट मध्य के अधोभाग में है। नीचे नरक है। ऊपर स्वर्ग है। तथा परिवर्तनीय चट्टाने एव तलछट सम्बन्धी खनिज द्रव्य । सारा ससार घनोदधिवातवलय, घनवातवलय और जीवाजीवाभिगमोपाङ्ग मे मिट्टी के विज्ञान सम्बन्धी तनुवातवलय नामक वायु की मोती पर्त के सहारे कुछ सूचना है। इसमे मिट्टियो के ६ भेद बतलाए गए हैस्थित है। जैन विचारको ने विश्व के विस्तार का १. अच्छी उपजाऊ मिट्टी २. शुद्ध मिट्टी जो पर्वतीय प्रदेणी माप भी दिया है। यह श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार मे पाई जाती है। ३. मन.शिल (कुछ चट्टानी मिट्री) २३६ राजू घनाकार तथा दिगम्बरों के अनुसार ३४७ राज ४. रेतीली ५. ककरीली ६. गोल पत्थर अथवा पत्थरो की घनाकार है। पृथ्वी अतिगोल (गेदाकार) है। सूर्यप्रज्ञप्ति प्रचुरता से युक्त। मलयगिरि टीका मे उपर्युक्त मिट्रियो मे में कहा गया है कि जब दिन का समय १८ मुहर्त होता है से प्रत्येक की आयु बतलाई गई है। प्रथम मिट्टी एक हजार तो पृथ्वी के प्रकाशित होने का क्षेत्र ७२ हजार योजन वर्ष तक रहती है, दूसरी मिट्टी १२ हजार वर्ष, तीसरी होता है। जब दिन का समय १२ मुहर्त होता है तो १४ हजार वर्ष, चौथी १६ हजार वर्ष, पाँचवी १५ हजार प्रकाशित पृथ्वी का क्षेत्र ४८ हजार योजन होता है। वर्ष, छठी २२ हजार वर्ष । अनेक जैन कृतियो मे इस तथ्य का निर्देश किया गया है सूर्यप्रज्ञप्ति (४०० ई० पू०) मे सूर्य की किरणो के कि हमारी दुनिया में दो चन्द्रमा तथा दो सूर्य है। सूर्य- सामने किसी वस्तु के रखने की क्रिया (Incolation), प्रज्ञप्ति में ग्रहण के दो सिद्धान्तो का विवेचन किया गया किरण फेकना (Radiation) सूर्य के प्रकाश का प्रतिबिम्बन है। इससे स्पष्ट है कि इस कृति का लेखक चन्द्रमा और (Riflection), ऊर्जा (Energy) तथा पृथ्वी एव विभिन्न सूर्य की परछाई दिखलाई पडने के सही सिद्धान्त से धरातलो का गर्भ होना इत्यादि विषयो पर विस्तार से परिचित था और मनुष्यो का एक वर्ग ऐसा था, जिसने इस विवेचन है। यह वर्णन यथार्थ में प्रशसा योग्य है, क्योंकि सिद्धान्त को स्वीकार किया था।
इस पुस्तक मे इतने विस्तार से और स्पष्ट रूप से विषयों ___ आयै साम अथवा श्याम (२५० B. C.) भूमि प्रदेश का सही विवेचन इतने प्रारम्भिक समय मे किया गया है, का विभाजन ४० रूपो में करते है—(१) कॅकरीली भूमि जो कि आधुनिक युग के अध्ययन का विषय है। चौथे छोटे-छोटे पत्थर के टुकड़ों से भरपूर भूमि) २. रेतीली प्राभृत सूत्र २५ में किसी वस्तु को शुद्ध करने के लिए सूर्य १. आधारग्रन्थ-Development of Geographic knowledge in India (प्रो० मायाप्रसाद त्रिपाठी)
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जैन भूगोल : कुछ विशेषतायें
की किरणों को सामने रखने की शृंखला प्रस्तुत है। सूर्य हवा) २. उदीचीन (उत्तरी) ३. दक्षिणवात ४. उत्तर के तापक्षेत्र का भी इसमे विवेचन है और इस सन्दर्भ मे पौरस्त्य (सामने से उत्तर की ओर चलने वाली हवा) अनेक आँकडे दिए गए हैं। प्राभृत ५ सूत्र २६ का नाम ५. सवात्सुक ६. दक्षिणपूर्वतुंगर (Southerly Strong लेश्या प्रतिहित है। इसमें सूर्य के प्रकाश के फैलने का Wind) ७. अपरदक्षिणबीजाप (दक्षिण पश्चिम से चलने वर्णन है। विशेष रूप से सूर्य की किरणों के सामने किसी वाली) ८. अपरवीजाप (Westerlies) ६. अपरोत्तरगर्जन वस्तु के रखने की क्रिया, किरण फेकना तथा प्रतिबिम्बन (उत्तरपश्चिमी चक्रवात) १०. उत्तमसवात्सुक (अज्ञात) के विषय का विस्तृत वर्णन है। इसमे सूर्य की रोशनी के ११. दक्षिण सवात्सुक १२. पूर्वतुगर १३-१४. दक्षिण तया प्रतिबिम्बन के २० वादो का जिक्र है। प्राभूत ६ सूत्र पश्चिमी वीजाप १५. पश्चिम गर्जभ (पश्चिमी आंधी) २७ में गर्मी की दशा या सूर्य के प्रकाश का अन्वेषण है। १६. उत्तरी गर्जभ (उत्तरी आँधी) । अनन्तर यही चक्रवातों सबसे पहले इसमें इसके विषय मे २५ सिद्धान्त दिए है। का निर्देश कालिकावात के रूप में है। इस शब्दावली ने पहले सिद्धान्त मे वर्णन है कि प्रत्येक क्षण मूर्य की रोशनी अव भौगोलिकों को और नाविको को प्रभावित किया प्राप्त की जा रही है और दूसरे क्षण यह अवश्य हो रही और उन्होंने तत्परता से इन अनेक भारतीय पारिभाषिक है। सौर वर्ष की समाप्ति के समय जब कि सूर्य सबसे शब्दो को अपनी भाषा मे ग्रहण कर लिया। जीव विचार? लम्बे दिन आन्तरिक घेरे में रहता है, इसकी अधिकाधिक उद्भ्रामक वात (सूखे पेड़ो से बहने वाली हवायें) ऊर्जा २० की अवधि के लिए आती है। इसके बाद सूर्य २. उत्कलिका वात ३. भूमण्डलीकावात ४. मुखावात परिवर्तन प्रारम्भ करता है। दूसरे सिद्धान्त के अनुमार ५. शुद्ध वात तथा ६. गुञ्जवात का नाम निर्देश है। पृथ्वी धरातल पर पुद्गल सूर्य की किरणो के पडने से प्रज्ञापना मे हिमपात तथा शिलावृष्टि सहित आँधी ऊर्जा पाता है । अनन्तर दूसरे पुद्गल उनके सवाहन द्वारा का निर्देश है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में बादलों के दो वर्गीकरण गर्म होते हैं। तृतीय सिद्धान्त के अनुमार कुछ वस्तुये सूर्य है। प्रथम सात प्रकार के बादलो के नाम दिए गए हैंकी किरणो के पहने मे गर्म होती है और कुछ नहीं होती। १. अरममेघ २. विरसमेघ ३. क्षारमेघ ४. खात्रमेघ
प्रज्ञापना तथा आवश्यक चूणि में अनेक प्रकार की ५. अग्निमेघ ६. विद्युन्मेघ ७. विषमेघ (अशनिमेघ)। हवाओ का महत्त्वपूर्ण अध्ययन है। हवाओ के वर्गीकरण दूमरी बार १. सक्षीरमेघ २. घृतमेघ ३. सघृतमेघ ४. सम्बन्ध मे जैन पूरे भारतीय भूगोल विज्ञान मे अद्वितीय अमृतमेघ ५. रममेघ ६. पुष्करमेघ तथा ७. सवर्तक मेघ है। प्रज्ञापना मे १६ प्रकार की हवाओ का वर्णन है- के नाम है। १-४. चारो दिशाओं की हवायें ५-६ उतरती और चढती त्रिलोकसार मे कहा गया है कि कालमेघ सात प्रकार गर्म हवायें ७. क्षितिज के समानान्तर हवाये ८. जो विभिन्न के होते है। इनमे से प्रत्येक सात दिन वर्षा लाता है। दिशाओ से बहती है। ६. वातोद्भ्रम (अनियमित हवाये) सफेद मेघ १२ प्रकार के होते है, इन्हें द्रोण कहते है। १०. सागर के अनुरूप हवाये ११. वातमण्डली १२. इनमे से प्रत्येक सात दिन के लिए वर्षा लाता है। इस उत्कलिकावात (मिश्रित हवायें) १३ मण्डलीकावात (तेजी प्रकार वर्षा का काल १३३ दिन का होता है। जीवाजीवसे चक्कर खाने वाली हवायें) १४. गुजावात (भरभराहट भिगम की टीका मे तुषार, बर्फ तथा शिलावृष्टि सहित का शब्द करने वाली हवाये १५. झझावात हिंसक हवायें ऑधी और कुहरे का कथन है। जो कि वर्फ गिरने में सहायक होती है । १६. संवर्तक वात इस बात का निर्णय करने का बहुत सुनिश्चित आधार (किसी विशेष क्षेत्र की हवा जो कि सूखे वनस्पतियो मे भर है कि जनो के मनुष्य शरीर रचनाशास्त्र तथा चरित्र जाती है १७. घनवात (बलदायक हवा) १८. तनुवात शास्त्र विषयक विचार बड़े बुद्धिमत्तापूर्ण थे और इन १६. शुद्धवात (Gentil Wind) आवश्यक चूणि मे १६ शाखाओ विषयक उनकी जानकारी किसी से कम नहीं प्रकार की हवाओं की सूची है---१. प्राचीन वात (पूर्वी थी। प्रज्ञापना केमनुष्यप्रज्ञा सूत्र ३६ अध्याय १ में मनुष्य,
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१२, बर्ष ३५, कि०१
भनेकान्त स्त्री तथा म्लेच्छों के विषय में विभिन्न मनुष्य शरीर रचना काल में भारत देश की पैमाइश सुनिश्चित रूप में की शास्त्र विषयक सूचनायें हैं। इसमें म्लेच्छों का ५ प्रकार गई थी।
विश्व अथवा भारत के नकशे को बनाने की कला का का वर्गीकरण है--(१) शक (२) यवन (३) चिलात
।
प्रमाण भद्रबाहु के वृहत् कल्पसूत्र (४०० ई० प्र०) (४) शबर तथा (५) बर्बर। जीवाजीवाभिगम के सूत्र
इसमे कहा गया है-- १०५ से १०६ में मनुष्यो के विभाजन का प्रयत्न किया।
तरुगिरिनदी समुद्दो भवणावल्लीलयाविणाय । गया है। यह नहीं कहा जा सकता है कि यह कितना
निद्दीसचित्तकम्म पुन्न कलस सोत्थियाई य ।। वैज्ञानिक है। इसमें दो मुख्य वर्गों की जानकारी है। ये
तत्त्वार्थमूत्र मे जम्बूद्वीप का नकशा बतलाया गया दो वर्ग अनेक उपवों में विभाजित है। बे है-अ
है। सूत्र की टीका से ज्ञात होता है कि प्राचीनकाल के (१) सम्मूच्छिम मनुष्य (२) गर्भव्युत्क्रान्तिक । ब
मनुष्य 'स्केल' के विचार से परिचित थे और एक छोटे मे (१) कर्मभूमक और अन्त:पक । अन्तीपक के २८ भेद ।
'स्केल के आधार लम्बे परिणाम की वस्तु की रचना कर है । जैसे--एकोरक, गूढदन्त तथा शुद्धदन्त इत्यादि।
सकते थे----- तत्त्वार्थमूत्र की अकल देवकृत टीका में अनेक प्रकार "मध्येयप्रमाणावगमार्थ जम्बूद्वीपतुल्याय विष्कम्मा के मनुष्यों और उनके व्यवमाय का वर्णन है।
योजनसहस्रावगाह बुध्याकुशूलाश्चत्वार कर्तव्या.-शलाका ___अगविज्जा (चौथी शताब्दी ई.) में मनुष्य शरीर ।
प्रतिशलाका महाशलाकाख्यास्त्रयो व्यवस्थिता चतुर्थोऽनन रचना शास्त्र विषयक कुछ नथ्य निहित है। इसके २४वे वस्थिन।" अध्याय में मनुष्यो का आर्य और म्लेच्छो के रूप में वहन्क्षेत्र समास के वर्णन मे यह प्रकट है कि यह ग्रन्थ विभाजन है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य नथा शूद्रो का रग अनेक प्रकार के विश्व के चित्रो मे परिचित है। तिलोय. इसमें सफेद, लाल, पीला तथा काना वर्णित है। जीव पण्णत्ति मे आकाश का एक Digrama ic नक्शा दिया विचार मे अनेक प्रकार की जातियों वर्णित है । जैसे- गया है। माधवचन्द्र विद्य (१२२५ ई.) ने एक शब्द असुर, नाग, पिशाच, राक्षस तथा किन्नर । नाप का सबसे संदृष्टि का प्रयोग किया जिसका शायद अर्थ 'भौगोलिक पहले निर्देश सम्भवत तत्त्वार्थाधिगम मूत्र में पाया जाता डाइग्राम' या उदाहरण था। है। इसमे सूत्र विशेष की टीका में अकलङ्कदेव कहते प्रज्ञापना की टीका मे हरिभद्रसूरि (७०५-७६७ ई०) है-आठ मध्य का एक उत्सेधागुल होता है। ५०० ने १२ प्रकार की वनस्पति का वर्णन किया है.---१. वक्ष उत्सेधागुल का एक प्रमाणाङगुल होता है। यह अवसर्पिणी २ गुच्छ ३. गुल्म ४. लता ५. वल्ली ६. पर्वग (गन्ने जैसी) के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट का आत्माङ्गुल है। उस समय ७. तृण ८. वलय ६. हरित १०. औषधि ११. जलव्ह ग्राम, कसबे इत्यादि इसी परिमाण से मापे जाते थे। दूसरे १२. कुहणा (भूमि के अन्दर उगने वाली। कालो मे भिन्न-भिन्न आत्माइगुलों का प्रयोग किया गया। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति और तिलोयपण्णति में विभिन्न प्रमाणाडगुल महाद्वीप, द्वीप, समुद्र, वेदिकायें, पर्वत विमान, प्रकार के व्यवस्थित नगरों का वर्णन है। जेसे-नन्द्यावर्त, तथा नरकपटलो की माप के लिए प्रयुक्त किया गया। इस वर्द्धमान, स्वस्तिक, खेट, कर्बट, पट्टन इत्यादि । अगविज्जा प्रकार यह देखा जा सकता है कि जैन प्रत्येक प्रकार की के २६वें अध्याय में ६४ प्रकार के नगरों का वर्णन हैभौगोलिक वस्तु की माप से परिचित थे। यहाँ तक समुद्रो राजधानी, शाखानगर, पर्वतनगर, आरामबहुल, पविटनगर, का भी परिमाण बतलाया गया है। समुद्र के किनारे के विस्तीर्णनगर । जैनो मे जनपद परीक्षा की परम्परा थी। प्रदेश तथा जलप्राय प्रदेशो का भी माप होता था। जिसने Field Work (फील्डवर्क) तथा क्षेत्रीय भूगोल के तिलोयपण्णत्ति (५०० ई०) मे माप की वही विकसित विकास में अधिक कार्य किया है। दशा है जो कि तत्त्वार्थाधिगम सूत्र की है। द्वीप, समुद्र, सातवी शताब्दी की एक कृति बहत-क्षेत्र समास से वेदी, नदी, झीलें, तालाब, विश्व तथा भरत क्षेत्र यह प्रकट है कि समुद्र विद्या पर लिखने मे जैनों का प्रमाणाङ्गुल के माप से नापे गए हैं। तिलोयपण्णत्ति के
(शेष पृष्ठ १५ पर)
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जैन परम्परा में निक्षेप पद्धति
प्रशोक कुमार जैन एम० ए० शास्त्री (शोध छात्र)
प्राचीनकाल में ही जैन परम्परा में पदार्थ के वर्णन की ने निक्षेप के ४ भेद बतलाये है कि सातों तत्वार्थ नाम, एक विशेष पद्धति रही है। जनदर्शन के अनुसार वस्तु स्थापना, द्रव्य, भाव निक्षेप के द्वारा व्यवहार मे आते हैं अनन्त धर्मात्मक है उम अनन्त धर्मात्मक पदार्थ को व्यव- इसीलिए प्रत्येक तत्वार्थ चार प्रकार का होता है जैसे नामहार में लाने के लिए किये जाने वाले प्रयत्नो मे निक्षेप का । जीव, स्थापना-जीव, द्रव्य-जीव, भाव-जीव । द्रव्य अनेक भी स्थान है। जगत मे व्यवहार तीन प्रकार से चलते है स्वभाव वाला होता है उनमे से जिम स्वभाव के द्वारा वह कछ व्यवहार ज्ञानाश्रयी अर्थात् ज्ञान पर आधित होते है ध्येय या ज्ञेय, ध्यान या ज्ञान का विषय होता है उसके लिए कुछ शब्दाश्रयी अर्थात् शब्दो के ऊपर आश्रित होते है और एक भी द्रव्य के ४ भेद किये जाते है निक्षेप के ४ भेद हैं
छ अर्थाश्रयी होते है। अनन्त धर्मात्मक वरतु को सव्यव- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ।" मूलाचार में" सामायिक हार के लिए उक्त तीनो प्रकार के व्यवहारी मे बाटना के तथा त्रिलोक प्रज्ञप्ति मे मङ्गल के नाम, स्थापना, द्रव्य, निक्षेप है। निक्षेप के बारे में अनेक दार्शनिको ने विभिन्न क्षेत्र, काल और भाव के भेद से छह निक्षेप किये है।" विचार प्रस्तुत किये है। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव से आवश्यक निर्यक्ति में इन छह निक्षेपो मे बचन को और जीवादि पदार्थो का न्यास करना चाहिए।' सशय, विपर्यय जोडकर सात प्रकार के निक्षेप बताये है । यद्यपि निक्षेपों और अनध्यवसाय मे अवस्थित वस्तु को उनमे निकालकर के सभाव्य भेद अनेक हो सकते है और कुछ ग्रन्थकारो ने जो निश्चय मे क्षेपण करता है उसे निक्षेप कहते है' अथवा किये भी है परन्तु कम से कम नाम, स्थापना, द्रव्य और बाहरी पदार्थ के विकल्प को निक्षेप कहते है । अप्रस्तुत का भाव इन चार निक्षेपों को मानने में सर्वसम्मति है। निराकरण करके प्रस्तुत अर्थ को प्ररूपण करने वाला अकलदेव ने निक्ष पो का विवेचन करते हए लिखा है कि निक्षेप होता है।' अप्रकृत का निराकरण करके प्रकृत का निक्षेप पदार्थो के विश्लेषण के उपायभूत है उन्हे नयो द्वारा प्ररूपण करने वाला निक्षेप है।' श्रु त प्रमाण और उसके ठीक-ठीक समझकर अर्थात्मक ज्ञानात्मक और शब्दात्मक भेद नयो के द्वारा जाने गये द्रव्य और पर्यायो का सङ्कर भेदो की रचना करनी चाहिए।" व्यतिकर रहित कथन करने को निक्षेप कहते है। प्रमाण नाम क्षेत्र निक्षेप-जीव-अजीव और उभयरूप कारणो
और नय के विषय मे यथायोग्य नामादि रूप से पदार्थ की अपेक्षा से रहित होकर अपने आप में प्रवृत हुआ क्षेत्र निक्षेपण करना निक्षेप है। युक्ति के द्वारा संयुक्त मार्ग में यह शब्द नाम क्षेत्र निक्षेप है । वह नाम निक्षेप वचन कार्य के वश से नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव मे पदार्थ और वाच्य के नित्य अध्यवसाय अर्थात् वाच्य-वाचक संबंध की स्थापना को आगम मे निक्षेप कहा है। नय तो गोण के सार्वकालिक निश्चय के बिना नहीं होता है इसलिए और मुख्य की अपेक्षा रखता है इसीलिए वह विवक्षा सहित अथवा तदभवसामान्य निबन्धनक ओर सादृश्य सामान्य है। नय सदा अपने (विवक्षित) पक्ष का स्वामी है अर्थात् निमितक होता है इसलिए अथवा वाच्य-वाचक रूप दो वह विवक्षित पक्ष पर आरूढ़ रहता है और दूसरे प्रतिपक्ष शक्तियों वाला एक शब्द पर्यायाथिक नय में असंभव है इसनय की भी अपेक्षा रखता है, निक्षेप में यह बात नहीं, यहा लिए द्रव्याथिक नय का विषय है।" किसी अन्य निमित्त पर तो गौण पदार्थ मे मुख्य का आक्षेप किया जाता है इस- की अपेक्षा न कर किसी द्रव्य की जो संज्ञा रखी जाती है लिए निक्षेप केवल उपचरित है नय तो ज्ञान विकल्प रूप है वह नामनिक्षेप है।" संज्ञा के अनुसार गुणरहित वस्तु में और निक्षेप उसका विषय भूत पदार्थ है ।" अमृतचन्द सूरि व्यवहार के लिए अपनी इच्छा से की गई संज्ञा को नाम
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१४ बर्ष ३५, कि.१
अनेकान्त
कहते हैं।" इसी बात को पञ्वाध्यायीकार ने लिखा है। क्षेत्र विषयक शास्त्र का ज्ञाता किन्तु वर्तमान में उसके उपमोहनीय ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का योग से रहित जीव आगम द्रव्यक्षेत्र निक्षेप है।"नो आगम घात करने से अरिहन्त नाम है इन गुणों के बिना किसी का द्रव्य तीन प्रकार का है ज्ञायक शरीर, भावि और तद्रव्यअरिहन्त या अर्हन्त नाम रखना नाम निक्षेप का उदाहरण तिरिक्त । जो ज्ञाता का शरीर है वह ज्ञायक शरीर कहहै।" पुस्तक, पत्र, चित्र आदि मे लिखा गया लिप्यात्मक लाता है वह त्रिकाल गोचर ग्रहण किया जाता है अर्थात नाम भी नाम निक्षेप है।"
उसके भूत-भविष्यत् और वर्तमान ये तीन भेद है। तद् ___ स्थापना क्षेत्र निक्षेप-बुद्धि के द्वारा इच्छित क्षेत्र व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्य के दो भेद हैं एक कर्म और दूसरा के साथ एकत्व को प्राप्त हुए अर्थात् जिनमें बुद्धि के द्वारा नोकर्म । आगम द्रव्य मे आत्मा का ग्रहण किया गया है, इच्छित क्षेत्र की स्थापना की गई है ऐसे सद्भाव और नो आगमद्रव्य मे उसके परिकर, शरीर, कर्मवर्गणा आदि असद्भाव स्वरूप काष्ठ, दन्त और शिला आदि स्थापना का गृहण है ।" क्षेत्र निक्षेप है।" अमृतचन्द मूरि ने लिखा है कि परमा भाव क्षेत्र निक्षेप-तत्कालवर्ती पर्याय के अनुसार ही तथा काष्ठ आदि के सम्बन्ध में (यह वह है) इस वस्तु को सम्बोधित करना या मानना भाव निक्षेप है इसके प्रकार अन्य वस्तु में जो किसी अन्य वस्तु की भी दो भेद है आगम भाव निक्षेप और नो आगमभावव्यवस्था की जाती है वह स्थापना निक्षेप कहलाता निक्षेप । जैसे अर्हत् शास्त्र का ज्ञायक जिस समय उस ज्ञान है।" स्थापना के दो भेद हैं साकार और निराकार। मे अपना उपयोग लगा रहा है उसी समय अर्हत है यह कृत्रिम या अकृत्रिम बिम्बो मे अर्हन्त परमेष्ठी की स्थापना आगमभावनिक्षेप है जिस समय उसमे अहंत के समस्त गुण साकार स्थापना है और क्षायिक गुणों में अर्हन्त की स्था- प्रकट हो गये है उस समय उस उसे अहंत कहना तथा उन पना को निराकार स्थापना कहते है।"
गुणो से युक्त होकर ध्यान करने वाले को केवल ज्ञानी द्रव्य क्षेत्र निक्षेप-जो गुणो के द्वारा प्राप्त हुआ था कहना नो आगमभावनिक्षेप है। क्षेत्र विषयक प्राभत के या गणों को प्राप्त हुआ था अथवा जो गुणों के द्वारा प्राप्त ज्ञाता और वर्तमानकाल मे उपयुक्त जीव को आगमभाव किया जायेगा या गणो को प्राप्त होगा उसे द्रव्य कहते क्षेत्रनिक्षेप कहते है जो आगम में अर्थात् क्षेत्रविषयक हैं। किसी द्रव्य को आगे होने वाली पर्याय की अपेक्षा शास्त्र के उपयोग के बिना अन्य पदार्थ मे उपयुक्त हो उस वर्तमान मे ग्रहण करना द्रव्यनिक्षेप है ऐसा जिनेन्द्र देव कहते जीव को अथवा औदयिक आदि पाच प्रकार के भावो को हैं।"पञ्चाध्यायीकार ने कहा है कि ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा नो आगमभावक्षे त्रनिक्षेप कहते हैं।" नही रखने वाला किन्तु भाविनैगम आदि नयो की अपेक्षा जो निक्षेप नय और प्रमाण को जानकर तत्व की रखने वाला व्यनिक्षेप है।" आगमद्रव्यक्षेत्र और नोआगम- भावना करते हैं वे वास्तविक तत्व के मार्ग में सलग्न होकर द्रव्यक्षेत्र के भेद से द्रव्य क्षेत्र दो प्रकार का है उसमे से वास्तविक तत्व को प्राप्त करते हैं।"
संदर्भ सूची १. तत्वार्थ सूत्र १-५।
५. न्यायकुमुदचन्द्र का० ७३-७६ विवृति पृ० ७६६ । २. संशये विपर्यये अनध्यवसाये वा स्थित तेम्योऽयसार्य ६. प्रमाणनययोनिक्षेपण आरोपण निक्षेपः ॥ आलाप निश्चये क्षिपतीति निक्षेपः ।
पद्धति-देवसेनाचार्य अनुः न. रतनचन्द्र मुख्तार पृ. १८२ -षटखण्डागम खण्ड १ भाग ३, ४, ५ पुस्तक ४ ७. जुत्तीसुजुत्तमग्गे ज चउभेएण होइ खलुणवणं । सं० हीरालाल जैन पृष्ठ २।।
-कज्जसदि णामादिसु तं णिक्खेवं हवे समए ॥ द्रव्य ३. अप्रस्तुतार्थापाकरणात् प्रस्तुतार्थ व्याकरणाच्च निक्षेप. स्वभाव प्रकाशक नयचक्र गाथा २७० । फलवान् ।। लघीयस्त्रय स्वो० वि० पृ० २६ ।
८. पञ्चाध्यायी १-७४० । ४. स किमर्थः अप्रकृत निराकरणाय च । सर्वार्थ सिद्धि १-५ ६. तत्वार्थसार अमृतचन्द्र सूरि-सं०५० पन्नालाल साहित्या
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जैन परम्परा में निक्षेप पद्धति चार्य श्लोक ६ पृ० ४।
२१. षटखण्डागम पुस्तक ४ खण्ड १ भाग ३, ४, ५ स० १०. द्रव्यस्वभाव प्रकाशक नयचक्र-माइल्लधवल गाथा
२७१-२७२ पृ० १३६, स० प० कैलाशचन्द्र शास्त्री। २२. सोऽयमित्यक्षकाण्णादे. सम्बन्धेनान्यवस्तुनि । यदयव ११. षडावश्यकाधिकार गाथा १७ ।
स्थापनामात्र स्थापना सामिधीयेतो तत्वार्थसार श्लोक १२. गाथा १/१८ । १३. गाथा १२६ । १४. नयानुगतनिक्षे पैरुपायर्भेदवेदने। विरचय्यार्थवाक- र
२३. सायार इयरठवणा कित्तिम इयरा हु बिजा पढमा। प्रत्ययात्मभेदान् श्रुतापित्मन् ।
इयरा खाइय भणिया ठवणा अरिहोय णायन्बो ।। उ०
स्वभावप्र शिकनयचक्र स० प० कलाशचन्द शास्त्री लघीयस्त्रम, स्व वृ० श्लोक ७८ ।
पृ० १३७ । १५. षट्खण्डागम पुस्तक ४ खण्ड १ भाग ३, ४, ५ स० । हीरालाल जैन पृ० ३।
२४. गुणगुणान्वा द्रत गत गुणंद्रोग्यते गुणान्द्रोठयतीति वा १६. निमित्तान्तरानपेक्ष सज्ञाकर्म नाम ।। त० रा० वा० ।।
द्रव्यम् ।।मवार्थमिद्धि १-५ ।। स० प्रो० महेन्द्रकुमार १/५ पृष्ठ २८ ।
२५. तत्वार्थमार श्लोक १२ । २६ पञ्चाध्यायी १-७४३। १७. अतद्गुणे वस्तुनिसव्यवहारार्थ पुरुपाकागन्नियुज्यमान
२७ पटखण्डागम पुस्तक 6 खण्ड १ पृष्ठ ५। सज्ञाकर्म नाम-सर्वार्थसिद्धि-पूज्यपाद स० प० फूलचद।
२८ तत्वार्थवातिकालकार-अनु प० गजाधरलाल जी तथा सि० शा० पृ० १७ ।
१० मक्खनलालजी पृ० १२६-१२७ । १८. पञ्चाध्यायी-१-७४२ ।
२६ ममणसुन गाथा ७८३-७८८ पृ० २३८ । १६. मोहरज अतराए हणणगुणादो य णाम अरिहती। ३०. पट्खण्डागम पुस्तक ८ खण्ड व भाग ३, ४, ५।
अरिहो पूजाए वा सेसा णार्म हवे अण्ण ॥ द्र० स्वभाव ३१. द्रव्यस्वभाव पकाशकनयचत्र सपादक प० कैलाशचन्द प्रकाशक नयचक गाथा २७३ ।
शास्त्री गाथा २८२। २०. जैनतर्क भाषा पृ० २५ ।
—जैन हैपी स्कूल नई दिल्ली
(पृष्ठ १२ क शेपाश) दृष्टिकोण वैज्ञानिक था। यह बात उपयुक्त ग्रन्थ के का कहना है कि समुद्र वायु द्वारा प्रवृत्त होता है और लवणाध्यधिकार तथा कालोदध्यधिकार से प्रकट है। दिशाओ में बढता हुआ ४००० धनुष ऊँचाई तक बढ़ता है। पहले अधिकार मे लवण समुद्र का माप, इसकी गहराइयाँ,
जीवाजीवाभिगम मे कहा गया है कि ज्वारभाटे का ज्वारभाटीय क्रियाये, विभिन्न द्वीपो की गहराई तथा
कारण महापटल की मजबूत हवाये (उदारवात) होती है। जलस्तर का वर्णन है। दूसरे मे कालोदधि का माप, इसके
आवश्यक सूत्र से ज्ञात होता है कि भारतीय नौविद्या तथा जल की प्रकृति तथा दूसरे पहलुओ का वर्णन है।
वाणिज्य मे बहुत बडे थे । उनका यह काल ६०० ई० पू० तत्त्वार्थवार्तिक मे अकलङ्कदेव ने आठ महत्त्वपूर्ण
था । यहाँ समुद्री कप्तान के लिए 'णिज्जामक' शब्द का समुद्रों के नाम दिए है-~-१. लवणोद २. कालोद ३.
प्रयोग किया गया है । समराइच्च कहा में भारतीयो की पुष्करोद ४. वरुणोद ५. क्षीरोद् ६. घृतोद् ७. इक्षुद
उत्साह और साहसपूर्ण समुद्री यात्रा की कहानिया है । एक ८. नन्दीश्वरोद । बृहत् क्षेत्र समांस की टीका मे
सन्दर्भ से यह बात प्रकट है कि भारतीय लोग चीन, स्वर्ण ६. अरुणावरोद ।
भूमि और रत्नद्वीप बड़े-बड़े जहाजों में जाया करते थे । तत्त्वार्थाधिगम की टीका में भारतीय समुद्रों की र गहराई का वर्णन है। सूत्र ३२ की टीका से ज्ञात होता है इस प्रकार जैन भूगोल अपने अन्तर्गत बहुत सारी कि आन्तरिक और बाह्य समुद्री किनारे तथा समुद्री क्षेत्र
भौगोलिक विशेषताओ को अपने गर्भ में छिपाए हए है, के लिए भिन्न-भिन्न शब्दो का प्रयोग होता था। ये शब्द इसका विस्तृत अध्ययन एवं अन्वेपण अपेक्षित है। थे-(१) अन्तरवेला (२) बाह्य वेला (३) अग्रोदक जैनों
-जैन मन्दिर के पास बिजनोर, उ० प्र०
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विश्व धर्म बनाम जैन धर्म
0 विद्यावारिधि डा. महेन्द्र सागर प्रचंडिया पी-एच० डो०-डो० लिट०
विश्व धर्म एक योगिक शब्द है। विश्व और धर्म इन अतल, वितल, सुनन, रसातल, तलातल, महानल, और दो शब्दों के समवाय से इस शब्द का गठन-सगठन हुआ है। पाताल ये मान अधोलोक कहलाते है और सात ही भलोक प्राणी के चरने-विचरने सम्बन्धी क्षेत्र विशेष का बोधक माने गए है -भूलोक, भुवलोक, खलोक, महलोक, जनलोक, शब्द वस्तृत विश्व कहलाता है और धर्म शब्द उस क्षेत्र से तपोलोक तथा सत्यलोक । इन सभी को मिलाकर लोक विद्यमान नाना तत्वो और उनमें व्याप्त गुणो, स्वभावा का शब्द का अर्थ स्थिर होता है। परिचायक होता है। इस प्रकार विश्व-तत्वो का स्वभाव विश्व और लोक से भी व्यापक अर्थकारी शब्द है --- कहलाया वस्तुत. विश्व-धर्म ।
समार । समग्ण समार: अर्थात् ससरण करने को मसार जैन धर्म भी यौगिक शब्द है, जिसका गठन जैन और कहा जाता है। कर्म-विपाक के वश से आत्मा को भवान्तर धर्म नामक इन दो शब्दों पर आधृत है। जैन शब्द मूलत. की प्राप्ति होना बस्तृत समार कहलाता है। समार में 'जिन' से बना है। 'जिन' शब्द का अभिप्राय है जीतने विश्व और लोक जैसे अनेक क्षत्रमखी शब्दों का ममवेत वाला । जिसने अपने समय कम-कपायों को जीत लिया वह विद्यमान रहता है। इसीलिए ससार शब्द महत्तर महिमा कहलाया जिन और जिन के अनुयायी वस्तुत कहे गए जन । महित है। जनागम मे धर्म की चर्चा करते हुए स्पष्ट कहा है--बत्यु विश्व में अनेक धर्म प्रचलित है जिनमे वैदिक, बौद्ध, सहाबो धम्मा अर्थात् वस्तु का स्वभाव ही धर्म है । इम जैन, इस्लाम, ईमाई आदि अधिक उल्लेखनीय है। इन मभी प्रकार वस्तु-स्वभाव का सम्यक् विवेचन जैन धर्म कहलाता धर्मों में व्यक्ति विशेष की सत्ता को स्वीकार किया गया
है । ईश्वर, बुद्ध, ईशु तथा अल्लाह आदि किसी भी सज्ञा अब यहा विश्व धर्म बनाम जैन धर्म विषयक विशद मे उसे व्यक्त किया जा सकता है। ससार के निर्माण और किन्तु सक्षिप्त अध्ययन और अनुशीलन प्रस्तुत करना सचालन में उसकी भूमिका सर्वोपरि मानी गई है । विश्व वस्तुतः हमारा मूलाभिप्रेत रहा है।
की सभी जीवात्माए उस शक्ति के वस्तुत अधीन है, परतु __ जनसमुदाय और समाज में विश्व बोधक जिन शब्दों का जैन धर्म इस मान्यता को स्वीकार नहीं करता है। उल्लेखप्राय. प्रचलन है उनमे लोक और ससार महत्वपूर्ण है। नीय बात यह है कि जैन धर्म किसी व्यक्ति-शक्ति की देन यद्यपि विश्व, लोक और ससार शब्दो का सामान्य अभि- नही है और ना ही समारी जीवात्माए उसके अधीन है । जैन प्राय उस क्षेत्र विशेष से रहा है जहा प्राणी नाना-योनियो से धर्म वस्तुत स्वाधीनता प्रधान धर्म है । आवागमन के चक्रमण मे लगा रहता है, तथापि ये सभी जैन धर्म मे गुणो की उपासना की गई है। गुणों को शब्द अपना-अपना पृथक अर्थ-अभिप्राय रखते है। ही यहां स्पष्टत इष्ट माना गया है। पांच प्रकार के इष्ट
विश्व शब्द का मन्तव्य सामान्यत. सप्त महाद्वीपो के यहां प्रचलित है-अरिहत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और समवेत क्षेत्र-कुल से रहा है, इसी को दुनिया भी कहा साधु । प्रत्येक इष्ट विशिष्ट गुणो का समवाय समीकरण गया है। विश्व की अपेक्षा लोक शब्द व्यापक है । स्वर्ग- होता है। पचपरमेष्ठि इसीलिए बदनीय है। जिनमे पच पृथ्वी और पाताल के समीकरण को वस्तुत. लोक शब्द से परमेष्ठियो की बंदना की गई है। इस आद्य मत्र को णमो. कहा जाता है। चौदह संख्या में लोक शब्द विभक्त है।- कार मंत्र कहा गया है। यथा
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विश्व धर्म बनाम जैन धर्म
णमो अरिहताण, णमो सिद्धाण, णमो आइरियाण विभाजित किया गया है-घातिया और अघातिया। जो
णमो उवज्झायाण णमो लाए सव्व साहूण। जीव के गुणो का घात करते है वे वस्तुत कहलाए धातिया सबसे बड़ी बात यह है कि जैन धर्म की मान्यता है कि कर्म । यथा-- प्रत्येक जीवात्मा में ये सभी गुण सदा विद्यमान रहते है। १. ज्ञानावरण २. दर्शनावरण ३. मोहनीय ४. अन्तराय कर्म-कुल से प्रच्छन्न इन गुगो को उजागर करने का यहा
जो पूर्ण गुण को घात न कर पाए वे अघातिया कर्म विधान है। नाना कर्मों को क्षय करके जीव अपने में कहलाते हैथा प्रतिष्ठित इन गुणो को प्रकट कर सकता है। स्वय इष्ट १ वेदनीय, २ आयु, ३ नाम, ४. गोत्र ।
और परम इष्ट बन सकता है । प्राणी स्वय प्रभु बन सकता घानिया और अघातिया कर्म मिलकर आठ कर्म-भेद है, इस प्रकार की व्यवस्था कदाचिन जैन धर्म में ही उप- प्रचलित है। समार के अनन्त कर्म इन्ही आठ कर्मों में लब्ध है। इस प्रकार प्रत्येक प्राणी अपने ह्रास और विकाम परिगणित किए जा सकते है। इन कर्मो की परिचयात्मक का स्वय कर्ता और भोक्ता है।
सक्षिप्त रेखा निम्न रूपेण प्रस्तुत की जा मकती है। कर्म सिद्धान्त को मान्यता अन्य धर्मों में भी दी है। १ घातिता कर्म---अ.-ज्ञानावरण कर्म --जो आत्मा के वहाँ जीवात्मा प्रत्येक कर्म प्रभु की कृपा से सम्पन्न करता ज्ञान गुण को ढकता है उसे ज्ञानावरण कर्म कहते है ओर किए हुए कर्म-फल भी उसी की कृपा से भोगता है परन्तु जैन धर्म में जीव स्वय करता है, कर्मानुसार निमित्त (ब) दर्शनावरण कर्म-जो आत्मा के दर्शन गुण को स्वत जुटा करते है और कर्म-फल का भोग भी वह स्वय ढकता है उसे दर्शनावरण कर्म कहते है। भोगा करता है । किमी की कृपा का यहा कोई विधान नही (म) मोहनीय कर्म--जिमके उदय मे जीव अपने स्वरूप
को भुलाकर अन्य को अपना समझने लगता है, कर्म शब्द का लौकिक अर्थ तो क्रिया ही है । जीव, मन उमे मोहनीय कर्म कहा गया है। वचन और काय के द्वारा कुछ न कुछ किया करता है, वह
(द) अन्तराय कर्म-जो दान-लाभ आदि में विघ्न सब उसकी क्रिया या कर्म की सजा प्राप्त करता है । मन, डालता है उसे अन्तराय कर्म कहते है। वचन और काय कर्म के ये तीन द्वार होते है। ससारी
२ अघातिया कर्म-(अ) वेदनीय कर्म-जो आत्मा को आत्मा के इन तीन द्वारो की क्रियाओ से प्रतिक्षण सभी
मुख-दुख देता है, उसे वेदनीय कर्म कहते है। आत्म-प्रदेशो में कर्म होते रहत है अनादि काल से जीव का
(ब) आयु कर्म-जो जीव को नर्क, तिर्यच, मनुष्य और कर्म के साथ सम्बन्ध चला आ रहा है। इनका पारस्परिक
देव मे से किसी एक के शरीर मे रोक रखता है, अस्तित्व वस्तुत. सिद्ध है।
उसे आयु कर्म कहा गया है। मूलत. कर्म के दो भेद किए गए है-द्रव्यकर्म और
(स) नाम कर्म-जिससे शरीर और अंगोपाग आदि भावकर्म।
की रचना होती है उसे नाम कर्म कहते है । पुद्गल के कर्म-कुल द्रव्यकर्म कहलाते है। द्रव्यकर्म
(द) गोत्र कर्म-जिससे जीव का उच्च अथवा नीच के निमित्त से जो आत्मा के राग-द्वेष अज्ञान आदि भाव
___ कुल मे पैदा होना होता है उसे गोत्र कर्म कहते है। होते है वे वस्तुतः भाव कर्म कहलाते है। द्रव्य और भाव
आत्मिक गुणो में कर्म का कोई स्थान नहीं है । अज्ञाभद स जो आत्मा को परतत्र करता है, दु.ख देता है तथा
नता से कर्म आत्मगुणो को प्रच्छन्न करता है। आत्मससार चक्र मे चक्रमण कराता है, वह समवेत रूप में कर्म
गणों को प्रभावित करने के लिए कर्मकुल जिस मार्ग को कहलाता है।
अपनाता है उसे आस्रव मार्ग कहा जाता है। आस्रव भी कर्मों का एक कुल होता है। कर्म अनन्तकाल से एक पारिभाषिक शब्द है जिसके अर्थ होते है कर्मों के आने अनन्त है। अनन्तकों को स्थूलरूप से दो भागों में का द्वार । इस प्रकार कर्म-सचार आस्रव कहलाता है।
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कान्त
आस्रव द्वार बहुमुखी होता है। कर्म कुल के अनुसार प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक है। अनेक+ अंत+आत्मक आस्रव मार्ग को बड़े सावधानी के साथ समझने-समझाने के योग से इस शब्द का सगठन हुआ है। यहा पर अन्त शब्द की आवश्यकना है । पाप और पुण्य की दृष्टि से आस्रव दो से धर्म नामक अर्थ ग्रहण किया गया है। इस प्रकार अनेप्रकार का होता है। इसे ही शुभ और अशुभ कहा गया कान्त शब्द का अर्थ हुआ अनेक धर्म वाला अथवा अनेक है । शुभ कर्मास्रव से प्राणी सुखी और अशुभ कर्म से प्राय गुण वाला । इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक वस्तु में अनेक दुःखी हुआ करता है। विचार कर देखे तो प्रत्येक प्रकार गुण विद्यमान है। मनुष्य के लिए यह बडा कठिन है कि का कर्म बंधन का कारण है ओर बधन कभी सुखद नही उस वस्तु के समस्त गुणो एव अवस्थाओ का विभिन्न हो सकता। इस प्रकार दुख दूर करना और सुखी होना दृष्टियो से एक साथ वर्णन करे। इसके अतिरिक्त केवल ही प्राणी का उत्कृष्ट प्रयोजन कहा जा सकता है। उमी गुण का या अवस्था का वर्णन उम दृष्टि से किया
लोक अनन्त तत्वों से भरा पड़ा है। जैन धर्म में उन्हे जाना है जिस दृष्टि से जिस गुण के कथन करने की सात भागो मे विभाजित किया गया है। जीवाजीवासवबंध- आवश्यकता उस समय की परिस्थिति के अनुसार प्रतीत सवरनिर्जरामोक्षास्तत्वम् अर्थात जीव, अजीव, आस्रव, बध, होती है । उस समय वस्तु के अन्य गुणो के वर्णन करने की सवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात ही तत्व होते है । तत्व प्राय उपेक्षा की जाती है । एक पारिभापिक अर्थ रखता है। इसका अर्थ है वम्त का अनेकांत मूलत सिद्धात है और इस सिद्धात की शैली सच्चा स्वरूप । अर्थात् जो वस्तु जैसी है उमका जो भाव है का नाम है स्यावाद । स्यात् वाद शब्दो के योग से स्याद्वाद दरअसल वही तत्व है। इन मान तत्वा को सही-मही शब्द का गठन हुआ है । स्याद् शब्द का अर्थ है कथचित रूप में मानना वस्तुत सम्यक् दर्शन कहलाता है। इन अर्थात् किसी एक दृष्टि से और वाद का अभिप्राय है तत्वो को जानकर स्व-पर भेद बुद्धि को जानना वस्तुत. विचार । इस प्रकार स्यादवाद के कथन से यह बोध होता सम्यक् ज्ञान कहा जाता है । दर्शन अर्थात् सप्त तत्वो के है कि विविक्षित वस्तु का वर्णन उसके किसी एक गुण का प्रति श्रद्धान और भेद विज्ञान पूर्वक उन्हें अपने मे लय किसी एक दृष्टि से है, उसका वर्णन अन्य गुण या अन्य करना ही वस्तुत. सम्यक चारित्र कहलाता है । यह दर्शन, दष्टि की अपेक्षा अन्य प्रकार होता है । लोक में सामान्यतः ज्ञान और चारित्र की त्रिवेणी ही वस्तुत सच्चे मुख मार्ग स्यावाद का अर्थ अन्यथा भी लगा कर मिथ्या धारणा का का प्रवर्तन करती है । यथा---
प्रयत्न किया गया। ऐमी मान्यता धारियो को दृष्टि मे स्यात् सम्यकदर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्ष मार्ग । का अर्थ है शायद । फलस्वरूप स्याद्वाद का अर्थ शायद ऐसा आज के मानवी-समुदाय की मुख्य समस्या है आग्रह- हो, इस प्रकार माना गया है। उनकी दृष्टि में स्याद्वाद वादिता। प्रत्येक व्यक्ति अपनी ममझ मे थेष्ठता अनुभव मदेहबोधक शब्द है। जैन धर्म में इस शब्द का अर्थ इस करता है। बिना सोचे-समझे जब वह अपनी धारणा को प्रकार स्वीकार नहीं किया गया है। यहा तो स्यात् शब्द से दूमरों पर थोपने का दुराग्रह करता है तभी विरोध-तज्जन्य कर्थचिन का अर्थ लेते है अर्थात् विवक्षित वस्तु के किसी सघर्ष का जन्म होता है । संघर्ष का बृहत् सस्करण ही युद्ध एक गुण का किसी एक दृष्टि से वर्णन है। उस गुण का का रूप ग्रहण है । जैन धर्म मे इस विश्व व्यापी समस्या के उस दृष्टि से वर्णन पूर्णत. निश्चयात्मक है, इसमे किसी समाधान हेतु एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विचार पद्धति प्रदान प्रकार का सदेह नहीं है। की है। उसके अनुसार युद्ध शान्ति का उपाय सामने नही विश्व में वैचारिक विविधता आरम्भ से ही रही है। आता अपितु युद्ध के उत्पन्न होने मे भूल कारण और विचार वैविध्य को जब आग्रह के साथ ग्रहण किया जाता आधार का उद्घाटन भी हो जाता है। युद्ध का मूलाधार है तभी सघर्ष को जन्म मिला करता है। आज के विश्वहै आग्रहवादिता। अनेकान्त और स्याद्वाद इस दिशा मे व्यापी मानवी समुदाय में वैचारिक विसंगति व्याप्त है उल्लेखनीय समाधान है।
फलस्वरूप प्रत्येक क्षण युद्ध-संघर्ष की सम्भावना बनी रहती
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विश्व धर्म बनाम जैन धर्म
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है। इस विश्व व्यापी समस्या का समाधान अनेकात और कष्ट पहुंचाने वाली असावधानी को द्रव्य हिंसा कहा जाता स्यावाद को जानने और मानने मे सहज मे हल हो जाता है। इस प्रकार द्रव्य हिसा स्थूल है और भाव हिंसा सुक्ष्म । है। फलस्वरूप अनेकमुखी संघात्मक परिस्थितियो मे जिस प्रकार किसी चोरी करने वाले चोर की स्वय भी समता और सौहार्द का वातावरण स्थिर कर आदर्श की चोरी होती जाती है अर्थात् उसकी अचौर्य वृत्ति की चोरी स्थापना होती है।
हुआ करती है उसी प्रकार हिंसक को अहिंसक वृत्ति किसी प्राणी मात्र के विकास और ह्रास हेतु जैन धर्म का प्रकार की हिंसात्मक मनोवृत्ति उत्पन्न होने पर प्रायः एक और सिद्धान्त है- अहिंमा । अहिंसा मूलत आत्मा का प्रच्छन्न हो जाती है। स्वभाव है । वह वस्तुत: किसी नकारात्मक स्थिति की
जैन धर्म मे द्रव्य हिंसा को चार कोटियों प्राय विभक्त परिणति नही है अर्थात जो हिंमा नही है वह अहिंसा है प्राय. R
किया गया है। यथा--१. मकल्पी हिंमा, २. विरोधी हिंमा
A TA ऐसा नही है । जो वस्तु बाहर से प्राप्त होती है उसका ।
३. आरम्भी हिंमा, ४. उद्योगी हिमा। अपना विभाव और प्रभाव हुआ करता है। प्रभाव और विभाव-व्यापार क्षण-क्षण मे बदलते रहते है । मैं मानता हू
हिमा का वह रूप जो जान-बूझकर अर्थात् संकल्प कि जो प्राप्त है वह आज नही तो कल अवश्य समाप्त है
पूर्वक की जाती है, वस्तुत सकल्पी हिंसा कहलाती है। मन अस्तु हमे प्राप्त और ममाप्त मे सर्वथा पृथक होकर जो
मे वचन से तथा शरीर से स्वय करके, दूसरो के द्वारा व्याप्त है उसे जानना चाहिए।
कराकर तथा किमी अन्य व्यक्ति के किए जा रहे कार्य की पोशाक मान्यता स्वी- अनुमोदना करके जो कार्य किया जाता है, वह सकल्पी कार करती है। चाहे महात्मा ईण हो, चाहे अल्लाह हो, हिसा की कोटि में आ जाता है । किसी आक्रमणकारी से अथवा ईश्वर हो अथवा भगवान बुद्ध, सभी के द्वारा अपना, अपन पारवार का, आर धन धम आर समाजअहिंसा को स्वीकारा गया है परन्तु जैन धर्म में अहिंसा को राष्ट्र की रक्षा हेतु जो हिंसा हो जाती है वह वस्तूत. विरोधी जिस रूप में माना गया है उसकी सूक्ष्मता और विशदता
हिमा कहलाती है। विचार कर देखे तो लगता है कि वस्तुत अद्वितीय है। यहा अहिंमा के इसी महत्व-महिमा
संकलली हिंमा की जाती है जबकि विरोधी हिंमा हो जाती पर संक्षेप मे विश्लेषण करना आवश्यक है।
अहिंसा जैन धर्म का प्राणभूत तत्व है। उसकी विशद प्रत्येक व्यक्ति को गृह कार्य में अनेक विधि ऐसे कार्य व्याप्ति मे सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि सब करने होते है जिनमे हिंसा हो जाती है। घर की व्यवस्था व्रत समा जाते है । व्रती अहिंसक होता है और जो व्यक्ति भोजनार्थ खाद्य मामग्री का व्यवस्था करना, कपडे बनवाना सच्चा अहिंसक है उसके द्वारा किसी प्रकार का पाप कर्म तथा धुलवाना आदि मे जो हिंसा हो जाती है उसे आरम्भी होना सम्भव नही होता । मन, वाणी और शरीर के द्वारा हिंमा कहा जाता है। अहिंसक इस प्रकार के कार्य करते किसी प्रकार की असावधानी अहिंसक प्राय, नही करेगा समय अत्यन्त मावधानी रखता है ताकि कम से कम हिंसा जिससे किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार का कष्ट होने पाए। इसी प्रकार उद्योगी हिंमा मे प्रत्येक गहस्थ पहचे । इसके विपरीत की जाने वाली असावधानी वस्तुतः अथवा व्यक्ति को अपने और अपने आश्रित प्राणियों के हिंसाजन्य होती है।
लिए जीवकोपार्जन करने में जो हिंमा होती है उसे उद्योगी हिंसा के मूलतः दो भेद किए गए हैं--यथा-- हिंमा कहा जाता है। मांस-मदिरा का व्यापार, भट्टा आदि १. भाव हिंसा, २. द्रव्य हिंसा ।
का लगवाना तथा अन्य अनेक इसी प्रकार के काम-काज अपने मन मे स्वयं तथा किसी दूसरे प्राणी को किसी करने से जो हिंसा होती है वह उद्योगी हिंसा के अन्तर्गत प्रकार का कष्ट देने का विचार आना वस्तुत. भाव हिंसा आती है। अहिंसक धर्मों को इस दिशा में पूरी सावधानी कहलाती है। वाणी तथा शरीर से अपने तथा दूमरे को रखनी चाहिए और जीवकोपार्जन के लिए ऐसा कार्य करना
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२० वर्ष ३५, कि०१
हो।
चाहिए जिसमें कम से कम हिंसा होने की सम्भावना रहती आत्मा की स्वाभाविक स्थिति ही पवित्रता है और वही
अहिंसा है। आज अपेक्षा है जहां हिंसा की रौरवी पिशाउपरोक्त चारों प्रकार की द्रव्य हिंसा वस्तुत: गृहस्थ चनी मुह बाए मानवता को निगलना चाहती है, अहिंसा के समूह के द्वारा की जाती है इस प्रकार की होनी वाली निरूपण, उस पर चर्चन, विमर्षण और बौद्धिक विश्लेषण हिंसात्मक व्यापारो के प्रति सावधानी रखने वाला प्राणी के क्रम से आगे बढ़ाया जाए ताकि लोक श्रद्धा जो हिंसा में अणुव्रत साधना के अन्तर्गत आता है। इसके अतिरिक्त इस गहरी पैठती जा रही है, अहिंसा पर टिकने को समनित दिशा में जो सूक्ष्म स्वरूप पर आचरण करता है वह प्राय. हो। संत साधक समाजी कहा जाता है । उसे सामान्यत. महाव्रत
महात्मा ईशु, अहिंसा पालन करने का निदेश देते हैं।
मास के साधना समुदाय का अग कहा जा सकता है।
वैटिक विश्व में और इस्लामी
वैदिक विश्व मे और इस्लामी दुनिया में भी अहिंसात्मक हिंसा पर विजय पाने के लिए जितना कष्ट सहना पडे प्रवृत्ति की अनुशसा की गई है। इन सभी मान्यताओं मे वह सब सहा जाए । इंमी सिद्धान्त के आधार पर तपस्या मनुष्य गति की श्रेष्ठता सर्वोपरि है। यह धारणा है भी का विकास हुआ है। इन्द्रिय और मन को जीते बिना कोई ठीक । इसीलिए यहां मनुष्य हित को मर्वोपरि ममझा जाता अहिंमा जीवन मे नही आ मकती। इनकी विजय के लिए है। मनुष्य हित में यदि तिर्यचादिक गतियों के जीवों का वाद्य वस्तुओ, विषयो का त्याग आवश्यक है।
घात होता है तो यहा प्राय. उसे करने की स्वीकृति दी जैन धर्म में इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए अपरि- जाती है। इसके विपरीत जैन धर्म में स्पष्ट धारणा है कि ग्रह वाद का प्रवर्तन किया गया है। परिग्रह के साधारणत मनुष्य गति अन्य सभी गतियो की तुलना में नि:स्मन्देह अर्थ है संग्रह करना । जैन धर्म समता पर बल देता है श्रेष्ठ है नथापि मनुष्य की सुख-सुविधा हेतु यहा अन्य जीव ममता पर नही । पर-पदार्थ के प्रति जो ममत्व भाव उत्पन्न धारियो का घात करने की अनुमति और स्वीकृति कदापि होता है उससे ही सग्रह की भावना उत्पन्न होती है। ममता नही दी गई है। विचार कर देखे तो स्पष्ट हो जाता है कि का मूलाधार अज्ञानता है। अज्ञानी स्व-पर भेद से किसी जीव चाहे किसी भी श्रेणी का हो, मलीन हो, दीन हो वस्तु का सही-सही मूल्याकन नहीं करता। अहिंसक कभी अथवा कुलीन और प्रवीण हो, कष्ट कोई भी भोगना नहीं अज्ञानी नही हो सकता । इमीलिए अहिंसक पेट भरने की चाहता । सभी गतियों के जीव सुख की आकांक्षा रखते बात कहता है, पेटी भरने की नहीं । पेटी भरना ही तो है। जीव घात किए बिना मनुष्य गति को सुख-सुविधा, परिग्रहवादिता है।
प्रदान करने का प्रयत्न जैन धर्म मे प्रारम्भ से ही रहा है। मत परिग्रह कर यहां कुछ थिर नहीं है,
यहां स्पष्ट धारणा रही है कि हम स्वय जिएं और दूसरों व्यर्थ है सग्रह, जरूरत चिर नहीं है।
को जीने दें। हो सकी अपनी न दौलत रूप सी भी,
विश्व की अन्य अनेक धार्मिक मान्यताओं द्वारा व्यक्ति मौत से पहिले निजी तन, फिर नही है ।।
उदय और वर्गोदय की व्यवस्था संजोयी गई है जवकि जैन अहिंसक सदा अपरिग्रही होता है। आवश्यकता से धर्म में व्यक्ति ही नही. कोई वर्ग विशेष टी
धर्म में व्यक्ति ही नहीं, कोई वर्ग विशेष ही नहीं अपितु अधिक पदार्थ संग्रह में उसे आसक्ति नही रहती आमक्ति प्राणी मात्र के उन्नयन हेतु सन्मार्ग प्रशस्त किया गया है। वस्तुतः अबोध का परिणाम है। आसक्ति बुराई है । बोध विचार कर देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि यह कितनी होने पर बुराई दुहराई नहीं जाती।
व्यापक और उदात्त भावना है। इसी विराट् भावना के बल आत्मानुशासन में कहा है कि धर्म पवित्र आत्मा मे बूते पर जैन धर्म को विश्व धर्म के उच्चासन पर प्रतिहित ठहरता है। अहिंसा एक धर्म है । व्यवहार की भाषा में वह किया जा सकता है। पवित्र आत्मा मे उद्भूत होती है और निश्चय की भाषा मे -पीली कोठी आगरा रोड, अलीगढ़, पिन २०२००१
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प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती
- महामहोपाध्याय डॉ० हरीप्रभूषण जैन, साहित्याचार्य, उज्जन परिचय और उपाधि
अनन्त संसार रूपी समुद्र से पार हो गया उस अभयनन्दि विक्रम की ११वी शताब्दी में एक अत्यन्त प्रतिभाशाली गुरु को मै नमस्कार करता हूं।" जैनाचार्य हुए जिनका नाम नेमिचद्र है । ये, दिगम्बर जैना- "जस्स य पायपसाएणणंतससारजलहिमुत्तिण्णो । गम 'षट् खण्डागम' और उसकी 'धवला' और जय धवला' वीरिंदणंदिवच्छो णमामि त अभयणंदिगुरूं ॥" टीकाओं के पारगाभी विद्वान् थे। इसी कारण उन्हे 'मिद्धांत
(कर्मकाण्ड-४३६) चक्रवती' की महनीय उपाधि प्राप्त हुई थी। उन्होने धवल- इसी प्रकार कर्मकाण्ड में अन्यत्र (गाथा नं. ७८५) सिद्धान्त का मथन करके 'गोम्मटसार' तथा जय धवल- तथा लब्धिसार (गाथा न० ६४८) मे भी उन्होने अपने सिद्धान्त का मथन करके 'लब्धिमार' नामक ग्रन्थों की तीनो गुरुओ को प्रणाम किया है। रचना की।
चामुण्डराय और उनके गुरु प्राचार्य नेमिचन्द्रगोम्मटसार ग्रन्थ के कर्मकाण्ड मे, उन्होंने लिखा है चामुण्ड राय, गगवशी राजा रायमल्ल (राचमल्ल) के कि "जिस प्रकार चक्रवर्ती अपने चक्ररत्न से भारत वर्ष के प्रधानमत्री एव सेनापति थे। उन्होने अनेक युद्ध जीते और छह खण्डो को निर्विघ्न स्वाधीन कर लेता है, उसी प्रकार उसके उपलक्ष्य मे वीरमार्तण्ड, रणरंगमल्ल आदि अनेक मैंने अपने बुद्धि-रूपी चक्र से पट्खण्डागम सिद्धान्त को उपाधिया प्राप्त की। सम्यक् रीति से साधा।"
इसे एक आश्चर्य ही समझना चाहिए कि जो व्यक्ति "जह चक्केण य चक्की छक्खण्ड साहियं अविग्घेण। अपने यौवन के प्रभातमे प्रबल शक्तिशाली राजाओं से युद्ध तइ मइचक्केण मया छक्खण्ड साहिय सम्म ॥३६७॥" कर विजय प्राप्त करता रहा, वही अपने जीवन की संध्या
में आचार्य नेमिचन्द्र मदृश गुरुओं के पारस का स्पर्श पाकर संभवत. विद्वानों को, आचार्य नेमिचन्द्र के लिए इस कैसे एक अध्यात्मिक भक्त, सन्त, निर्माता और साहित्यकार उपाधिदान की प्रेरणा, जय धवला प्रशस्ति के उस श्लोक से प्राप्त हुई होगी जिसमे वीरसेन स्वामी के लिए कहा।
नि सन्देह, चामुण्डराय अत्यन्त गुणी पुरुष थे। उन्होंने गया है कि "भरत चक्रवर्ती की आज्ञा की तरह जिनकी
अपने जीवन मे चार महान कार्य किए : प्रथम-श्रवणभारती षट्खण्डागम मे स्खलित नही हुई।"
वेलगोला स्थान पर, चन्द्रगिरि पर्वत पर चामुण्डराय वसति " "भारती भारतीवाज्ञा षट्खण्डे यस्य नास्खलत् ।" नामक जिनालय का निर्माण और उसमें इन्द्रनीलमणि की
(जय धवला प्रशस्ति-२०) एक हाथ ऊँची भगवान नेमिनाथ की प्रतिमा की स्थापना, प्राचार्य नेमिचन्द्र के गुरु
जो अब अनुपलब्ध है । द्वितीय-शक सवत् ६०० (वि०सं० आचार्य नेमिचन्द्र ने अपने गुरुओं के नामो का उल्लेख, १०३५) मे चामुण्डराय पुराण की रचना। तृतीय--गुरु स्पष्ट रूप से, अपने ग्रन्थों में किया है। तदनुसार, आचार्य आचार्य नेमिचन्द्र के गोम्मटसार ग्रन्थ पर 'वीर मार्तण्डी' अभयनन्दि, वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि, उनके गुरु है। कम- नामक देशी भाषा (कनडी) मे टीका और चतुर्थकाण्ड में एक स्थान पर कहा गया है कि "जिनके चरणों श्रवणबेलगोला में विन्ध्यगिरि पर, संसार का अदभुत शिल्प के प्रसाद से वीरमन्दि और इन्द्रनन्दि का वत्स्य (शिष्य), वैभव एव महान् आश्चर्य बाहबली स्वामी की सत्तावन
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२२, बर्ष ३५, कि०१
अनेकान्त
फीट ऊँची, विशाल, भव्य एवं अतिशय मनोज्ञ प्रतिमा की उनके प्रतिबोधनार्थ की। त्रिलोकसार के संस्कृत टीकाकार निर्मिति ।
माधवचन्द्र विद्य ने त्रिलोकसार की प्रथम गाथा की चामुण्डराय का घर का नाम 'गोम्मट' था यह बात उत्थानिका में लिखा है-"भगवन्नेमिचन्द्र सैद्धान्तदेवश्चतुरडॉ० आ० ने० उपाध्याय ने अपने एक लेख में सप्रमाण नुयोगचतुरुदधिपारश्चामुण्डरायप्रतिबोधनव्याजेनाशेषविनेयसिद्ध की है। उनके इस नाम के कारण उनके द्वारा जनप्रतिबोधनार्थ त्रिलोकसारनामान ग्रन्थमारचयन् ।" स्थापित बाहबली की मूर्ति 'गोम्मटेश्वर' के नाम से ख्यात जीवकाण्ड के अन्त की गाथा (नं० ७३५) में ग्रन्थकार हई। डॉ० उपाध्ये ने 'गोम्मटेश्वर का अर्थ किया है- ने कहा है—'आर्य आर्यसेन के गुण समूह को धारण करने गोम्मट अर्थात् चामुण्डराय का ईश्वर अर्थात् देवता । इसी
वाले अजितसेनाचार्य जिसके गुरु है वह राजा गोम्मट
र कारण से विन्ध्यगिरि की, जिम पर गोम्मटेश्वर की मूर्ति
जयवन्त हो।' इसी प्रकार कर्मकाण्ड के अन्त की कुछ स्थापित है. 'गोम्मट' कहा गया है। इसी गोम्मट उपनाम- गाथाओ (अत की कुछ गाथाओं (नं० ६६६ से ६७२) के धारी चामुण्डराय के लिए नेमिचन्द्राचार्य ने अपने गोम्मट
के द्वारा, आचार्य नेमिचन्द्र ने गोम्मट राजा चामुण्डराय सार नामक समग्र ग्रन्थ की रचना की। इसी कारण ग्रन्थ
का जयकार किया है और उनके द्वारा किए गए कार्यों की को 'गोम्मटसार' सज्ञा प्राप्त हुई।
भी प्रशंशा की है-- मेरे मित्र डा० देवेन्द्रकुमार जैन ने गोम्मटेश्वर का
"गणधरदेव आदि ऋद्धि प्राप्त मुनियों के गुण जिसमे एक दूसरा अर्थ किया है। वे लिखते है' कि--"उन्हे
निवास करते है. ऐसे अजितसेननाथ जिसके गुरु है, वह गोम्मटेश्वर इसलिए कहा जाता है कि वह गोमट यानी
राजा जयवन्त हो ।।६६६।। सिद्धान्तरूपी उदयांचल के तट प्रकाश से युक्त थे, प्रकाशवानों के ईश्वर गोम्मटेश्वर ।
से उदय को प्राप्त निर्मल नेमिचन्द्र रूपी चन्द्रमा की किरणों दसरी व्युत्पत्ति यह है कि साधनाकाल में लता-गुल्मों के से वद्धिंगत, गुणरत्नभषण, चामुण्डराय रूपी समुद्र की बुद्धि वह 'गुल्ममत्' हो गए 'गोम्मट' उमा का प्राकृत रूपी वेला भवनतल को पूरित करे ॥६६७।। गोम्मट सग्रह
सूत्र (गोम्मटसार), गोम्मट शिखर पर स्थित गोम्मटजिन जीवकाण्ड की मन्दप्रबोधिनी टीका (प० ३) की
और गोम्मट राज के द्वारा निर्मित कुक्कूटजिन जयवन्त उत्थानिका में शब्द लिखे हैं उनसे उनके अप्रतिम व्यक्तित्व हो ॥६६८। जिसके द्वारा निर्मित प्रतिमा का मुख सर्वार्थका सहज बोध हो जाता है-"श्रीमद्प्रतिहतप्रभावस्याद्वाद।
सिद्धि के देवो द्वारा तथा सर्बाधिज्ञान के धारक योगियो के शासन गुहाभ्यंतर निवासि''तद्गोम्मटसार प्रथमावयवभूतं
द्वारा देखा गया है, वह गोम्मट जयबन्त हो ॥६६६। स्वर्णजीवकाण्डं विरचयन् ।"
कलशयुक्त जिनमन्दिर मे, त्रिभुवनपति भगवान् की अर्थात् --"गगवंश के ललामभूत श्रीमद् राजमल्लदेव
माणिक्यमयी प्रतिमा की स्थापना करने वाला राजा के महामात्य पद पर विराजमान, रणरगमल्ल, असहाय
जयवन्त हो ॥९७०॥ जिसके द्वारा खड़े किए गए स्तम्भ पराक्रम, गुणरत्नभूषण, सम्यक्त्वरत्ननिलय आदि विविध
के ऊपर स्थित यक्ष के मुकुट के किरणरूपी जल से सिद्धों सार्थक नामधारी श्री चामुण्डराय के प्रश्न के अनुरूप
के शुद्ध पाँव धोए गए, वह राजा गोम्मट जयवन्त जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड के अर्थ का संग्रह करने के
हो ।।९७१।। गोम्मटसूत्र के लिखते समय जिस गोम्मट राजा लिए गोम्मटसार नाम वाले पंचसग्रह शास्त्र का प्रारभ
ने देशी भाषा मे जो टीका लिखी, जिसका नाम वीरकरते हुए, नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती परम मगल पूर्वक
मार्तण्डी है, वह राजा चिरकाल तक जयवन्त हो ॥७२॥" गाथा सूत्र कहते है ।" ___ चामुण्डराय के लिए यह कितने सौभाग्य की बात है विन्ध्यगिरि पर बाहुबली की प्रतिमाकि आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती जैसे मनीषी गुरु ने, चामुण्डराय ने श्रवणवेलगोला की विन्ध्यगिरि की न केवल गोम्मटसार अपितु त्रिलोकमार की भी रचना पहाडी पर सत्तावन फुट ऊँची जिस अतिशययुक्त मनोहारी
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आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती
प्रतिमा का निर्माण कराया, वह उनके जीवन की सबसे 'कल्यब्दे पाठ ठीक मानकर उक्त तिथि के वर्ण को ६०७बड़ी उपलब्धि थी।
८ ई० निर्धारित करते है। सिद्धान्त शास्त्री पं० कैलाशचन्द्र सम्राट भरत ने अपने अनुज, बाहुबली की कठोर जी अपनी साहित्यिक छान-बीन के आधार पर, मूर्तितपस्या की स्मृति मे उत्तर भारत मे एक मनोज्ञ प्रतिमा स्थापना का समय ६८१ ई० (विक्रम सं० १०३८) उपयुक्त की स्थापना की थी। कुक्कुट सर्पो से व्याप्त हो जाने के मानते हैं। कारण वह 'कुक्कुट जिन' के नाम से प्रसिद्ध हुई। उत्तर इस प्रकार विभिन्न विद्वानो के मतानुसार बाहुबली भारत की मूर्ति से भिन्नता बतलाने के लिए चामुण्डराय की प्रतिमा का स्थापना काल ई० ६०७ से लेकर द्वारा स्थापित मूर्ति 'दक्षिण कुक्कुट जिन' कहलाई। कर्म- ई० १०२८ तक, लगभग १२१ वर्ष के मध्य झूल रहा है। काण्ड गाथा ६६६ में इस प्रतिमा की ऊँचाई को लक्ष्य में भुझे तो ज्योतिष शास्त्र के अनुसार परीक्षण किए गए रख कर ही नेमिचन्द्राचार्य ने कहा है कि "उस प्रतिमा डॉ० घोणाल और डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री के १८०-९८१ ई० का मुख सर्वार्थसिद्धि के देवों ने देखा है।"
वाले मत उपयुक्त जान पडते है। इस मत मे प० कैलाशचन्द्र "जेण विणिम्मिय पडिमावयणं सव्वमिद्धिदेवेहिं ।।
लो
जी की भी सहमति है। सव्वपरमोहिजोगिहिं दिट्ठ सो गोम्मटो जयउ ॥" प्राचार्य नेमिचन्द्र की रचनाएँ
-कर्मकाण्ड -गाथा न. ६६६) आचार्य नेमिचन्द्र की प्राकृत गाथाओ मे रचित पाँच प्रतिमा स्थापना का समय-.
रचनाएँ प्रसिद्ध है। इनमें केवल द्रव्य संग्रह को छोड कर ___ गोम्मटसार कर्मकाण्ड (गाथा न ६६८ तथा ६६६) म शेष चार रचनाओ-गोम्मटसार, लब्धिसार और चामुण्डराय के द्वारा 'गोम्मट जिन' की प्रमिा की स्थापना वलोक्यसार (त्रिलोकमार) की रचना का उल्लेख हैका निर्देश है। अत: यह निश्चित है कि गोम्मटसार की "श्रीमद्गोमटलब्धिसारविलसत्त्र नोक्पमारामरसमाप्ति गोम्मट-प्रतिमा की स्थापना के पश्चात् हुई। किन्तु माजश्रीसुग्धेनुचिन्तितमणीन् श्रीनेमिचन्द्रोमुनि. ॥" मूर्ति के स्थापनाकाल को लेकर इतिहासज्ञो मे बडा मतभेद इमी प्रकार द्रव्य-सग्रह की अन्तिम गाथा में मुनि है। बाहुबलि चरित्र में "कल्पयब्दे षट्शताख्ये..." इत्यादि नेमिचन्द्र द्वारा उसकी रचना किए जाने का उल्लेख हैश्लोक मे चामुण्डराज द्वारा वेल्गुल नगर मे 'गोमटेश' की “दवसगहमिण मुणिणाहा..."णेमिचन्द्र मुणिणा भणिय ज" प्रतिष्ठा का समय कल्कि सवत् ६००, विभव सवत्सर,
-(द्रव्यसग्रह ५८) चैत्र शुक्ल पंचमी, रविवार, कुम्भ लग्न, सीमाग्य योग, गोम्मटसार-- मस्त (मृगशिरा) नक्षत्र, बताया है।
नाम--इम ग्रन्थ के चार नाम पाए जाते है-गोम्मट किन्तु उक्त तिथि कब पड़ती है इस सबंध मे अनेक सगहसुत्त, गोम्मटमुत्त, गोम्मटसार और पंचसग्रह । मत है। प्रो० एस० सी० घोषाल ने ज्योतिष शास्त्र द्वारा गोम्मटसंगहसूत्त एवं गोम्मटमुत्त नामों का प्रयोग स्वय परीक्षण के आधार पर उक्त तिथि को २ अप्रैल ६८० ग्रन्थकार ने कर्मकाण्ड की ६६८वी तथा ६७२वी गाथाओं माना है।
मै किया है। गोम्मटसार नाम का प्रयोग अभयचन्द्र ज्योतिषाचार्य डॉ० नेमिचन्द्र जी, भारतीय ज्योतिष् सिद्धान्त चक्रवर्ती ने अपनी मन्दप्रबोधिनी टीका में किया के अनुसार उक्त तिथि, नक्षत्र, लग्न, सवत्सर आदि को है। इसी टीका मे ग्रन्थ का नाम पंचसंग्रह भी उपलब्ध १३ मार्च सन् १८१ मे घटित मानते है ।
होता है। प्रो० हीरालाल जी के अनुसार २३ मार्च १०२८ सन् पंचसग्रह, नाम का कारण बताते हुए प्रो० घोषाल' में उक्त तिथि वगैरह ठीक घटित होती है। किन्तु शाम ने लिखा है कि इसमे, बन्ध, बन्ध्यमान, बन्धस्वामी, बन्धशास्त्री ने उक्त तिथि को ३ मार्च १०२८ सन् बताया है। हेतु और बन्धभेद इन पांच बातो का संग्रह होने के
एस० श्रीकण्ठ शास्त्री 'कल्क्यब्दे' के स्थान पर कारण ही इसका नाम पचसग्रह है। सिद्धान्त शास्त्री
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२४, वर्ष ३५, कि०१
अनेकान्त
पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री ने पंचसग्रह नाम का कारण बता ते जीवकाण्ड का संकलन बहुत ही व्यवस्थित, सन्तुलित हुए लिखा है कि "सभवतया टीकाकारों ने अमितगति के और परिपूर्ण है। इसी से दिगम्बर साहित्य में इसका पंचसंग्रह को देखकर और उसके अनुरूप कथन इसमे देख विशिष्ट स्थान है। कर इसे यह नाम दिया है।"
कर्मकाण्डगोम्मट अर्थात चामुण्डराय के प्रतिबोधन के निमित्त गोम्मटसार के दूसरे भाग का नाम कर्मकाण्ड है। लिखे जाने के कारण इस ग्रन्थ का नाम 'गोम्मटसार' पड़ा। इसकी गाथा संख्या ६७२ है। इसमें नो अधिकार हैविद्वान् इसका रचना काल वि० सं० १०४० के लगभग १. प्रकृति-समुत्कीर्तन, २. बन्धोदयसत्त्व, ३. सत्त्वस्थानभङ्ग, मानते हैं।
४. त्रिचूलिका, ५. स्थानसमुत्कीर्तन, ६. प्रत्यय, ७. भावविषयवस्तु-जीवकाण्ड
चूलिका, ८. त्रिकरणलिका और ६. कर्मस्थिति रचना । गोम्मटसार के दो भाग है-प्रथम जीवकाण्ड और इन नौ अधिकारो मे कर्म की विभिन्न अवस्थाओं का द्वितीय कर्मकाण्ड । जीवकाण्ड की गाथा संख्या के विषय निरूपण किया गया है । मे मतभेद है। कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने जीवकाण्ड की
सिद्धान्ताचार्य प० के नाश चन्द्र शास्त्री ने एक महत्त्वपूर्ण लिया जाना चोला बात कर्मकाण्ड के विषय में कही है। इसके गाथा न० २२ और डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ने इसकी गाथाओं की संख्या ।
से ३३ तक की गाथाओ मे कुछ असम्बद्धता या अपूर्णता ७३३ लिखी है। वस्तुत. गाथा सख्या ७३४ ही है। भूत।
प्रतीत होती है । मूड बद्री से प्राप्त ताडपत्रीय कर्मकाण्ड का कारण यह है कि जीवकाण्ड के गाधी नाथारग जी. की प्रतियो में इन गायाओ के बीच मे कुछ सूत्र, गद्य मे बबई वाले संस्करण तथा रायचन्द्र शास्त्रमाला, बबई वाले पाए जाते है। मूडबिद्री की प्रति मे पाए जाने वाले इन सस्करणों इन दोनो संस्करणो मे गाथा सख्या ७३४ के स्थान सूत्रो को यथास्थान रख देने से कर्मकाण्ड की गाथा न० पर ७३३ लिखी गई है। क्योकि प्रथम संस्करण में दो २२ से ३३ तक की गाथाओ मे जो असम्बद्धता और गाथाओं पर २४७ न० पड गया है तथा द्वितीय सस्करण अपूर्णता प्रतीत होती है, वह दूर हो जाती है और सब म प्रमादवश १४४ नं० की गाथा छूट गई है।
गाथाएँ सुसगत प्रतीत होती है। जैसा कि नाम से व्यक्त है इसमे जीव का कथन है। प० कैलाशचन्द्र जी का एक महत्त्वपूर्ण सुझाव है कि ग्रन्थकार ने जीवकाण्ड की प्रथम गाथा मे "जीवस्स परूपण मूडबिद्री की प्रति में वर्तमान गद्य-सूत्र अवश्य ही कर्मकाण्ड वोच्छ" कह कर यह बात स्पष्ट कर दी है कि इसमे जीव के अग है और वे नेमिचन्द्राचार्य की कृति है। कर्मकाण्ड का प्ररूपण है। जीवकाण्ड की द्वितीय गाथा मे उन बीस की मुद्रित संस्कृत-टीका में उन सूत्रो का सस्कृत रूपान्तर प्ररूपणाओं (अधिकारो) को गिनाया है जिनके द्वारा जीव अक्षरश. पाया जाना भी इस बात की पुष्टि करता है। का कथन इस ग्रन्थ में किया गया है। ये बीस प्ररूपणाएँ उन सूत्रो को यथास्थान रखने से कर्मकाण्ड की त्रुटिपूर्ति हो हैं-गुणस्थान, जीव समास, पर्याप्ति, प्राण, सज्ञा, १४ जाती है।" मार्गणाएँ और उपयोग।
टीकाएंयहाँ यह बात जानने योग्य है कि गोम्मटसार एक गोम्मटसार पर संस्कृत मे दो टीकाएँ लिखी गई हैंसग्रह ग्रन्थ है। कर्मकाण्ड की गाथा नं. ६६५ मे आए प्रथम-नेमिचन्द्र द्वारा 'वीर मार्तण्डी टीका' और द्वितीय'गोम्मटसंग्रह सुत्त' नाम से भी यह स्पष्ट है । जीवकाण्ड का 'केशव वर्णीकृत 'केशववर्णीया वृति' संकलन मुख्य रूप से पंचसंग्रह के जीवसमास अधिकार, 'वीरमार्तण्ड' चामुण्डराय की उपाधि थी, अत: तथा षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड, जीवट्ठाण के सत्प्ररूपणा 'वीरमार्तण्डी' का अर्थ हुआ चामुण्डराय द्वारा निर्मित और द्रव्यपरिणामुगम नामक अधिकारो की धवला टीका टीका । यह टीका आजकल उपलब्ध नहीं है, किन्तु इसका के आधार पर किया गया है।
उल्लेख दो स्थानो पर प्राप्त होता है-प्रथम, कर्मकाण्ड
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आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती
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विषयवस्तु
की गाथा न० ६७२ मे तथा द्वितीय केशववर्णी या वत्ति श्री माधवचन्द्र आचार्य ने 'क्षपणासार' नामक एक की प्रारम्भिक गाथा मे । कर्मकाण्ड की गाथा न० ६७२ अन्य ग्रन्थ मस्कृत गद्य मे लिखा है। इस ग्रन्थ और इस प्रकार है
नेमिचन्द्र के प्राकृत-गाथाओ वाले 'क्षपणासार' का विषय "गोम्मट सुत्तल्लिहणे गोम्मट रायेण जा कया देसी। एक ही है । सभवत इमी कारण लब्धिसार के उनर-भाग सो राओ चिरकाल णामेण य वीरमत्तण्डी।" का नाम क्षपणासार दे दिया गया है। केशववर्णीया वृत्ति की प्रथम गाथा इस प्रकार है-- "नेमिचन्द्र जिन नत्वा सिद्ध श्री ज्ञान भूपणम् ।
गोम्मटगार के जीवकाण्ड में जीव का, कर्मकाण्ड में वृत्ति गोम्मटसारस्य कूर्वे कर्णाटवत्तित ।"
जीव द्वारा बाधे जाने वाले कर्मो का और लब्धिसार में यहा 'कर्णाटवृत्तित' पद से अभिप्राय, चामुण्डगय
जीव के कर्मबन्धन से मुक्त होने का उपाय तथा प्रक्रिया द्वारा लिखित कर्मकाण्ड की कन्नड टीका से है।
बताई गई है। लब्धिसार-क्षपणासार
मोक्ष की प्राप्ति के कारणभूत मम्यग्दर्शन और गम्यकलब्धिमार और क्षपणासार को गोम्मटमार का ही चारित्र की लब्धि अर्थात् प्राप्ति का कथन होने के कारण उत्तर भाग समझना चाहिए। प्राकृत गाथाओ में निबद्ध ग्रन्थ का नाम लब्धिमार है। दोनो ग्रन्थों की सम्मिलित गाथा-सख्या ६५३ है।" "मम्यग्दर्शनचाग्थियो ब्धि प्राप्तियस्मिन् प्रतिपाद्यते डॉ० घोपाल ने 'लब्धिमार की गाथा-सख्या ३८० तथा म लब्धिमा राख्यो ग्रन्थ ।" - -(लब्धिमार टीका) क्षपणामार कीगाथा-सख्या २७०, इस प्रकार कुल गाथा
मर्वप्रथम सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का कथन है। उसकी सख्या ६५० लिखी है । वस्तुत गाथा सख्या ६५३ ही है।
प्राप्ति पाँच लब्धियों के होने पर होती है। वे हैगाथाओ की विभिन्नता का कारण यह है कि गयचन्द्र
क्षयोपशम, विशुद्धि देशना, प्रायोग्य और करणलब्धि । शास्त्रमाला बबई वाले मंस्करण में गाथाओ की मख्या ६४६ है, क्योंकि उसमे गाथा न० १५६, १६७, २७८, नया गाथा न० ३६१ तक चारित्र मोहनीय कर्म के उपशम ५३१ नहीं है ये चार गाथाएँ हरिभाई देवकरण ग्रन्थमाला करने का कथन है। उसके आगे चारित्र मोह की क्षपणा से प्रकाशित सम्करण (शास्त्राकार) मे सम्मिलित कर दी का कथन है। क्षपणा के अन्तर्गत जो क्रियाये होती है उन्ही गई है। डॉ. घोषाल ने गाथाओ की सख्या ६५० किम को आधार बना कर चारित्र मोह की क्षपणा के अधिकारो आधार पर लिखी है, यह बात विचारणीय है।
का नामकरण किया गया है। वे अधिकार है---अध करण यहा यह जानना अत्यन्त आवश्यक है कि लब्धिमार अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण- ये तीन करण, बन्धाऔर क्षपणासार, दोनो एक ही ग्रन्थ है। जैसे इस ग्रन्थ की पसरण और मत्वापसरण--ये दो अपसरण, क्रमकरण, प्रथम गाथा में ग्रन्थकार ने दर्शनलब्धि और चारित्रलब्धि कपायो आदि की क्षपणा, देशघातिकरण, अन्तरकरण, को करने की प्रतिज्ञा की है, वैसे ही अतिम गाथा (६५२) मक्रमण, अपूर्वस्पर्धककरण,कृप्टिकरण और कृष्टि अनुभवन मे भी कहा है कि-"नेमिचन्द्र ने दर्शन और चरित्र की (गाथा ३६२)। इन्ही अधिकारी के द्वारा उस क्रिया का लब्धि भले प्रकार कही।" ढुढारी भाषा टीकाकार प० कयन किया गया है। टोडरमल ने भी लिखा है कि...-"लब्धिसार नामक शास्त्र गोम्मटमार की तरह लब्धिसार भी एक संग्रह ग्रन्थ विषे कही।" अत. इस ग्रन्थ का नाम लन्धिसार ही है। है। दोनो मे खट्खण्डागम, कषायपाहुड और उनकी धवला. ___टीकाकार नेमिचन्द्र की संस्कृत-टीका, गाथा न० टीका का सार ही सगृहीत नहीं किया गया है, प्रत्युत उनसे ३६१ तक पाई जाती है, जहाँ तक चारित्र-मोह की तथा पंचसग्रह से बहुत-सी गाथाए भी सगृहीत की गई है। उपशमना का कथन है। चरित्र मोह को छपणा वाले भाग सग्रह होने पर भी इनकी अपनी विशेषता ध्यान देने पर संस्कृत टीका नहीं है।
योग्य है।
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२६, वर्ष ३५, कि०१
अनेकान्त
इसी विशेषता के कारण गोम्मटमार और लब्धिमार का वर्णन तथा जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, मनुष्यक्षेत्र, नदी, की रचना के पश्चात्, पखण्डागम और कषाय पाहड के पर्वत आदि वा वर्णन। इसमे सब प्रकार के माप तथा साथ उनकी टीका धवला और जपधवला को भी लोग भूल मापने की विधि का भी वर्णन है। गए, और उत्तरकाल में इन मिद्धान्त-ग्रन्था को जो स्थान द्रव्यसंग्रहप्राप्त था, धीरे-धीरे वही स्थान नेमिचन्द्राचार्य के गोम्मट
मुनि नेमिचन्द्र रचित, द्रव्यमग्रह नाम का, एक छोटासार लब्धिमार को प्राप्त हो गया।
मा प्राकृत भाषा का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है इसमे केवल त्रिलोकसार---
अट्ठावन गाथाएं है। फिर भी टीकाकार ब्रह्मदेव ने इसका गोम्मटमार के रचयिता आचार्य नमिचन्द्र सिद्धान्त- नाम 'बृहद्रव्यसग्रह' लिखा है। इसका कारण यह है कि चक्रवर्ती ही त्रिलोकमार ग्रन्थ के रचयिता है। यह बात इम ग्रन्थ के निर्माण से पूर्व, ग्रन्थकर्ता द्वारा एक 'लघ स्वय ग्रन्थकार ने त्रिलोकमार मी अतिम गाथा मे इम द्रव्य मग्रह' का निर्माण हो चुका था जिसकी गाथा सख्या प्रकार कही है --
२६ भी। ग्रन्थ की अन्तिम गाथा मे ग्रन्थकार ने अपना "इदि णोमिचदमणिणा अपदेणभयादवच्छेग। तथा ग्रन्थ का नाम इस प्रकार दिया हैरइयो निलोयमारो खमत न बहमुदाइरिया ।।" "दव्वमगहमिण मुणिणाहा दोसमंचयचुदासुदपुण्णा ।
___... (त्रिलोकमार-१०२८) मोधयन्तु नणुसुत्तधरेण णमिचदमुणिणा भणिय ज ।।" त्रिलोकसार पर माधव प्रापद्य ने एक सरकृल-टीका इम ग्रन्थ के ऊपर ब्रह्मदेव रचित एक सस्कृतवत्ति है। लिखी है जिसकी भूमिका में उसने इस बात का निर्देश इसके प्रारभ में वृत्तिकार ने ग्रन्थ का परिचय देते हारा किया है कि यह ग्रन्थ चामुण्डर य के प्रतिबोधन के लिए लिखा है कि ---"अथ मालवदेशे धारा नाम नगराधिपतिलिखा गया है। टीका के अन्त म प्रशस्ति की एक गाथा मे राजभोजदेवाभिधान · श्रीनेमिचन्द्रमिद्धान्तिदेवैः पूर्व षडयह भी लिखा है कि इस ग्रन्थ की कुछ गाथाएं स्वय मेरे विशतिगाथाभिलघुद्रव्यसग्रह कृत्वा पश्चाद् विशेषतत्त्वद्वारा रची गई है और गुरु नेमिनन्द्राचार्य की मम्मतिपूर्वक परिज्ञानार्थ विरचितस्य वृहद्रव्यमग्रहम्याधिकारशुद्धिपूर्वकइस ग्रन्थ मे समाविष्ट कर दी गई है
त्वेनवृत्ति प्रारभ्यते।" अर्थात् -- गुरु-मिचद-समद कदिवय-गाहा हि नहिं रइया । "मालवदेश में धागनगरी का स्वामी कलिकाल सर्वज्ञ माहवचतिविज्जेणिणमणुमणिज्जमझेहि ॥" गजा भोज था। उसमे सबद्ध मण्डलेश्वर श्रीगल के आश्रम इस प्रकार विनोकसार सहकारप----पर रचित एक नामक नगर में श्री मुनिसुव्रतनाथ तीर्थ दूर के चैत्यालय से न
वी माती के भाण्डागार आदि अनेक नियोगों के अधिकारी सोमनामक मध्य हुई।
राजधष्ठी के लिए, श्री नेमिचन्द्र मिद्धान्तिदेव ने पहले २६ विषय वस्तु--
गाथाओं के द्वारा 'लघुद्रव्यमग्रहनाम का ग्रन्थ रचा, त्रिलोकसार करणानुयोग का ग्रन्थ है। प्राकृन में
पीछे विशेष तत्वो के ज्ञान के लिए 'बृहद्रव्यसग्रह' नामक रचित इसकी गायाओ की सख्या १०१८ है। इसके छह
ग्रन्थ रना । उसकी वृत्ति को मै प्रारम्भ करता हूँ।"
प्र अधिकार है---लोकमामान्य, भावनलोक, पन्तरलोक, ग्रन्थ का कर्तृत्व-- ज्योतिर्लोक, वेमानिक लोक और नतिर्यकलोक ।
इस ग्रन्थ का कर्तृत्व विवादग्रस्त है। सामान्यतः, इन छह अधिकारो के माध्यम से त्रिलोकमार में जिन नमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती को ही द्रव्यसंग्रह का रचयिता बातो का वर्णन किया है वे इस प्रकार है --तीनो लोको माना जाना रहा है। श्री डॉ० शरच्चन्द्र घोषाल ने भी का साङ्गोपाङ्ग वर्णन - यथा नरक और नारकियों का द्रव्यसयह के अग्रेजी अनुवाद (आरा सस्करण) की भूमिका वर्णन, चारो प्रकार के देवताओ के भेद, प्रभेद, उनके रहने में इसे इन्ही नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की कृति बताया है। के स्थान, आवास, भवन, आयु, परिवार, विमान, गति आदि किन्तु प० जुगलकिशोर जी मुख्तार द्रव्यसंग्रह के
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आचार्य नेमिचन्द्र सिमान्त चक्रवती
रचयिता को गोम्मटसार के रचयिता से भिन्न मानते है। सस्कृत में शब्दार्थ मात्र दिया गया है। इसमे अन्य ग्रंथों के अपनी पुरातन जैन वाक्यसूची की प्रस्तावना पृ० ६२-६४) उद्धरण भी स्वरूप है। गकी हिन्दी टीकाएँ अनेक हैं। मे उन्होंने दोनों की भिन्नता के निम्नलिखित कारण वाव सुरजभान जी वकील की हिन्दी-टीका अपेक्षाकृत अन्य दिए है
हिन्दी टीकाओ से अच्छी है। १. द्रव्यसंग्रह के कर्ता का सिद्धान्त चक्रवर्ती पद विषयवस्त.. सिद्धान्ती या सिद्धान्तिदेव पद से बडा है।
इसके तीन अधिकार है-प्रथम अधिकार मे २७ २. गोम्मटसार के कर्ता नेमिचन्द्र ने अपने ग्रन्थों में गाथाओ में छह द्रव्य और पाँच अम्तिकाय का वर्णन है, अपने गुरु या गुरुओ का नामोल्लेख अवश्य किया है। द्वितीय अधिकार में, ग्यारह गाथाओ मे सात तत्त्व ओर परन्तु द्रव्य संग्रह मे बैमा नही है।
नौ पदार्थो का वर्णन है तथा उतनीय अधिकार में बीम ३. टीकाकार ब्रह्मदेव ने अपनी टीका की प्रनाथना गाथाओ में मोक्षमार्ग का निरूपण हे। उन्ही तीनो अधिकारी मे जिन नेमिचन्द्र मिद्धान्तिदेव को द्रव्यसग्रह का कर्ता के अन्तर्गत इममे चौदह गणस्थान, चौदह मार्गणा, द्वादश:बताया है उनका समय धाराधीश भोजकातीन होने मे अनुप्रेक्षा, तीन लोक, व्यवहार और निश्चय मोक्षमार्ग, ई० को ११वी शती है, जबकि चामुण्डराय के गुरु नेमिचन्द्र मम्यग्दर्शन, तीन मूतता, आठ अग, छह अनायतन, द्वादशाङ्ग, का समय ई० को १०वी शती है।
व्यवहार तथा निश्चय चारित्र, ध्यान नथा उमके चार भेद ४. व्यस ग्रह से बर्मा ने भावास्रव के भेदो में प्रमाद तथा पन परमेष्ठी का वर्णन है। को भी गिनाया है और अविनि के पाँच तथा कपाय के इस प्रकार आचार्य नेमिनन्द्र मिद्धान्त चक्रवर्ती, चार भेद ग्रहण किए है। परन्तु गोम्मटसार के कर्ता ने पट्खण्डागम-कपायपाइद-धवला-जय धवला प्रभृति सिद्धान्त प्रमाद को भावानव के भेदो मे नहीं गिनाया और विग्न ग्रन्थो और उनकी टीनागों के पारगामी प्रकाण्ड मनीषी, (दूसरे ही प्रकार से) के बारह और कपाय व २५ भेद गोम्मटमा रादि सिद्धान अषों के प्रणेता, वीरमार्तण्डस्वीकार किए है।
रणरगमल्ल-महामात्य गेनानि-अध्यात्म जिज्ञासू विद्वत्प्रवर इस मबंध में एक बात और कही जा सकती है कि शास्त्र प्रणेता टीकाकार गोम्मटेश प्रतिमा के स्थापयिता मिद्धान्त-चक्रवर्ती द्वारा रचित चार ग्रन्थ 'मागन्त' है, चामुण्ड गय वर्माद (जिन मन्दिर) के निर्माता चामुण्डगय जैसे गोम्मटमार, त्रिलोकमार आदि। यदि द्रव्यमग्रह भी के गुरु एव अत्यत प्रतिभाशाली पुण्य पृ.प थे । उनके द्वारा रचित है तो इस बात की महज कल्पना की
निबंधक जा सकती है कि द्रव्यमग्रह के स्थान पर इसका नाम भी
विक्रम विश्वविद्यालय, 'द्रव्यसार' होना चाहिए था।
उज्जैन (म०प्र०) प० कैलाशचन्द्र शास्त्री ने भी प० जुगलकिशोर जी
सदर्भ-सूची मस्तार के मन से सहमत होते हुए लिखा है कि मुन्नारमिद्धानाचार्य प० लाशचन्द्र णाग्त्री, जैन साहित्य साहब के द्वारा उपस्थित किए गए चारी ही कारण मबल
का इतिहाग' (जै० मा० १०) प्रथम भाग, पृ० ३८२, हैं। अतः जब तक कोई प्रबल प्रमाण प्रकाश में नही आता
गणेण प्रमाद वर्णी जैन ग्रथमाला वीर नि०म०, २५०२ तब तक द्रव्यसग्रह को मिद्धात चक्रवर्ती की कृति नही
२. मि०प० कनाशचन्द्र शास्त्री, जै० मा० इ०, वर्णी माना जा सकता।
जैन ग्रथमाला, पृ० ३६२। टोक:
३. 'मन्मतिवाणी' पत्रिका, इन्दौर में (वर्ष १०, ४-५, द्रव्यसग्रह पर ब्रह्मदेव रचित संस्कृत वृति के
कक्टूबर-नवम्बर १६८०) डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन का अतिरिक्त, प्रसिद्ध दार्शनिक प्रभाचन्द्र ने भी एक मक्षिप्त लेख 'गोम्मटेश्वर बाहुबली' पृ० २३ । वृत्ति लिखी है, जिसमे प्रत्येक गाथा के खडान्वय के गाथ
(शेष पृष्ठ टा० पृ० पर)
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जरा सोचिए !
१. प्राखिर, यश का क्या होगा?
आज तो यह प्रवृत्ति देखा-देखी साधारण-सी बनत कहने को यश का बहुत बडा स्थान है, पर वास्तव में जा रही है कि अभिनन्दन हो-चाहे किसी का भी यश है कुछ भी नही । आज और पहिले भी लोग यश- हो। इस कार्य मे यदि ग्रन्थ भेट है तो उसमे काफी खर्च अर्जन के लिए बहुत कुछ करते रहे है । अपनी सामाजिक, होता है और कही-कही तो पैमा एकत्रित करने, ग्रन्थ अन्य-अन्य उपकरणो सबधी आवश्यकताओं की पूर्ति के छपाने की व्यवस्था, यहाँ तक कभी-कभी विक्री की चिन्ता इच्छुक लोग प्राय. कह दिया करते है-तू नहीं तो तेरा भी मुख्यपात्र को ही करनी पडती हो ऐसा भी सन्देह नाम तो रहेगा, नाम स्वर्णाक्षरो मे लिखा जायगा, फोटो बनने लगा है। यदि ऐसा हो तो ऐसे अभिनन्दनो से भी छपेंगे आदि । और मानव है कि यश के लालच मे आकर क्या लाभ मिवाय मान-बडाई सचय के ? अपना सर्वस्व तक देने को तैयार हो जाता है। इतना ही
कहने को कहा जाता है-हमे कामना नहीं है, जब क्यो? आज तो लोगो मे होड लग रही है। यश-अर्जन लोग पीछे पड़ जाते है तब विवश स्वीकार करना पडता में एक को दूसरा पीछे छोडना चाहता है । कोई एक लाख
है। पर, यदि स्वीकार करना पड़ता है तो उक्त प्रवृत्तियों के देता है तो दूसरा दो लाख उसी यश के लिए देने को तैयार
सम्बन्ध मे लोगों को शकाएँ क्यो होती है ? यदि विवश है-वह ऊँचा हो जायगा । त्याग, तप, सेवा, प्रभावना
किया जाता है और कामना नही होती तो उत्सव मे जाया आदि जैसे धार्मिक कार्यों के लिए सन्नद्ध व्यक्ति भी 'यश'
ही क्यो जाता है ! गर्दन झुका कर मालाएँ क्यो पहिनी रोग के शमन करने में असमर्थ अधिक देखे जाते है।
जाती है ? अभिनन्दन स्वीकार क्यो किया जाता है ? ऐसे लोगो में आज जो यह दान की प्रवृत्ति आप देखते है अवमरो पर भूमिगत क्यो नही हुआ जाता | आदि । घट मभी उपकार और कर्तव्य की भावना से हो ऐसा सोचा कभी आपने, कि 'यश का होगा क्या? यदि सर्वथा ती नही है, अधिकाश धार्मिक कार्य और दानादि ।
अपयश दुखदायी है तो यश भी सुखदायी नही--अपितु यश कार्य यश-कामना और मनौतियो की पूर्ति के लिए किए।
मे अभिमान की मात्रा बढ़ने का भय ही विशेष है। क्या जाने लगे है। तीर्थ यात्रा भी मनौतियो तथा दान देकर ,
__ हा पूर्व पुरूषो के यश का? तीर्थकर प्रकृति को सर्वोत्तम पाटियो पर नाम लिखाने में ही सफल-सी मानी जाने लगी
प्रकृति माना गया है, उन जैसा यश.कीति कर्म किसी का हैं। गोया, धर्म और दान कर्तव्य नहीं अपितु व्यापार बन
नहीं होता, लेकिन क्या आप बता सकेगे भूतकाल के गए हों-लेन-देन के सौदे हो गए हो। जबकि धर्म और
अनतानत तीर्थकरो के यश को, उनके नाम-ग्राम और कार्य व्यापार में घना अन्तर है।
आदि को? क्या आप नहीं जानते-जब चक्रवर्ती छह खडों हां, तो कहने को आज एक और नई परिपाटी बड़े की विजय कर लेता है तब वह विजय का झण्डा गाड़नेवेग से प्रबल हो रही देखने में आने लगी है-अभिनन्दनो नाम अकित करने जाता है। और उमे नामांकन के लिए की। किसी का अभिनन्दन हो यह हर्ष का विषय है, गुणी स्थान नहीं मिलता। फलत: वह किसी के यश-अंकन को का गुणगान होना ही चाहिए। पर, अभिनदन आदि मिटाकर अपना सिक्का जमाता है और कालान्तर मे कोई किसका, कौन, कब और कैसे करे? यह प्रश्न ही दूर जा दूसरा उसके सिक्के को मिटाकर अपना सिक्का जमा पड़ा है।
लेता है।
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जरा सोचिए
फिर, एक बात यह भी तो है कि इस भव में मिला यश अगले भव में क्या सहारा लगाता है- -सम्बन्धित व्यक्ति को पता भी नही चलता कि कौन यश गा रहा है – 'आप मरे जग प्रलय हो, यदि नि कांक्षित भाव से कर्तव्य और धर्म समझ कर, यश-लिप्सा के भाव को छोड़ कर कुछ किया जाता तो पुण्यबंध अवश्य होता जो अगले भव मे साथ भी देता ।
|
स्वामी समन्तभद्र उपदेश दे रहे है―नि काक्षित अग का और आज परिपाटी चल रही है कयानिलाभ और अन्यअन्य सांसारिक सुख कामनाओ की परन्तु जब कुछ देकर कुछ लेने की भावना से कार्य किया जाता है तब होता है शुद्ध व्यापार; और जब न्याय और कर्तव्य-बुद्धि मे, बिना फल की वाछा के किया जाता है तब होता है धर्म धर्मसुखदायी है और यह आदि की कामना, मानकापाय पोषक कहाँ तक ठीक है मोचिए !
1
२. क्या धर्म-क्षेत्र में साहित्यिक चोरी संभव है ? धार्मिक क्षेत्र मे जब कोई कहता है-अमुक ने मेरे साहित्य की चोरी की है या मेरी रचना को अपने नाम से प्रकाशित करा दिया है, तो बड़ा अटपटा-सा लगता है और ऐसा मालूम होता है कि ऐसे प्रसंग मे चोरी का दोषारोपण करने वाले ने मानो चोरी की परिभाषा को ही भुला दिया हो आचायों ने कहा है ये मणिमुक्ताहित्ण्यादिषु दानादानयो प्रवृत्तिनिवृत्तिसभव तेष्वेव स्तेयस्योपपत्ते । - ७। १५२ 'यस्यदानादानसभवस्तस्य ग्रह्णमिति । - - ७११५१३ त० रा० बा० ॥ -- अर्थात् जिनमे देन लेन का व्यवहार है उन सोना-चाँदी आदि वस्तुओं के ( मूलरूप) अदत्तादान को ही चोरी कहते है [कर्म-मोकर्म के ग्रहण को नही—आदि ] - कवि ने ऐसा भी कहा है कि- 'मालिक की आज्ञा बिन कोय, चीज है सो चोरी होय ॥" फलत प्रसंग में देखना पड़ेगा जिसे कोई चुरा रहा है वह वस्तु किसी दूसरे की है या नही । विचारने पर स्पष्ट होता है वर्ण, शब्द, वाक्य और भावो का कोई एक निश्चित मालिक नहीं, जब जिसके जैसे है उतने काल उसके है — निकलने पर किसी अन्य के । क्योकि ये सभी सार्वजनिक - प्रकृति प्रदत्त है, इन पर किसी एक का आधिपत्य नही-कर्म और नोकर्म वर्गणाओं की भी ऐसी
इस
-
२१
ही व्यवस्था है । शब्दवर्गणा आदि नकल के आधार पर समान रूप (जाति) मे एक काल अनेको में एक ही रूप में पाए जा सकते हैं--- सभी में स्वतन्त्र रूप से । उनमें वस्तु निर्दिष्ट न होने से उसके हरण का प्रश्न ही पैदा नहीं होता । जैसे— एक सोने का पिण्ड है और उसकी परछाई भी है मूल पिण्ड के हरण करने वाला चोर होगा उसकी परछाई को पकड़ने वाला चोर नही होगा। उसी प्रकार वर्ण, पद-सरचना पूर्वो की प्रतिकृति होने से परछाई मात्र है और उनके हरण करने वाला चोर नही होगा।
फलन. यदि रचना की नकल करने वाला चोर है तो चोर कहने वाला भी पूर्वो का नकलची होने से चोरी के पाप से बरी नही हो सकता और पूर्वाचार्य भी इमो श्रेणी मे जा पड़ेंगे, जैसा कि उचित नहीं है। देखेभगवती आराधना जीवकाण्ड
( प्रथम शती ईस्वी)
गाथा ८०
"
"1
भावसंग्रह
४१
३२
३३
(दशवी मनी)
गाथा ३५१
६०१ ६०२ तिलोयपण्णति
(१०६ ई० सदी) गाथा ५/३१८ धवला (पुस्तक पृ ६५
गाथा ३३ दर्शन प्राभूत (२-३ सदी) गाथा १०६ तत्त्वार्थशास्त्र सार ( १० वी सदी)
श्लोक ५१ उपसहार २
आप्तमीमांसा
श्लोक ५६
६०
"1
( दशवी शती ईस्वी) गाथा १८
१७
२७
२८
11
11
31
""
"1
"
३१ ३३
६६ जीवकाण्ड
गाथा ५७३ भक्ति परिक्षा प्रकीर्णक (११वी सदी)
गाथा ६६
पंचसंग्रह
(११वी सदी)
१/१३ १/१४
तत्वानुशासन (११वी सदी)
श्लोक ९/१४
२८
शास्त्र वार्तासमुच्चय
७/४७८
७/४७६
19
"
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२०, बर्ष ३५, कि०१
अनेकान्त
उक्त मभी सन्दर्भ आचार्यों ने अपनी मूल रचना के रूप मे 'संतकम्मपंजिका है । इसके अवतरण में अभी 'सत्त' शब्द दिए है---उद्धृतरूप में नहीं। जरा सोचिए । धार्मिक भी मेरे देखने में आया है--'पूणोतेहितो सेसटठारसाणियोमें ग्रन्थों पर 'सर्वाधिकार सुरक्षित' छपाना भी कहाँ तक गद्दाराणि सत्तकम्मे सव्वाणि परुविदाणि ।'-यह संतन्याय संगत है ? यह भी सोचिए।
कम्मपंजिका ताडपत्रीय महाधवल की प्रति के २७वें पृष्ठ ३. समयसार को १५वों 'गाथा का 'संत'?
पर पूर्ण हुई है और षट्खंडागम पुस्तक ३ में इसका चित्र १. षट्खंडागम के सातवें सूत्र मे 'मतपरुवणा' पद भी दिया गया है। (देखें-प्रस्तावना, षट्खडागम पुस्तक का प्रयोग मिलता है । इमी पुस्तक के इमी पृष्ठ १५५ पर ३ पृ० १ व ७) अत. इस उद्धरण से इस बात मे तनिक एक टिप्पण भी मिलता है जो तत्वार्य राज वा० के मूल भी सन्देह नही रहता कि प्रसंग मे 'संत' या सत्त शब्द का कुछ अंश है.-'सत्व ह्यव्यभिचारि' इत्यादि । ऐसे ही सत्त्व-आत्मा के अर्थ मे ही है । और मजसं का अर्थ मध्य षखंडागम के आठवें मूत्र में 'सत' पद है। यथा- है जो 'आत्मा को आत्मा के मध्य अर्थ ध्वनित करता हुआ संतपरुवणदाए।' इसके विवरण में 'सत् सत्त्वमित्यर्थ.' आत्मा से आत्मा का एकत्वपन झलका कर आत्मा को अन्य भी मिलता है। इसी पुस्तक मे पृ० १५८ पर कही से पदार्थों मे 'असयुक्त' सिद्ध करता है। उद्धत एक गाथा भी मिलती है। यथा-'अत्थित्त
एक बात और । आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार की पुणमत अस्थित्तस्स य तहेव परिमाण ।" इस गाथा गाथा २६ मे 'अन्नमय के अर्थ में लिखा है कि--अस्तित्व का प्रतिपादन करने १५ मे 'सतमज्झ' या सत्तमज्झ' का प्रयोग किया है और वाली प्ररूपणा को सत्प्ररूपणा कहते है। यहाँ भी मत' ।
नियमसार की उक्त गाथा की सस्कृत छाया में अत्तमज्झ शब्द दृष्टव्य है।
का अर्थ 'आत्म-मध्य' किया है। इसी प्रकार 'संतमज्म' या उक्त परे प्रसंग से दो तथ्य सामने आते है। पहिला 'सत्तमज्झ' की सस्कृत छाया भी सत्मध्य या सत्त्वमध्यं है यह कि सभी जगह 'सत' का प्रयोग 'सस्कृत के सत् शब्द यह सिद्ध होता है । सोचिए ! बलिा आहै। यह बात भी किसी से छिपी नहीं कि देव-गरण इस लोक में क्यों नहीं प्रा 'संतपरूपणा' में उसी 'सत्' का वर्णन है जिसे तत्त्वार्थ मुत्रकार ने 'सत्संख्पाक्षेत्र' सूत्र में दर्शाया है। यानी जिसे
Today we wonder why the devas do not संस्कृत मे 'सत्' कहा वही प्राकृत में 'संत' कहा गया है।
& come down to see us on the Earth. But whom अत संत का मत् स्वभावत. फलित है। दूसरा तथ्य यह
should they come down to see here today? कि 'सत्' शब्द सत्त्व के भाव मे है, अत सत्, संत, सत्त्व,
Who is superior to Greatness on the Earth? सत्त ये सभी एकार्थवाची सिद्ध होते है । पुस्तक के अन्त मे
Should they come down to Smell the stench जो 'सतसुत्त-विवरण सम्मत्त' आया है उसमें भी 'मत' का of the slaughter-Houses, the meatshops, प्रयोग सत् के लिए ही है।।
stinking kitchens and recking Restaurants ? 'संत' शब्द के प्रयोग 'सत्' अर्थ मे अन्यत्र भी उपलब्ध You have them come down to ignorant Priests, है। यथा-'सतकम्ममहाहियारे-जय. ध. अ. ५१२ व bloated self-complacent tyrants, Lying Statesव प्रस्तावना ध.प्र.पु. पृ. ६६ ।
men, Dishonest traders or Kings and ---'एसो संत-कम्मपाहुड उवएसो'
Emperors, who Respect neither their word
-धव० पु० पृ० २१७ ।। nor their signatures ? Devas Have Extremely ----'आयरिय कहियाणं संतकम्मकसायपाहुडाणं. delicate senses. And the strench From the
--वही, पृ० २२१ worlds latrines and cess-Pools must be quite सत्त-महाधवलप्रति के अन्तर्गत ग्रन्थ रचना के आदि
(शेष पृष्ठ टाइटल ३ पर)
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साहित्य-समीक्षा
१. वर्षमान जीवन-कोश (Encyclopaedia of
इन्दौर पृष्ठ-२२४, वार्षिक शुल्क-बीस रुपये Vardhamana) -
प्रस्तुत अक-इक्कीस रुपये । सम्पादक-श्री मोहनलाल बांठिया और श्री श्रीचन्द उच्च कोटि के सर्वागपूर्ण विशेषाको की सुस्थिर चोरडिया ।
परम्परा के अनुरूप तीर्थकर का प्रस्तुत विशेषाक सर्वथा प्रकाशक---जैन-दर्शन समिति, १६-सी डोवर लेन, कलकत्ता
अनुपम है एव सर्वोपरि है। इसमे भक्तामर स्तोत्र के प्रकाशन वर्ष १६८०, पृष्ठ ५२४ , मूल्य
प्रामाणिक मूल पाठ के अतिरिक्त उसके अंग्रेजी, हिन्दी, ५० रुपए।
मराठी, कन्नड, बगला आदि मे प्रामाणिक अनुवाद,
अन्वयार्थ, मत्र और यन्त्र दिए गए है। साथ ही इसमे प्रस्तुत कृति शास्त्री के आधार पर रचित महावीर
भक्तामर स्तोत्र सम्बन्धित एव अन्य सम्बद्ध अयोगी विषयों जीवनकोश है जिममे भगवान महावीर के जीवनवृत्त-विषयक
पर अधिकारी मनीषियो के शोधपूर्ण एव मारगर्भित ज्ञान ६३ जैन आगम और आगमेतर एव जनेतर स्रोतो मे प्रभूत
गम्भीर लेख भी दिए गए है जिसमे इमको उपादेयता सामग्री का सकलन किया गया है। दो खडो में समाप्त
बहुगुनी हो गई है । मुन्दर छपाई एव सजधज से युक्त यह जीवन कोश का यह प्रथम खड मात्र है। इसमे प्रधाननया
विशेषाक मुविज्ञ सम्पन्न मुविज्ञ पाठको की भक्तामर स्तोत्र मूल श्वेताम्बर जैन आगमो मे सामग्री ली गई है और ।
विषयक सभी जिज्ञामाओ को शान्त कर उन्हें सुप्रशस्त आगमो की टीकाओं, नियुक्तियों, भाष्यो, मूर्तियो आदि गे
मार्ग पर अग्रसर करेगा, ऐसी आशा है।
की भी प्रचुर सामग्री का सकलन किया गया है किन्तु इसमे
-गोकुल प्रसाद जैन दिगम्बर जैन स्रोतो का पर्याप्त और ममुचित उपयोग नही
उपाध्यक्ष, वीर सेवा मन्दिर किया गया प्रतीत होता है, जिससे यह कोश मर्वमान्य न होकर एकागी बन कर रह गया है तथा वर्धमान जीवन ३. दिवंगत हिन्दी-सेवी--- कोण नाम को सार्थक नही करता है। दिगम्बर जैन आगमो लेखक श्री क्षेमचन्द्र 'मुमन' . प्रकाशक-शकुन प्रकाविषयक कतिपय प्रसग और सन्दर्भ तो सर्वथा भ्रामक भी शन ३६२५, मृभापमार्ग, नई दिल्ली-२ . डबल काउन: प्रतीत होते है। इस प्रकार एकागी दृष्टिकोण प्रस्तुन करने ७८८ पृष्ठ बढिया मालीयो कागज ८८६ हिन्दी के कारण यह गरिमा और निष्ठापूर्ण प्रयाम विवादास्पद मेवियो में ७०० के चित्र मजबूत कपडे की जिल्द के साथ बन गया है। कम-से-कम शोधप्रवर्तन की दृष्टि में प्रणीत- गत्ते के सुन्दर डिब्बे मे बन्द मूल्य--तीन सौ रुपए मात्र : संकलित ग्रन्थो मे वस्तुस्थिति का ही अकन अपेक्षित है। 'दिवगत हिन्दी सेवी' मेरे समक्ष है और वह भी स्वस्थ, सब मिला कर लेखक द्वय का यह महत्त्रयास अत्यन्त सुडील, मनोहारी, विशालकाय में। जब देखता है तब सराहनीय, उपादेय एवं उपयोगी है।
इसमें सकलित सभी हिन्दी सेवी अनेको रूपो मे आखो और
मन मे मूमने लगते है और भारती-भाषा हिन्दी की समृद्धि २. तीर्थकर (मासिक)का भक्तामर स्तोत्र विशेषांक और व्यापकता में प्रयत्नशील अतीत सभी हिन्दीसेवी जनवरी २९८२
साक्षात् परिलक्षित होते हैं । असमजस मे हं कि-समक्षस्थित सम्पादक-डा० नेमीचद जैन।
को दिवंगत कसे मान ? यदि दिवगत है तो समक्ष कैसे, प्रकाशक-हीराभया प्रकाशन, ६५ पत्रकार कालोनी, और समक्ष हैं तो दिवगत कैसे !
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३२, वर्ष ३५, कि०१
अनेकान्त
समाधान के दो ही मार्ग है-उनको दिवगत न मानू 'शकुन प्रकाशन' को है जिन्होने श्री 'सुमन' जी के साथ या अपने को दिवंगत मानलू । दोनों एकत्र होगे तो विरोध कन्धे से कन्धा भिड़ाकर इस कार्य मे पूरा योग दिया है। मिट जायगा। पर, मैं किन शब्दो मे लिखू लेखक की श्री सुभाष जी जन-परिचित है, इनकी लगन शीलता और लेखनी ग्राह्यता को? जिसने दिवगतो को जीवन्त प्रस्तुत सूझ के परिणाम स्वरूप इनके सभी प्रकाशन उत्तम होते करके मुझे दिवंगत होने से बचा लिया और जिन्दा ह। रहे है। हमारी भावना है कि इस ग्रन्थ का अधिकाधिक हालांकि ग्रन्थ के महत्त्व को दृष्टिगत करके यह कहने वाले प्रचार हो और अधिक से अधिक जनता इसे मंगाकर कई मिले कि हम क्यों न मर गए ? यदि मर जाते तो ग्रन्थ लाभान्वित हो। मे नाम तो अमर हो जाता। ठीक ही है
४. प्राचार्य श्रोध सागरजी महाराज अभिवन्दन ग्रंश'नाम जिन्दा रहे जिनका, उन्हे मरने से डरना क्या है।'
सपादक . श्री धर्मचन्द्र शास्त्री, प्रकाशक : श्री दिगबर यद्यपि हिन्दी सेवियो के परिचय में इससे पूर्व भी
जैन नवयुवक मण्डल, कलकत्ता, साइज ११" x ६" पृष्ठ सीमित और महत्त्वपूर्ण कई ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके है
३४+ ८४८ छपाई उत्तम, आकर्षक जिल्द व साजसज्जा, तथापि इस सकलन की अपनी विशेष महत्ता है और वह है-'खोज-खोजकर हिन्दी सेवियो के परिचयो का सकलन।'
मूल्य . १५१ रुपए। संलग्नसूची लेखककी भेद-भाव रहित, विशाल और उदार अभिवन्दन ग्रन्थ स्वय में अभिवन्दनीय बन पड़ा इसे दृष्टि को भी इंगित करती है कि उसने जाति-पथ, प्रसिद्ध- सयोजको का प्रयास ही कहा जायगा । अन्तरग-बहिरग सभी अप्रसिद्ध जैसे सभी प्रकार के भेद भावो को छोड़कर, मात्र श्लाघ्य । आचार्य श्री के प्रति उमडती अटूट भक्ति का परिहिन्दी भाषा की सेवा को परिचय-सकलन का माध्यम बनाया णाम सामने आया। मै तो देखकर गद्गद् हो उठा आयोहै। यही कारण है कि संकलन मे छोटे-बड़े सभी गुलदस्ते जको को जितना साधुवाद दिया जाय, अल्प होगा। के रूप मे महक सके है । ग्रन्थ भविष्य पीढ़ी के मार्ग-दर्शन,
इसमे सदेह नही कि भक्तगण ने अपना कर्तव्य पूरा उत्साह एव ऐतिहासिक ज्ञान-वर्धन में उपयोगी और सहायक सिद्ध होगा-युग-युगो तक अतीत युगो की गाथा बता
किया : पर, अब उन्हे महत्त्वपूर्ण उन प्रश्न-चिन्हो पर भी
विचार करना चाहिए जो चिह्न आचार्य श्री ने ग्रन्थ समर्पण एगा।
के अवसर पर लगाए है। जैसेग्रन्थ के प्रारम्भिक 'निवेदन' के अनुसार और ग्रन्थ के विस्तृत क्रमबद्ध अन्तरङ्ग कलेवर से भी यह निर्विवाद है 'साधु नरक में जाए चाहे निगोद में जाए' साधु की कि निश्चय ही 'सुमन' जी को इस कार्य के लिए अथक प्रशता से साधु बिगड़ता है' 'साधु का अभिवन्दन से कोई परिश्रम और बटोर-बटोर कर साहस जुटाना पड़ा है। प्रयोजन नही ।' पर, यह भी तथ्य है कि वृक्ष का 'सुमन' केवल अपनी सुगधि बिखेर पाता है, जबकि 'श्री क्षेमचन्द्र 'सुमन' अपनी यह आचार्यश्री का अन्तरंग है जिसे हम भक्तों को आदेश जीवित यश सुगंधि के साथ दिवगत हिन्दी सेवियो की यश रूप मे लेना चाहिए और भविष्य में ऐसी परम्पराओ से सुगंधि भी दिग्दिगन्त व्याप्त करने वाले 'सुमन' सिद्ध हो रहे (चाहे कर्तव्य ही क्यों न हों) मुख मोड़ना चाहिए जो साध है । लक्ष्य-भूत आगामी खंडों के प्रकाशन द्वारा यह सुगंध को पसन्द न हो या धार्मिक अस्थिरता मे कारण भूत हो शत और सहस्रगुणी होगी-ऐसा हम मानते है। 'पन्थान. सकती हों। फिर, निमित्तवाद में विश्वास रखने वालों को सन्तु ते शिवाः।'
तो यह परम आवश्यक है कि साधु को ऐसे निमित्त न कृति के प्रकाशन, साज-सज्जा, गेट-अप आदि मनमोहक जुटाए जिनमें साधु की साधुता क्षीण होने में सहारा मिले। और स्पृहणीय बन पड़े हैं, इसका श्रेय श्री सुभाष जैन, श्रावकों की भावना के अनुरूप मेरे भी आचार्य श्री में
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'नति' के भाव है फलतः व्यवहारी होने के नाते मैं उन्हें 'अभिवन्दन' के स्थान पर 'अभिनमोऽस्तु' करता हूं। यतः यह पद मुनि के प्रति व्यवहारी है और साधु के प्रति इसका विधान भी है-ब्रह्मचारी को वन्दन-वन्दना, ऐलक व क्षुल्लक को इच्छाकार और मुनिश्री को नमोऽस्तु ।
५. घरहंत प्रतिमा का अभिषेक जैनधर्म सम्मत नहीं
ले० श्री बंशीधर शास्त्री एम० ए०, प्रस्तावनाः श्री डॉ० हुकुमचन्द, भारिल्ल, प्रकाशक श्री शान्ता व निर्मला सेठी, पृष्ठ २४, मूल्य ५० पैसे ।
यद्यपि लेखक ने अपने पक्ष में पर्याप्त प्रमाण दिए है तथापि यह पुस्तक, पथवाद के व्यामोह में पनप रहे वर्तमान विवादों के निराकरण में कहां तक सहायक हो
Y. Dravya-Samgraha, Edited by Dr. Bhoshal. Published by central Jain Pubtishing House, Assah, Introduction. Page-35-36. ५. जनसिद्धांतभास्कर, भाग ६, पृ० २६१ । ६. जैनशिलालेख संग्रह, भाग १, पृ० ३१
७. जैन एण्टीक्वेरी, जिल्द ५, न० ४ मै The Date of the Cohsecrction of Image पृ० १०७-११४। ८. जैनसाहित्य का इतिहास, प्रथम भाग, पृ, ३६३-३६५ । . Dravy-Samgraha C.J.P.H. Arrah. duction. Page 40.
Intro -
१०. जं०सा० इति० प्रथम भाग, वर्णी ग्रंथमाला, पृ० ३८६ ।
।
सकेगी यह नहीं कहा जा सकता सामग्री शोधपूर्ण और विचारणीय है। पंथव्यामोह से अछूते रहकर पढ़ने वाले इससे अवश्य लाभान्वित होंगे। प्रधान जरूरी है।
Nauseating to them.... "The devas do come when There is an Adequate Cause, c.G., o do reverence to a world teacher, But will not Enter the Atmosphere of corruption and Filth otherwise. ---Rishabhadeva, the founder of
६. गृहस्थ के वर्तमान घडावश्यकों का विकास और पूजा पद्धति में विकृतियों का समावेश
(पृष्ठ २७ का शेषास)
Jainism P, 80-81 "आज हमें आश्चर्य होता है कि क्यों देवता लोग पृथ्वी तल पर हमें देखने नहीं आते ? लेकिन वे आज किन्हें देखने को यहाँ आयें पृथ्वी पर ऐसा कौन है जो ज्ञान, बल या महिमा में उनसे बढ़ा पढ़ा हो ? क्या वे कसाईघरों, माँस की दुकानों, गन्दे भोजनालयों तथा सजे
ले० पं० श्री भंवरलाल पोल्याका, प्रकाशक अ० भा० दि० जैन परिषद् राजस्थान, पृष्ठ २४ मूल्य ३० पैसे ।
छोटी सी पुस्तक मे विषय के अनुकूल पर्याप्त प्रमाण संकलित किए गए हैं। खेद है कि आज वे विषय भी पंथवाद से अछूते नहीं रहे। निष्पक्ष दृष्टि से पढ़ने का हमारा आग्रह है प्रयास सराहनीय है।
-सम्पादक
११. Dravy-Samgraha. Page 40.
१२. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलो० इतिहास, तारा प० वाराणसी, १०२३६ ।
।
१२. जैन साहित्य का इतिहास वर्णों ग्रंथमाला प्रथम भाग पृ० ३६६-४०६ ।
१४. जैन सा० का इति० प्रथम भाग, वर्णी ग्रंथमाला, पृ० ४१२ ।
(पृष्ठ ३० का शेपाय )
1
१५. Dravya - Samgraha, Arrah, Introduction, Page-42.
१६. जै० सा० इति०, वर्णी ग्रंथमालाः द्वितीय भाग पृ० ३४१ | ( मीनार श्रवणबेलगोला में पठित)
।
भोगस्थलों की महान् वदवुओं को सूचने आयें ? क्या तुम चाहते हो, कि वे मूढ पुरोहितों, मोटे ताजे असन्तुष्ट अत्याचारियों, मिथ्याभाषी राजनीतिज्ञो बेईमान व्यापारियों, नरेशों या महाराजाओं को देखने आवें, जो न अपने वचन और न अपने हस्ताक्षरो का सम्मान ही करते हैं ? देवों की इन्द्रियां अति सुकुमार होती हैं अतः दुनियाँ के मण्डासों और नालियो की गंदगी उनके लिए अत्यन्त अरुचिकारी होगी । हाँ, देवलोग अवश्य आते हैं जब उनके आगमन के अनुरूप कारण हो यथा तीर्थंकर भगवान की पूजा के लिए। वे बुराई और गन्दगी से संयुक्त वातावरण में अन्यथा नहीं आते।"
-सम्पादक
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Regd. with the Registrar of Newspaper at R.N. 106912
वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन स्तुतिविद्या : स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद पर श्री जगलकिशोर मुख्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत, सुन्दर, जिल्द-सहित ।
२.५० पक्त्यनुशासन : तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही
हुमा था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, सजिल्द । ... २-५. समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । नग्रन्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मगलाचरण
सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्रों की इतिहास-विषयक साहित्य
परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । ... जनप्रन्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग २: अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण सग्रह । पचपन
ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं. पं. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। १५.०० समापितन्त्र और इष्टोपदेश : प्रध्यात्मकृति, पं० परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित पवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन ... ग्याय-दीपिका : मा० अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो. डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु०। १०.०० मैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश : पृष्ठ सख्या ७४, सजिल्द । कसायपाहडसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना आज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में । पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।
२५-०. जन निबन्ध-रत्नावली: श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया म्यानशतक (ध्यानस्तव सहित) : संपादक पं० बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
१२-०० धावक धर्म संहिता :श्री दरयावसिंह सोषिया जन लक्षणावली (तीन भागों में) : सं० ५० बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री
प्रत्येक भाग ४०.०० समयसार-कलश-टोका : कविवर राजमल्ल जी कृत ढूंढारी भाषा-टीका का प्राधुनिक सरल भाषा रूपान्तर । ___ सम्पादनकर्ता : श्री महेन्द्रसेन जनी ।
७-०० जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग : श्री पद्मचन्द्र शास्त्री
२-०० Jain Monoments: टी० एन० रामचन्द्रन Reality :मा. पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी में पनुवाद । बड़े पाकार के ३०० प., पक्की जिल्द Just Released : Jain Bibliography (Universal Encyclopaedia of Jain References) (Pages 1945) 2 Volumes
Per Set
१५.००
सम्पावन परामर्श मण्डल-हा.ज्योतिप्रसाद जैन, श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक-धीपचन्द्र शास्त्री प्रकाशक-रत्नत्रयधारो जैन वीर सेवा मन्दिर के लिए, कुमार बादर्स प्रिंटिंग प्रेस के-१२, नवीन शाहदरा
दिल्ली-३२ से मुद्रित।
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वष ३५: कि०२
अप्रल-जून १९८२
त्रैमासिक शोध-पत्रिका
अनेकान्त
इस अक में
क्रम
विषय १. संबोधन २. भारत के बाहर जैन धर्म का प्रसार-प्रचार
--डा. ज्योतिप्रसाद जैन ३. मैं कौन हूं-श्री बाबूलाल जैन ४. जीवधर चम्पू मे आकिंचन्य
-कु० राका जैन ५. सम्यक्त्व कौमुदी सबधी अन्य रचनाए एव
विशेष ज्ञातव्य-श्री अगरचन्द नाहटा ६. अपभ्रश काव्यों में सामाजिक चित्रण
-डा. राजाराम जैन आरा ७. जनदर्शन में अनेकान्तवाद __ -श्री अशोककुमार जैन ८. दो मौलिक भाषण (५० वर्ष पूर्व) ६. वर्तमान जीवन में वीतरागता की उपयोगिता
-कु० पुखराज जैन १०. परिचिति-श्री लक्ष्मीचद्र जैन ११. जरा सोचिए–सम्पादक १२. साहित्य-समीक्षा
आवरण ३
प्रकाशक
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
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Telephone : 271818 G. Secretary 263985
VIR SEVA MANDIR
21, Darya Ganj. New Delhi-110002
Sub: JAINA BIBLIOGRAPHY 'Jaina Bibliography, a monument of colossal scholarship is the fruit of lifetime's strenuous labour and selfless dedication to the cause of Jaina studies by its author, Shree Chhote Lal Jain.
It is a rare collection of detailed information and result of painstaking research in various aspects of Jainism. It aims to facilitate and deepen the study on Jainology.
No study of Indian philosophy is complete without the understanding and knowledge of Jaina thought. Jaina scholars and saints have rendered valuable contribution to various branches of knowledge-literature, poetics, art, philosophy, religion, archaeology, geography, sculpture etc. Much of it still lies unexplored.
The seekers of knowledge on Jainology will find 'Jain Bibliography an invaluable reference book. The learned author has not left any possible aspect of Jainistic studies and principles untouched. Material has been collected from all possible sources-encyclopaedias, dictionaries, gazettes, census reports, temple records, history and chronology, geography and travels, religion, biography, philosophy and sociology, language and literature. There are innumerable references yet unexplored and hidden treasures stored in the form of manuscripts, tamrapatras, inscription on stone-pillars etc. in ancient Jain temples and Jain mathas scattered all over the country. The work done in prakrit, sanskrit, ardhmagadhi, kannad and other Indian and foreign languages have constantly been referred to.
It is a precious gem worth keeping in every library of a college and University for there is no single reference book, available so far in the world of knowledge which encompasses such a vide domain on Jainistic studies as this bibliography does. It is a boon for the scholars, researchers and pursuers of Jaina thought.
The Bibliography consists of three volumes of which two (I & II) have already been published. Volume III which contains the index is under preparation.
Volume I contains 1 to 1044 pages, Volume Il contains 1045 to 1918 pages, size crown octavo.
Huge cost is involved in its publication. But in order to provide it to each library, its library edition is made available only for Rs. 600/- for one set of 2 volumes.
You may procure your set for your library through your vendor or directly from us.
SUBHASH JAIN Genl. Secretary
___ आजीवन सदस्यता शुल्क : १०१.०० रु० वार्षिक मूल्य : ६) रु०, इस अंक का मूल्य : १ रुपया ५० पैसे,
विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते है । यह आवश्यक नहीं कि सम्पादक
मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो।
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ओम् अहम्
ܝܚ
A
.
TANIR
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।।
वष ३५ किरण २
वीर-सेवा मदिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण सवत् २५०८, वि. स. २०३६
अप्रल-जन १९८२
सम्बोधन जे दिन तुम विवेक बिन खोटेको मोह-वारुणी पी अनादि ते पर पद में चिर सोए। सुखकरण्ड चिरपिण्ड भापपद, गुन अनंत नहिं जोए ॥१॥ होय बहिर्मख ठानि रागरुव, कर्मबीज बह बोए। तफल सुख-दुख सामग्री लखि, चित में हरषे रोए ॥२॥ धवल ध्यान शुचि सलिल पूरत, प्रास्त्र मल नहि धोए। पर-द्रटानि को चाह न रोको, विविध परिग्रह ढोए ॥३॥ अब निज में निज जान नियत तह, निज परिनाम समोए।
यह शिव मारग सम-रससागर, 'भागचन्द' हित तो ए॥४॥ भावार्थ-हे चेतन, तूने ये दिन विवेक के बिना व्यर्थ गॅवा दिए। तू मोह-रूपो मदिरा को पीकर अनादि काल से निद्रा-मग्न रहा । तूने सुत्र के खजाने अपने चतन्य पद के अनत गुणों को नहीं देखा। और बाह्य-दृष्टि होकर राग की ओर देखा जिससे तूने अन न कर्मों के बीज को बोया--उसके फल-रूप सुख-दुख रूप सामग्री हुई और तू चित्त में सुखो-दुखा हुआ। तूने शुक्न ध्यान रूपो पवित्र जल से आस्रवरूपी मल को नहो धोया और पर-द्रव्यों को इच्छा को नहीं रोका तथा भांति-भांति के परिग्रह को वहन किया। अब अपने (स्वरूप) को जान कर उसमें अपने परिणामा को लगा, यहो समता रूपी रस का सागर मोक्ष का मार्ग है और इसी में तेरा हित है-ऐसा 'भागचद जा' कहते हैं।
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भारत के बाहर जैनधर्म का प्रसार-प्रचार
→ इतिहास-मनीषी डा० ज्योतिप्रसाद जैन
जैन धर्म एक ऐमी सनातन धार्मिक एव सास्कृतिक तथा कभी कम और कभी अधिक प्रभाव रहा होने के परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है जो शुद्ध भारतीय होने साक्षी है। जैन मस्कृति ने प्राचीन भारतीय संस्कृति का के साथ-ही-साथ प्राय सर्वप्राचीन जीवत परम्परा है। अभिन्न अग रहते हुए, अपने स्वतन्त्र अस्तित्व एव उसके उद्गम और विकासारभ के बीज सुदूर अतीत--- मौलिकता को भी बहुत कुछ अक्षुण्ण बनाए रखने मे प्रागैतिहासिक काल में निहित है। मानवीय जीवन में मफलता प्राप्त की है। माथ ही, उमने भारतीय साहित्य, कर्मयुग के प्रारम्भ के साथ-ही-साथ इस सरल स्वभावज
कला, स्थापत्य ज्ञान-विज्ञान, को अमूल्य देने प्रदान करके आत्मधर्म का भी आविर्भाव हुआ था । वर्तमान कल्प-काल समग्र भारतीय संस्कृति को पर्याप्त समृद्ध किया है, और मे इसके आदिपुरस्कर्ता आदिपुरुष स्वयभू प्रजापति ऋषभदेव अपने बिशिष्ट आचार-विचार एव जीवन-पद्धति से भारतीय थे, जो चौबीस निर्ग्रन्थ श्रमण तीर्थकरो मे मर्वप्रथम थे। जन-जीवन का उन्नयन करने में स्तुत्य योग दिया है। उनका समय अनुमानातीत है। आधुनिक खोजो के आलोक प्राय कह दिया जाता है कि जैनधर्म भारत के बाहर मे यही कहा जा सकता है कि तथाकथित आर्य-वैदिक कभी गया ही नही, किन्तु यह बात मत्य नहीं है कि तप, सभ्यता के ही नहीं, उसकी पूर्ववर्ती प्रागैतिहासिक मिन्धु- त्याग एव मयम पर आधारित, निवृति एव अहिंसा प्रधान घाटी सभ्यता के उदय से भी पूर्व ऋषभादि कई तीर्थकर अन्तर्मखी आत्मसाधना में लीन जैन-माधक का लक्ष्य हो चुके थे। मोहनजोदडो और हडप्पा के अवशेषो में ख्याति-लाभ-पूजा अथवा आत्मप्रचार या धर्मप्रचार भी कायोत्सर्ग-स्थित वृषभलाछन उन दिगम्बर योगिराज को कभी नहीं रहा । जैन माधुचर्या के नियमो की कठोरता भी उपासना प्रचलित रहने के सकेत मिले है। ऋग्वेदादि में इस दिशा में बाधक रही। अतएव जैनधर्म विदेशो मे बौद्ध, भी उनके अनेक प्रत्यक्ष एवं परोक्ष उल्लेख प्राप्त होते इस्लाम, ईमाई आदि धर्मो की भॉति कभी भी सगठित है। वैदिक संस्कृति के साथ इस आहेत या श्रमण प्रयत्नपूर्वक प्रचारित नहीं हुआ। तथापि जैनधर्म के प्रकाश सस्कृति का दीर्घकालीन सघर्ष एवं आदान-प्रदान एवं प्रभाव ने इस महादेश की सीमाओं का अतिक्रमण चला, और आधुनिक शुद्ध ऐतिहासिक दृष्टि से भारत- किया है, इस तथ्य के मकेत भी पर्याप्त उपलब्ध है। वर्ष का इतिहास जब से भी व्यवस्थित रूप में मिलना मेजर जनरल जे० फाग, कर्नल जेम्सटाड आदि कई प्रारम्भ होता है, अर्थात् रामायण तथा महाभारत मे प्रारम्भिक प्राच्यविदो का अनुमान है कि जैनधर्म किसी वणित घटनाओं के युगो से, तब से तो निरन्तर ब्राह्मणीय- यूरोप के स्केडीनेविया जैसे दूरस्थ प्रदेशो मे, तुर्की तथा वैदिक परम्परा के साथ-साथ थमण जैन परम्परा का ऊपरी मध्य एशिया के क्षेत्रो तक पहुंचा था। चौथी शती अस्तित्व इतिहाससिद्ध है। पारस्परिक संघर्ष, उत्थान-पतन, ईसापूर्व मे यूनानी सम्राट सिकन्दर महान तक्षशिला से प्रचार-प्रसार का युगानुसार अल्पाधिक्य रहा। ऐसे समय । कल्याण नामक एक जैन सन्त को अपने साथ बाबुल ले आये जब जैनधर्म महादेश भारतवर्ष की सीमाओं का गया था, जहाँ उक्त सन्त ने सल्लेखना-पूर्वक देहत्याग किया अतिक्रमण करके उत्तर-पश्चिम तथा दक्षिण-पूर्व के भारतेतर था। ईस्वी सन के प्रारम्भ के लगभग भड़ोंच के एक प्रदेशो मे भी प्रसारित हुआ। स्वय इस देश के तो प्रायः श्रमणाचार्य का महानगरी रोम मे जाना और वहाँ समाधिसभी भागो में प्राप्त उसके अवशेष, वहाँ उसके अस्तित्व के पूर्वक चितारोहण करना पाया जाता है। दक्षिण एवं पूर्व
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भारत के बाहर जैनधर्म का प्रसार-प्रचार
में बृहत्तर भारत के सिंहल, बर्मा, स्याम, कम्बुज, चम्पा, तिब्बत, कपिशा (अफगानिस्तान) गान्धार (तक्षशिला और श्रीविजय, नवद्वीप आदि प्रदेशो एव द्वीपो में भारतीय कन्दहार), ईरान इराक, अरब, तुर्की, मध्य एशिया आदि संस्कृति का जो प्रसार हुआ, उसमें भी जैन व्यापारियो एव में जैनधर्म के किसी न किसी रूप में किसी समय पहुंचने गृहस्थ जैन विद्वानों का कुछ न कुछ योग अवश्य रहा है, के चिह्न प्राप्त होते है। चीन देश के ताओ आदि प्राचीन ऐसा उक्त देशो के भारतीय-कृत गज्यो के इतिहास तथा धर्मों पर जैनधर्म का प्रभाव लक्षित है और चीन के उत्तरउनके देवायतन आदि स्मारको के अध्ययन से फलित कालीन बौद्ध साहित्य में भी अनेक जैन सूचक संकेत मिलते होता है।
है। जापान के 'जेन' सम्प्रदाय का सम्बन्ध भी कुछ लोग मध्य एशिया की रात नदी की घाटी के ऊपरी भाग जैनधर्म से जोडते है। प्राचीन यूनान के पाइथेगोरस व में एक भारतीय उपनिवेश ईसापूर्व दूसरी शताब्दी मे एपोलोनियस जैसे शाकाहारी आत्मधर्मो दार्शनिकों पर भी विद्यमान था। लगभग पाच मौ वर्ष पश्चात् पोपग्रेगरी ने जैन प्रभाव लक्ष्य या अलक्ष्य रूप मे रहा प्रतीत होता है। भयकर आक्रमण करके उसे ध्वस्त कर दिया था। अनुश्रुति ईसाई मत प्रवर्तक ईसामसीह भी जैनविचारधारा से अवय है कि खेतान के उक्त भारतीय उपनिवेश की स्थापना का प्रभावित हुए थे, ऐसा स्व० वैरिस्टर चम्पतराय जी ने श्रेय मौर्य सम्राट अशोक के पुत्र गजकुमार कुणाल को मिद्ध किया था। है-यह राजकुमार जैन धर्मावलम्बी था और इसी का पुत्र उपरोक्त अधिकाश विदेशों मे जैनो की छोटी-मोटी प्रसिद्ध जैन सम्राट सम्प्रति था। मध्याएशिया में सम्भवतया बस्तियाँ भी मध्यकाल तक रही प्रतीत होती है। इधर यही सर्वप्रथम भारतीय उपनिवेश था। फिर तो चौथी शती आधुनिक युग में दक्षिणी-अफ्रीका नैरोबी आदि प्रदेशों में ई० के प्रारम्भ तक काणगर से लेकर चीन की सीमा पर्यन्त जनो की अच्छी सख्या रहती आई है, पूर्व के फिजी आदि समस्त पूर्वी तुर्किस्तान का प्राय पूर्णतया भारतीयकरण हो द्वीपो में भी कुछ जैन है। यूरोप के विभिन्न देशों में चुका था। उसके दक्षिणी भाग में शैलदेश (काशगर), व्यापार-व्यवसाय अथवा विद्यार्जन के बहाने अनेक जैन चोक्कुक (यारकन्द), खोतम (खोतान) और चलन्द (शान- रहते रहे है। यही स्थिति अमरीका की है। वहां तो शान) नाम के तथा उत्तरी भाग में भस्क, कुचि, अग्निदेश पिछले दो-तीन दर्शको मे जैन प्रवासियो की संख्या में भारी और काओचग नाम के भारतीय संस्कृति के सर्वमहान बद्धि हुई है। प्रसारकेन्द्र थे । इन उपनिवेशों की स्थापना मे निर्गन्थ वर्तमान शती के प्रारम्भिक दशको मे वीरचन्द्र राघवजी (जैन) साधुओ और बौद्ध भिक्षुओ का ही सर्वाधिक योगदान गाघी, प० लालन, बैरिस्टर जगमन्दरलाल जैनी, बैरिस्टर था। कालान्तर मे निर्गन्थो का विहार उक्त क्षेत्रों में शिथिल चम्पतगय, ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद प्रभति विद्वानो ने विदेशों होता गया और बौद्धो का सम्पर्क एव आवागमन बढ़ता में धर्मप्रचार किया है। गत दशको मे १० सुमेरचन्द दिवागया, अत. गुप्तकाल के उपरान्त बौद्धधर्म ही वहाँ का कर, कान्हजी स्वामी, मुनि सुशीलकुमार, मुडबिद्री एवं प्रधान धर्म हो गया तथापि चौथी से सातवी शती ई० थवणवेलगोल के भट्टारक द्वय प्रभृति महानुभावो ने इस पर्यन्त भारत आने वाले फाह्यान, युवानच्वाग, इत्सिग कार्य को प्रगति दी है। स्व. बा. कामताप्रसाद जैन द्वारा आदि चीनी यात्रियो के वृत्तान्त से स्पष्ट है कि उनके समय सचालित अखिल विश्व जैन मिशन का एक मुख्य उद्देश्य मे भी उक्त प्रदेशो मे निर्गन्थ मुनियों का अस्तित्व था। विदेशो में धर्म प्रचार रहा और उसने अनेक विदेशी कुछ जैन मूर्तियाँ एव अन्य जैन अवशेष भी वहाँ यत्र-तत्र विद्वानो एव जिज्ञासुओ से सम्पर्क बनाने तथा उन्हें जैन प्राप्त हुए है। काश्यप के रूप मे तेईसवे तीर्थकर भगवान साहित्य उपलब्ध कराने की दिशा में बहुत कुछ प्रगति पार्श्वनाथ का बिहार भी उक्त देशो मे हुआ प्रतीत होता है की। किन्तु यथोचित व्यवस्था एवं साधनों के अभाव के अनेक प्राच्यविदो एव पुरातत्वज्ञो का मत है कि प्राचीन कारण हम उन सम्पर्क सूत्रों से भी लाभ नही उठा पाते । काल में जैनधर्म भी उन प्रदेशो मे अवश्य पहुना था।
-ज्योति निकुंज, लखनऊ
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मैं कौन हूँ
श्री बाबूलाल जैन, कलकत्ता वाले किसी ने प्रश्न किया कि आत्मा को कैसे पावे। मेरे एक जानने वाला है और एक इच्छा का होना है। आप को एक कहानी बच्चों की याद आ गयी कि एव महात्मा कहते है मेरा मूड ठीक नही है यह किसने जाना। वहां के पास एक आदमी गया और कहने लगा मुझे आनद पर एक जानने वाला है और एक मूड है। आप कहते है चाहिए। महात्मा ने कहा कि मैने अभी आनंद मगरमच्छ मुझे आज बहुत चिन्ता है आकुलता हो रही है यह किसने को दिया है उससे ले लो। वह नदी के पास गया और जाना कि चिन्ता हो रही है एक जानने वाला है और एक मगरमच्छ को बोला कि महात्मा ने तुम्हे आनद दिया है चिन्ता का होना है। ये मैने अभी सत्य बोला या झूठ उसमें से मुझे भी दे दो मगरमच्छ ने कहा कि पहले मुझे बोला यह किगने जाना एक जानने वाला है और एक एक लोटा पानी पिला दो बहुत प्यामा हू फिर मै तुझं झूठ बोलना या सत्य बोलना है। मैं ४ माइल चला यह आनंद दे दगा उस आदमी ने कहा कि क्या बात कहने डो किमने जाना वहा एक जानने वाला है और एक चलने पानी में रहते हो फिर भी पानी मागते हो। उसने वहा पाला है। मेरे पास इतना धन है यह किसने जाना वहा कि तुम भी तो आनद मे रहते हो और आनद माग रहे एन. जानने वाला है एक धन है और एक धन का हो। यह कहानी तो इतनी ही है परन्तु यही हमारी
स्वामीपना है। हमने कोई चीज खाई वह हमे अच्छी लगी कहानी नही है क्या? आत्मा ही पूछ रही है कि आत्मा
और मीठी भी वहा तीन चीज हुई एक वह वस्तु जो मीठी को कैसे पाया जाये।
पी एक अच्छे जानने रूप भाव और एक इन दोनों का किसी व्यक्ति से पूछिये या अपने मे ही पूछिये कि
जानने वाला । बाहर मे हमने कोई कपडा पहना गाडी पर शरीर में रोग है इसको किसने जाना तो वह कहेगा मैने चढे और हमे बहुत आनद आया वहा पर भी तीन है एक जाना इससे मालूम हुआ कि वहा दो है एक जानने वाला गाडी और उस पर चढ़ना एक आनन्द का आना और एक और एक शरीर जिसमे रोग हुआ है। मे भूखा हू मुझे भूख उनको जानने वाला। क्या इससे यह साबित नही हो रहा लगी है या प्यास लगी है इसको किसने जाना तो यही
है कि हर हालत मे कोई एक जानने वाला है जो हमारे जवाब है मैंने जाना। फिर यहा पर दो हो गये एक जानने भीतर होने वाले मूक्ष्म से सूक्ष्म विकल्पो को, विचारो के, वाला और एक जिसको भूख या प्यास लगी है। शरीर भावों को चाहे वह अच्छे हो अथवा बुरे, शुभ हो चाहे पर चोट लगी है शरीर दुख रहा है यह किसने जाना मैने अशुभ उनको जान रहा है। इन मन सम्बन्धी भावों मे, जाना यहां पर भी एक जानने वाला है और एक शरीर है परिणामो में विचारो मे परिवर्तन होता जा रहा है पर जिसको चोट लगी है । इसी प्रकार भीतर मे क्रोध हुआ है जानने वाला मदा काल एक रूप रहता हुआ मात्र जान ही आप दूसरे से कहते है कि मुझे क्रोध हो रहा है यह रहा है। यहा तक क्रोध को भी जाना है। बाहर मे भले किसने जाना कि अभी क्रोध है अभी क्रोध ज्यादा है अथवा ही हमने किसी को अच्छा कहा हो प्रेम दिखाया हो और कम है आप कहेगे मैंने जाना वहा फिर दो हो गये एक भीतर मे उसके प्रति अन्यथा भाव है तो जानने वाले ने क्रोध है जो कभी कम हो रहा है कभी ज्यादा और एक वह दोनो बातो को ही जाना है। यही हालत शरीर की है है जो न कम होता है न ज्यादा परन्तु जान रहा है। चाहे शरीर की कैसी भी अवस्था क्यों न हो चाहे स्वस्थ हो भीतर में विकल्प चल रहे है इच्छा हुई है आप कहते है चाहे अस्वस्थ, चाहे दुबला हो चाहे ताकतवर परन्तु जानने मेरे को यह इच्छा हुई है। इस बात को किसने जाना। वाले ने उसकी हर हालत को जाना है।
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जिस समय शरीर की कोई अवस्था हो रही है उसी उठ रही है वह स्थल भिन्न है और जहां से भावों की और समय जानने का कार्य भी हो रहा है यहां तक जब सोता विचारों की क्रिया उठ रही है वह स्थल भिन्न है यह है तो उस समय भी कोई जान रहा है कि सो रहा है जानने वाला ही अपने को जानने वाला न समझ कर इन अगर नहीं जानता तो जागने पर यह कैसे कह सकता था विचारों के-भावो के चिन्ताओ के करने वाला समझ रहा कि आज नीद अच्छी आई । जिंदा है तो उसको जानता है है शरीर सम्बन्धी कार्यो के करने वाला उस सम्बन्धी दुखऔर मरता है तो उसको भी जान रहा है उसी प्रकार सुखको भोगने वाला समझ रहा है। उस जानने वाले को भीतर में सूक्ष्म से सूक्ष्म अथवा स्थूल से स्थूल विचार-भाव- कहा जा रहा है कि तू अपने को पर रूप मान रहा हैइच्छा जिस समय उत्पन्न हुई है उसी समय उसके जानने शरीर रूप जान रहा है विचारो और विकल्पो रूप जान का कार्य भी हुआ है। यहा पर एक तर्क है कि जब इच्छा रहा है और सुखी-दुखी हो रहा है तू उस रूप नहीं है तू उत्पन्न हुई उसके पहले उसको जाना तो जब थी ही नहीं तो जानने वाला है—जाननेरूप क्रिया का करने वाला है तो जाना कैमे। इच्छा मिटने के बाद जाना तो अभाव तु अपने आपको अपने रूप क्यो नही देखता? तू अपने होने पर कमे जाना इससे यह सावित होता है कि जिस आपको जानने वाला रूप देखे तो तू पावेगा कि मै शरीर समय इच्छा उत्पन्न हुई उसी समय जाना । इसमे एक तर्क रूप नही परन्तु उसका जानने वाला हूं उस शरीर की और है कि इच्छा ने ही इच्छा को जाना है अथवा क्रोध अवस्था अच्छी या बुरी का भोक्ता नहीं परन्तु जानने वाला ने ही क्रोध को जाना है तो उसका उत्तर है कि क्रोध के ह । तो शरीर की कैसी भी अवस्था क्यो न हो जावे उससे अभाव को जिसने जाना। इससे साबित होता है कि क्रोध मेरा क्या सम्बन्ध और उससे सुखी-दुखी होने का भी क्या के अलावा कोई जानने वाला भिन्न है जो क्रोध को भी सवाल है। यह नाम, यह जाति, यह कुल, यह मां-बाप जानता है और उसके अभाव को भी जानता है। भाई-बन्धु बाहर में पुरुष अथवा स्त्रीपना, धनवान अथवा
इससे निष्कर्ष यह निकला कि हर कार्य मै तीन बाते गरीबपना सभी जब शरीर की अवस्था है और मै तो साथ-साथ हो रही एक शरीर की क्रिया, एक मनसम्बन्धी जानने वाला हूँ शरीर नही तो इनसेभी मेरा क्या सम्बन्ध विचारो की-भावो की-विकल्पो की क्रिया और एक रहा। अगर किसी ने गाली दी अथवा प्रशमा की बात जानने की क्रिया। पहली दो क्रिया बदलती रहती है कभी कही तो भी मै तो उसका जानने ही वाला ह शरीर नही शुभ होती है कभी अशुभ । कभी दान पूजा रूप-दयारूप तब मुझे हर्ष और विपाद क्यो ? किसी के भले करने रूप होती है कभी किसी को सताने- इसी प्रकार विचार उठ रहे है चिन्ता हो रही हैमारने रूप। कभी सत्य कभी अमत्य रूप होती है परन्तु भाव उठ रहे है, भीतर मे दया रूप भाव हुए और उस जानने का कार्य हर अवस्था मे एक रूप से चालू रहता है। जानने वाले से, उस भाव से साथ एकत्व जोड़ा तो उसमे वह हर हालत मे-हर अवस्था को जानता रहता है। अहम्पने को प्राप्त हो गया कि मैं कैसा दयाल हॅ मै उच्च पहली दो क्रिया एक शरीराश्रित और एक मनाश्रित है जो दर्जे का हू चाहे हम बाहर मे न कहें परन्तु भीतर में तो हमारे पकड़ में आती है। हम शरीर पर ही नही ठहर कर औरो से अपने को ऊँचा समझा ही है। अगर अपना मन की क्रिया तक तो पहचते है और उनको अपनी उच्चपना नही पकड़ मे आवे तो ओरो का नीचापना तो मानते हैं यह समझते हैं यह मै हं यह मेरी है। इस प्रकार महसूस किया ही है वही बना रहा है कि अहम भाव बना अहमपने को उन दोनो में प्राप्त हो रहे है । वहा इन दोनो है यह तब तक नहीं मिट सकता जब तक हम जानने वाले में अहम्पना भी है एकत्वपना भी है कर्नापना भी है। से एकत्व होते हुए भी इन विकारी भावों से एकत्व जोडते परन्तु तीसरी किया जो ज्ञान की क्रिया है जानने का कार्य- रहेगे इन मन सम्बन्धी विकारी भावो से और शरीर के रूप वह प्रगट-निरन्तर होते हुए भी उसको पकडने की साथ इस जानने वाले ने एकत्व जोडा है यह एकत्व जोडना चेष्टा आज तक नहीं की है। जहा से जानने की क्रिया
(शेष पृष्ठ ८ पर)
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गत कि० ४ से आगे
जीबन्धर चम्प में पाकिञ्चन्य
0 राका जैन, एम० ए.
जीवन्धर कुमार के मुखारविन्द से आकिञ्चन्यादि उपस्थापित करता है तथा वैसे ही वचनों को कहता है। धर्मों को सुन कर कृषक अति प्रमन्न हुआ और उमे धारण जीवन्धर स्वामी ऐसे सिद्धान्त के स्पष्ट उदाहरण हैं। कर अपने जीवन को सफल मानने लगा। जीवन्धर कुमार जीवन्धर स्वामी के राज्यसिंहासीन हो चुकने पर वे ने भी उसे योग्य पात्र समझ अपने बहुमूल्य आभूषण देकर एक दिन अपनी आठो रानियों के साथ वासन्ती सुषमा निद भाव से जागे बढ दिए. और परम सुख का अनुभव से सुशोभित वानर-समूह को देख कर वे आनन्द-विभोर किया। आभूषण के मोह को त्यजकर परमानन्दानुभव हो उठे। एक बानगे, अपने बानर का अन्य बानरी के करना आकिञ्चन्य धर्म का परिपोपक है ।
माथ मोहित हुए देख रुष्ट हो गई। उसे प्रसन्न करने के प्रमूदित कृषक को सहर्ष स्व-स्वर्णाभूषण देकर मध्याह्न लिए बानर ने बहुत प्रयत्न किए पर वह सन्तुष्ट नहीं हुई। में वे नप कुँवर उद्यान मे विश्राम करने लगे। वे, जिनका अन्त मे निरुपाय होने पर वानर मृत-तुल्य पृथ्वी पर लेट मन काम विकार सम्बन्धी अन्धकार को नष्ट करने के लिए गया। यह देख बानरी भय से काप उठी और उसके पास सूर्य के समान था, जो कार्यज्ञ मनुष्यो में अग्रणी तथा ससार जाकर दोनों प्रसन्न हो गए। बानरी को प्रमुदित देख के समस्त भोग्य-उपभोग्य पदार्थ को अपना किञ्चित मात्र बानर ने एक पनस-फल तोड कर उसे उपहार में दिया भी न समझने वाले एव निरन्तर वैराग्य का चिन्तन करने परन्तु अकस्मात् धनपाल ने आकर बानरी के हाथ से वह में प्रवीण थे ऐसे जीवन्धर स्वामी पर आसक्त विद्याधरी के पनस-फल छीन लिया-यह सब दृश्य जीवन्धर स्वामी प्रणयीवचनो को सुन कर उस उद्यान से बाहर निकल पडे। स्व नेत्रो मे देख रहे थे। उनका दयलु सृदय वनपाल के इस स्व प्रिया को खोजते हुए व्यथित विद्याधर की दीनता भरे कार्य को देख कर व्यग्र हो उठा। उनके मन में यह वचनों को सुन कर जीवन्धर स्वामी ने आकिञ्चन्य के विचार तरगित होने लगापरिपोषक सान्त्वनाप्रदायक गम्भीर वचन उनमे कहे
'काष्ठाडूारयते कीशो राज्यमेतत्फलायते । धैर्योदार्यविजितक्षितिपति. प्रज्ञाविहीनो गुरु',
मद्यते वनपालोऽय त्याज्य राज्यमिद मया ॥११११२ कृत्याकृत्पविचारशन्यसचिव सग्रामभीरुभेट । अर्थात्-यह वानर काष्ठाङ्गार के समान है, यह सर्वज्ञस्तवहीनकल्पनकविर्वाग्मित्वहीनो बुध ,
राज्यफल के समान और यह वनपाल मेरे सदृश आचरण स्त्रीवैराग्यकथानभिज्ञपुरुष सर्वे हि साधारणाः॥ कर रहा है अर्थात् जिस प्रकार बानर के द्वारा दिए गए अर्थात्--धीरिता और उदारता से रहित राजा, फल को वनपाल ने छीन लिया है उसी प्रकार मैंने इस बुद्धिहीन गुरु, कार्य-अकार्य के विचार से शून्य मन्त्री, युद्ध- राज्य को छीन लिया है अतः यह राज्य मेरे द्वारा भीरु योद्धा, सर्वज्ञ के स्तवन से रहित कवि, वक्तव्य कला त्याज्य है। से रहित विद्वान और स्त्री-विषयक वैराग्य की कथा से जिसने स्वराज्य हेतु काष्ठाङ्गार से लोहा लिया और अनभिज्ञ पुरुष ये सब तुच्छ व्यक्ति है अत मोहजनित उसे तथा अपने प्रतिद्वद्वियो को मौत के घाट उतारा वे ही विचारों को त्यागना चाहिए। यथार्थतः मच्चा आकिंचन- जीवन्धर आज इस राज्य को तुच्छ समझ कर अपना पुरुष वही है जो जैसा अन्दर है वैमा ही अपने को आकिञ्चन्य-स्वरूप उपस्थित कर रहे हैं। यह राज्य तैल
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जीवन्धर चम्पू में आकिंञ्चन्य
रहित दीपक की लौ के समान है, जीवन चचल है, शरीर तथा स्वय के राज नाता गने पर रानी विजया को बिजली के समान क्षणभंगुर है और आयु चपल मेघ के गजवैभवरूप परिग्रह में यकाता ग्लानि हो गई। उन्होंने तुल्य है। इस प्रकार इस संसार की सन्तति मे किञ्चित् अपनी आने पुत्रवधुओ को बुताकर कहा-हे पूर्णचन्द्र के भी सुख नही है फिर भी उममे मूढ हुआ पुरुप अपना हित ममान मुख वाली बहुओ ' जाज मेरे हृदय मे इस गारहीन नहीं करता किन्तु इसके विपरीत मोह को बढ़ाने वाले व्यर्थ भयकर मसार के विषय गे विरक्ति हो रही है और यह के कार्य ही करता है। नश्वर विषयों के द्वाग लुभाया विरक्ति इस समय मुझे दीक्षा लेने के लिए शीघ्रता कर हआ बेचारा मानव मोहवश दुखजनित दोपी को नहीं रही है। समझता प्रत्युत ग्रीष्मकाल मे शीतल जल की धारा छोड उमी समय गन्धोत्वाट की पत्नी सुनन्दा को भी मृगमरीचिका के सेवन तुल्य मांमारिक भोगो मे लिप्त मामारिकता से वैगग्य उत्पन्न हो गया अत रानी विजया रहता है। दुर्लभ मानव-जन्म पाकर आत्महित में प्रगाद और मुनन्दा ने पद्मा नाम आर्या के ममीप दीक्षा ले ली। करना उचित नहीं । ११।२३-२६ । इस प्रकार नवचिन्तन इस प्रकार जीधर चम्चू में पुरुप-पात्री के साथ-साथ नारीके फलस्वरूप जीवन्धर स्वामी समार की माया-ममता में पान बीवन में प्रथमत आकिञ्चन्य धर्म का अणु रूप विरक्त हो (आकिञ्चन्य धर्म की पूर्ण दशा को पाकर) धारण करते और अन्तत दीक्षा लेते ओर अमीमितानन्द मुनि दीक्षा लेने का निश्चय कर लेते है और राजकीय- को पाते है। व्यवस्था से निवृत्त हो महावीर-ग्वामी के ममवसरण मे काठाङ्गार के आकिञ्चन्य भिन्न भाव-आकिञ्चन्य जाकर मुनि-दीक्षा धारण करते है एव घोर तपश्चरण के बहुल प्रनगो के साथ-साथ जीवन्धर चम्पू में यदि द्वारा कर्मों को क्षय कर विपुलाचल से मोक्ष प्राप्त करते आकिञ्चन्य का विपरीत रूप देखना चाहे तो काप्ठाङ्गार है। शलाका पुरुष न होने पर भी पुराण,रो ने अपने का चरित तो पाठक के मध्य महज ही उपस्थित हो जाता पुराणो मे आकिञ्चन्य पुरुष जीवन्धर का चरित्र अकित है। नपराज सत्यधर ने कुछ समय के लिए काष्ठाङ्गार को किया। कवियो ने इन पर गद्यपद्यात्मक काव्य लिखे। राज्य दे दिया किन्तु कृतन मन्त्री ने षड्यन्त्र रच युद्ध में जीवन्धरचम्पूकार ने तो स्पष्ट ही लिखा है कि 'जीवन्धरस्य उन नाराज को दीक्षा लेने पर भी मौत के घाट उतार कर चरित दुरितस्य हन्त'-जीवन्धर का चरिय पाप को नष्ट जसोमा
उनके राज्य का अधिकार हो गया। काष्ठाङ्गार ने समझा करने वाला है।
कि मेने राजा को मार ही डाला और रानी मयूरयन्त्र में ___ इस प्रकार जीवन्धर स्वामी राज्य-वैभव होने पर भी बैठ कर गयी थी अत गिरने पर उसका और उसके गर्भस्थ घर मे विरागी विचारो से सम्पन्न थे। उनका विचार था बालक का प्राणघात स्वय हो गया होगा। इस प्रकार कि यदि धन-दौलत आदि परिग्रह यथार्थत. सुख देने वाले निश्चिन्त हो वह राज्य-शासन करता रहा। है तो मगमरीचिका भी पिपासा-शमन कर सकती है, आर्त- सप्रचार से किसी की अकीर्ति दवती नही प्रत्युत रौद्र-ध्यान भी मोक्षानन्द दिला सकता है, अग्नि शीतल हो
फनती ही है। काष्ठा ङ्गार की अकीर्ति राजघातक के रूप
र सकती है और मात्र भोजन-इच्छा ही भूख-शान्ति कर में मर्वत्र फैनती ही है काष्ठानर की अकीर्ति राजघातक सकती है। जीवन्धर स्वामी के परिग्रहभिन्न ऐसे भावो ने के रूप मे सर्वत्र फैल गयी। नपमृत्यु के कलक के परिमार्जन संसार के प्रति निराशा उपस्थित की और अन्ततोगत्वा ।
हेतु राजा की मृत्यु का कारण हाथी द्वारा मारा जाना उन्हें मोक्षवधू का वरण करा दिया।
प्रचारित कर जोवन्धर-मातुल गोविन्द महाराज के पास रानी विजया मोर सुनंदा का आकिञ्चन्य-नृपराज मन्देश भेजा। काष्ठाङ्गार-कलक के उपशमन के व्याज से सत्यंधर एवं राजकुवर जीवन्धर के तुल्य रानी विजया का गोविन्द महाराज ने सत्यधर की राजधानी राजपुरी में आकिञ्चन्य व्यक्तित्व भी सहज ही सामने उपस्थित हो स्व सुता लक्ष्मणा का स्वयवर रचा। जीवन्धर राज ने जाता है। राजपुत्र जीवन्धर के राजसिहासनारूढ़ होने पर चन्द्रकवेधक को वेधकर लक्ष्मणा प्राप्त की, तब जीवन्धर
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८, वर्ष ३५, कि० २
अनेकान्त
के यथार्थ-जीवन का रहस्योद्घाटन हो गया। लक्ष्मण- है तथापि अकिंचन-भाव से पीछे नहीं । जीवन्धर स्वामी माला का इच्छुक काष्ठाङ्गार उत्तेजित हो भडक उठा। का वैभव विसर्जन कर मुक्ति-पदवी पाना, रानी विजया युद्ध के लिए उद्यत हो जाने पर वह जीवन्धर के द्वारा का आर्या पद ग्रहण करना इसके विपरीत काष्ठाङ्गार का मृत्यूलोक का पान्थ बन गया। देखिए ! कितनी विचित्रता राज्य-च्युत होना जीवन्धर चम्पू मे प्रयुक्त आकिञ्चन्यहै मानसिक-मनोभावो की ? काश ! यदि वह नृपराज्य की स्वरूप को परिपुष्ट करने वाले ही है। जीवन्धर चम्पू में
ओर आकिञ्चन्य रहता तो उसकी यह निकृष्ट दशा न नायक जीवन्धर को शृङ्गारिक रूप में दर्शाया गया है होती।
तथापि यत्र-तत्र अकिंचन-तत्व प्रदर्शित होता है जो कि सासारिक परिभ्रमण से निकल कर मानव को मुक्ति- उनके शृङ्गारिक जीवन मे चारचाँद लगा देता है और मन्दिर मे भेज देना जैन कथानकों का उद्देश्य रहना है। एक विलक्षणता उपस्थित करता है। यद्यपि इसमें प्रसङ्गोपात्त विविध भावो का समावेश हुआ
--अलीगञ्ज (एटा)
(पृष्ठ ५ का शेपाष)
ही सबसे बड़ा पाप है, सबसे बडा अधर्म है सबसे बड़ा होती है जागरण चाल होता है आप अपना मालिक बनता अजान है यह किसी अन्य प्रकार से नही मिट सकता परन्तु है। आज तक जिसको नही पाया उसको पाता है जिस जानने वाला अपने आपको जाने अपना सर्वम्व अपना कूडे-कर्कट को पकड रखा था उससे निवृत होता है। जो अहम्पना उस जानने वाले में स्थापित करे तो वह अभी तक व्यवहार मे पर मे जगता था वह अब परमार्थ अपना जो अभी मन सम्बन्धी विकारो मे और शरीर में जगता है जहां अब तक मूच्छित था । घोर अन्धकार मे सम्बन्धी क्रियाओ मे आ रहा है वह मिट कर अपने जानन- सूर्य का प्रकाश दिखाई देता है। अब अन्धकार नही रहने पर्न रूप निज स्वभाघ में आये तो नकली मै का अभाव का। चाहे कितना ही गाढा क्यो न हो प्रकाश की किरण ने हो और असली मै की प्राप्ति हो जोकि वास्तव मे ब्रह्मोस्मि उसको भेद दिया है। शरीर रहता है और अन्य भाव भी है और वही पारिणामिक भाव है वही निज भगवान आत्मा रहता है परन्तु मै नही रहता। मै मिट जाता है । यह मै है। जिसको जानने से धर्म की शुरुआत होती है-साक्षी ही निज परमात्मा से मिलने में रुकावट थी, मै मिट गया। भाव जागृत होता है। निजस्वभाव के प्रति मूर्छा दूर
मुक्ति का सच्चा हेतु 'यो मध्यस्थः पश्यति जानात्यात्मानमात्मनात्मन्याऽऽत्मा।
दृगवगमचरणरूपः स निश्चयान्मुक्तिहेतुरिति हि जिनोक्तिः ॥' जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वरूप आत्मा मध्यस्थभाव को प्राप्त होकर आत्मा को आत्मा के द्वारा, आत्मा में देखता और जानता है वह निश्चय से (स्वयं) मुक्ति का हेतु है, ऐसी सर्वज्ञजिन भगवान की वाणी है।
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सम्यक्त्व-कौमुदी सम्बन्धी अन्य रचनायें एवं विशेष ज्ञातव्य
0 श्री अगर चन्द नाहटा, बीकानेर
'अनेकान्त' क सितम्बर ८१ के अक में डा० ज्योति- चका है। दूसरी रचना महीचन्द रचित सम्यक्त्व कौमुदी प्रसाद जैन का एक लेख 'मम्यक्त्व ---कौमुदी सम्बन्धी है, जिसमें १३ अध्याय और १९८१ ओबी है। इसकी रबनाये' शीर्षक छपा था। उसकी पूर्ति के रूप मे दिसम्बर कथाए दया सागर की सम्यक्त्व कौमुदी के समान ही है । ८१ के अक में 'गम्यक्त्व कौमुदी सम्बन्धी अन्य रचनाये' महीचन्द के शिष्य देवेन्द्रकीति ने कालिका पुरान नामक नामक लेखप्रकाशित हो चुका है। पर जभी-अभी पार्श्वनाथ एक बडा ग्रथ रचा है उसमे सम्यक्त्व कौमुदी की कथाए विद्याधन शोध सस्थान, वाराणमी-५ से 'जैन साहित्य का भी शामिल कर ली गयी है। आधुनिक मराठी जैन बृहद इतिहास का यों भाव प्रकाशित हुवा है, उसने माहित्यकारो मे कत्लाप्पा भरमाप्पानिटवे ने सम्यक्त्व कन्नड ओर मराठी भाषा की सम्यक्त्व कौमुदी सम्बन्धी कौमुदी का मराठी अनुवाद किया है। पर उसमे मूल अथ कुछ नई जानकारी प्रकाश में आई है। इसलिए पाठको को अज्ञातकर्तृक लिखा है। को उसकी जानकारी देने के लिए यह लेख, पूर्व प्रकागिन
हमारे मग्रह में सस्कृत गद्य में सम्यक्त्व कौमुदी, दोनो लेखो की पूर्ति के सपने प्रकाशित किया जा रहा है।
मूलचन्द किशनदाम कापडिया, सूरत से प्रकाशित सन् जैन साहित्य का बृहद इनिहाम' के मानवे भाग में
१६३६ की प्रथम आवृति है। माणिकचन्द दिगवर जैन कन्नड, तमिल और मराठी तीन भापाओ के जैन गाहित्य
परीक्षालय मे यह पाठ्यक्रम में रखा गया था, यह भी का विवरण स्व० प० के० भुजबली शास्त्री और मराठी
अज्ञात कर्तृक है। इससे २५ वर्ष पहले प० उदयलाल माहित्य का विवरण डा० विद्याधर जोहरापरवर लिखित
कागनीवाल ने इसे प्रकाशित किया था, लिखा है । जिसका है। कन्नद जी गाहित्य में मम्बकत्व कौमुदी नामक रचना
उल्लेख डा. ज्योतिप्रमादजी के लेख मे हो चुका है। सम्यक्त्व प्राप्त है। जिनमे मे कवि मगरय का कुछ विशेष विवरण
कौमुदी नामक श्वेताम्बर जिनहर्षगणि स० १४८७ की उपरोक्त ग्रन्या पृष्ठ ८७ मे छपा है उसके अनुसार भगरग
गचित, मूलरूप में प्रकाशित हुई है वह तो मुझे नही मिली तृतीय का गमव गोनयी शताब्दी के पूर्वार्द्ध का बनाया है।
पर उसका गुजराती अनुवाद आत्मानद जैन सभा भावऔर यह अथ प्रकाशित भी हो चुका है। इसका सम्पादन
नगर से सन् १९१७ मे प्रकाशित हुआ, यह मेरे संग्रह में प० शान्तिलाल गात्री ने किया है और अतिबल ग्रथमाला,
है। इन श्लोकबद्ध सस्कृत ग्रथ के रचयिता जिन हर्षगणि, बेलगाव मे यह प्रकाशित हुआ है ।
तपागच्छीय जयचन्दमूरि के शिष्य थे। इसमे सात प्रस्ताव मराठी जैन साहित्य में दया सागर (दया भूपण) की है। मूलग्रय भी इसी सभा से पूर्व छप गया था। दि० श्वे० सम्यक्त्व-कौमुदी मे ११ अध्याय और २३८० ओवी है। सम्यक्त्व कौमुदी की कथाओ के तुलनात्मक अध्ययन के यह जिनदास चवड़े, वर्धा स० १६०८ में प्रकाशित हो . लिए यह अथ महत्वपूर्ण है।
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अपभ्रश काव्यों में सामाजिक-चित्रण
डा. राजाराम जैन, रीडर एवं अध्यक्ष-संस्कृत प्राकृत विभाग, पारा मध्यकालीन भारतीय इतिहास एव सस्क्रति के सदी तक के भारतीय इतिहास एव सस्कृति के प्रामाणिक सर्वांगीण प्रामाणिक अध्ययन के लिए अपभ्र श-साहित्य चित्र सुसज्जित है। प्रस्तुत लघु-निबन्ध मे उन सभी पर अपना विशेष महत्व रखता है। उसमें उपलब्ध विस्तृत प्रकाश डालना तो सम्भव नही, हाँ, उदाहरणार्थ केवल प्रशस्तियां, ऐतिहासिक-सन्दर्भ लोक-जीवन के विविध चित्र, कुछ सरस एव रोचक तथ्यों पर प्रकाश डालने का प्रयास सम-सामयिक सामाजिक परिस्थितियां, राजनीति, अर्थनीति, किया जा रहा है। एवं धर्मनीति के विविध सूत्र, हास-परिहास, एव विलास- सामाजिक परिस्थितियां : वैभव के रससिद्ध चित्रांकन इस साहित्य के प्राण है। अपभ्रश काव्यो मे परम्परानुमोदित पौराणिक, अपभ्रंश के प्रायः समस्त कवि आचार और दार्शनिक तथ्यो सामाजिक मान्यताओ को ग्रहण किये जाने पर भी समतथा लोक जीवन की अभिव्यजना कथाओं एव चरितो के सामयिक स्थितियो के उनमें पर्याप्त निर्देश मिलते है। इन परिवेशों द्वारा करते रहे है। इस प्रकार के चरितो और काव्यो में कुछ ऐसी मान्यताए निर्दिष्ट की गई है, जो कथानकों के माध्यम से अपभ्रंश-साहित्य मे मानव-जीवन मध्यकालीन स्थितियो पर प्रकाश डालती है। वैदिक यथा जगत की विविध मूक-भावनाए एव अनुभूतियाँ वर्णाश्रम धर्म के सिद्धान्तानुसार ब्राह्मण का कार्य पठनमुखरित हुई है। क्योंकि वह एक और पुराण-पुरुषो के पाठन और यज्ञ-यागादि करना था। पर १५वी सदी मे महामहिम आदर्श चरितों से समृद्ध है तो दूसरी ओर विदेशी आक्रमण होने एव मुसलमानो के उत्तराधिकार सामन्तों वणिकपुत्रो अथवा सामान्य वर्ग के व्यक्तियो के सम्बन्धी पारम्परिक कलह तथा राजनैतिक अस्थिरता के सुखों-दुखों अथवा रोमांसपूर्ण कथाओ से परिव्याप्त । वन- कारण देश की आर्थिक स्थिति बिगडने लगी थी। विहार, उद्यान-क्रीड़ाएं, संगीत-गोष्ठिया, आखेट-बूत, एव फलस्वरूप ब्राह्मण आजीविका के हेतु खेती भी करने लग जल-क्रीड़ाएं, रासलीलाए, सरोवर-स्नान के समय प्रेमी- गए थे। महाकवि र इधू ने अपनी एक रचना 'धण्णकुमारप्रेमिकाओं के परस्पर में छकाने के लिये वस्त्रो के अपहरण चरिउ' में 'बम्भणकिसाणु" लिख कर उसका स्पष्ट निर्देश आदि विविध चित्र-विचित्र चित्रणों से अपभ्रंश-साहित्य की किया है और इस प्रकार उसकी परिवर्तित स्थिति पर विशाल चित्रशाला अलंकृत है। चउमुह, ईशान एवं द्रोण अच्छा प्रकाश डाला है।' जैसे महाकवियों ने इस महान चित्रशाला की नीव रखी, जातयां : तो जोइन्दु स्वयम्भ, पुष्पदन्त, हरिभद्र, धनपाल, वीर, 'धण्णकमार चरिउ' के उपर्यन्त 'a कनकामर, पद्मकीति, हेमचन्द्र, अब्दुल-रहमान प्रभृति काव्य- मे 'किसाण' का विशेषण 'बम्भए' है और यह इस बात कुशल सरस्वती पुत्रों ने अपभ्रंश के उस भवन को धड़कर का द्योतक है कि ब्राह्मणजाति के किसान भी होते थे। भव्य-प्रसाद के रूप में अलकृत किया है और यश.कीर्ति एवं यदि यह तथ्य न होता तो कवि 'किसाणु' शब्द से ही रघु जैसे प्रतिभाशाली महाकवियों ने उसे सर्वतोभावेन अपना काम चला लेता। 'बम्भणु किसाणु' का उसने समृद्ध बनाये रखने का अथक प्रयास किया है। इस प्रकार किसी विशेष अभिप्राय से ही प्रयोग किया है। बिहार मे अपनश-काव्यों में विक्रम की छठवी सदी से सोलहवी जहाँ ब्राह्मणो के लिये खेती करना वर्जित है और अधिकाश १.घण्य ३२३।३।
२. हरिवंस० २।२० ३।१३-१४, ४१६ ।
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अपभ्रंश काव्यों में सामाजिक चित्रण
ब्राह्मण कृषि-कर्म स्वय नही करने, वहां राजस्थान उत्तर अन्य जातियों में भील, खस, बव्वर,"पुलिंद,"
में ब्राह्मणों को स्वय कृपिकर्म करते हुए देखा केवट," कलाल," सुनार," लुहार," कुम्हार," यादव," जाता है।
आदि के नाम मिलते हैं । खस बव्वर एवं पुलिंद के विषय ब्राह्मण के अतिरिक्त क्षत्रीय, वैश्य एव शूद्रो की मे रइधु ने लिखा है कि ये तीनों जातियां जहां भी रहें, जातियों के भी उल्लेख हुए है। क्षत्रियो मे इक्ष्वाकुवंशी,' वहां किसी को स्वप्न में भी रहने का विचार नहीं करना सूर्यवंशी, चन्द्रवशी,' अन्धकवृष्णि,' एव भोजकवृष्णियो' चाहिए। कवि ने इसीलिये इनका उल्लेख आक्रमणकारी के परम्परा प्राप्त उल्लेख मिलते है। उनके अतिरिक्त जातियों के रूप में किया है। तोमर, गुर्जर, प्रतिहार एव सोरट्ठ नामक क्षत्रिय जातियो अस्पृश्य जातियों में डाम. मातंग," चाण्डाल." के भी उल्लेख हए है। 'सिरिवाल चरिउ' में बताया गया घिनिवाल एवं सम्भिस' जातियों के नाम मिलते हैं। है कि खस एव नव्वर जाति के डाकुओ से मराठे, सोरठे
___'घिनिवालु' जाति नवीन प्रतीत होती है। हो सकता है कि
र एवं गुर्जरो ने महायुद्ध मे लोहा लिया था।
यह वही हो, जिसे हम आजकल कसाई कहते हैं। इसीलिए वैश्य मे अग्रवाल, पद्मावती, पुरवाल, जैसवाल, कवि ने इसकी डोम आदि जातियों के साथ गणना की है। गोलाराड, एव पौरपाट आदि जातियो के उल्लेख मिलते 'सभिस' सम्भवत. आजकल की मिश्ती जाति है है । अग्रवालों में गर्ग ऐंडिल गोयल मित्तल, बसल गोत्रो के जिसके लोग मशक के द्वारा जाल घर-घर पहुंचाया करते भी नाम प्रशस्तियो एव ग्रन्थ-पुष्पिकाओ में मिलते है। थे। एक अन्य म्लेच्छ जाति का भी उल्लेख आया है। जो साहित्यिक एव कला के विविध क्षेत्रो मे उनका योगदान सम्भवतः यवन जाति के लिये प्रयुक्त है। महत्वपूर्ण रहा है।"
सिरिवल चरित' मे एक भांड-जाति" का भी उल्लख ___ 'धण्णकुमार चरिउ' में एक पटवारी जाति का भी आता है। जाति के कारनामें आजकल के समान ही मध्यनिर्देश पाया जाता है। हमारा अनुमान है कि यह भी मे भी थे। किसी भी अच्छे व्यक्ति की नकल बना कर उसे कोई वैश्य जाति है जो पटवारिगिरि अर्थात् भूमि की निम्नतर घोषित करना एवं व्यंग्योक्तियों द्वारा खरी एवं पैमाइश आदि का कार्य करती थी। मध्यभारत में आज स्पष्ट बातो को जनता के समक्ष रख देना इस जाति का भी उन्हें ही पटवारी कहा जाता है जो खेतो की मालगुजारी परम्परा-प्राप्त व्यापार था। श्रीपाल जिस समय धवल का लेखा-जोखा एव बन्दोवस्त के कार्य करते है, भले ही सेठ के द्वारा समुद्र में गिरा दिया जाता है और वह अपने उनकी जाति कुछ भी हो ।
पुरुषार्थ से समुद्र तैर कर उसी द्वीप मे पहुंचता है, जहां १. उपरिवत् ।
१३. सिरि० ५।१३।। २. उपरिवत् ।
१४. वलहद्द० ३२, ५।१०। ३. उपरिवत् ।
१५. बलहद्द०-३।२, ५१०। ४. उपरिवत् ।
१६. बलहद्द०-५।१०। ५. हरिवंश० २।२० ; ३३१३-१४; ४।१ ।
१७. उपरिवत्-३।२, ५१०। ६. सिरिवाल० ५।२२ ।
१८. हरिवंस० १४।५। ७. रइध-साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन पृ०४६८ १६. सिरि० ७.१२, बलहद्द०६२,५१३ । ८. धण्ण० ११३।४।
२०. धण्ण. २१७१-३, सिरि० ७१२। ६. सम्मइजिण० ३१११, बलहद्द० ४।३ ।
२१. बलहद्द ३।२। १०. सिरि० ५।२२, १०।३, पाम० ५।६।५, बलहद्द० ४।३। २२. उपरिवत् । ११. सिरि० ५।२२, ८।१०, १०३ ।
२३. उपरिवत् । १२. घण्ण ३।२४।६।
२४. सिरि० ७१६-१२।
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१२, वर्ष ३५, कि०२ कि बाद में धवल स्वयं पहुंचता है तथा श्रीपाल को वहां का शिकार होना पड़ा और बेचारे को परदेश भाग जाना के राज-दरबार में एक सम्मानित व्यक्ति के रूप में देखता पडा। है तब धवल भाड़ों की सहायता से उसे अपमानित करता नारी की स्थिति : है तथा राजा की दृष्टि में उसे पतित सिद्ध कर देता है। परिवार में नारी की स्थिति परतन्त्र थी। उसके यद्यपि धवल की यह कुटिलता बाद में स्पष्ट हो जाती है। लिये जो आचार-संहिता मिलती है, वह बडी दुरूह है। परिवार:
विवाहिता-नारी को अपने पति के लिये मन-वचन एव कार्य समाज का घटक परिवार है। प्रत्येक कवि या से पूर्णतया समर्पित रहने का आदेश दिया गया है तथा साहित्यकार अपनी रचना में पारिवारिक सम्बन्धो पर कहा गया है कि वह दुश्चरित्र एव निर्लज्ज नारियो की अवश्य ही प्रकाश डालता है। अपभ्रश काय्यो मे भी संगति कर अपने कुल, एव शीलव्रत को कलकित न करे। पारिवारिक सम्बन्धों का विस्तृत विवेचन मिलता है, उन्हें अपना जीवन इस प्रकार का बनाना चाहिए कि कोई क्योंकि कथानायक का जन्म किसी परिवार मे होता है। अंगुली भी न उठा सके और दोनो कुलो पर किसी भी उस परिवार में माता-पिता आदि गुरुजनो के साथ भाई, प्रकार का कनक न लग सके। भावज, बहिन, पुत्र, मित्र, दास-दासियां आदि विद्यमान परित्यक्ता नारियों को अपभ्र श काव्य मे दुर्भाग्य का रहते हैं। अत: कवियो ने इसके पारस्पिरिक सम्बन्थो की भण्डार कहा गया है। उनके लिए कहा गया है कि उन्हे चर्चा कर उनका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण भी उपस्थित दुर्जनो एव आवारागर्दी करने वालो से अपने को छिपा कर किया है।
रखना चाहिए। सिर उघाड़ कर रास्तो एव बाजारो मे यह परिवार-व्यवस्था सम्मिलित परिवार व्यवस्था के
नही धूमना चाहिए। दिन में शयन नहीं करना चाहिए रूप में चित्रित है । अतः सास-बहू की कलह, ननद-भौजाई
तथा दूगरो के भाग्य पर ईर्ष्या नहीं करना चाहिए। उन्हे
तथा के झगड़े, सौतियाडाह तथा परिवार मे परस्पर में चलने शालवत धारण
शीलव्रत धारण कर सात्विक जीवन व्यतीत करना ही वाले शीतयुद्ध आदि के प्रसंग प्रचुर मात्रा मे मिलते है।
श्रेयस्कर है। महाकवि स्वयम्भू ने सास-बहू के झगड़े को अनादिकालीन
प्रौढा विधवाओ के विषय में कहा गया है कि पति कहा है।' सौतिया डाह के प्रसंग आनुषंगिक एव स्वतन्त्र
की मृत्यु पर विधग को चिता मे जल मरने का प्रयास दोनों ही रूप में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। एतद्विषयक
नही करना चाहिए। सिर पटक कर हाय-हाय करना स्वतन्त्र कृति के रूप में 'सयधदहमी कहा' सुप्रसिद्ध रचना
उचित नही। कवियों ने उन्हें आदेश अथवा उपदेश दिया है। इसी प्रकार पुष्पदन्त कृत महापुराण' में एक प्रसंग
है कि उन्हे मार्ग मे अत्यन्त वेगपूर्वक अथवा अत्यन्त मन्दआया है जिसके अनुसार महाराज कृष्ण की सत्यपामा एव गति से चलना सर्वथा छोड़ देना चाहिए। इसी प्रकार रुक्मिणी नाम की दोनों पत्नियों में पर्याप्त ईर्ष्या चलती बिना कार्य के दूसरों के घर आना-जाना या रात्रि मे है। उन्होंने परस्पर में यह शर्त रखी थी कि जिसके बेटे अकेनी घूमना त्याज्य बताया गया है। सहिष्ण बन कर का पहले विवाह होगा, वह दूसरी का सिर मुंडवा देगी। आत्मोद्धार का प्रयास आवश्यक बताया गया है और जोर 'धण्णकुमार चरिउ' में कहा गया है कि अपने माता-पिता देकर कहा गया है कि जो नारी उत्तम शीलव्रत धारण के अत्यन्त दुलारे धन्यकुमार को अपने ईर्ष्याल बड़े भाइयों नही कर सकती, उसकी वही दशा होती है जो सड़ी एवं भौजाइयों के तीखे व्यग्य वाणी एवं कट आलोचनाओ कूतियों अथवा जूठी पातल की होती है।' १. पउमचरिउ-२२१५५ ।
५. अप्पसंवोह० २।१७ । २. भारतीय ज्ञानपीठ काशी से प्रकाशित ।
६. उपरिवत्-२०१८, २१, २३ ३. महापुराण ६१३३, भाग ३, पृष्ठ १७१ ।
७. उपरिवत्-२।१६, २१ ४. धण्ण० शह-१०।
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अपभ्रंश काव्यों में सामाजिक चित्रण
बाल विधवा के लिये कहा गया है कि उसे सादा के प्रति उसका घोर विश्वास देख कर वह क्रोधाभिभूत भोजन और उच्च विचार रखना चाहिए। सदैव शुभ्र-वस्त्र हो जाता है। पिता को पुत्र की यह प्रवृत्ति अपमानजनक धारण करना चाहिए। किसी भी प्रकार का शारीरिक प्रतीत होती है। अत. वह उसका विवाह एक कोढ़ी के शृंगार नहीं करना चाहिए, काम-वासना को उभाड़ने वाले साथ कर देता है। इस सन्दाभांश से विवाह प्रथा के रगीन एवं रक्ताभ वस्त्र भूल कर भी धारण नहीं करना सम्बन्ध में निम्नलिखित संकेत मिलते हैचाहिए। इसी प्रकार ताम्बूल सेवन, इत्र लेपन, धूर्तक्रीडा, १. विवाह के पूर्व पिता अपनी कन्या की सम्मति लेता लोगों से हंसी।मजाक, विरह कथाओ का सुनना-सुनाना, था और विभिन्न प्रकार के बरो का परिचय एवं घी एवं दूध मिथित गरिष्ठ भोजन, जल्दी-जल्दी माथा वैभव इत्यादि का वर्णन कर कन्या की भावना को धोना, शून्यगृह में रहना, घर की दीवालो या छत पर चढ जान लेता था। कर दिशाओ का निरीक्षण, गाना गाना, मार्ग मे भटकना, २. वर-निर्वाचन में पिता का स्वातन्त्र्य था। यद्यपि वह जोरो से किसी को कोसना, परिवार के लोगो से मटना परिवार के व्यक्तियो से सम्मति लेता था, पर पिता आदि कार्य बजित बताये गये है। इनके त्याग के बिना का निर्णय ही सर्वोपरि होता था। उज्जियिनी नरेश बाल-विधवा की दुर्गति अचिन्तनीय है।'
राजा पृथ्वीपाल को उसके निर्णय से विचजित करने विवाह-संस्था :
के लिए रानी एव अमात्यो का प्रयास व्यर्थ जाता है। ___ व्यक्ति के चरित्र निर्माण मे विवाह-सस्था का महत्व- ३. अनुचित और अनमेल विवाहो को समाज उचित नहीं पूर्ण योग है। विवाहित होने से यौन सम्बन्ध एव विषय समझता था। मैना सुन्दरी का कोढ़ी के साथ विवासीमा का सकोच दोनो ही बातें एक साथ सम्पन्न हो जाती सम्बन्ध होते देख कर समस्त-प्रजा के मुख से है। स्नेह, प्रेम, सहयोग एवं सहानुभूति की पाठशाला त्राहि-त्राहि की ध्वनि निकलने लगती है तथा सभी परिवार ही होती है। गुरजनो के प्रति आदर और भक्ति- प्रजाजन राजा के इस कुकृत्य पर उसे कोसने लगते है। भाव का प्रदर्शन एव सत्य दान, तप, त्याग, मित्रता, विवाह पद्धति : पवित्रता, सरलता एव सेवा प्रभति सद्गुणो का विकास विवाह रचाने के लिए अनेक प्रकार के रीति-रिवाजों विवाहित परिवार के बीच ही सम्भव है। अतः परिवार को चर्चायें आई है। कविधाहिल ने अपने 'पउमचरिउ' में का आधार विवाह माना गया है।
पद्मश्री के विवाह का वर्णन करते हुए लिखा हैअपम्र श चरित काव्यो में आप-विवाह को ही ज्योतिषियो द्वारा शुभतिथि के निश्चल किये जाने पर सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। विवाह के पूर्व वर-वधू का विवाह की तैयारिया प्रारम्भ कर दी गई। विवाह-सामग्री सम्पर्क होना या अन्य किसी कारण से प्रेम का जागृत होना का सकलन किया जाने लगा। नाते-रिश्तेदारो को न्यौते अथवा प्रेमी-प्रेमिकाओ को एकत्र करके प्रेम के विकसित भेजे जाने लगे। सभामण्डप सजा दिया गया, बच्चों के होने का अवसर नही दिया गया है, क्योकि इन कवियो की आनन्द का पारावार न रहा। भावी वधू का मन कुलांचे दृष्टि में विवाह एक ऐसी पवित्र-सस्था है जिसका दायित्व मार रहा था, वाद्यो की ध्वनि मे ब्राह्मण लोग श्रतिपाठ पूर्णतया माता-पिता पर है। सिरिवाल चरिउमे आए हुए कर रहे थे। सुहागिन स्त्रियां कौतुकपूर्ण गीत गा रही एक कथानक के आधार पर उज्जयिनी नरेश राजा थी। कुछ समय बाद कन्या का अभिषेक किया गया, नवीन पृथ्वीपाल अपनी बडी पुत्री सुरसुन्दरी से प्रसन्न होकर कीमती वस्त्राभूषणों से सजा कर उसकी आंखों में अंजन लगा उसका विवाह कौशाम्बी नरेश के राजकुमार हरिवाहन के दिया गया, फिर उसे कुलदेवी के दर्शनार्थं ले जाया गया। साथ कर देता है किन्तु छोटी पुत्री मैना' सुन्दरी की इधर वर भी सज-धज कर हाथी पर सवार होकर स्पष्टवादिता और धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा, एवं भवितव्यता बारात के साथ चला। सखियां उसे मातृमन्दिर ले गई। १. अप्प० २।२० ।
२. सिरिवाल--१२।
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१४ वर्ष ३५, कि२
पपश्री की हमजोली सखियां वर से हंसी-मजाक करने वाह: लगीं। वर से उन्होंने दोहे पढ़वाए और फिर दोनों का अपम्रश-काव्यों के अध्ययन से पता चलता है कि उस विवाह हो गया।'
समय बहु-विवाह प्रथा का पर्याप्त रूप में प्रचलन था।
क्या पौराणिक पात्र और क्या युगीन पात्र, सभी में यह इसी प्रकार 'भविसयतकहा' में धनपति एवं कमलश्री प्रवृति देखी जाती है। हां, अन्तर इतना ही है कि के विवाह के अवसर पर भवन की सजावट, तोरणबन्धन, पौराणिक पात्र सहस्रों विवाह रचाते थे और युगीन पात्र रंगोली, चौक विविध मिष्ठान्न, आभूषण आदि की २-२, ४-४ चक्रवर्ती सम्राट भरत की ९६ सहस्र रानियां,' सुव्यवस्थाएं कर प्रीतिभोज का वर्णन किया गया हैं। चम्पानरेश श्रीपाल की ८ सहस्र रानियां,' बसुदेव की एक ___जंबूसामिचरिउ मे वैवाहिक भोज का सुन्दर वर्णन सहस्र से अधिक रानियों को चर्चाएं आती हैं। मिलता है। उसमे तृणमय आसनों पर आगन्तुको को भोज बहु-विवाह-प्रथा में अपभ्रंश के कवि स्वयं भी बड़े कराये जाने तथा ग्रीष्मऋतुओं में सुगन्धित सरस पदार्थों से रासक
मानसपटाने रसिक प्रतीक होते हैं। पउमवरिउ के लेखक कविराज सरावोर तालपत्रों से सभी पर हवा करने के उल्लेख चक्रवती नाम की उपाधि से विभूषित महाकवि स्वयम्भ मिलते हैं। भोजन में कर नामक धान के चावल से निर्मित
की अमृताम्बा एवं आदित्याम्बा नाम की दो पत्नियां थी' मीठे भात, खट्टे आंचार, चटनी एवं तक्र, मूग के बने हुए जिनको प्ररणा एव उत्साह स काब न पउपचार व्यंजन आदि कटोरियों में सजा कर परोसे जाने तथा
__गम्भीर महाकाव्य की रचना की। भोजनोपरान्त सुगन्धित द्रव्य एवं ताम्बूल आदि के खिलाये
जंबूसामिचरिउ के लेखक महाकवि वीर की भी चार जाने के उल्लेख मिलते है।
साहित्यरसिक पत्नियां थीं जो उनकी कबिता-कामिनी की
अजस्र प्रेरणा स्रोत थीं ।उनके नाम है जिनमती, पद्मावती, प्रीतिभोज के बाद मंगल मंत्रों एवं घी की आहुति के लीलावती एवं जयामती।" साथ वरमाला डालकर विवाह की अन्तिम प्रक्रिया सम्पन्न महाकवि रइघू के आश्रयदाता श्री मुल्लण साहू की की जाती थी,' सिरिवाल चरिउ में सुलीचना के विवाह- भी दो पत्नियो के उल्लेख मिलते हैं।" प्रसंग में इष्टदेवपूजा के साथ सात भांवरें, सप्तपदीकथन इन उल्लेखों से यह स्पष्ट है कि मध्यकाल में बहुएवं उसके बाद हथलेबा की प्रक्रिया को विवाह की अन्तिम विवाह प्रथा प्रचलित थी। समाज में उसे मान्यता प्राप्त प्रक्रिया कही गई है।
हो चुकी थी।
(क्रमशः १. पउमचरिउ-पद्य २४ ।
७. सिरिवाल० ८।१५, ६।१३ । २. भविसयत्तकहा-११-१०।
८. हरिवंस० ५।१४। ३. जंबूसामिचरिउ भूमिक-पृ० १४३।४४ ।
६. रइधू-साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन-पृ० १७ । ४. भविसयत्त० ११।१०।
१०. जंबूसामिचरिउ, भूमिका-पृ० ११ । ५. सिरिवालचरिउ-३३१७ ।
११. धण्णकुमार चरिउ-४॥२०॥ ६. हरिवंस० २।१७।
ou
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जैनदर्शन में अनेकान्तवाद
प्रशोककुमार जैन एम० ६० शास्त्री, नई दिल्सी
भारतवर्ष का उर्बर मस्तिष्क अनेक सुन्दर और सार्व- एकान्त की अनुपलब्धि होने से अर्थ की सिद्धि अनेकान्त से भौम बिचारों की जन्मभूमि रहा है। यहाँ के विभिन्न-दर्शन होती है।' दर्शनशास्त्र में प्रयुक्त नित्य-अनित्य, भिन्नअपनी स्वतन्त्र मान्यता और विचारधारा को लेकर उद्भूत अभिन्न, सत्-असत्, एक-अनेक आदि सभी अपेक्षित धर्म हए और उनका विकास होता रहा। उनकी अपनी है। लोक व्यवहार में भी छोटा-बड़ा, स्थल-सक्ष्म, ऊँचामान्यताओं में से अनेक ऐसी धारायें निकली जिनके नाम नीचा, दूर-नजदीक, मूर्ख-विद्वान आदि सभी आपेक्षिक हैं। पर तत्तत्सम्प्रदायों का बोध होने लगा उदाहरणतः एक ही समय में पदार्थ नित्य और अनित्य दोनों हैं किन्तु मध्यम प्रतिपदा के लिए बौद्ध, अद्वैतवादी विचारधारा के जिस अपेक्षा से अनित्य है उसी अपेक्षा से नित्य नहीका लिए नैयायिक और सांख्य, भोगवादी विचारधारा के लिए प्रत्येक वस्तु द्रव्य अपेक्षा नित्य एवं पर्याय अपेक्षा अनित्य चार्वाक, आत्मवादी विचारधारा के लिए पौराणिक विशेष है। पर्याय उत्पाद और व्यय स्वभाव वाली है जो कि वस्त
भोकान्तवाट का जब नाम मे अनित्यता सिद्ध करती है साथ ही उत्पाद-व्यय से वस्तु आता है तो उससे जन विचारधारा सम्यगूपलक्षित होती है। में हम उसकी स्थिति की ध्रुवता का भी प्रत्यक्ष अमभव जैन दार्शनिक साहित्य का सामान्यावलोकन करते हाता ह यहा स्थिरता-धवता वस्तु मे नित्य धर्म का
अस्तित्व सिद्ध करती है जो अपनेअस्तित्व स्वभाव को न समय आज तक उपलब्ध समग्र साहित्य को ध्यान मे रख
छोड़कर उत्पाद, व्यय तथा ध्रुवता से संयुक्त है एव गुण कर प्रो० महेन्द्रकुमार जी ने इस प्रकार कालनिर्धारण
तथा पर्याय का आधार है सो द्रव्य कहा जाता है। यही किया है।
लक्षण उमास्वामि ने भी तत्त्वार्थसूत्र में किया है। अन्य १. सिद्धान्त आगमकाल : वि० ६वी शती तक।
दर्शनों ने किसी को नित्य और किसी को अनित्य माना है २. अनेकान्तस्थापनकाल : वि. ३ री से ८वी तक।
परन्तु जनदर्शन कहता है कि दीपक से लेकर आकाशपर्यन्त ३. प्रमाण व्यवस्थायुग : वि० ८वी से १७वीं तक ।
सब पदार्थों का स्वरूप एक-सा है अत: वस्तु का स्वभाव ४. नवीन न्याय युग : वि०१८वीं से...
नित्य अनित्यादि अनेक धर्मों के धारक स्याद्वाद (अनेकान्तजैनदर्शन के अनुसार वस्तु अनेकान्तात्मक है। अनेक वाद) की मर्यादा को उल्लघन नहीं करता। एकान्त से अन्त धर्म या अंश ही जिसका आत्मा स्वरूप हो वह पदार्थ नित्य-अनित्य आदि कुछ भी नहीं है किन्तु अपेक्षा से सब अनेकान्तात्मक कहा जाता है।' सभी ज्ञानों का विषय है। अनेकान्त और स्याद्वाद ये दोनों पर्यायवाची नहीं है अनेकान्तात्मक कहा जाता है। सभी ज्ञानों का विषय किन्तु अनेकातन्तवाद और स्याद्वाद पर्यायवाची हो सकते हैं अनेकान्तात्मक वस्तु है और नय का विषय एक देश से यथार्थ मे अर्थ का नाम अनेकान्त है। अनेक धर्मों के विशिष्ट वस्तु है।' अकलङ्कदेव ने अनेकान्त का लक्षण इस प्रतिपादन कस्ने की शैली का नाम स्याद्वाद है। सभी प्रकार किया है। अनेकान्त की सीमा के अन्दर वस्तु के
प्रमाण या प्रमेयरूप वस्तु में स्व-पर द्रव्य की अपेक्षा क्रम अनन्त धर्मों का समावेश होता है एक वस्तु में वस्तुत्व की और यूगपद रूप से अनेक धर्मों की सत्ता पायी जाती है सिद्धि करने वाले परस्पर विरोधी द्रव्य पर्याय रूप दो जिस रूप से घड़े की सत्ता हो उसे स्वपर्याय तथा जिससे
शक्ति धर्मों का युगपद् एकत्र अविनाभाव अबिरोध सिद्ध' घड़ा व्यावृत होता हो उन्हें पर पर्याय समझ लेना चाहिए। क रना यही अनेकान्त का मुख्य प्रयोजन है। भेदाभेद में घड़ा पार्थिव होकर भी धातु का बना हुआ है मिट्टी या
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१६, बर्ष ३५, कि०२
अनेकान्त
पत्थर का नहीं है अत: वह धातु रूप से सत् है मिट्टी या अनादिकालीन स्वभाव सन्तति से बद्ध है सभी के अपनेपत्थर आदि अनन्त रूप से असत् है। घडा धातु का बना स्वभाब अनाद्यनन्त है।" भाव में ही जन्म सद्भाव, होकर भी सुवर्ण का है चांदी, पीतल तांबे आदि का नही विपरिणाम, बुद्धि, अपक्षय और विनाश देखे जाते है। बाह्य अतः स्वर्णरूप से सत् है चांदी या पीतल सैकडों धातुओ अभ्यन्तर दोनो निमित्तो से आत्म लाभ करना जन्म है जैसे की दृष्टि से असत् है। सोने का होकर भी जिस सोने की मनुष्य जाति आदि के उदय से जीव मनुष्य पर्याय रूप डली को गढ़ा गया है वह उस गढ़े गये सुवर्ण की दृष्टि से उत्पन्न होता है। आयु आदि निमित्तो के अनुसार उस सत् है तथा नही गढे गये खदान आदि में पडे हुए अघटित पर्याय मे बने रहा सद्भब या स्थिति है । पूर्व स्वर्ण की दृष्टि से असत् है। गढे गये सुवर्ण की दृष्टि से स्वभाव को कायम रखते हुए अधिकता हो जाना बुद्धि होकर भी वह देवदत्त के द्वारा गड़े गये उस स्वर्ण की दृष्टि है क्रमशः एक देश का जीर्ग होगा अपक्षय है। उस पर्याय से सत् है यज्ञदत्त आदि सुनारोंके द्वारा गढे गये सुवर्ण को की निवृत्ति को विनाश कहते है इस तरह पदार्थों मे दृष्टि से असत् है। गढ़े हुए सुवर्ण की दृष्टि से होकर भी अनन्तरूपता रहती है अथवा सत्य ज्ञेपत्त, द्रब्धत्व, अमूर्तत्व, वह मुह पर सकरे तथा बीच मे चोडे आकार से सत् हे अवगाहनत्व असख्यप्रदेशत्व अनादिनिधनत्व और चेतनत्र तथा मुकुट आदि के आकारो से असत् है। घडा मुंह पर आदि की दृष्टि मे जीव अनेकरूप है।" सकरा तथा बीच मे चौडा होकर भी वह गोल है अत सम्पूर्ण चेतन और अचेतन पदार्थ स्वरूप से स्वद्रव्य, गोल आकार से सत् है तथा अन्य लम्बे आदि आकारो से क्षेत्र, काल, भाव में सा है और परसा से परद्रव्य, क्षेत्र, असत् है। गोल होकर भी घड़ा अपने नियत गोल आकार काल, भाव से अरात सरूप है जैसे घट अपने द्रव्य-पूदगल, से सत् है तथा अन्य लम्बे आदि आकारो से असत् है अपने मत्तिका क्षेत्र--स्थान, कान---वनमान एव भाव-~-लाल गोल आकार वाला होकर भी घड़ा अपने उत्पादक काला आदि की ओजा से तो सन् स्वरूप है वही पट से परमाणुओं से बनेहए गोल आकार से असत् है इस तरह अन्य पटादिक के द्रा, काल, क्षेत्र, भाव में नहीं है असत् धड को जिस-जिस पर्याय से सत् कहेगे वे पर्याय स्वपर्याय रूप है दोनो मे से लिपी एक का मानने से वस्तु या तो है तथा जिन अन्य पदार्थों से वह व्यावृत होगा वे सभी पर सर्वात्मक हो जायेगी अयता लोकन्यवहार का अभाव पर्याय होगी।"
हो जायेगा इसीलिए स्वरूपादि चतुष्टय की अपेक्षा से जैनदृष्टि से पदार्थ अनन्त धर्मात्मक है उसमे कुछ धर्म सब पदार्थों को सत् का नही मानेगा और पररूपादि सामान्यात्मक है और कुछ विशेषान्मक । प्रत्येक पदार्थ मे चतुष्टय की अपेक्षा से प परयों को असत कौन नही दो प्रकार के अस्तित्व है उसमे कुछ धर्म सामान्यात्मक हे मानेगा।" इसी वा अगदेव कहते हैं कि जितने भी और कुछ विशेषात्मक । प्रत्येक पदार्थ में दो प्रकार के पदार्थ शब्दगोचर है वे सब विधि निषेधात्मक हैं कोई भी अस्तित्व है एक स्वरूपास्तित्व और दूसरा सादृश्यास्तित्व वस्तु सर्वथा निषेधगम्य नहीं होनी जैसे बुरयक पुष्प लाल एक द्रव्य को सजातीय या विजातीय किसी भी द्रव्य से और सफेद दोनो रगा का नहीं होता तो इसका यह अर्थ असकीर्ण रखने वाला स्वरूपास्तित्व है। इसके कारण एक कदापि नही है कि वह वर्ग शन्य है इसी तरह पर की द्रव्य की पर्यायें इसके सजातीय या विजातीय द्रव्य से अपेक्षा से वस्तु मे नास्तित्व होने पर भी स्वदष्टि से उसका असकीर्ण रह कर पृथक् अस्तित्व रखती हैं। यह अस्तित्व प्रसिद्ध ही है कहा भी है कथञ्चित् असत् की भी स्वरूपास्तित्व जहाँ विवक्षित द्रव्य की इतर द्रव्यों से उपलब्धि और अस्तित्व है तथा कथञ्चित् सत् की भी अनुव्यावृत्ति करता है वहाँ वह अपनी कालक्रम से होने वाली पलब्धि और नास्तित्व । यदि सर्वया अस्तित्व और उपलब्धि पर्यायों में अनुगत भी रहता है। स्वरूपास्तित्व से अपनी मानी जाय तो घट की पटादि रूप से भी उपलब्धि होने पर्यायों में तो अनुगत प्रत्यय होता है तथा इतर द्रव्यो और से सभी पदार्थ सर्वात्मक हो जायेंगे और यदि पररूप की उनकी पर्यायों में व्यावृत प्रत्यय ।" सभी द्रव्य अपने तरह स्वरूप से भी असत्व माना जाय अर्थान् सर्वथा असत्व
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जंन वर्शन में अनेकान्तवाद
माना जाय तो पदार्थ का ही अभाव हो जायेगा वह शब्द अनेक पर्यायो को धारण करता है। प्रदेशिनी अंगुली में का विषय नही हो सकेगा अत: नास्तित्व और अप्रत्यक्षत्व से मध्यमा की अपेक्षा जो भिन्नता है वह अनामिका की अपेक्षा शय जो होगा वह अवस्तु ही होगा ।" जिस पदार्थ मे नही है प्रत्येक पररूप का भेद जुदा-जुदा है। मध्यमा ने जिाने शब्दों का प्रयोग होता है उसमें उतनी ही वाच्य प्रदेशिनी में ह्रस्वत्व उत्पन्न नहीं किया अन्यथा शशविषाण शक्तियों होती है तथा वह जितने प्रकार के ज्ञानो का में भी उत्पन्न हो जाना चाहिए था और न स्वतः ही था विषय होता है उसमे उतनी ही ज्ञेय शक्तियाँ होती है। अन्यथा मध्यमा के अभाव में भी उसकी प्रतीति हो जानी शब्द प्रयोग का अर्थ है प्रतिपादन किया। उसके साधन चाहिए थी तात्पर्य यह कि अनन्त परिणामी द्रव्य ही उनदोनों ही हैं शब्द और अर्थ । एक ही घट मे पार्थिव, मातिक- उन सहकारी कारणों की अपेक्षा उन-उन रूप से व्यवहार मिट्टी से बना हुआ, सत्, ज्ञेय, नया, बड़ा आदि अनेक मे आता है। शब्दों का प्रयोग होता है तथा इन अनेक ज्ञानों का विषय अनन्तकाल और एक काल में अनन्त प्रकार के उत्पार होता है जैसे धडा अनेकान्त रूप है उसी तरह आत्मा भी व्यय और ध्रौव्य से युक्त होने के कारण आत्मा अनेकान्तअनेक धर्मात्मा है। अज्ञानी पुरुष प्रत्यक्ष मे, ज्ञान मे आगत, रूप है जैसे धडा एककाल में द्रव्यदष्टि से पार्थिव रूप में स्फट स्थिर जो ज्ञेवाकार, उसकी अस्तिता से उठाया हुआ उत्पन्न होता है जलरूप में नहीं, देशष्टि से यहाँ उत्पन्न स्वद्रव्य को न देखता हुआ सब ओर से शून्यता को प्राप्त होता है पटना आदि में नहीं भावदृष्टि से बड़ा उत्पन्न होता हा अज्ञानी पुरुष स्वयं नाश को प्राप्त होता है। है छोटा नही । यह उत्पाद अन्य जातीय घट किञ्चिद् अनेकान्तवादी शीघ्र उत्पत्ति है जिसकी ऐमे सुस्पष्ट, विजातीय घट । पूर्ण विजातीय पटादि तथा द्रव्यान्तर सुविशुद्ध ज्ञान के तेज से अपने आत्मद्रव्य के अस्तित्व के आत्मा आदि के अनन्त उत्पादों से भिन्न है अतः उतने ही द्वारा वस्तु का स्पष्ट निरूपण करके स्वयं अपने मे परिपूर्ण प्रकार का है। इसी प्रकार उस समय उत्पन्न नहीं होने होता हुआ जीवित रहता है।"
वाले द्रव्यों की ऊपर नीची, तिरछी, लम्बी, चौड़ी आदि ____ अनेक शक्तियों का आधार होने से भी अनेकान्त है अवस्थाओं से भिन्न वह उत्पाद अनेक प्रकार का है। जैसे घी चिकना है। तृप्ति करता है। उपबृहण करता है अनेक अवयव वाले मिट्टी के स्कन्ध से उत्पन्न होने के अत अनेक है अथवा जैसे घडा जल धारा आहरण आदि कारण भी उत्पाद अनेक प्रकार का है उसी तरह जलअनेक शक्तियो से युक्त है उसी तरह आत्मा भी द्रव्य, क्षेत्र, धारण आचमण हर्ष, भय, शोक, परिताप आदि अनेक काल और भाव के निमित्त से अनेक प्रकार की वैभाविक अर्थ क्रियाओ मे निमित्त होने से उत्पाद अनेक तरह का है पर्यो की शक्तियो को धारण करता है। जिस प्रकार एक उसी समय उतने ही प्रत्यक्षभूत व्यय होते हैं जब तक पूर्व ही घडा अनेक सम्बन्धियो की अपेक्षा पूर्व-पश्चिम, दूर-पास, पर्याय का विनाश नहीं होता तब तक नूतन उत्पाद की नया-पुराना, समर्थ-असमर्थ देवदत्तकृत चैत्रस्वामिक, संख्या संभावना नही है उत्पाद और विनाश की प्रतिपक्षपरिमाण पृथकत्व, संयोग विभागादि के भेद से अनेक भूत स्थिति भी उतने ही प्रकार की है जो स्पिंत व्यवहारों का विषय होता है उसी तरह अनन्त सम्बन्धियों नहीं है उसके उत्पाद और व्यय नहीं हो सकते । की अपेक्षा आत्मा भी उन-उन अनेक पर्यायों को धारण घट उत्पन्न होता है इस प्रयोग को वर्तमान तो इसलिए करता है अथवा जैसे अनन्त पुद्गल सम्बन्धियों की अपेक्षा नही मान सकते कि घड़ा अभी तक उत्पन्न नहीं हुआ है, आस्मा भी उन-उन अनेक पर्यायों को धारण करता है उत्पत्ति के बाद यदि तुरन्त विनाश मान लिया जाय तो अथवा जैसे अनन्त पुपल सम्बन्धियों की अपेक्षा एक ही सद्भाव की अवस्था का प्रतिपादक विनाश मान लिया जाय प्रदेशिनी अंगुली अनेक भेदों को प्राप्त होती है उसी तरह तो सद्भाभाव की अवस्था का प्रतिपादक कोई शब्द ही जीव भी कर्म और नोकर्म विषय उपकरणों के सम्बन्ध से प्रयुक्त नहीं होगा अतः उत्पाद में भी अभाव और विनाश जीवस्थान, गुणस्थान, मार्गणस्थान, दंडी, कुंडली आदि में भी अभाव इस प्रकार पदार्थ का अभावही होने से
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१८ वर्ष ३५, कि० २ तदाधित व्यवहार का लोप हो जायेगा अतः पदार्थ में प्रसंग प्राप्त होगा ।" प्रयोजन के अनुसार वस्तु के किसी उत्पद्यमानता, उत्पन्नता और विनाश ये तीन अवस्थायें एक धर्म को विवक्षा से जब प्रधानता प्राप्त होती तो वह माननी ही होंगी इसी तरह एक जीव में भी द्रव्याथिक अर्पित या उपनीय कहलाता है और प्रयोजन के अभाव में पर्यायाथिक नय की विषयभूत अनन्त शक्तियों तथा उत्पत्ति, जिसकी प्रधानता नहीं रहती वह अर्पित कहलाती है विनाश, स्थिति आदि रूप होने से अनेकान्तात्मक समझनी मुख्यता और गौणता की अपेक्षा एकवस्तु में विरोधी चाहिए।
मालूम पड़ने वाले दो धर्मों की सिद्धि होती है। जिस अन्वय व्यतिरेक होने से भी अनेकान्तरूप है जैसे एक तरह अनेकान्त सब वस्तुओं को विकल्पनीर करता है उसी ही घड़ा सत् अचेतन आदि सामान्य रूप से अन्वय धर्म का तरह अनेकान्त भी विकल्प का विषय बनने योग्य है । ऐसा तथा नया पुराना आदि विशेष रूप से व्यतिरेक धर्म का होने से सिद्धान्त का विरोध न हो इस तरह अनेकान्त आधार होता है उसी तरह आत्मा भी सामान्य और विशेष एकान्त भी होता है। अनेकान्त दृष्टि जब अपने विषय में धर्मों की अपेक्षा अन्वय और व्यतिरेकात्मक है। अनुगता- प्रवृत होती है तब अपने स्वरूप के विषय में वह सूचित कार बुद्धि और अनुगताकार शब्द प्रयोग के विषयभूत करती है कि वह अनेक दृष्टियों का समुच्चय होने से स्वस्तित्व, आत्मत्व, ज्ञातृत्व, दृष्टत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, अनेकान्त तो है ही परन्तु वह एक स्वतन्त्र दृष्टि होने से अमूर्तत्व, असंख्यात प्रदेशत्व, अवगाहनत्व, अतिसूक्ष्मत्व, उस रूप में एकान्त दृष्टि भी है इस तरह अनेकान्त भिन्नअगुरुलघुत्व अहेतुकत्व, अनादि सम्बन्धित्व, ऊर्ध्वजाति भिन्न दृष्टिरूप इकाइयो का सच्चा जोड़ है। अनेकान्त में स्वभाव आदि अन्वय धर्म है व्यावृताकार बुद्धि और शब्द सापेक्ष (सम्यक) एकान्तों को स्थान है ही। सभी नय प्रयोग के विषयभूत परस्पर विलक्षण उत्पत्ति, स्थिति, अपने-अपने वक्तव्य में सच्चे है और दूसरे के वक्तव्य का विपरिणाम, बुद्धि, ह्रास, क्षय, विनाश, जाति, इन्द्रिय, निराकरण करने मे झूठे है अनेकान्त शास्त्र का ज्ञाता उन काय, योग, बेद, कषाय, ज्ञान, दर्शन, संयम लेश्या सम्यक्त्व नयों का ये सच्चे है और ये मूठे है ऐसा विभाग नही आदि व्यनिरेक धर्म हैं।"
करता। अनेकान्त और एकान्त दोनों ही सम्यक् और मिथ्या अनेकान्त छ7 रूप नही है क्यों कि जहाँ वक्ता के के भेद से दो-दो प्रकार के होते हैं। प्रमाण के द्वारा अभिप्राय से भिन्न अर्थ की कल्पना करके बचन विधात निरूपित वस्तु के एकदेश को सयुक्तिक ग्रहण करने वाला किया जाता है वहाँ छल होता है जैसे नवकम्बलोऽयं देवदत्तः सम्यगेकान्त है। एक धर्म का सर्वथा अवधारण करके अन्य यहाँ नव शब्द के दो अर्थ हैं एक संख्या और बूसरा नया धमों का निराकरण करने वाला मिथ्या एकान्त है । एक जो नूतन विवक्षा से कहे गये नव शब्द का ६ संख्या रूप वस्तु में युक्ति और आगम से अबिरुद्ध अनेक विरोधी धर्मों अर्थ विकल करके वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अर्थ की को ग्रहण करने वाला सम्यगनेकान्त हैं तथा वस्तु को तत् कल्पना छल कही जाती है किन्तु सुनिश्चित मुख्य गौण अतत् आदि स्वभाव से शून्य कह कर उसमें अनेक धर्मो विवक्षा से संभव अनेक धर्मों का सुनिर्णीत रूप से प्रतिपादन की मिथ्या कल्पना करना अर्थशून्य वचन विलास मिथ्या करने वाला अनेकान्तवाद छल नही हो सकता क्यों कि अनेकान्त है। सम्यगेकान्त नय कहलाता है और सम्यग- इसमें वचन विधात नहीं किया गया है अपितु यथावस्थित नेकान्त प्रमाण । यदि अनेकान्त को अनेकान्त ही माना वस्तुत्व का निरूपण किया गया है। जाय और एकान्त का लोप किया जाय तो सम्यगेकान्त के अनेकान्त संशयरूप नही है-सामान्य धर्म का प्रत्यक्ष अभाव में शाखादि के अभाव में वृक्ष के अभाव की तरह होने से विशेष धर्मों का प्रत्यक्ष न होने पर, किन्तु उभय तत्समुदायरूप. 'अनेकान्त का भी अभाव हो जायेगा यदि विशेषों का स्मरण होने से संशय होता है जैसे धुंधली रात्रि एकान्त ही माना जान लो अविनाभावी इतर धर्मों का में स्थाणु और पुरुषगत ऊँचाई आदि सामान्य धर्म की खोप होने पर प्रकृत धर्म का भी लोप होने से सर्वलोक का प्रत्यक्षता होने पर स्थाणुगत कोटर पक्षिनिवास तथा पुरुष.
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जनदर्शन में अनेकान्तबार
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गत सिर खुजाना कपड़ा हिलने आदि विशेष धर्मों के न की सीमा को छूते हैं इसलिये इसमें यह शर्त लगायी गयी दिखने पर । किन्तु इन विशेषों का स्मरण रहने पर ज्ञान दो है कि जो दृष्टिकोण अन्य दृष्टियों की अपेक्षा रखता है कोटियों में दोलित हो जाता है कि यह स्थाणु है या पुरुष उनकी अपेक्षा, उपेक्षा, या तिरस्कार नहीं करता वही किन्तु अनेकान्तवाद में विशेष धर्मों की अनुपलब्धि नहीं है। सच्चा नय है और ऐसे नयों का समूह ही अनेकान्तदर्शन सभी धर्मों की सत्ता अपनी-अपनी निश्चित अपेक्षाओं से है।" स्वीकृत है। तद्धर्मों का विशेष प्रतिभास निर्विवाद सापेक्ष रीति से बनाया गया है। अपनी-अपनी अपेक्षाओं से अन्य सभी दर्शनों के सिद्धान्तों की अपेक्षा जैनदर्शन संभावित धर्मों में विरोध की कोई सम्भावना ही नही है की यह विशेषता है कि जहाँ सभी दर्शन अपने से अतिरिक्त जैसे एक ही देवदत्त भिन्न-भिन्न पुत्रादि सम्बन्धियों की दूसरे दर्शनों का खण्डन करते हैं वहाँ यह सभी का संग्रह दृष्टि से पिता पुत्र, मामा आदि निर्विरोध रूप से व्यवहृत करके उन्हें एक अखण्ड रूप देने में ही दर्शनशास्त्र का होता है उसी तरह अस्तित्वादि धर्मों का भी एक वस्तु मे सार्थक्य दिखलाता है। इस प्रकार दर्शनों के एकांनी कथनों रहने में कोई विरोध नही है।
को समन्वित करने की क्षमता इस अनेकान्तवाद सिद्धान्त अनेकान्तदृष्टि और स्याद्वाद भाषा का अहिंसक उद्देश्य में है। इस सिद्धान्त का आश्रय लेने पर संसार का कोई था समस्त मत-मतान्तरों का नय दृष्टि से समन्वय कर भी दर्शन या वाद असत्य दिखाई नही देता है इसमें केवल समत्व की सृष्टि करना। अनेकान्तदर्शन के अन्तः यह विभिन्न दर्शनों को नयदृष्टि से देखने की अपेक्षा है। यदि रहस्य भी है कि हमारी दृष्टि वस्तु के पूर्णरूप को जान इस सिद्धान्त को अपनाया जाय तों विभिन्न दृष्टिकोणों को नही सकती जो हम जानते हैं.वह आंशिक सत्य है हमारी समझने सोचने के साथ ही वास्तविक वस्तु स्वरूप का तरह दूसरे मतवादियो के दृष्टिकोण भी आंशिक सत्यता सम्यकज्ञान हो सकेगा। १. जैनदर्शन. डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य पृ० १४। ६. आदीपमाव्योमसमस्वभावं स्याद्वादमुद्रानतिभेदिवस्तु । २. अनेकेऽन्ता अंशा धर्मावात्मास्वरूप यस्य तदनेकान्ता
तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यद् इति त्वदाज्ञाठिषतां प्रलाथा। त्मकमिति व्युत्पत्तेः । षड्दर्शन समुच्चयः हरिभद्र
स्याद्वादमञ्जरी का० ५.. पृ. ३२२ ।
१०. आप्तमीमांसाः तत्वदीपिका प्र० गगेशवर्णी संस्थान ३. अनेकान्यात्मक वस्तु गोचरः सर्वसंविदाम् ।
वाराणसी पृ० ३३०। एकदेशविशिष्टोऽर्थोनयस्य विषयोमतः ॥
११. षड्दर्शन समुच्चयः हरिभद्र पृ० ३३० प्र० भारतीय न्यायावतार कारिका २९ ।
ज्ञानपीठ । ४: सदसन्नित्यादि सर्वथैकान्तप्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकान्तः । १२. सिद्धिविनिश्चयटीका संपादक पं० महेन्द्रकुमार न्याया
अष्टशती पृ० २८६ ।
चार्य प्रस्जावना पृ० १३४ । ५. एकवस्तुवस्तुत्वनिष्पादकपरस्पर
विलिटय- १३. तत्वार्थवार्तिक अकल कदेव अ० २७ पृ० १२२। . विरुद्धशक्तिद्वय
प्र. भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशनमनेकान्तः।
१४. तत्त्वार्थवार्तिक-भट्टाकलदेव ४४२ पृ० २५० । समयसार (आत्मख्याति) १०।२४७ ।
१५. सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् ।। ६. भेदाभेदकान्तयोरनुपलब्धेः अर्थस्य सिद्धिः अनेकान्तात् ।
असदेव विपर्यासान्न चेन व्यवतिष्ठते ॥ ७. अपरिव्यक्तस्वभावेन उत्पाद व्यय ध्र वत्वसंबद्धम् ।
आप्तमीमांसा समन्तभद्र १५ । गुणवच्चसपर्यायम् यत्तद्रव्यमिति अवन्तिपप्रवचन- १६. तत्त्वार्थवार्तिक-भट्टाकलदेव । पृ० १२२ । ' सार-३४ ।
१७. अध्यात्म अमृतकलश-आ० अमृतचन्द'टीकाकार। 5. गुणपर्ययवद्रव्यम् ५.३८ ।
पं० जगगन्मोमनलाल शास्त्री २५२ पृ० ३५३ । । उत्पादव्यय धौव्ययुक्तं सत् ५.३० ।
(शेष पृष्ठ २३ पर)
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पचास वर्ष पूर्व-
दो मौलिक-भावण
[ अतीत के संस्मरण उस काल की स्थिति के दर्पण होते हैं। आज से ५० वर्ष पूर्व जाति समाज और देश की क्या स्थिति थी और साहू-दम्पति के क्या अरमान थे, इसका पूरा चित्र निम्न दो भाषणों में अंकित है। ये भाषण सन् १९३२ के हैं जो 'स्व० साहू शान्तिप्रसाद जैन तथा स्व० श्रीमती रमारानी जैन ने अपने दाम्पत्य सूत्रबन्धन के अवसर पर दिए थे। दोनों भाषण वीर सेवा मन्दिर में लिपिबद्ध रूप मे सुरक्षित है। उन्हें पाठको के चिल्लन व तद्रूप आचरण की प्रेरणा हेतु 'अनेकान्त' में प्रकाशित किया जा रहा है। निश्चय ही साहू जी की स्मृति की चन्दन-सुरभि आज भी हमें सुवासित कर रही है। हमारे नमन । सम्पादक ]
साहू श्री शान्तिप्रसाद जंन का अपने विवाहोत्सव पर दिया हुआ भाषरण :
पूज्य गुरुजनों तथा उपस्थित सज्जनो ! आज अपना देश जिस परिस्थिति में से गुजर रहा है उन्हें विचार करते हुए विवाह की समस्या एक बडी हो जटिल व विकट समस्या हो रही है। नहीं कहा जा सकता इसके उपरान्त हम देश धर्म तथा समाज के प्रति वहाँ तक अपने कर्तव्य का पालन कर सकते है । विवाह करना एक बहुत बड़ी जरूरत तथा पहले से कई गुना अधिक जिम्मेदारी को अपने सिर पर लेना है। मेरा विद्यार्थी जीवन होने से यद्यपि मैं इस जिम्मेदारी को उठाना नही चाहता था, परन्तु अपने हितैषी गुरुजनों और आप सब सज्जनों की जब यही इच्छा है तथा आज्ञा है कि मुझे इस गृहस्थाश्रम के जुए को उठाना ही चाहिए तब मेरे लिये उसके आगे नतमस्तक हो जाने के सिवाय और कोई चारा नहीं रह जाता। ऐसी दशा मे इस विवाहोत्सव में सम्मिलित होने के लिए आप सब सज्जनों को को कष्ट हुआ है उसके लिए आभार प्रकट करने तथा स्वागत करने का मेरा अधिकार नहीं रह जाता।
विवाह सम्बन्ध एक नैतिक और धार्मिक सम्बन्ध है जो दो प्राणियों को अपनी अध्यात्मिक तथा लौकिक उन्नति तयां अग्ने देश व समाज की सेवा के लिये सहायक होता है। विवाह नियमित संबम है। इसमें सन्देह नहीं यह एक प्रकार का बन्धन भी है। स्त्री के लिये पुरुष और पुरुष के लिये स्त्री बन्धन रूप है। इस बन्धन को स्वीकार करने
पर मनुष्य बहुत से अंशो में अपनी स्वतन्त्रता खो बैठता है तरह-तरह की चिताओं आपदाओं तथा जिम्मेदारियों के दलदल में फंस जाता है, इस तरह एक अच्छा खासा बन्दी बन बैठता है ।
समाज और देश की गिरती हुई दशा को रोकने के लिये बड़े सुधारो की नितान्त आवश्यकता है । विवाह आदि अवसरों पर तो फिजूलखर्ची, आडम्बर बनावट और बेहूदी रम्मी ने अपना घर बना लिया है इनसे एकदम छुटकारा पाना कतई जरूरी है। इस अवसर पर जो कुछ भी सुधार हो सका है उसका विशेष श्रेय पूज्य श्रीयुत सेठ डालमिया जी को है। वह धन्य है। किन्तु यह भी मानना पडेगा कि अभी और बहुत से सुधारों की गुंजायण इसमे रह जाती है।
संसार विशेषकर हमारा देश इस समय बिल्कुल एक निर्धन अनियन्त्रित और अनियमित स्थिति में से गुजर रहा है। हमारा भविष्य देश के भविष्य पर निर्भर है । अभी भविष्य अन्धकार मे है। नहीं कहा जा सकता कि जीवन गति क्या होगी।
परमपिता परमात्मा से प्रार्थना है कि वह हम दोनों को बल प्रदान करें। हममें इस भार को सहन करने की शक्ति हो। आप गुरुजन और महानुभाष हमको आशीर्वाद
दें कि हम अपनी जीवन नौका को संसार समुद्र में हर प्रकार के कष्ट आंधी- झोंकों का सामना करते हुए अपने ध्येय पर पहुच सकें।
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पचास वर्ष पूर्व से बोलिक भाषण श्रीमती रमा जैन का अपने विवाहोत्सव पर दिया हुमा भाषण : श्री परमात्मा देव व पूज्य महानुभावों को प्रणाम उसके अभिभावक उसे कुमारी रखने में पाप मान कर, करते हुए सबसे पहले मैं आप सबका हृदय से अभिनन्दन बिना पात्र का विचार किये चाहे जहां उस बेचारी को करती है जिन्होंने हमारे लिये इतनी कड़ी गर्मी की मौसम ढकेल देते है, या कही से कर्ज मिल सका तो कर्ज लेकर, में यहां आने का कष्ट उठाया है फिर इसके बाद जिम घर-वार बेच कर जन्म भर के लिये दुखी हो जाते हैं और कार्य के लिये यह समारोह रचा गया है उसके विषय में मै प्रत्यक्ष मे यह सिद्ध कर देते है कि भारतवर्ष मे गरीब घर कुछ कहना चाहती हूं।
मे कन्या का जन्म होना ही एक प्रकार का देवी कोप है। आप जानते है कि आजकल सारे संसार मे दुख
कही-कही तो बेचारी लड़कियों को आत्महत्या तक करनी
पड़ती है। पञ्जाब के आधुनिक सन्यासी स्वामी राम के छा रहा है। कही राष्ट्र आपस में लड़ रहे हैं, कही बेकारी से, कही काम की अधिकता से, कही अकाल मे, कही वाक्य मुझे इस समय याद आ रहे है। (overproduction) अर्थात् पैदावारी की बहुतायत से,
An average Indian home is typical of the
state of the whole nation-Very slender means कही स्वतन्त्रता के अभाव मे, कही स्वर्ण के अभाव मे. कही स्वर्ण की बहुतायत से दुख हो रहा है फिर भारतवर्ष
and not only yearly multiplying mouths to
feed but slavishly to incur, undue expences in का तो कहना ही क्या जो सैकडो वर्षों से गुलामी की जजीर मे जकडा हुआ है, जहाँ धर्म के नाम से अधर्म
meaningless and cruel ceremonies of marriage
etc. करते हुए हिन्दू-मुसलमान ही नहीं, हिन्दुओ मे, मनातनी
____ भारतवर्ष का साधारण गृहस्थ सारे राष्ट्र की दशा आर्यसमाजी, जैनियो में श्वेताम्बरी, दिगम्बरी, मुसलमानो
का चित्र है। बहुत थोडी-ती तो आमदनी और तिस पर में सिया, सुन्नी, छोटी-मोटी बातों पर जिनमें कुछ भी
प्रति वर्ष खाने वालों (सन्मानों) की संख्या में वृद्धि ही नहीं तथ्य नही है लडते है जहां के ही नही करोड़ों मनुप्प अन्न
वरन् विवाहादि की दुखदायी रस्मो में द्रव्याभाव से के महगे होने से, मस्ते नही होने के कारण एक ममय भी .
अनुचित खर्च । पेट भर न खकर किसी तरह उदराग्नि को शान्त करते
____ मुझे दुःख के साथ कहना पड़ता है कि मेरे विवाह में हैं और उस हमारे दुख को देख कर ममार के सर्वश्रेष्ठ
जितनी सादगी मैं चाहती थी वह कुछ भी नहीं हुई। मुझे पुरुष महात्मा गाधी अपने माथियों सहित असंख्य आदमियों
विश्वास है कि यदि पूज्य बापू जी और पूज्य श्री जमनालाल को लेकर जेलो में तपस्या कर रहे है। जिनके लिये वे
जी बजाज जेल से बाहर होते तो ऐसा कभी नहीं हो जेलों में सड़ रहे हैं वही हम अपना समय खेल, तमाशा,
पाता। आमोद-प्रमोद और गुलछरों में व्यतीत कर रहे है। क्या
भारतवर्ष जब धन-धान्य से परिपूर्ण था, दूध और घी शर्म की बात नही है ?
मनों के भाव ही नही, दूध को लोग बेचना पाप समझते थे, क्षमा करेंगे, विवाह संस्कार हिन्दू धर्म के सोलह उस समय विवाहादि की प्रत्येक रश्मे कुछ-न-कुछ तथ्य को संस्कारों में एक मुख्य था जिमको परिवर्तन करते-करते लेकर चलाई गई थी पर अब दूध तो दूर रहा पानी, तक. हमने यहाँ तक बदल दिया कि जिनका विवाह किया जाता के दाम देने पड़ते हैं। हर एक बातें समयानुसार बदलती है उन्हें इसके रहस्य तक का पता नही रहा और मुड्डे- रहती है अब हम इन रश्मों के भावार्थ को भूनकर लकीर गुड़ियो का खेल बना दिया। कई समाजों में तो इसका के फकीर रह गए। कुप्रथाओं को बन्द करने की दृष्टि से यहाँ तक पतेन हो गया है कि गरीब घर की लड़की को क्या मैं यह प्रार्थना दोनों तरफ से कर सकती हूं.कि कम चाहे वह कितनी ही सुशीला, योग्य और बुद्धिमती हो मे कम इम विवाह में न तो गहना और न बढेज दें। विवाह धनाभाव के कारण आजन्म कुमारी रहना पड़ता है ओर के बाद तो कौन अपनी कन्या को नही देता और कोन
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२२,३०२
किसको रोक सकता है? दूसरी तरफ बहने की ? दरकार ही क्या है जब सारी सम्पत्ति में ही मेरा अधिकार हो जायगा । इस समय की स्थिति को देखते हुए यदि हमारी गहने पहनने की इच्छा होती है, तो देश, समाज और ईश्वर के प्रति अन्याय और महापाप है। स्त्रियों का गहना सो लज्जा है और वह लज्जा घूंघट और पर्दे से नहीं होती । वैसे तो हम घूंघट निकालती हैं, वह भी केवल परिचितों से और दूसरी तरफ बड़ों का कहना तक नहीं मानती। हमें यदि लज्जा करनी चाहिए तो झूठ से व्यर्थ के आडम्बरो से बुरे कामों से, फैशन तथा भोग-विलासों से । हमारा शरीर सांसारिक सुखों के लिये नहीं, भगवन् प्राप्ति के लिये हुआ है। यदि हममें विशेष ज्ञान है और हम उसका सदुपयोग नहीं करते तो हम मनुष्य होते हुए भी बिना सींग के के समान हैं। पशु
विवाहिक संस्कार के अनन्तर गृहस्व धर्म की एक बड़ी भारी जिम्मेदारी हम अपने ऊपर ले लेते हैं । उस समय यदि गृहस्थ रूपी वायुयान मे पति-पत्नी रूपी पंखों से, पूर्वजन्म के कर्मरूपी पेट्रोल से और बुद्धि रूपी Pilot द्वारा दुनियाँ के प्रलोभनों आदि आंधी-तूफानों से बचते हुए संसार यात्रा करें तो अपने लक्ष्य को पहुंच कर सुखी हो सकते हैं पर जिसने अपनी इन्द्रियों को और पूज्य महात्मा जी के मतानुसार कम-से-कम स्वादेन्द्रिय को ब में नहीं किया, चाहे वह कैसा भी पंडित M. A. LL.B. आदि डिग्री धारी, प्रोफेसर, जज, सुधारक और देश सेवक भी क्यों न हों उसमें और एक वे समझ बालक में कुछ भी अन्तर नहीं है ।
इस समय हम सब भयानक विपत्ति में फंसे हुए हैं। दिन-प्रतिदिन आयु बढ़ती नहीं घटती जा रही है। ऐसी अवस्था में हमें अपना एक ध्येय निश्चित कर लेना चाहिए। मनुष्य योनि का फल ही ईश्वर प्राप्ति है' उस ईश्वर प्राप्ति के अलग-अलग मार्ग हो सकते हैं। कौन-सा रास्ता ग्रहण करना यह अपना-अपना अधिकार है। किसी के लिये देश सेवा जेल जाना, लाठी खाना, बहर प्रचार करना आदि ठीक हो सकता है, किसी के लिये गृहस्थ में नियमित रह कर दान धर्म आदि करते हुए गृहस्थधर्म का पालन करना ठीक हो सकता है किसी के लिये एकान्त में
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चान्स
भगवान का भजन करना ठीक हो सकता है और कोईकोई भ्रम से अधिकारियों की खुशामद करके देशद्रोही बनना भी ठीक समझते हैं यह सब अपनी-अपनी रुचि भावना और विश्वास पर निर्भर करता है ।
शायद आप उकता गए होंगे अब मैं आपका १-२ मिनट समय और लूंगी। आजकल प्राय:
All marriage relations brought about by attachment to the colour of the face to the outlines of the countenance to figure, form or personal beauty, and in losses and are very unhappy?
सभी ऊपर के दिखावे को लेकर चेहरे की सुन्दरता पर मुग्ध रहते हैं भीतर के गुणों की ओर कोई नहीं देखता इसका परिणाम आगे जाकर दुःख होता है जैसा कि आज कल Europe और America में सैकड़ों और हजारों की तादाद में Case court में जाते हैं ।
The aim of the husband and wife should be elevation of marriage tie and not money making and wrong use of family relation.
स्त्री-पुरुष दोनों को एक-दूसरे पर भार स्वरूप न होकर सुख-दुख के भागी होना चाहिए ।
सज्जनों विवाह की रश्में करनी बाकी हैं इसलिये बाल विवाह वेमेल घिवाह, स्त्री शिक्षा आदि विषयों पर मैं कुछ भी नहीं कहूंगी। अन्त में आपके कष्ट के लिये आभार मानती हुई प्रार्थना करती है कि आप सब हमें सत्य पथ पर चलने का आशीर्वाद दें और खादी पहनने का प्रण करें। बादी का महत्त्व तो पूज्य बापूजी के कारण एक छोटे से बच्चे से लेकर बुड्ढे तक को मालूम है । हमारे धर्मों में और खास कर जैनधर्म में तो अधिक ही परम धर्म माना गया है। मिल और विलायती वस्त्रों में कितनी हिन्सा होती है यह तो किसी से छिना नहीं होगा फिर इसे यहां दुहराने से क्या फायदा? हां एक बात मैं सुधारकों के प्रति कहना भूल गई। स्वामी राम ने कहा है
Young would-be Reformer ! decry not the ancient customs and spirituality of India. By introducing a fresh element of discord, the Indian people can not reach unity.
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पचास वर्ष पूर्व-दो मौलिक भाषण भावी नवयुवक सुधारको भारत की पुरानी रिवाजों समझ लिया है। और अध्यात्मिकता' की निन्दा न करो। व्यर्थ की नयी मैं आपसे फिर प्रार्थना करती हैं कि आप अपने राष्ट्र बातें निकाल कर झगड़ा पैदा करने से भारतवासियों में के लिये अपने पूज्य नेताओ के लिये, राजा अग्रसेन के लिये, कभी एकता नहीं हो सकती। आज कल वाह्य सुधारकों ने अपनी भावी सन्तानों के लिये, अपने लिये, और मेरे लिये पुरानी बातों को चाहे वे बुरी हों या अच्छी मिटाना और खादी पहनने का व्रत लेवें। उनकी जगह नयी बातें निकालना ही एक महत्व का काम
(पृष्ठ १६ का शेषांश) १६. तत्त्वार्थवातिक प्र० भाग संपादक प्रो० महेन्द्रकुमार २२. णियमवयणिज्जसच्चा सवनया परवियालणे मोहा । ___न्यायाचार्य हिन्दी सार पृ० ४२०-४२१
ते उण ण दिट्ठसमओ विभमइसच्चेव अलिए वा ॥ १९. तत्त्वार्थवातिक प्र० भाग संपादक प्रो० महेन्द्रकुमार
सन्मति प्रकरण ॥२८॥ न्यायाचार्य हिन्दी सार ११६ पृ० १८७ ।
२३. तत्त्वार्थवार्तिक: अकलदेव संपा०पं० महेन्द्रकुमार २०. अपितानर्पित सिद्धे-सर्वार्थसिद्धि-पूज्यपाद ५-३२।
जी भाग १, पृष्ठ ३६, १/६ । २१. भयणाविहुभइयत्वा जइभयणाभयइ सव्वदच्वाइ । एवं भयणा णियमो वि होइ समयाविरोहेण ॥ २४. सिद्धिविनिश्चय टीका भाग १ सम्पादक प्रो० महेन्द्र
सन्मतिप्रकरण ३-२७। कुमार जी प्रस्तावना पृष्ठ ६१ ।
दुखद-वियोग वीर सेवा मन्दिर के परम-हितेषी एवं जन वाङ्मय के अनन्यसेवी, महामनस्वी स्व० ला. पन्नालाल जी अग्रवाल जीवन पर्यन्त धर्म प्रभावना एवं साहित्योद्धार के लिए सतत प्रयत्नशील रहे । वे दोर्ष काल तक वीर सेवा मन्दिर कार्यकारिणी के सदस्य भी रहे।
वीर सेवा मन्दिर परिवार उनके दुखद निधन पर हार्दिक संवेदना प्रकट करता है और स्वर्गीय आत्मा की सद्गति की प्रार्थना करता है।
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होनहार युवक स्व. राष्ट्रदीप (सुपुत्र श्री रत्नत्रयधारी जैन, प्रकाशक 'अनेकान्त') का हृदयगति बंद होने से असमय में निधन हो गया। दिवंगत आत्मा को सद्गति और कुटुम्बियों को धैर्य की क्षमता हो, ऐसी कामना है।
'असारे खलु संसारे मृतः को वा न जायते।' 'राजा राणा छत्रपति हाथिन के असवार । मरना सबको एक दिन, अपनी अपनी बार ।।'
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वर्तमान जीवन में वीतरागता की उपयोगिता
कु० पुखराज जैन, एम. ए., जयपुर
जीवन जीने का नाम है, जीना एक कला है और वस्तु अपने आप में अच्छी-बुरी नहीं। अच्छे-बुरे की कसोटी दुनियाँ में कला के कलाकार चंद लोग ही हुआ करते है। सार्वभौमिक व सार्वव्यापिक नहीं। यह कसौटी हमेशा जीते तो सभी हैं गरीब-अमीर, विद्वान-मूर्ख, लेकिन गौरव- व्यक्तिपरक ही हुआ करती है जिसका आधार इच्छापूर्ण जीवन उसे ही कहा जायेगा जिसमे जीवन के अधिका- अनिच्छा अर्थात् अनुकूल विषयों से राग व प्रतिकूल विषयो धिक क्षणों में सुख की अनुभूति हो । 'जीवन' का दूसरा से द्वेष है इसी आधार पर यह इष्ट विषयों का संभोग नाम है-'सूख की अनुभति' और जब प्राणी सुख की और अनिष्ट विषयों का वियोग चाहता है। और जब अनुभूति करता है (दुख की भी) तब अनुभूति के काल से पूर्ण पुण्य का उदय नहीं होता तो इष्ट विषयों की प्राप्ति निकल कर आने के बाद ही उसे जीवन के अस्तित्वपने का नहीं होती और व्यक्ति आकुलित होकर दुखी होता है। वोध होता है और तत्क्षण उमे जीवन की गरिमा अनुभव कुल मिला कर यही आज के व्यक्ति की स्थिति है में आती है। निरन्तर व्यक्ति के सुख के अभाव व दुख के यह स्थिति सभी व्यक्तियो (गरीब-अमीर, स्त्री-पुरुप, वेदन की स्थिति 'जीवन' नही, 'जीवन' के नाम पर होने बालक से वृद्ध) मे पायी जाती है। व्यक्ति अपनी ही इच्छा वाला 'निरन्तरण मरण' ही है । और ऐसा 'जीवन' जीवन अनिच्छा से परेशान है विकल है, सतप्त है और इस आशा के नाम पर 'कलक' ही है।
से कि भविष्य में मेरी आशा पूरी होगी उसी अंधी दौड़ वर्तमान भौतिक सभ्यता व्यक्ति को ऐन्द्रिक सुख को मे शामिल है-यही वर्तमान जीवन का शब्द चित्र है। ओर उन्मुख करती है। वर्तमान में विज्ञान व तकनीक के अत्यल्प प्रतिशत ऐसे मुमुक्षुओं का है जो इस प्रकार 'आशातीत विकास ने पंच इन्द्रिय के भोगों की प्रचुर मात्रा की आकूलता विकलता दु ख व परेशानी से मुक्ति पाने के व्यक्ति को भेंट की है और यह मेंट निरन्तर वृद्धिगत है। लिए सही उपाय की खोज मे प्रयत्नशील है और सुख का विषय-भोग के साधनों की प्रचुरता व्यक्ति को काफी हद मार्ग खोजकर तत्परता से उस मार्ग पर चलने को कृततक अपने आप से (अध्यात्मिक दृष्टि से) दूर करने के सकल्प है। यह मार्ग 'वीतरागता' का है, सुख का कारण लिए जिम्मेदार है । जो व्यक्ति के लिए दुःख का कारण है, मुख रूप है, भले ही इस मार्ग को जानने वाले, मानने है लेकिन व्यक्ति भुलावे में है और वह उस विज्ञान की बाले व इस पर चलने वाले अति अल्प हों लेकिन यह भेट को स्वीकार करने और निरन्तर भोग करने में अपने मार्ग तीन काल व तीन लोक में सच्चा है इस पर चलकर आपको व्यस्त पाता है। और किन्ही क्षणो मे सुख का सच्चा-सुख प्राप्त करने वाली महान आत्माएं सूर्य की अनुभव भी करता है, लेकिन अन्ततोगत्वा भौतिक सामग्री भाति इस मार्ग को सदैव समय-समय पर आलोकित करती व इच्छाएं-वासनाएं दोनों ही उपलब्ध व उपस्थित होने के है। (तीर्यकर की दिव्यवाणी) अंधकार में भटकने वाले बाबजद भी व्यक्ति अपने आपको भोग भोगने में असमर्थ इस आलोक से प्रकाश प्राप्त करते है और इस प्रथानुपाता है और परेशान होकर नवीन सिरे से सुख की खोज - गामी बनकर पूर्ण वीतरागता को प्राप्त हो जाते है । वोतकरता है। वह देखता है-"विषय-भोगों की सामग्री रामता की महिमा गाते हुए विद्वद्वर्य पंडित दौलतराम प्रचर मात्रा में मेरे सामने है और इच्छाएं भी हैं लेकिन जी ने लिखा है.- - -
.'. विषय भोग के बाद भी इच्छाएं समाप्त नही हो पा रही तीन भवन में सार, वीतराग विज्ञानता। हैं तो वह समझता है कि कभी समाप्त होने वाली यह शिव स्वरूप शिवकार, नमहुं त्रियोग सम्हारिक । इच्छाओं की कतार ही मुझे आकुलित व्याकुलित व दु.खी -- जो "वीतराग विज्ञान" तीन लोक में सार तत्व है करती है।" यह पुनः सोचता है इच्छा-अनिच्छा का मूल उसे दौलतराम जी ने वीतरागता की महिमा मोक्ष सुख राग-द्वेष है-अर्थात् आत्मा का विकारी परिणाम है। देने वाली व मोक्ष स्वरूप होने की वजह से . गायी है।।
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वर्तमान जीवन में बीतरागता को उपयोगिता
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आचार्य उमास्वामी ने तो वीतराग भगवान को वीतरागता उसका वर्णन करने से अनुभवहीन पुरुष को किंचित मात्र की प्राप्ति हेतु ही नमस्कार किया है।
भी सुख का बेदन नहीं होता। यदि उसे अपने इस जीवन मोक्ष मार्गस्य.........''वंदे तद्गुण लैब्धये। को भी सुखमय व गौरवपूर्ण बनाना है तो स्वयं में स्थित
यतमान में व्यक्ति का दुःख का मूलकारण कर्मबन्ध निजात्म तत्व को पहिचानना, मानना, जानना व सुमेरु है और कर्म क्ध का कारण है राग-जहाँ राग पाया सदृश अटल श्रद्धा करना होगा जाता है वहाँ द्वेष युगपत रहता है। रागी और विरागी पूर्ण वीतरागता तो मोक्षरूप ही है, लेकिन यदि वर्तके भविष्य का निर्धारण करने वाली "प्रवचन सार" में मान जीवन में मात्र वीतरागता के प्रति सच्ची एक प्रमुख गाथा है।
हो तो जीवन सुख-शांति से व्यतीत हो सकता है तभी तो रत्तो बंधदि कम्म....."जीवाणं जादा णिच्छयदो ॥७६१ जैन व्यक्ति नित्य प्रति वीतरागता के दर्शन को कृतसंकल्प
रागी आत्मा कर्म बांधता है और राग रहित आत्मा है और इसलिए उनका जीवन अन्यान्य अपेक्षाओं से सुखकर्मों से मुक्त होता है। इस प्रकार राग दुःख का और मय भी है उनके जीवन में विकलता आकुलता कन अववीतराग स्वतः ही सुख का कारण हो जाता है। सरो पर ही देखी जाती है।
इसकी उपयोगिता जहाँ मोक्ष सुख के रूप में स्वय ऐसा तभी हो सकता है जब व्यक्ति अपने जीवन की सिद्ध है वहाँ वर्तमान जीवन में किसी भी प्रकार कम नही। कीमत समझे और इसी वर्तमान जीवन को अनागत जहाँ १२वें गुणस्थान मे सूक्ष्म राग का नाश होकर (पूर्ण) भविष्य की जन्म-मरण करने की शृंखला को कम करने सूख दशा वर्तती है, यह तो वर्तमान जीवन में सम्भव नही के लिए समर्पित कर दे। और ऐसा करने के लिए व्यक्ति इसलिए यह अवस्था तो फिलहाल अनुभव से परे है लेकिा को निरन्नर होने वाले दुख के वेदन को समझना होगा इस प्रक्रिया की शुरुआत तो अभी इस समय आबाल-गोपाल आर सच
और सच्चे अर्थों में सुख शातिभिलाषी होना होगा। प्राणिमात्र को ही हो सकती है और उसमें होने वाले
वीतरागता अर्थात् एक समय के लिए भी बहिर्मख आशिक सूख के वेदन से इंकार भी नही किया जा सकता। दृष्टि अन्तर्मुख हो-मात्र दृष्टि के अन्तर्मुख होने पर दुःख
दृष्टि अन्तमुख हा-मात्र दृष्टि क अन्त जैन धर्म के दो ही मुख्य उपदेश है, जिनकी विलक्षगता
परेशानी आकुलता-विकलता के छू मंतर होने की प्रक्रिया को देखकर हम अन्य भारतीय धर्म व दर्शनों से जैन धर्म आरम्भ हो जाती है। इस प्रकार वीतरागता तत्काल
सुखदायी है कोई अनुभव तो करे। को भिन्न कर सकते है वह है स्वतत्रता व वीतरागता पर ।
"युगल जी का एक वाक्य समय-समय पर मस्तिष्क से (द्रव्य-कर्म, नो कर्म, भाव-कर्म)-भिन्न निजात्म तत्व
को आदोलित करता है। "एक क्षण भी जीओ, गौरवपूर्ण के प्रति सच्ची श्रद्धा व एकत्व बुद्धि होने पर "आत्मानु
जीवन जीओ" ठीक ही तो है सुखमय जीवन का दूसरा भूति" होती है और इसी के द्वारा वीतरागता की प्राप्ति
नाम है गौरवपूर्ण जीवन; और यह 'गौरवपूर्ण सुखमय होती है इस काल में जिस आंशिक सुख का वेदन होता है गुणात्मक रूप से वह मोक्ष में प्राप्त होने वाले अनन्तगुणा जीवन में वीतरागता को अपनाने के साधन यद्यपि मख में समानता रखता है इस प्रकार वीतरागता नितान्त सख के साधन वीतरागी देव (वीतरागी मत) पर्वापर "वैयक्तिक" हो जाती है लेकिन अध्यात्म की शुद्ध दृष्टि के
विरोध रहित बात करने वाले पवित्र शास्त्र व वीतरागी बिना आत्म तत्व व वीतरागता समझ में नही आती।
पथ पर चलने वाले बिरागी साधु जैन धर्म में सरागता
" """ इस सुख का नकारात्मक कारण राग द्वेष रूप आत्मा की पूजा नहीं होती। बाहरी देश व आडम्बर की पूजा केबिकारी परिणामों का अभाव सकारात्मक रूप से नही. पजा है वीतरागी सर्वशव हितोपदेशी की। वीतरामी निजात्म तत्व के प्रति सच्ची श्रद्धा है। "वीतरागता"- भगवान शुद्ध सिद्धात्मा सदा ही सुख सागर से निमग्न है रागद्वेष से रहित संवेदन अर्थात् उपयोग का अन्तर्मुखी भक्तों की भक्ति से निस्पृह वीतरागी व्यक्तित्व में न पूजारी होकर निजात्म तत्व में स्थिर होना है। इस एक समय के के प्रति राग है और न निंदक के प्रति द्वेष । सदा मात्र अनुभव में होने वाले आंशिक सुख की महिमा शब्दातीत है शाता दृष्टा व सुख सागर में लीन रहने वाले देव है। ऐसे
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२६, वर्ष ३५, कि २
अनेकान्त
वीतरागी देव को "जीवन आदर्श" के रूप में स्वीकार कर व साख होती है। सदा स्थित एव समतापूर्ण दृष्टिकोण और प्रेरणा ग्रहण कर साधक उस आदर्श की ओर बढ़ अपनाने वाले व्यक्ति का मानस अपने निर्धारित क्षेत्र तक सकता है और सुखी जीवन का बीजारोपण कर सकता है। सीमित रहता है और उसे सबधित क्षेत्र में ही ध्यान के भगवान के लक्षण स्पष्ट करने में प्रथम सकेत वीतरागता संकेद्रित रखने में सहायता मिलती है। इस प्रकार व्यक्ति की ओर है। जैसा कहा है
एक और व्यर्थ की बकवाद से बचता है दूसरी ओर कम जो रागद्वेष विकार वजित लीन आत्मध्यान मे। समय मे अधिक महत्वपूर्ण कार्य मे सफलता प्राप्त करता है : वे वर्धमान महान जिन विचरें हमारे ध्यान में ॥
रागद्वेष की उत्पत्ति अज्ञान द्वारा होती है किन्तु इसका इतना ही नही वीतरागी अहंत परमात्माओ द्वारा अपराधी स्वय आत्मा है और यह ज्ञात होते ही कि मैं ज्ञान कहा गया सागर सदृश विस्तृत उपदेश वीतरागता के जल हू, अज्ञान अस्त हो जाता है। इस प्रकार वीतरागता की से आप्लावित है। जिसके अवगाहन से भव्य जीव शुद्ध । उपलब्धि मे शुद्ध ज्ञान का बहुत बड़ा कारण है किन्तु यह होता है । भागचन्द जी ने ठीक कहा है
शुद्ध ज्ञान शुद्ध दृष्टि वीतरागी दृष्टि से मिल सकता है। सांची तो गंगा ये वीतराग वाणी ।
शुद्ध दृष्टि को विकसित करने का एक मात्र उपाय वीतअविच्छिन्न धारा निज धर्म की कहानी।। रागी दर्शन, वीतरागी शास्त्र स्वाध्याय, तत्व चिंतन है और
वीतरागी पथ पर चलने वाले सच्चे गुरु तो साक्षात इसके लिए इस दिशा में अपना जीवन समर्पित करने का वीतरागता के प्रतीक व पोषक है उन्होने तो इष्टानिष्ट सकलप करना होगा। इस प्रकार वीतरागी दृष्टि विकसित की कल्पना का मूलोच्छेद कर दिया है । उनकी समता का कर अवश्य ही अन्तर में विद्यमान निज वीतराग तत्व को उल्लेख किया है दौलतराम जी ने छहढाला मे--- प्राप्त कर पूर्ण वीतरागी बनाने का मार्ग प्रशस्त होगा। अरि मित्र महल मशान कंचन कांच निन्दन थुति करन। यहां एक कवि की पक्तितयाँ सचमुच प्रेरणादायी लगती हैअर्धावतारन असि प्रहारन में सदा समता धरन ।।
राग से फूला हुआ तू, द्वेष मे भूला हुआ तू । समता वीतरागता की पोषक है समता के अभाव में ।
कभी आसू बहाता है, कभी खुशियाँ लुटाता है। वीतरागता सभव नही । समता प्रथम चरण है और वीत
जिंदगी घट रदी हर पल, अंगुलि मे भरा ज्यो जल । रागता द्वितीय । समता धारण करने पर होने वाले सुख से
एक पल रकमोच तो क्या, जिदगी की राह तेरी।
झॉक अन्तस मे लगी है, अनोखी निधियो की ढेरी।। कई गुणा सुख वीतरागता अपनाने पर होता है। समता
वर्तगन जीवन मे आवश्यकता इसी बात की है कि भौतिक की उपयोगिता केवल आध्यात्मिक जीवन मे नही, समता
सभ्यता की इस अधी दौड मे एक पल ठहर कर यह सोचे व सरलता का गुण होने से भौतिक कार्यों में भी सफलता
तो सही कि जिस राह पर हम दौड़े चले जा रहे है क्या मिलती है । आकुलता व्याकुलता समता विरोधी है । तद्
सचमुच वही मजिल है, जो हम प्राप्त करना चाहते है, जन्य मानसिक दबाव तनाव, विद्वेष परेशानी व दु.खों से
क्या वहाँ सुख-शाति मिल सकती है ? इस पर विचार कर छुटकारा समता धारण करने पर ही मिलता है। यही
शीघ्र ही अपना गंतव्य पथ निर्धारित कर उस पर चलने समता वीतरागता का मार्ग प्रशस्त करती है और इसी
का सकल्प लेने पर ही यह जीवन "जीना" कहलायेगा। समता रूपी भूमि में वीतरागता के पुष्प पल्लवित होते हैं।
सचमुच क्या ज्ञान दर्शन सुख अदि अनन्त निधियों के स्वामी जब व्यक्ति के सामने वीतरागता का आदर्श रहता है
सम्राट की उपेक्षा तिरस्कार कर और गौरवपूर्ण जीवन को तभी वह परेशानियों व संकटों से बचा रह सकता है। यद्वा
तिलांजलि दे रंक का जीवन जीना भी कोई जीना है। संकट माने पर दूसरे व्यक्ति को रागद्वेष से अधिकाधिक
व्यक्ति की बुद्धि से जब मोह का पर्दा उठेगा और निज-प्रभु विरत रहने में मदद मिलती है :
के दर्शन होगे, वह घड़ी धन्य होगी, वह जीवन सफल होगा व्यवहारिक जीवन में भी यह देखा गया है कि राग- और यही होगी वीतरागता की जीवन में उपयोगिता । देष-निन्दान प्रशंसा से परे रहने वाले व्यक्ति की प्रतिष्ठा
-२-घ, २७, जवाहर नगर, जयपुर
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परिचिति
'जिन - शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग'
श्री पं. पद्मचन्द्र शास्त्री ने 'जिनशासन के कुछ विचारणीय प्रसंग' शीर्षक से प्रकाशित पुस्तिका में अपने सात लेख प्रस्तुत करके विद्वानों के लिए ऊहापोह करने तथा चिन्तन को स्फूर्त करने की पर्याप्त सामग्री दी है। शास्त्र पढ़ लेना एक बात है, परम्परा के अनुसार प्रतिपादन कर लेना भी उसी श्रेणी की एक बात है किन्तु जिन विषयो को लेकर विद्वानो में मतभेद दिखाई देता है अथवा अर्थसंगति को ठीक ढंग से पकड़ने मे शब्द या शब्दों के रूपान्तर विकल्प उत्पन्न करते है, उनसे जूझना और फिर न्याय संगत, तर्क संगत निष्कर्ष प्रस्तुत करना एक दूसरे ही प्रकार की कुशल प्रगल्भता है । पंडित जी अपनी वात असंदिग्ध होकर इसीलिए कह पाये है कि उन्होने सही अर्थों में व्यापक अध्ययन किया है और इस अध्ययन को चिन्तन-मनन द्वारा परिपुष्ट किया है ।
श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, निदेशक- भारतीय ज्ञानपीठ
ऋजु जड और वक्रजड पंडित जी ने अपना निष्कर्ष शीर्षक मे ही घोषित कर दिया--' भगवान पार्श्व के पंच महाव्रत ।'
यह लेख इतनी विदग्धता और तार्किक अकाट्यता से लिखा गया है कि विवेचन श्वेताम्बर दिगम्बर मान्यता को प्रतिपादित करने वाले अनेक ग्रन्थों की पंजिका बन गया है । 'सावद्ययोग-विरति' 'सपुत्तदार' 'बहिद्धादान' आदि की चर्चा करते हुए जब 'परिगृहीता' के भेद को शास्त्र के आधार पर स्पष्ट किया तो विचित्र निष्कर्ष सामने आया । 'ऐसा प्रतीत होता है कि अपरिगृहीता में मैथुन शक्य नही, यह भ्रम ही ब्रह्मचर्ययाम को गौण या लुप्त करने में कारण रहा है। चूंकि मुनि सर्वथा स्त्री रहित होता है, उसके परिगृहीता मानी ही नहीं गई तो वह स्वभाव से ( परिगृहीता रहित होने से ) ब्रह्मचारी ही सिद्ध हुआ = अत: उसके लिए इस याम की आवश्यकता प्रसिद्ध नही की जाती रही और चार याम प्रसिद्ध कर दिए गए। 'चातुर्याम' शब्द के व्यवहार का एक दूसरा ही संदर्भ पडित जी ने दिया है अच्छा होता यदि संदर्भ कहां का है ? यह उद्धृत कर दिया होता' - 'अजातशत्रु ने स्वय बुद्ध को बतलाया कि वह स्वयं निगंठनातपुत्त ( महावीर ) से मिले और महावीर ने उनसे कहा किनिर्ग्रन्थ 'चतुर्याम संवर संवृत' होता है- ( १ ) जल के व्यवहार का वारण करता है (२) सभी पापों का वारण करता है (३) सभी पापो का वारण करने से घुतपाप होता हैं (४) सभी पापों का वारण करने में लगा रहता है । अतः फलित होता है कि ऊपर कहे हुए चातुर्यामसंवर' के अति
सभी लेखो को पढने के उपरान्त पाठक को जो उपलब्धि होती है वह ज्ञान की समृद्धि की तो है ही, एक आह्लाद की अनुभूति भी उत्पन्न करती है कि पक्ष प्रतिपक्ष स्पष्ट हुआ और नया दृष्टिकोण हाथ लगा ।
णमोकार मन्त्र और नवकार मंत्र मे क्या अन्तर है ? ॐ की रचना - सिद्धि यदि सहमति को रेखाकित करती है। तो स्वास्तिक की संरचना के सम्बन्ध मे पडित जी का चिन्तन स्थापित प्रतीक की रेखाओं को नये मंगल- प्रदीप से उद्भासित करता है ।
महावीर
चातुर्याम की चर्चा यद्यपि पार्श्वनाथ और के कालभेद एवं दृष्टि भेद पर आश्रित मानी जाती है, किन्तु पंडित पद्मचन्द्र जी ने इस चर्चा को बाईस और चौबीस तीर्थंकरों के परिपेक्ष्य मे रखकर दो प्रकार के श्रमणों का संदर्भ दे दिया—वे जो सरलमति हैं, और वे जो छली हैं --आत्म प्रवंचक । शास्त्र की भाषा में यही हैं
१. प्रसंग -- ' दीघनिकाय - ( महाबोधि सभा, सारनाथप्रकाशन सन् १९३६) पृ. २१ पर निगंठनातपुत्त का
मत ।
-सम्पादक
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२६, पर्व ३५, कि०२
ह
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रिक्त अन्य कोई 'चातुर्याम' नहीं थे।" बुद्ध और महावीर रूप में घड़ी, ऐसा अर्थ न कर लें, नहीं तो प्राकत भी के साक्षात्कार का विषय शोधापेक्षी है।
संस्कृत हो जाएगी) प्राकृतिक है, सहज है, वाणी के ___ 'पर्युषण और दशलक्षग धर्म' लेख रोचक भी है स्वभाव में स्थित है, उसके रूप-रूपान्तर तो होंगे ही। और सूचक भी। पर्यषण दिगंबर श्रावकों में दस दिन पंडित पपचन्द्रजी की बात तर्क-संगत है कि प्राकृत का रूप और श्वेताम्बरों में आठ दिन मनाया जाता है । इसीलिए चाहे शौरसनी हो, चाहे महाराष्ट्री, चाहे अर्धमागधी के एक सम्प्रदाय इसे दशलक्षण धर्म कहता है, दूसरा अष्टा- आस-पास का, शब्द रूप तो भिन्न-भिन्न मिलेंगे । इनका न्द्रिका (अठाई)। उत्कृष्ट पर्युषण दोनों में चार मास का संशोधन क्या ? बात इतनी भर है। लेकिन लेखरूप में माना जाता है अतः चातुर्मास दोनों सम्प्रदायों में प्रचलित यही बात अच्छी खासी गभीर बन गई है। गणित जैसी है। पर्यषण दिगम्बरों में भाद्र शुक्ला पंचमी से प्रारम्भ तालिकाएं, व्याकरण के नियमः पिशल का साक्ष्य, होता है. श्वेताम्बरों में पंचमी को पूर्ण होता है । लेखक पुग्गल और पोंग्गल तादात्म्य, पाहुड़ ग्रन्थों में उपलब्ध ने इसे शोध का विषय-बताया है । हां, है किन्तु अव पाठान्तर, 'द' का लोप और 'य' का आगम-सब कुछ उन्हीं से अपेक्षा है कि इस शोध कार्य मे वह जुट जाए । चमत्कारी है। व्यापक अध्ययन का द्योतक! श्रुत-सागर और समाजशास्त्र के महोदधि में गोता
'आत्मा का असंख्यात प्रदेशित्व'-गंभीर विषय है। लगायेंगे तो रत्न निकालकर लाएगे। जब पर्युषण पर्व
सिद्धान्ताचार्य पंडित कैलाशचन्द्र जी ने इसे एक वाक्य में पर, महानिशीथ के अनुसार पंचमी, अष्टमी, और चतुर्दशी
ही सरल बना दिया । "यह कोई बिवाद ग्रस्त बिषय नही को उपवास का विधान है तो श्वेताम्बर आम्नाय में
है.. यहां अप्रदेशी का मतलब 'एक भी प्रदेश न होना' नहीं प्रचलित अष्टान्हिका की सीमा में एक पर्व छूट जाता है।
है, किन्तु अखण्ड अनुभव से है वही शुद्ध नय का विषय क्यों ? 'समयसार' की पन्द्रहवीं गाथा के तीसरे चरण
पंडित पप्रचन्द्र शास्त्री ज्ञान में जितने गुरु-गम्भीर 'अपदेश संत मज्झं' के ये जो दो रूप मिलते है, उनमे
हैं, व्यवहार में उतने ही सरल और विनयशील । उनकी औरत को लेकर विद्वानों में विवाद है कि कौन पस्तक का अन्तिम वाक्य है.से शब्द-पाठ ठीक है। 'अपदेश' वह जो पदार्थ को दर्शाए
'जवि बुक्किज्ज छलं ण घेत्तव्यं' -अर्थात शब्द, यही है द्रव्यश्रुत । सुत्त-सूत्र = सूत्रम् परिच्छित्तिरूपम् भावश्रुतं । अर्थात आत्मा और जिन शासन के बीच (मज्नं) अभेदभाव की प्रतीति । विकल्प में अर्थ है
-अन्य मनीषियों को दृष्टि में'अपदेस' अर्थात अप्रदेशी, 'संत' अर्थात शांत, मझ अर्थात मेरा । इतना ही नही-संभावना है कि 'संत' शब्द का श्री यशपाल जैन, नई दिल्ली। मूलरूप 'सत्त' या 'मत्त रहा हो। सत्त-सत्व । सुत्त जिन शासन के....'प्रसंग' में जिन तात्विक प्रश्नों शब्द भी विचारणीय है स्वत्व । मत्त की संगति बैठानी को उठाया है वे बड़े महत्त्वपूर्ण हैं। अपने गहन अध्ययन हो तो -अपदेस+अत्त+मज्झं । अत्त--आत्म । सब के आधार पर आपने जो समाधान प्रस्तुत किए है वे प्रकार का द्रविड़ प्राणायाम संभव है । कुन्दकुन्द ने जो सांगोपांग विचार के लिए पर्याप्त सामग्री प्रदान करते है। कहा है अन्त में सब आयेंगे उसी भाव पर । फिर अनेकान्त
सप्रमाण और तर्कसंगत विवेचन निश्चय ही उन विसंगत वादियों को क्या चिता?
स्वरों के बीच सौमनस्य स्थापित करने में सहायक हो 'आचार्य कुन्दकुन्द की प्राकृत' लेख में यही उचित सकता है, जो जैनत्व की एकता को खंडित करते है। रहा कि कुन्दकुन्द के इतिहास को चक्रव्यूह में ही सुर- पुस्तक की रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार क्षित रखा। रही बात प्राकृत की, सो जो प्रकृत है (विशेष कीजिए।
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जिन-शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग श्री फूलचन्द्र जो सि० शास्त्री, वाराणसी वर्क संगत हैं, जितनी मिहनत आपने की है उतनी कोई
करे तो इन पर चर्चा की जा सकेगी।' आपने जिन विषयों पर दृष्टिपात किया है और ऊहापोह पूर्वक विचारणा प्रस्तुत की है वह आपकी गहन
हिन डा० एम० पी० पटैरिया चुगरा अध्ययन शीलता का सुस्पष्ट प्रमाण है। आपकी लेखनी में बल है और एक रूपता भी । इन निबन्धो से उक्त जिनधर्म के महत्वपूर्ण प्रसंगों पर तर्क और विद्वत्ताविषयों पर अवश्य ही ऊहापोह के लिए अवसर मिलेगा। पूर्ण प्रामाणिक विवेचना की है। यह चिन्तनभराष्टिआपने जो स्वस्ति के साथ स्वस्तिक की संगति विठलाई है विन्दु शोधार्थियों के लिए पर्याप्त सहयोगी बनेगा।' वह अवश्य आपकी अनूठी सूझ है, उसके लिए आप धन्यवाद के पात्र है।
श्री वंशीधर शास्त्री, जयपुर
'ऐसे संकलन से तत्त्वान्वेषी पाठक अवश्य लाभ उठाडा० कस्तूरचन्द्र काशलीवाल, जयपुर
येंगे, क्योंकि वे किसी पक्ष से ग्रस्त नही होते । उन्हें गभीर
- शास्त्रीय-चिन्तन मनन का सुअवसर मिलेगा।' 'पुस्तक मे जिन प्रश्नों को उठाया गया है, वे वर्तमान । युग के बहुचर्चित प्रश्न हैं, आपने उनका समाधान भी प्राचीन ग्रंथों के आधार पर बहुत तर्कपूर्ण शैली में किया
श्री बाबूलाल पाटौदी, इन्दौर है। इससे पुस्तक बहुत ही उपयोगी बन गई है। आपकी 'पुस्तक को मैने पढा, अध्ययनपूर्ण पद्धति से आपने भाषा भी बड़ी प्रांजल होती है तथा विषय का प्रतिपादन श्वेताम्बर एवं दिगम्बर आम्नाय के ग्रन्थों के आलो भी सून्दर ढग से करते है ऐसे उपयोगी प्रकाशन के लिए पश्चात् जो तथ्य प्रगट किये हैं, उससे निश्चय ही मतिभ्रम आपको एवं वीर सेवा मंदिर के अधिकारियो को हार्दिक का निरसन होगा। आपकी खोजपूर्ण शक्ति, स्पष्टवादिता बधाई।
वस्तु को रखने का ढंग सभी से मैं प्रभावित हैं।'
Dr. B. D Jain Principal J.H.S.S., New Delhi.
डा० राजाराम जैन, पारा
"जिनशासन....."प्रसंग' वस्तुत: जैन सिद्धान्त के कुछ गूढ रहस्यों का नवनीत है । इसमे पिष्टपेषण नहीं है, कुछ मूल मुद्दों पर स्वतन्त्र दृष्टि से निर्भीक एवं मौलिक चिंतन प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार का मौलिक चितन एवं उसका प्रकाशन वीर सेवा मन्दिर के मूल उद्देश्यों के सर्वथा अनुरूप है।'
'Jin Shasan Ke Vicharniya Prasang' by Pandit Padamchand Shastri is a painstaking study in which he has tried to explore, with utmost objectivity, very deep and controversial subjects on Jainology. He has a keen insight and his approach is very objective and rational. The references to the scholarly works of Digamber, Swetamber and other
Acharyas bear a testimony to this fact. Panditji has provided a food for further thought to the scholare on I study undoubtedly reveals his originality, depth and mastery on the subject.
डा०प्रेमचन्द 'सुमन', उदयपुर
'जिनशासन....."प्रसंग' से यह जानकर बहुत संतोष हुआ कि कम से कम आपने विद्वान् जगत में कुछ मंथन करने की सामग्री तो दी। अन्यथा आज का शोध दिनों दिन मोथरा होता जा रहा है। परिश्रम और पनी दृष्टि का अभाव खलने लगा है। संकलित निबंध स्पष्ट और
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जरा सोचिए !
१. संयोग और वियोग?
हैं ? संयोग (अशुद्धि) की ओर या वियोग (शुद्धि) की वस्तु के 'स्व' में 'पर' का मेल संयोग कहा जाता है।
ओर ? कही हम सयोगो को अच्छा मान उनसे चिपके तो और ऐसी पर्याय 'सयोगी पर्याय' होती है। संयोगी पर्याय नही जा रहे ? या-वियोगों में दुखी तो नहीं हो रहे ?
जरा सोचिए ! सर्वथा अशुद्ध होती है चाहे वह शुभ, शुभतर या शुभतम ही क्यों न हो। इसके विपरीत-शुद्धपर्याय हर वस्तु में
२. क्या मरण वास्तविक है ? स्व-जाति को लिए हुए सर्वदा और सर्वया बन्धरहित, अन्यत्व रहित, भेदों से मुक्त, अपने में नियत और पर
पर्याय विनाशीक, क्षण-क्षण मे बदलने वाली है। असंयुक्त होती है-इस पर्याय मे अन्य सबका पूर्ण वियोग
आपको और हमें पता ही नही चलता कि किस समय, होता है। इसका तालर्य ऐसा समझना चाहिए कि संयोग
वया बदल जाता है । हाँ, बदलता अवश्य है। बाल काले और वियोग दोनों के फल क्रमश अशुद्धि और शुद्धि है
से सफेद होते है, बालकपन से युवापन आता है और वृद्ध
स अर्थात् सयोग अशुद्धि में और वियोग शुद्धि में निमित्त है। पन भी। एक दिन ऐसा भी आता है कि प्राणियो का लोक में भी संयोगी (मिलावटी) अवस्था को नकली और भौतिक शरीर भी उन्हें छोड़ देता है और उन्हें मतक वियोगी (मिलावट रहित) अवस्था को असली कहते हैं नाम से पुकारा जाता है। ये सब कैसे और क्यो कर घटित और लोग इसी भाव में वस्तुओं के मूल्य आंकने की हो रहा है । व्यवस्था करते हैं। सुवर्ण में जितने-जितने अश में स्व- बाज लोग समय को दोष देते हैं। कहते है समय जाति भिन्न-पर-किट्रिमादि का संयोग होता है उतने- बदल गया तो सब बदल रहा है । पर, जैन-दर्शन के आलोक उतने अंश में उसका मूल्य कम और जितने-जितने अश मे में सांसारिक सभी वस्तुयें और संसारातीत सिद्ध-भगवान पर-किट्टकालिमादि का वियोग होता है उतने-उतने अंश भी प्रति समय अपने में बदल रहे है-सिद्धों में षड्गुणी में उसका मूल्य अधिक आंका जाता है।
हानि-वृद्धि चलती है और सांसारिक वस्तुयें अपनी पर्यायों
में स्वाभाविक, स्वतः परिणमन करती रहती हैं-सभी में तीर्थंकरों ने इसी मूल के आधार से सयोगो के त्याग
नयापन आ रहा है। पुरानापन जा रहा है और सभी अपने और वियोगो के साधन जुटाने का उपदेश दिया है। वे
स्वभाव में ध्रव हैं-द्रव्य-स्वभाव कभी नहीं बदलता । जैसे स्वयं काय से तो नग्न-अपरिग्रही थे ही, उनमें मनसा
अंगूठी के टूटने और कुण्डल पर्याय को धारण करने पर भी और वाचा भी पर के वियोग रूप पूर्ण अपरिग्रहत्व था
सोना सोना ही है वैसे ही षड्द्रव्य परिवर्तनशील होकर भी पर का असंयोग था। वे अपरिग्रह-वीतरागता पर सदा
अपने स्वभाव रूप ही है। लक्ष्य दिलाते रहे। जिस-जिस परिमाण मे परिग्रह की
संसार मे जिसे 'मरना' नाम से कहा जाता है और न्यूनता में तरतमता होगी उस-उस परिमाण में पर-भावों
जिसमें लोग संतप्त होते-रोते-धोते हैं, वह वस्तु का नाश -हिंसा झूठ, चोरी और कुशील आदि का परिहार भी
नहीं अपितु पर-भाव का वियोग मात्र है-यदि ऐसा होगा और ये परिहार स्वाभाविक-बिना किसी प्रयत्न
वियोग सदा काल बना रहे और पर का सयोग न हो तो के होगा।
वस्तु सर्वथा शुद्ध-सिद्धवत् निर्मल है-इसमें संताप वस्तु की उक्त स्थिति के बावजूद-जब संयोग में कैसा? लोक में जिन प्राणों के उच्छेद को मरण कहा अशुद्धि है और वियोग में शुद्धि है, तब हम कहा जा रहे जाता है, वह मरण व्यवहार ही है। निश्चय से तो मरण
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जरा सोधिए !
है ही नही । तथाहि
विपर्यास का भय रहता है।' 'प्राणोच्छेदमुदाहरन्ति मरण, प्राणं किलस्यात्मनो.।
यह सभी जानते है कि हमारा समाज मुख्यतः ज्ञानं तत्स्वयमेव शास्वततया नोच्छिद्यते जातुचित् ।।' व्यवसाई समाज है और धर्म सम्बन्धी विशेष ज्ञान के
लोक में स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण, मन-वचन- अभाव में उसका धार्मिकसम्बन्ध मात्र परंपरागत श्रद्धा काय, आयु और श्वासोच्छ्वास के रहने को व्यवहार से से ही जुड़ा रह गया है । घामिक आचार विचार की प्राण कहा जाता है और इनके उच्छेद को मरण कहते है। दृष्टि मे तो वह सर्वथा विद्वानों से बंधकर ही रह गया पर, वस्तुत. ये पुद्गल मे होने वाले विकार भाव है। ये है और उसने अपनी श्रद्धानुसार अपने विद्वानों-गुरुओं का आत्मा के प्राण कैसे हो सकते है ? प्राण तो वे हैं जो चयन कर लिया है। फलत: आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तशाश्वत् साथ रहें-तद्रूप हों। आत्मा का प्राण तो ज्ञान चक्रवर्ती के बचनों में समाज को दोषी करार नहीं दिया है जो सदा आत्म-रूप है-कभी भिन्न नहीं होता फिर जा सकता। वे कहते हैऐसे में आत्मा के मरण की सम्भावना ही कैसे हो सकती 'सम्माइट्ठी जीवो उवइटें पवयणं 'तु सद्दहदि । है ? लोग मरण से क्यो भयभीत है ? कहीं इस भय में मोह
सद्दहदि असब्भावं, अजाणमाणो गुरुणियोगा॥'तो कारण नही, जरा सोचिए ।
अर्थात् अज्ञानी गुरु के उपदेश से सम्यग्दृष्टि जीव (भी) ३. कौन किसके पीछे दौड़े ?
विपरीत तत्व का श्रद्धान कर लेता है । और सम्यक्त्वी 'खेद यह है कि वर्तमान दिगम्बर सम्प्रदाय स्वयं कून्द- बना रहता है। कुन्द आम्नाय को मानता है, परन्तु उनकी मूल-कृतियो
दूसरी ओर, विद्वानों-गुरुओं की व्यवस्था अपनी का प्रामाणिक सपादित सस्करण प्रस्तुत नहीं कर सका। है। कीन विद्वान-गुरु कब, क्यों और क्या कहते है इसे 'प्रदर्शन और दिखावे में धन का व्यय करने वाले समाज वे जाने । पर यदा-कदा बहुत से प्रसंगों में विरोध परिको आप ही इस ओर मोड सकते है। आप श्चिय ही लक्षित होने से यह तो सिद्ध होता ही है कि कहीं विसगति एक सराहनीय कार्य कर रहे है, बधाई स्वीकार करें। अवश्य है फिर वह विसगति आर्थिक कारण से, सामाजिक
उक्त अंश एक विद्वान के उस पत्र के है, जो उन्होने वीर कारण से या अन्य किन्ही कारणो से ही क्यों न हो? सेवा मन्दिर से प्रकाशित पुस्तक 'जिन शासन के कुछ गत मास एक सेठ जी ने मुझसे जो हृदयग्राही वचन विचारणीय प्रसग' पर सम्मति देते लिखा है । विद्वान ने कहे उनमे बल था-मानो सेठ जी ने विद्वानों की टीस विषय सबंधी कुछ दृष्टिकोण भी दिए है, जिन पर यथा- को पहिचाना है और उनका इधर लक्ष्य है। बोले-'पंडित अवसर प्रसग के अनुसार प्रकाश डाला जाएगा। फिल- जी, अब तक सेठों के पीछे विद्वान दौड़ते रहे हैं, हमारा हाल तो बात है-कुन्दकुन्द के साहित्य और दिगम्बर प्रयत्न है कि अब विद्वानों के पीछे सेठ दौड़े।'-उक्त समाज के मोड़ की।
भाव विद्वत्समाज के सन्मान मे और उन्हें आर्थिक संकट निःसन्देह, कुन्दकुन्द-साहित्य अमूल्य निधि है यदि से उबारने मे प्रशसा योग्य है, ऐसे विचारवान सेठों पर भाषा की दृष्टि से उसमें विसंगति आई हो तो उसकी समाज को भी गर्व होना चाहिए। पर, प्रश्न है कि एक सभाल विद्वानों का धर्म है । पर, इस सम्बन्ध में जब तक के दौड़ने से समस्या हल हो सकेगी क्या? दौड़ना फिर भी कोई विश्वस्त और प्रामाणिक व्यवस्था न हो जाय तब एकांगी ही रहेगा। अब विद्वान दौड़ते हैं फिर सेठ दौड़ेंगे, तक हमें सि० आ० श्री पडित कैलाशचन्द्र शास्त्री के दौडना एकांगी ही रहेगा। हम चाहते है इसमें कुछ संशोउद्गारों की कद्र करनी चाहिए-'प्राकृत भाषा के ग्रन्थो धन हो—'दोनो ही दौड़ें', विद्वानों की दौड़ सेठों तक हो को भाषा की दृष्टि से सशोधन करना ठीक नहीं है। और सेठों की दौड़ विद्वानों तक। हो, दौडकी दष्टि में संस्कृत भाषा का तो एक बंधा हुआ स्वरूप है किन्तु भेद आए। विद्वान दौड़ें, उनके सेठों और समाज को प्राकृत की विविधता में यह संभव नहीं है, इससे अर्थ में धार्मिक-संस्कार देने के भाव में, उन्हें स्वाध्यायी बनाने के
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३२, वर्ष ३५, कि०२
अनेकान्त
प्रयत्न में; आर्थिक दृष्टिकोण को लेकर नही । सेठ दौड़ें अपने ५. युवक क्या करें? ज्ञान-चारित्र के लाभ मे, धर्म प्रभावना के लाभ मे, विद्वानो धर्म के विषय मे जो विविध मान्यतायें है, उनको से जगह-२ अपने यशोगान की प्रेरणा के लिए नही। हमारी यथावत् हृदयगम करने की आवश्यकता है। हमे स्पष्ट रूप दृष्टि मे वे विद्वान व्यर्थ है जिनका समाज उन्मार्ग पर जाय मे जान लेना चाहिए कि धर्म वस्तु का स्वभाव है जिसका और वे देखते रहे तथा वे सेठ और थावक व्यर्थ है जिनके लेन-देन नही हो सकता–व्यवसाय नही किया जा सकता। धर्मस्तम्भ विद्वान आर्थिक-चिन्ता मे जलते रहे। इस तरह व्यवसाय मे अल्प पूजी को अधिक करने का उद्देश्य है समाज को विद्वानो और विद्वानो को समाज का सबल और धर्म में मात्र आत्म-पूजी की सभाल का उद्देश्य । हो। अब तक जो विसगति चलती रही है वह इसी का व्यवसाय मे लेन-देन है और धर्म में 'पर से निर्वत्ति' । अत परिणाम है कि एक ने दूसरे की आवश्यकताओ को नही धर्म को व्यवसाय नही बनाया जा सकता। इसीलिए स्वामी समझा और यदि समझा तो गलत समझा। सबने आव- समन्तभद्र ने कहा कि 'धर्म मे नि काक्षित अग का होना श्यकता के माप मे धन या यश को तराजू बनाया 'जब आवश्यक है।' जो जीव धर्म मे किसी आकांक्षा का भाव कि प्रसग धामिक था।
रखते हो वे धामिक या धर्मात्मा नही, अपितु व्यवसायी है।
__आज जो प्रवृत्ति चल रही है उसमे व्यवसाय मार्ग ४. क्या कुव्यसन, सुखकर होंगे?
अधिक परिलक्षित होता है। कतिपय लोग अल्प त्यागकर जैन परम्परा मे अष्टमूलगुण धारण करने का अनादि उससे अधिक प्राप्त करना चाहते है या त्याग कर भी विधान है। जो जीव मद्य-मास मधु का त्याग और अहिंसा, उसका मोह नही छोड़ते । कतिपय अपने दान-द्रव्य के बदल सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह-परिमाण अणवत के उमका अधिक फल चाहते है । जैसे कुछ देकर वे सस्था के धारी है वे श्रावक है अर्थात् श्रद्धा-विवेक और क्रियावान सदस्य ही बन जाय, उनकी पूछ ही हो जाय, उनके नाम है। वे ही सम्यक् रत्नत्रय के अधिकारी है और वे ही उभय का अमरपट्ट लग जाय आदि । इसी प्रकार तीर्थ-वन्दना में लोक मे सुख पाते है।
भी लोभ-लालच है-उसमे भी फल चाहना है, लोग उसमे यह जो आप आज लोगो मे आपाधापी-मारामारी देख
भी सासारिक अभीष्ट की चाहना कर बैठते है। कही-कही रहे है वह सब मूलगुण धारण न करने और सप्त-कुत्र्यसनो
तो धन की आड मे-थोड़ा सा देकर किसी समृद्ध धार्मिक मे फँसे रहने के परिणाम है। कही गुरुद्वारो जैसे पवित्र
न्यास की सम्पत्ति पर शासन जमाने की प्रवृत्ति भी लक्ष्य स्थानो में सिगरेट रखने या पीने पर, मन्दिर-मतियो पर
मे आती है। कई लोग पार्टीबन्दी के चक्कर मे सस्थाओ मास फैकने पर और कही मद्यपान करने पर विवाद खडे
तक को ले ड्वते है या वहा विवादो का वाताबरण तैयार
करा देते है, आदि । होना-अपवित्र वस्तुओ के सेवन के ही परिणाम है । यदि
हमे स्मरण रखना चाहिए कि धर्म और धर्म-संस्थाओ लोग जैन मान्यताओं मे बद्ध हो तो सब झगडे ही शान्त
को भी ऐसे पात्रो की जरूरत है जो सर्वथा उनके योग्य हो। रहे । आश्चर्य तो तब होता है कि जब हमारी सरकार
शिक्षा व साहित्यिक संस्थाओ में तद्विषय और तद्भाषा एक ओर तो मद्यपान, बीडी-सिगरेट जैसे पदार्थों के सेवन
विशेषज्ञों की, मन्दिर आदि प्रतिष्ठानो मे धर्माचरण मे का निषेध करती है-उन पर प्रतिबन्ध लगाती है, उन
समुन्नत जनों की आवश्यकता है। इसी तरह जो शिक्षा मे पर नशा और जहर के लेबल लगवाती है और दूसरी ओर
उस विषय के अधिकारी न हो उन्हें शिक्षा संस्थाओ में उनके ठेके और लाइसेस बाटती है--शासन करने वाले
तथा धर्मावरण से शून्य व्यक्तियो को धार्मिक प्रतिष्ठानों मे कतिपय अधिकारी तक नशों में सराबोर रहते है। यदि ।
अगुआ नही होना चाहिए। इन कुप्रवृत्तियो पर अकुश न लगाया गया तो भविष्य
ऐसे ही जयन्तियो की परिपाटी भी उत्तम है यदि वह अधकारमयी वातावरण में झुलता रहेगा और वर्तमान भी लाला
लाभ के लिए हो, उससे धार्मिक प्रचार को बल मिलता सुखकर कंसे रहेगा ? जरा सोचिए !
(शेष पृ० आवरण ३ पर)
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साहित्य-समीक्षा
जिनवरत्व नवम्:
या है जो अनुसंधानकर्ताओं के बड़े उपयोग का है, उन्हे संपादक : डा. हुकुमचन्द भारिल्ल, प्रकाशक : पं० एक ही स्थल पर ग्रन्थतालिका उपलब्ध होगी तथा भटकना टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर । प्रकाशनवर्ष १६८२, नहीं पडेगा। ग्रंथ उपयोगी बन पड़ा है। डा. पी. सी. जैन पृष्ठ १८०, छपाई व जिल्द बढ़िया, मूल्य ४ से ६ रुपये तक। बधाई के पात्र हैं। उन्होंने परिश्रम पूर्वक समस्या सरल कर
'मय' एक अनादि शैली है जो सापेक्ष दृष्टि से प्रयुक्त दी है। अन्त में अकारादि क्रमबद्ध सूची भी दी गई है। होने पर सम्यक् और निरपेक्ष दृष्टि से प्रयुक्त होने पर शोधाथियों के लिए यह पुस्तक उपयोगी है।-बधाई। मिथ्या होती है। जब से समयसार जैसे अध्यात्म ग्रन्थो का
xx पठन-पाठन जन साधारण में प्रचलित हुमा-नयवाद दिल्ली जिनपन्थरत्नावली: विशेष चर्चा का विषय बन गया है। कई लोग तो विप- लेखक : श्री कुन्दनलाल जैन, प्रिंसिपल, दिल्ली; रीत धारणा ही बना बैठे। डा. भारिल्लजी ने जहाँ विषय प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, सन् १९८१, कुल पृष्ठ ४२५, का भथन कर अपनो शैली में अपने विचारो को प्रस्तुत मूल्य : ७० रुपए, छपाई जिल्द आदि उत्तम । किया है वहाँ उन्होने विभिन्न आचार्य-मन्तव्यो को प्रस्तुत प्रस्तुत कृति दि. जैन सरस्वती भण्डार नया मन्दिर, कर बडी बुद्धिमानी की है। इससे जो लोग उन्हे सोनगढ़ी
धर्मपुरा दिल्ली के ग्रन्थो की सूची है, जिसे लेखक ने बड़ी कैम्प का समझ बैठे हो, उन्हे निश्चय ही विषय निर्णय में
कठिनाइयों में परिश्रम पूर्वक लिखा है। अभी तक अन्य आचार्य वाक्य सहायक होगे। डा० साहब ने विषय को
भण्डारी को प्रकाशित सूचियो मे ऐसा व्यवस्थित क्रम कम बहुत स्पष्ट किया है ऐसा मेरा मत है। आचार्य वाक्यो
ही देखने में आया है। इसमे ११ कालमों द्वारा १२६१ की कसौटी के अस्तित्व मे मै क्या लिख? निश्चय ही
पचयी ग्रन्थो का परिचय वैज्ञानिक ढग से दर्शाया जाने से शोधाभारिल्ल जी का प्रयास सराहनीय है अन्यथा अनेक ग्रन्थों थियों को सरलता हो गई है, वे अल्प परिश्रम से ही अपना
अभीष्ट सिद्ध करने में समर्थ हो सकेंगे। २०८ पृष्ठो के को एकत्रित कर देखने का प्रयास ही कौन करता है।
परिशिष्ट मे प्रति ग्रंथ के आदि-अन्त अशो को दर्शाया गया बधाई।
xx
है और कुछ विशेष भी दिया गया है। भट्टारकीय ग्रन्थभण्डार नागौर ग्रन्थसूची . निर्माता : डा० प्रेमचन्द जैन जयपुर, प्रकाशक : डाइ
लेखक से विदित हुआ कि उक्त प्रकाशन लेखक के श्रम रेक्टर, संन्टर फोर जैन स्टडीज राजस्थान, जयपुर। का प्रथम अश है, ऐसी कई कलेवरो की सामग्री अभी भी प्रकाशन वर्ष १९८१, पृष्ठ २६६, छपाई व जिल्द उत्तम,
प्रकाशन की प्रतीक्षा में है। प्रस्तुत प्रकाशन का विद्वानो में मूल्य ४५ रुपए।
स्वागत हुआ है और होगा; हम प्रिंसिपल साहब के उत्साह प्रस्तुत सूची मे भण्डार के १८६२ विभिन्न ३० विपयो की सराहना करते है-वे शोध विषयो के भी योग्य प्रतिके ग्रन्थों का १२-१३ कालमों में विस्तृत विवरण दिया . पादक हैं-~बधाई।।
-सम्पादक (पृ० ३२ का शेषाश)
कुप्रथाये है । यदि ऐसे अवसरो पर लोगो में स्वाध्याय का हो। पर, आज जयन्तियों का उद्देश्य मानपुष्टि अथवा । प्रचार किया जाय, उन्हे स्वाध्याय व दर्शन करने, रात्रि स्वार्थलोभ में अधिक दिखाई देता है। धार्मिक उत्सव की भोजन त्याग व अभक्ष्य त्याग करने और सदाचार पालन महत्ता प्राय किसी बडे राजनैतिक नेताके आनेसे मापी जाती जैसे नियम दिलाकर सन्मागों को प्रशस्त किया जाय, है । जहाँ वीतरागी महावार की दिव्यध्वनि के लिए अग- विवाह आदि में दान-दहेज और सौदाबाजी न करने की पूर्वधारी गणधरो की खोज करनी पड़ी वहाँ आज सांसारिक
प्रतिज्ञा को कराया जाय तो सभी उत्सव सार्थक हों। विषय-कषाय और अभक्ष्य सेवी जैसों को प्रमुखता दी जाती "
खेद है कि, आज मद्य-मास-मधु जैसे अभक्ष्य खाद्य है। थोड़ी देर के प्रसंग में धर्म के नाम पर प्रभूत सम्पत्ति
बनते जा रहे है। कन्द-मूल त्याग की बात तो पीछे जा
न दिखावे में व्यय कर दी जाती है। अहिंसा की जय तो बोली
॥ पड़ी है, वाज लोग अण्डा तक से भी परहेज नही करते । जाती है पर अहिंसा के अंग-जीव रक्षा, दीन भोजन,
युवकों का कर्तव्य है कि वे इनके सुधार में कटिबद्ध ज्ञानप्रचार प्रसार आदि पर जार नही दिया जाता। एस हों, स्वाध्याय के अभ्यासी बनें और जिन-शासन को समझें। ही भगवान के अभिषेक आदि की बोलियों जैसी प्रथाएं भी धर्म की बागडोर उन्ही के हाथों मे है-वे इसे उबारें या गरीब साधारण गृहस्थों के अधिकार हनन मे हैं, ये सब ही डुबायें यह उन्हें सोचना है, सोचिए ! -सम्पादक
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Regd. with the Registrar of Newspaper at R.N 10591/62
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वीर-सेवा-मन्दिर क उपयोगी प्रकाशन सुतिविधा : स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापों के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद पर श्री जुगल
किशोर मुस्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत, सुन्दर, जिल्द-सहित । समोचीम धर्मशास्त्र: स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । अनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मगलाचरण
सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों मोर प.परमानन्द शास्त्रों की इतिहास-विषयक माहित्यपरिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, मजिल्द । ...
६.०० जनप्रन्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग २ : अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण संग्रह। पचपन
अन्धकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय प्रोर परिशिष्टों सहित। सं.पं. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। १५०० समाधितन्त्र और इण्टोपदेश : प्रध्यात्मकृति, प. परमानन्द शास्त्री को हिन्दी टीका सहित
५-५० पवणबेलगोल और दक्षिण के प्रम्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जन .. ज्याय-बीपिका : प्रा० अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो.डा. दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु०। १०.०० अंग साहित्य और इतिहास पर विचार प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्य । कसायपारसुस : मूल ग्रन्थ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
पतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण णिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पृष्ट कागज पोर कपड़े की पक्की जिल्द ।
२५... जैग निबम्ब-रलावली : श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया म्यानातक (प्यानस्तव सहित) : संपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
१२.०० भावक धर्म संहिता : भी बरपासिंह सोषिया
५.८. बन लसणाचली (तीन भागों में): सं.पं.बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री
प्रत्येक भाग ४०.०. समयसार-कला-टीका: कविवर राजमल्ल जी कृत ढूंडारी भाषा-टीका का प्राधुनिक सरल भाषा रूपान्तर :
सम्पादनवर्ता: श्री महेनसेन नी । जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग : श्री पपवन्द्र शास्त्री, बहुचचित सात विषयों पर शास्त्रीय प्रमाणयुक्त तकंपूर्ण विवेचन । प्राक्कथन : सिद्धान्ताचार्य श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री द्वारा लिखित
२.०० Jain Monoments: टी० एन० रामचन्द्रन Reality : प्रा० पूज्यपाद की सर्विसिद्धि का अंग्रेजी में अनुवाद । बड़े प्राकार के ३०० प., पक्की जिल्द ८... Just Released : Jaina Bibliography (Universal Encyclopaedia of Jain References) (Pages 1945) 2 Volumes ... Per Set
६००-००
११.००
सम्पादक परामर्श मण्डल- ज्योतिप्रसाद जैन, श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पायक-बी पाचन शास्त्री प्रकाशक-रत्नत्रयधारी जैन बीर सेवा मन्दिर के लिए, कुमार शादर्स प्रिटिंग प्रेस के-१२, नबीन शाहदरा
दिल्ली-१२ से मंद्रित।
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________________ वर्ष 35: कि०३ जुलाई-सितम्बर 1982 मासिक शोध-पत्रिका अनेकान्त इस अक मेक्रम विषय 1. सीख 2 जीवधर कथानक के स्रोत -डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन 3. असली मैं और नकली मैं-श्री बाबूलाल जैन 5 4. अभिज्ञान शाकुन्तल मे अहिंसा के प्रसग -डॉ. रमेशचन्द्र जैन 5. नियमसार की ५३वी गाथा० -डॉ० दरबारीलाल कोठिया 6. अपभ्रश काव्यों में सामाजिक चित्रण --डा. राजाराम जैन आरा 7. जैन और यूनानी परमाणुवाद. -डॉ० लालचन्द्र जैन . 8. श्रावक के व्रत-श्री पद्मचन्द्र शास्त्री 9. जरा सोचिएसम्पादकीय 10. वीर सेवा मदिर के चिर सहयोगी : स्व० ला० पन्नालाल जी अग्रवाल -डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन आवरण 2 11. सग्रहालय ऊन में संरक्षित जैन प्रतिमाएँ -श्री नरेशकुमार पाठक आवरण 3 // - प्रकाशक वीर सेवा मन्दिर, 21 दरियागंज, नई दिल्ली-२
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वीर सेवा मन्दिर के चिर सहयोगी स्व. ला, पन्नालाल जैन अग्रवाल
था । हमारी रिलीजन एड कल्चर आफ जैनिज्म के मूल प्रेरक भी ० पन्नानान जी एवं ला० प्रेमचन्द्र जी थेवह पुस्तक भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुई ( उसके दो संस्करण समाप्त हो गए, तीसरा मुद्रणाधीन है हमारी तो बात ही क्या, स्व० बह्मचारी शीतलप्रसाद जी, स्व० बैरिस्टर चम्पतराय जी, स्व० बा० कामताप्रसाद जी आदि अनेक लेखको को पन्नालाल जी ने प्रेरणा तथा सामग्री सुलभ कराने में सहयोग दिया। जिस लेखक से किसी पुस्तक के लिखने का वचन वे लेते थे उसे दो-तीन दिन बाद निरन्तर पत्र लिख कर याद दिलाने, प्रगति जानने, आवश्यक सूचना या सदर्भ सामग्री आदि पहुंचाने के लिए पत्र लिखते रहते थे। हमे उनसे प्राप्त पत्रो की संख्या सैकडो मे है । स्व० बा० उग्रसेन जी ( परिषद परीक्षा बोर्ड वाले) भी लेखको से काम कराने और पत्र लिखने मे ऐसे ही निरालस एव तत्पर रहते थे।
दिल्ली महानगरी के मौहल्ला चरसेवालों की गली कन्हैयालाल अत्तार के निवासी स्व० ला० पन्नालाल जैन अग्रवालका साधक ८० वर्ष की परिपक्व आयु में गत २ अप्रैल १६८२ ई० को देहान्त हो गया। लाला पन्नालाल जी बड़े समाजचेता एवं कर्मठ किन्तु एक समाजसेवी सज्जन थे। ऊंचा लम्बा कद, छरहरा बदन, कदचित श्यामन वर्ष सौम्य मुखमुद्रा, मन्दस्मिति, बहुत कम बोलना, सीधे न कर बैठना पड़ा होना व चलना, धोती-कुर्ता व टोपी वाली सादी वेषभूषा - सामने वाले व्यक्ति को आश्वस्त करने एव उस पर अनुकूल प्रभाव छोडने वाला व्यक्तित्व था । दिल्ली की दि० जैन पंचायत, जैन मित्र मण्डल आदि अनेक सस्थाओ के साथ प्राय वह जीवनपर्यन्त सम्बद्ध रहे । दिल्ली जैन समाज तथा उसके मंदिरों: शास्त्रमदाशे व संस्थाओं के इतिहास में उनकी विशेष रुचि एव जानकारी थी। दिल्ली की जैन रथ यात्रा के इतिहास पर उन्होंने पर्याप्त सामग्री एकत्रित की थी और उस पर एक पुस्तक लिखने का उन्होने हमसे आग्रह किया था किन्तु अन्य उपस्तताओं के कारण जब विलम्ब होता देखा तो उन्होंने स्व० बा० माई दयाल जैन से वह पुस्तक लिखा कर प्रकाशित की। दिल्ली के जैन मन्दिरो एवं संस्थाओं पर भी उन्होंने हिन्दी एवं अंग्रेजी में परिचयात्मक पुस्तिकाएँ लिखकर प्रकाशित की। दिल्ली के कई मन्दिरों के शास्त्र महारों की सूचियां भी उन्होंने वीर सेवा मन्दिर के मुखर अनेकान्त में प्रकाशित कराई। हमारी पुस्तक प्रकाशित जैन साहित्य' की भी बहुत सी आधारभूत सामग्री उन्होंन एकत्रित की थी, अतएव उस पुस्तक के मुखपृष्ठ पर 'संयोजक' के रूप में हमने उनका नाम दिया था। पुस्तक की तैयारी के समय भी जब जो सूचनाएँ हमने चाही उन्होने प्रयत्न करके भरसक प्रदान की । पुस्तक तैयार होकर भी लगभग दस वर्ष अप्रकाशित पडी रही, अन्तत उन्होने जैन मित्र मंडल दिल्ली द्वारा उसे १६५८ मे प्रकाशित करा दिया । 'तीर्थकरों के सर्वोदय मार्ग' को हमसे लिखाने की प्रेरणा भी उन्होने जनवाच क० दिल्ली के ता० प्रेमचन्द्र जैन को की थी, जिसे सा० प्रेमचन्द्र जी ने अपने स्वर्गीय पिताजी की पुण्य स्मृति मे वितरणार्थं प्रकाशित कराया
लाला पन्नालाल कुछ विशेष पनि विद्वान या साहित्यकार नहीं थे और बहुत वर्षों तक पुस्तक-विक्रेता का व्यवसाय करते रहे। यह आवश्यक है कि अपनी दुकान मे भी जैन पुस्तके ही अधिकतर रखते थे । किन्तु साहित्यजगत की जो अद्वितीय सेवा उन्होने की वह थी किसी भी जैन या अर्जुन विद्वान को इच्छित साधन-सामग्री प्रकाशित पुस्तकें, दिल्ली के किसी भी शास्त्र भंडार के शास्त्रों की हस्तलिखित प्रतियों तथा पुस्तकालयों के संदर्भ प्रथ तत्परता पूर्वक योगकर मुहैया करना, और काम हो जाने पर उसी तत्परता के साथ उन्हें वापस मंगा लेना । इस बेमिसाल साहित्य सेवा के कारण वह अनेक जैनाजैन साहित्यकारों के के लिए सुपरिचित थे। ऐसा निःस्वार्थ एव सदा तत्पर साहित्यिक सहयोग एवं प्रेरणा देने वाला दूसरा कोई व्यक्ति प्रायः देखने-सुनने में नहीं आया। इस प्रकार अनेक विद्वान व लेखक उनके आभारी हुए और अनेक पुस्तकों के सृजन मे वह परोक्ष रूप से सहयोगी रहे ।
वीर सेवा मन्दिर के संस्थापक स्व० आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' के प्रति ला० पन्नालाल जी का निश्छल आदर भाव था। मुख्तार सा० द्वारा १६३५-३६ ई० मे सरसावा में वीर सेवा मन्दिर की स्थापना होने के (शेष पृष्ठ २४ पर)
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ओम अहम
SHASTR
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।।
वर्ष ३५ किरण ३
वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण सवत् २५०८, वि० स० २०३६
जुलाई-सितम्बर
१९८२
।
सीख जिनराज-चरन मन, मति बिसर। को जान फिहि बार काल को, धार अचानक प्रानि परे। देखन दुख भजि जाहि दशों दिशि, प्रजत पातक पंज गिरे। इस संपार सार सागर सौं, और न कोई पार करै ।। इकचित ध्यावत वांछित पावत, प्रावत मंगल, विघन टरै। मोहनि धुल परो माथे चिर, सिर नावत तत्काल झरे। तबलौं भजन संवार सयाने, जबलौं कफ नहि कण्ठ पर। अगनि प्रवेश भयो घर 'भूधर' खोदत कप न काज सरै॥
रेनर, विपति में धर धीर। सम्पदा ज्यों आपदा रे, विनश जैहे वीर ॥ धूप-छाया घटत-बढ़ ज्यों, त्याहि सुख-दुःख-पीर । दोष 'द्यानत' देय किसको, तोरि करम-जंजीर।
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जीवंधर- कथानक के स्त्रोत
अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर के साक्षात् भक्त एव शिष्य, वर्तमान अवसर्पिणी में भारत क्षेत्र के अन्तिम कामदेव तथा तद्भव मोक्षगामी जीवधरस्वामि का पुण्यचरित्र अति प्रेरक एवं बोधप्रद है इतना ही नहीं, इन परम तेजस्वी वीरवर एव पुण्यश्लोक हेमाङ्गदनरेश महाराज जीवधर का रोचक एव कौतूहलवर्द्धक कथानक कम-से-कम दिगम्बर परम्परा मे अनि लोकप्रिय भी रहना आया है । संस्कृत, अपभ्रंश, तमिल, कन्नड, हिन्दी आदि कई भाषाओं मे और विभिन्न शैलियों में निबद्ध लगभग वीस रचनाए तो इस विषय पर अधुना ज्ञात एव उपलब्ध है जिनमे से कई अपने ढंग की बेजोड है।
जीवधरकुमार की गणना चौवीस कामदेव में की जाती है । इस परम्परा का मूलाधार क्या और कितना प्राचीन है, यह गवेपणीय है। तिलोयपत्ति (४ / १४७२) मे मात्र यह निर्देश प्राप्त होता है कि नौबीस जिनवरो (तीर्थकरो) के काल मे बाहुबलि को प्रमुख करके निरुपम आकृति वाले चौबीस कदर्प या कामदेन हुए है। उत्तरपुराण के अनुमार जीवधर मुनि के अप्रतिमरूप को देखकर श्रेणिक को उनके विषय में जिज्ञासा हुई, जिसका समाधान सुधर्मास्वामी ने जीवर चरित्र का वर्णन करके किया। वादीसहरि की गद्यचिन्तामणि के अनुसार तो श्रेणिक को यह भ्रम हो गया कि यह स्वर्गों के कोई देव है जो यहाँ मुनिवेष में आ विराजे है। अतएव कामदेव होने के कारण जीवधर एक पुराणपुरुष है और क्योकि वह भगवान महावीर के रूप मे मुनिरूप में दीक्षित हुए, उसी तीर्थ मे केवलज्ञान प्राप्त करके राजगृह के विपुलाचल से ही उन्होने निर्वाणलाभ किया, वह एक ऐतिहासिक महापुरुष भी है । उनकी राजधानी 'राजपुर' तथा हेमागद देश का भौगोलिक वर्णन भी सुदूर दक्षिण का अर्थात् कर्णाटक केरल तमिल भूभाग का ही सकेत करता है ।
विवारिधि डा० ज्योतिप्रसाद जैन
प्राप्त साहित्य में जीवधर कथा की दो स्पष्ट धाराएँ मिलती है एक का प्राचीनतन उपलब्ध एवं ज्ञात स्रोन आचार्य गुणभद्रकृत उत्तरपुराण (ल० ८५०-८१७ ई०) है। पुष्पदत ने अपने अपभ्रंश महापुराण (९६५ ई० ) में तथा तमिल श्रीगणम में व रधु शुभचन्द्र आदि कई परवर्ती लेखको ने उत्तर पुराण के कथानक को अपना आधार बनाया किन्तु वादीनिहरिकृत गद्यचिन्तामणि एव क्षत्रचूडामणि और तिरुतकदेवकृत तमिन जीवकचिन्तामणि के कथानक में जहां परस्पर असून सादृश्य है, वही उत्तरपुराण की कथा से वह अपने मौलिक अन्तर भी प्रकट करता है । हरिचन्द्रकृत जीवन्धरचम्पू से लगता है कि दोनों ही धाराओं में प्रभावित है दो परिचित रहा है।
अब प्रश्न यह है कि कथा का मूलाधार उपरोक से किस ग्रंथ को माना जाय, या उनसे भी प्राचीनतर कोई अन्य स्रोत थे ?
उत्तरपुराणकार गुणभद्र एक अत्यन्त प्रमाणिक आचार्य है। उन्होने स्वगुरुमेन स्वामी (६३७ ई०) के अपूर्ण आदिपुराण को पूर्ण किया, नरउत्तर अपने उत्तरपुराण मे शेष २३ ती करो तथा सम्बन्धित अन्य शलाका पुरुषो एवं विशिष्ट व्यक्तियों के चरित्रों को विद्ध किया था--- आदिपुराण एव उत्तरपुराण ही संयुक्त रूप से महापुराण कहलाए । भाषा, शैली, संक्षेप, विस्तार आदि को छोडकर, उनके पौराणिक कथानक निराधार नहीं हो सकते उनके सन्मुख तद्विषयक पूर्ववर्ती साहित्य अवश्य रहा । कवि परमेश्वर ( अनुमानित समय लगभग ४०० ई०) के वागार्थ - संग्रह नामक पुराणग्रन्थ का तो जिनसेन और गुणभद्र दोनों ने स्पष्ट उल्लेख किया है तथा उनके कई परवर्ती पुराणाकरो एव शिलालेखों मे भी उनके उल्लेख प्राप्त है । कवि प्राय परमेश्वर के समसामयिक या कुछ आगे-पीछे के
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जीवन्धर कथानक के स्त्रोत
नंदिमुनि एवं कूचिभट्टारक नामक पुराणकारों की स्याद्वादसिद्धि आदि ग्रन्थों के रचयिता आचार्य अजितसेन विद्यमानता के भी सकेत मिलते है। भगवान महावीर की वादीभसिंह का मुनिजीवनकाल १०२५-१०६० ई० प्राय. दिव्य ध्वनि के आधार पर गौतम, सुधर्मा आदि गणधर सुनिश्चित है और गद्यचिन्तामणि एव क्षत्रचूडामणि की भगवानों द्वारा गथित द्वादशागवाणी के १२व अंग रचना उन्होने १०५० व १०६० ई. के मध्य की है। दृष्टिप्रवाद का एक विभाग प्रथमानुयोग था जिसमे अतएव महाकवि हरिचन्द्र और उनके दोनो ग्रथों का पुराण पुरुषो के चरित्र का संग्रह था। आचार्य भद्रबाह रचनाकाल १०६० ई० के उपरान्त और ११०० ई० के थु तकेवलि के उपरान्त उसका सार गाथा निबद्ध नामा- पूर्व, अर्थात् लगभग १०७५ ई० मानना उचित होगा। वलियो एव कथासूत्रों के रूप में मौखिक द्वार में प्रवाहित तिमत्तकदेवकृत तमिल महाकाव्य जीवक चिन्तामणि होता रहा । उन्ही के आधार पर उपरोक्त प्राचीन पुराणग्रथ तमिल भाषा के प्राचीन पाच महाकाव्यों में परिगणित, तथा बिमलमूरि, सधदासगणि, रविपेण, जिनसेन मूरि प्राचीन तमिल माहित्य का मसूज्ज्वल रत्न एव वेजोड़ पन्नाट आदि के पुराण तथा वरागचरित्र प्रभृति अन्य अति प्रतिष्ठिन रचना है। उगमे और वादीभसिंह मूरि की प्राचीन पौराणिक चरित्र भी रचे गए। अस्तु, जीवधर गद्यचिन्तामणि में इतना अद्भुत सादृश्य है कि दोनो में कथानक गुण भद्र का ही आविष्कार अथवा उनकी अपनी
जो भी परवर्ती है उमने पूर्ववर्ती को अपना अधिकार
जो भी परवर्ती कल्पना से प्रसूत था, यह मानने का कारण प्रतीत नही
बनाया है। पहले टी. एम. कुप्पम्वामी, स्वामीनाथ होता। उसके लिए भी उनका आधार उनका पूर्ववर्ती अइयरपिल्ले, चक्रवर्ती आदि अनेक तमिल विद्वान भी पुराणसाहित्य एव पौराणिक अनुश्रु तियाँ थी।
जीवकचिन्तामणि को गद्य चिन्तामणि पर आधारित मानते जीवधर कथा की दूसरी धारा का प्रतिनिधित्व रहे. और उसे भी प्राय. दमवी या ग्यारहवी शती तिम्तकदेव का तमिलकाव्य तथा वादीभसिंह के ग्रथद्वय ई० की रचना अनुमान करते रहे। किन्तु इधर कुछ और अशत हरिचन्द्र व जीवधर चम्पू करते है हरिचन्द्र विद्वान उसका बिल्कुल उलटा सिद्ध करने का प्रयाम कर की एक रचना धर्मशर्माभ्युदय है, जिसकी प्राचीनतम उपलब्ध रहे है। उनकी युक्तिया भी बेदम नही है। उदाहरणार्थ प्रति १२३० ई० की है। पहले अनेक विद्वान काव्य- डा० आर० विजयलक्ष्मी ने जीवकचिन्तामणिका विस्तृत मीमासाकार राजशेखर के एक उल्लेख के नाधार पर एव सूक्ष्म अध्ययन तथा गद्यचिन्तामणि, क्षत्रचूडामणि, हरिचन्द्र का समय १००ई, के लगभग मानते थे। किन्तु जीवधरचपू और उत्तरपुराण के कथानको एव वर्णनो के जैसा कि धर्मशर्माभ्युदय के विद्वान संपादक डा० पन्नालाल साथ उमका तुलनात्मक अध्ययन करके यह निष्कर्ष साहित्याचार्य का कहना है, हरिचन्द्र के ग्रथ न केवल निकाला है कि जीवक चिन्तामणि ७५० और १५० ई० गुणभद्रीय उत्तरपुराण (८६७ ई०) से वरन वीरनदि के के मध्य किसी समय लिखी गई होनी चाहिए। चन्द्रप्रभचरित्र (ल. ५० ई.) और सोमदेव के यो तो जीवकचिन्तामणि के सर्व प्राचीन रपष्ट उल्लेख यशस्तिलकचम्पू (६५६ ई०) से पर्याप्त प्रभावित है। शोकिल्लार पडिन की पेरिय पगणम (११५० ई.) में इसके अतिरिक्त, उनका जीवधर चम्पू वादीभमिह की तथा उमके उगन्त किमी समय लिखी गई कम्बन वृत गचिन्तामणि से भी प्रभावित एव परवर्ती है । वादीभसिंह तमिल रामायण में ही प्राप्त होते है। अत: इससे तो सरि का समय भी आधुनिक युग के प्रारभिक विद्वान पहले इतना ही निकर्ष निकलता है कि जीवकचिन्तामणि की तो ८०० ई० के लगभग मानते थे, तदनन्तर अब अधिकाण रचना ११०० ई० के पूर्व किसी समय हुई । गद्यचिन्तामणि विद्वान १०वी शती ई० का उत्तरार्व मानने लगे। किन्तु, के साथ किए गए उसके तुलनात्मक अध्ययन से यह भी जैसा कि हमने अपने लेख धीमद्वादी भसिंहमूरि मे प्रतीत होता है कि वादसिंह उससे सुपरिचित थे। अस्त तत्सबधित प्राय. सभी प्रालित भ्रान्तियो का निरमन तिरुतक्कदेवकृत तमिल महाकाव्य जीवकचिन्तामणि उतनी करके सिद्ध किया है, गद्यन्तिामणि, क्षत्रचूडामणि प्राचीन भी नही तो कम-से-कम हवी या १०वी शती ई०
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४, बर्ष ३५, कि०३
अनेकान्त
की रचना अवश्य है। डा. विजयलक्ष्मी के अध्ययन से कि उक्त दोनों ग्रंथ पर्याप्त प्राचीन (लगभग ६ठीं शती ई०) यह भी प्रतीत होता है कि तिरुक्कदेव के सम्मुख कोई के हैं, वे तमिल एवं कन्नडदेश में भी बहुप्रचलित रहैं हैं प्राचीन कथानक रहे, जिनमें कोई प्राकृत कथा भी थी। और उन दोनों में जीवंधर कथानक का ही वर्णन रहा । वे उन्हें ही इन्होंने अपना आधार बनाया था।
या उनमे से कोई एक प्राकृत मे अथवा प्राकृत-संस्कृत___ इस सबंध में यह भी ध्यातव्य है कि वादीसिंह भी तमिल मिश्रित भाषा में भी था, यह सभव है। उन्ही को मूलतः तमिलदेश के निवासी थे और तमिल भाषा एव तिरुतक्कदेव ने आधार बनाया और उन्हे ही वादीभसिंह ने साहित्य ते सुपरिचित थे, बल्कि एक अनूथ ति तो यह भी तमिल भाषा मे 'चिन्तामणि' जीवंधर का पर्यायवाची भी है कि जीवकचिन्तामणि का रचनारभ उन्होंने किया था, बतलाया जाता है अतएव तिरुतक्कदेव ने जीवकचिन्तामणि बीच में ही छोड़ दिया और तिरुतक्कदेव ने उसे पूरा लिखा तो वादीभसिंह ने गद्यचिन्तामणि एवं क्षत्रचूड़ामणि किया। इस अनूश्र ति में तो शायद कोई सार नही है लिखे । उन्होंने दोनो प्राचीन ग्रंथो को मान्य किया । किन्तु यह सुनिश्चित है कि जो आधार स्रोत एव जीवधरचपूकार के सामने ऐसी कोई बात नही थी। वह साहित्यिक परंपराए तिरुतक्कदेव को प्राप्त थी, वे मध्य भारतीय और सभवतया तमिल भाषा एव साहित्य वादीभसिंह को भी प्राप्त थीं। वस्तुतः तमिलसाहित्य की से अनभिज्ञ था। उसने तो अपने कथानक को रोचक प्राचीन अनुथतियो मे चूडामणि और चिन्तामणि नामक बनाने के लिए जो आधार, उत्तरपुराण एव गद्यचिन्तामणि दो काव्यग्रन्थों का उल्लेख मिलता है। हमे ऐसा लगता है उसे प्राप्त थे, उन दोनो का उपयोग किया,।
सन्दर्भ सूची १. डा० आर० विजयलक्ष्मी ए स्टडी आफ जीवकचिन्ता- ६. डा० पन्नालाल सा० जीवधर चम्पू भा० (ज्ञा० पी० मणि (अहमदाबाद १९८१)।
दिल्ली १९६८)। २. ज्योतिप्रसाद जैन-दी जैन सोर्स आफ दी हिस्टरी ७ डा. पन्नालाल मा० धर्मशर्माभ्युदय (भा० ज्ञा० पी० ___ आफ एन्शेंट इंडिया दिल्ली (१९६४)
दिल्ली १९७१)। ३. ज्योतिप्रसाद जैन ४ श्रीमद्वावीभसिंह (जै० सि० ८. पं० नाथूराम प्रेमी-जैन साहित्य और इतिह.स भा० जौलाई ८२)।
(द्वि० सं०)। ४. ज्योतिप्रसाद जैन जीबधर साहित्य (शोधाक-४६) ६. बी० ए० सालतोर-मेडिकलजैनिज्म (बंबई १९३८) ५. डा० पन्नालाल सा० गद्यचिन्तामणि (भा० ज्ञा० पी० १०. ए० सी० चक्रवर्ती-जैनालिटरेचर इन तमिल (भा० दिल्ली १९६८)
ज्ञा० पी० दिल्ली १९७४) । GO
सम्यक्त्व 'सम्मत्तसलिलपवहो णिचं हियए पबट्टए जस्स।
कम्मं वालुयवरणं बंधुच्चिय गासए तस्स ॥' जिसके हृदय में नित्य सम्यक्त्व रूपी जल का प्रवाह होता है, उसके कर्मरूपी धूल का आवरण नष्ट हो जाता है (अतः सम्यक्त्व प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिए।
'सम्मत्तस्सरिणमित्तं जिणसूत्तं तस्स जाण्यापरिसा।
अंतर हेऊ भरिणदा दंसरणमोहस्स खयपहुदो ।' सम्यक्त्व के बाह्य निमित्त जिनसूत्र और जिनसूत्र के ज्ञाता पुरुष हैं तथा अन्तरंग निमित्त दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय, उपशम, क्षयोपशम आदि हैं।
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असली मैं और नकली मैं
0 श्री बाबूलाल जैन, कलकत्ता वाले
मैं दो प्रकार का है-एक असली और एक नकली। मारने में भी । जैसे मैने एक बार मे ही सफाया कर दिया परन्तु दोनों एक साथ नहीं रहते जहाँ असली मै है वहा या मैने इतने लोगो को बचा दिया। इसी प्रकार चोरी नकली नही और जहाँ नकली मै है वहाँ असली मै नहीं। यह करने में भी और न करने में भी। ब्रह्मचर्य पालने में भी नकली मैं ही परमात्मा को देखने के लिये, परमात्मा बनने और अब्रह्म का सेवन करने मे भी। परिगृह के गृहण में में रुकावट है। रुकावट ही नहीं, यह फाटक भी बन्द है भी आता ही है और परिग्रह के त्याग मे उससे भी ज्यादा आगल भी लगी है और ताना भी पड़ा हुआ है। यही जीव आता है। मैने इतना बडा त्याग किया है मैं लाखों की का संसार है और यही महापाप है। यही हिंसा है। इसको सम्पत्ति छोडकर त्यागी बना हं। मैने पहले बड़ी-बड़ी मौज समझना जरूरी है।
की है अब सब कुछ त्याग दिया है इत्यादि । इसी प्रकार एक ज्ञान का कार्य हो रहा है जानने रूप-ज्ञातादष्टा
आने का विकल्प उठाते है कि मै इतने लोगो की सेवाएं रूप, ज्ञायकरूप-एक मन सम्बन्धी विकल्प हो रहे है भाव
करूँ इतने लोगो को दान करने अथवा इतने लोगों को हो रहे है कोई शुभरूप-दयादानादि, भगवान की भक्ति, त्याग
बन्दी कर ल इत्यादि रूप। इसी प्रकार बाहरी क्रिया वृत रूप है और कोई अशुभरूप क्रोधादिरूप द्वेषरूप दूसरे
जिनको धार्मिक क्रिया कहते है पूजा दान व्रत उपवास का बुरा करने का हिंसा करने का चोरी करने का झूठ ।
मन्दिर बनवाना सेवा आदि करना इसमे भी अहंपना बोलने का परिग्रह का अब्रह्मरूप है । इसी प्रकार बाहर मे
आता है चाहे हम बाहर मे प्रगट करे या न करें परन्तु शरीर की क्रिया है कोई शुभरूप है कोई अशुभ रूप है।
भीतर मे यह जरूर बनता है कि मैंने कुछ किया है ऐसा हम जब कोई कार्य करते है तो तीन काम होते है जसे
अहपना । इस प्रकार दोनो प्रकार की-मन के भाव और मैं बोल रहा हू तो होठ हिलने रूप शरीर की क्रिया है
शरीर की क्रिया में होता है चाहे वह परिणाम ऊंचे
से ऊँचे कोटि के शुभ हो चाहे अशुभ हो । यहाँ भाव शुभ भीतर बोलने रूप राग भाव है और उन दोनो के जानने ।
है कि अशुभ है इससे प्रयोजन नही प्रयोजन हैं अहंपना वाला ज्ञातापना है। ज्ञातापने का भाव तो आत्मा से उठ
का। अलग शुभ मे अपना है तो भी और अशुभ में रहा है क्योकि ज्ञान और आत्मा का एकत्वपना है और
अहपना है तो भी अहम्पना तो अपने में नही है पर में मन सम्बन्धी विकारी भाव और शरीर की क्रिया कर्म के
ही है। हमारा ससार शुभ-अशुभभाव नहीं परन्तु शुभ सम्बन्ध को लेकर हो रही है। जब हग ज्ञान की क्रिया को
अशुभ भावो में अहपना है। नही पकडते है तो मन सम्बन्धी विकारी भावो मे और शरीर की क्रिया में अहपना मानते है कि मै ह—ये मेरे हम ऐसा मान लेते है कि शुभ भाव हुए हम तो है, मैने ऐसा किया है। इन प्रकार का अहपना चाहे धर्मात्मा है अशुभ हुए पापी हैं। यह तो बहुत मोटी बात है अशुभ भावों में आवे चाहे शुभ भावो -- चाहे शुभ क्रिया में यहाँ पर तो सवाल है कि हमारा अहम्पना किसमें है चाहे अशुभ क्रिया में आवे यही नकली मै पना है। साधारण अपने निज भाव ज्ञाता दृष्टा मे, ज्ञायक में, चैतन्य में अथवा रूप से यह मैं पना झूठ बोलने में भी आता है मैंने ऐसा झूठ शुभ-अशुभ भावों मे और शरीर सम्बन्धी क्रिया मे। अगर बोला और सत्य में भी आता है मेरे बराबर कोई सत्य हमारा अहम्पना अपने में है जो वहाँ दोनों (मन सम्बन्धी बोलने वाला नही-जीव को बनाने में भी आता है और शरीर-सम्बन्धी) का जानने वाला है अथवा इन दोनों में।
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६ वर्ष २५, ०३
अगर अपने में अपनापना आ गया तो इन दोनो में अपनापना अहम्पना भर गया यह पर मे अहमपना भरना ही परमात्मा के लिये फाटक खुल गया है इसी को कहते हैं नकली मैं का भरना । छोड़ना क्या है इस मै पने को छोडना है । हम भेष बदली कर लेते है हम कपडे बदली कर लेते है हम कमरे बदली कर लेते है परन्तु मै पना वैसा का वैसा कायम रहता है भेष बदलने से नही अपने को बदलने से क्रान्ति होगी ।
यह अहम्पना जैसा मन सम्बन्धी और शरीर मयन्धी कार्यों मे जैसा आ रहा है वैसा उस ज्ञाता दृष्टा जानने वाले वाले मे आना चाहिए जब उसमे मै पना आयेगा तब इन दोनों से मैं पना मिटेगा । शुभ-अशुभ रहेगे क्रिया रहेगी परन्तु मैंपना नही रहेगा । मैंपना अपने मे अपने ज्ञायक मे आयेगा मैं कौन जानने वाला साक्षीभूत तब doing मिट जायेगा इन भावो मे और क्रिया में जो doing उठ रहा था वह नही रहेगा परन्तु Being हो जायेगा । जिसका अहम्पना मिट गया उसका ससार मिट गया अब उसके भीतर संसार नही है वह ससार मे है । नाव में पानी नही है परन्तु नाव पानी के ऊपर है यह अहम्पना मेटने का और कोई उपाय नही उसका उपाय है जानने वाले में अपना 'ब्रह्मोऽस्मि' आना स्थापित करना अन्यथा यह अहम्पना सूक्ष्मरूप धारण करके जीवित रह जाता है ।
अनेकान्त
00
यह अहम्पना है कारण समाज और परन्तु शुभ में तो उस
अशुभ में तो फिर भी 'कम पड़ जाता. अन्य लोग उसकी निन्दा करते हैं अहम्पने का छूटना बहुत मुश्किल है कारण समाज भी माला पहना कर उसको उपाधि देकर उसका अहम्पना पुष्ट करते है वह सोचता है क्या इतने आदमी मेरे को मान दे रहे है सब गलती तो नही कर रहे मैने जरूर कुछ किया है। पूजा-पाठ करके हम 'समझते' है हम कुछ आत्मकल्याण के नजदीक आ रहे है परन्तु इस अवता को करके हम और दूर होते जा रहे है ।
१. ईसीसिचुम्बिआई भमरेहि सुउमारकेसरसिहाइ । ओदसन्ति दमणापमदाओ सिरीसकुसुमाइ ॥ १ ॥४ २. न खलु न खलु वाण सन्निपात्योऽयस्मिन् । मृदुनि मृगशरीरे तूलराशाविवाग्नि ॥ क्व वत हरिणकानां जीवितं चातिलोल । वव च निश्चितनिपाता वज्रसाराः शरास्ते ॥ -अभि० ० शाकु० १।१० ३. आर्तत्राणाय वः शस्त्र न प्रहर्तुमनागसि ॥ ---अभि०
० शाकु० १।११
अस
दूसरे प्रकार का अहम्पना अब आया अपने आपमें जो अपना है। ग्रंथकार कहते है कि इस आत्मा में अगर तूने अहम्पना माना तो तेरे यह आत्मा भी परिग्रहपने को प्राप्त हो जायेगी कहना यह था कि मैं और आत्मा दो भोज तो है कि जो मैं हु यही आत्मा है इसलिये अगर मैं और आत्मा में भेद आ रहा है तो आत्मा तेरे मै से पर हो गयी और पर होना हो परिग्रह हो गया इसलिये मैं और आत्मा होकर अभय होना चाहिए जहाँ मैं की अनुभूति होती है वही आत्मा है ऐसा अभेद रूप होगा तब कहने सुनने को कुछ नही रहेगा तू अपने आप मे समा जायेगा। पानी का बुदबुदा पानी मे लीन हो गया ।
(पृष्ठ ८ का शेषाश)
४. पुण्याश्रमदर्शनेन तावदात्मान पुनीमहे ||
- प्रथम अङ्क पृ० २८
५. 'विश्वासोपगमादभिन्नगतयः शब्द सहन्ते मृगा - अभि० शाकु० १११४ नष्टाशङ्गाहरिणशिशवो मन्द्रमन्द चरन्ति ॥ वही १।१५ अस्मद्धनुः | वही २०७
गाहन्तां
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अभिज्ञान शाकुन्तल में अहिंसा के प्रसंग
Cडॉ. रमेशचन्द्र जैन, बिजौर
कालिदास एक अहिंसावादी कवि थे। उनके द्वारा प्रथित शाकुन्तल के प्रथम अङ्क के सातवें श्लोक मे शिकारी अभिज्ञान शाकु-तलम् नाटक के सूक्ष्म अध्ययन से उनको राजा दुष्यन्त के द्वारा पीछा किए जाते हुए हरिण का बहुत अहिसाबादी मनोवृत्ति की पर्याप्त झाँकी प्राप्त होती है। इस सुन्दर वर्णन किया गया है। हरिण की स्थिति देख कर नाटक के प्रथम अङ्क के प्रारम्भ मे ही नटी कहती है कि निष्ठुर व्यक्ति के मन में भी करुणा जाग्रत हो सकती हैप्रमदाये दयाभाव से युक्त हो भ्रमरो के द्वारा कुछ-कुछ चूमे
"ग्रीवाभङ्गाभिराम मुहुरनु , ति स्पन्दने दत्तदृष्टि' । गए कोरल केसर शिखा से युक्त शिरीष पुष्पो को अपने
पश्चान प्रविष्ट शरखतामयाद्भू बसा दत्तदृष्टि !! कानो का आभूषण बना रही है।' इस पद्य मे दअमाणा पद
दर्भरर्झवलीः श्रमविवृतमुख ध्र शिभि वर्मा। साभिप्राय है। मदयुक्त (सोन्दय आदि के कारण मतवाली)
पश्योदनप्लुलत्वाद्वियति बहुतर स्तोक
मु गfin" होने पर भी दयाभाव के कारण युवतियाँ शिरीष के फूलो
अर्थात् देखो, पीछे दौडते हुए रथ पर पुन पुन गर्दन को सावधानी के साथ तोड कर कर्णाभूषण बना रही है।
मोड कर दृष्टि डालता हुआ, बाण लगने के भय के कारण जिस प्रकार भौरे बहुत सावधानी से फूलो का रसास्वादन
(अपने) अधिकाश पिछ ने अर्द्धभाग से अगले भाग गे सिमटा
अप करते है, उमी प्रकार युवतियाँ भी बड़ी सावधानी से पुप्पो हुआ, थकावट
हुआ, थकावट के कारण खुले हुए मुख से अचिचित कुशो का स्पर्श कर रही है। किसी को कसी प्रकारकष्ट पहुंचाए ।
से मार्ग को व्याप्त करता हआ ऊँची छपांग भरने के बिना उसमे कुछ ग्रहण करना उपर्यक्त भ्रामरी वत्ति की सदशता कारण आकाश में अधिक और पृथ्वी पर कम चल रहा है। के अन्तर्गत परिगणित होता है। जैन ग्रन्थो मे साधु को
राजा को आश्रम के मग पर प्रहार करने को उद्यत भ्रामरी वृत्ति का पालक कहा गया है । जैन माधु बिना
देख कर तपरवी कहता है.---'राजन्, आश्रममृगोऽय न गृहस्थ को कष्ट पहुचाए उमके न्यायोपजित धन से बने हुए
हालव्यो न हन्तव्य' अर्थात् यह अधिग का मृग है, इसे आहार में से कुछ आहार अपने उदर की पूर्ति हेतु ले लेता
मत मानिए। दग कोमल मग शरीर पर रुई के ढेर पर है, उसके लिए श्रावक को विशेष उपक्रम नहीं करना पड़ता
अग्नि के समान यह बाण न चलाडा, न चलाइए । हाय ! है यही कारण है कि साधु को उद्दिष्ट भोजन लेने का ।
बेचारे हरिणो का अन्यन्न चञ्चल जीवन कहाँ और तीक्ष्ण निषेध है। भ्रामरी वृत्ति का एक तात्पर्य यह भी है कि
प्रहार करने वाले वज्र के समान कठोर आपके बाण
प्रहार कर जिस प्रकार भ्रमर एक फूल से दूसरे फूल पर थोड़ा-थोडा १ रस ग्रहण कर बैठता रहता है, उसी प्रकार साधु भी वर्षा शास्त्री की उपयोगिता केवल दुखी प्राणियों की रक्षा काल को छोड़ कर अन्य समय मे एक स्थान पर अधिक के लिए है, निरपराध पर प्रहार करने के लिए नहीं है।' दिन निवास न करे; क्योंकि इससे श्रावकों से गाढ परिचय आश्रम मे सब प्रकार की हिंसा का निषेध है, अतः उसका होने के कारण रागभाव की वृद्धि की आशङ्का होती है। पुण्याश्रम नाम सार्थक है। ऐसे पुण्याश्रम के दर्शन से ही इसीलिए भगवान् बुद्ध ने भी अपने भिक्षुओं को व्यक्ति पवित्र हो जाता है।' पशुपक्षी भी ऐसे स्थान पर बहुजनहिताय बहुजन सुखाय सतत गतिशील रहने का विश्वस्त होकर रहते है, और सब प्रकार शब्दों के प्रति उपदेश दिया था--"चरथ भिक्खवे चारिक बहजन हिताय सहिष्णु हो जाते है। रक्षा के कार्य में राजा का सबसे बहुजन सुखाय ।"
बड़ा योग होता है अत. तप का सत्रय प्रतिदिन करने के
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कारण सबसे बड़ा योग होता है अन ता का मबार प्रति जीविकोपार्जन की पद्धति का औचित्य सिद्ध करना दिन करने के कायण सबमे बडा योग होता है अत: तप का चाहता हैसवार प्रतिदिन करने के कारण राजा राजाप कहलाता है- शहजे किल जे विणिन्दिए ण हु दे कम्म विधज्ज गी अए। रक्षायोगादयमपि तप प्रत्यहसञ्चिनोति ।
पशुमालणकम्मदालुणे अणु मामिदु एर शोत्तिए ।। अस्यापि द्या स्पृशति वशिनश्चारणद्वन्द्वगीत
-अभि० शाकु० ६१ पुण्य शब्दो मुनिरिति मुहु केवल राजपूर्व ।
____ अर्थात् निन्दित भी जो काम वस्तुत. दशपरम्परागत
है, उसको नही छोडना चाहिए । (यज्ञ मे पशुओं को मारने --अभि० शाकु० २।१४ । अहिंसक भावना से ओत-प्रोत स्नेह का पशुपक्षियो
रूपी कार्य मे कठोरवृत्ति वाले भी वेदपाठी ब्राह्मण दयाभाव
मे मृदु ही कहे जाते है। और वृक्षो पर प्रभाव पड़ता है। वे भी अपने स्नेही के
ऐसा लगता है, कालिदाम के समय यज्ञो मे जो पणु वियोग मे कातर हो जाते है। शकुन्तला के वियोग मे
हिसा होती थी, उसे जन सामान्य अच्छा नही समझता पशुपक्षियों की ऐसी ही दशा का चित्रण कालिदास ने
था । छठे अङ्क मे ही जब राजा मातिल का स्वागत करता किया है
है तो विदूपक कहता है-- 'अह जेण इहिपसुमार मारिदो उग्गालअदभकवला मिआ परिच्चत्तणच्चणा मोरा।
सो इमिणा माअदेण अहिणन्दीअदि' अर्थात् जिसने मुझे ओसरिअपण्डपत्ता मुअन्ति अस्सू विअ लदाओ॥
यज्ञिय पशु की मार मारा है, उसका यह स्वागत के द्वारा -अभि० शाकु० १२
अभिनन्दन कर रहे है। अर्थात् शकुन्तला के वियोग के कारण हरिणिओं ने
जहाँ अहिंसा और प्रेम होता है, वहाँ विश्वास की कुशी के ग्रास उगल दिए, मोरो ने नाचना छोड दिया और
भावना प्रबल होती है। छठे अङ्क में चित्रकारी के नैपुण्य लताये मानो आसू बहा रही है।
की पराकाष्ठा को प्राप्त एक कृति बनाना चाहता हैशकुन्तला के द्वारा पुत्र के रूप में पाला गया मृग कार्यासकालीन हममिथुना स्रोतोवहा मालिनी । इतना संवेदनशील है कि शकुन्तला की विदाई के समय पादास्तामभितो निषण्णहरिणा गौरीगुरो. पावनाः ।। वह उसका मार्ग ही नही छोडता है
शाखालम्बितवल्क नस्य च तरोनिमातुभिच्छाम्यध । यस्य त्वया व्रणविरोपणमिगुदीना ।
थङ्ग कृष्णमृगस्य वामनयन कण्ड्मामा मृगीम् ।।--६।१७ तैल न्यषिच्यत् मुखे कुशसूचिविद्धे ॥
जिसके रेतीले किनारे पर हपो के जोड़े बैठे हुए हैं, श्यामाकमुष्टिपरिवद्धित को जहाति। ऐसी मालिनी नदी बनानी है, उसके दोनो ओर जिन पर सोऽय न पुत्रकृतक. पदवी मृगस्ते ॥
हिरण बैठे हुए है ऐसे हिमालय की पवित्र पहाड़ियाँ बनानी
--अभि० शाकु० ४।१४ है जिनकी शाखाओ पर वल्कल लटके हुए है, ऐसे वृक्ष के अर्थात् जिसके कुशों के अग्रभाग से बिंधे हुए मुख मे नीचे कृष्ण मृग के सीग पर अपनी बाई आँख खुजाती हुई तुम्हारे द्वारा धावो को भर ने वाला इगुदी का तेल लगाया मगी को बनाना चाहता है। गया था, वही यह सावॉकी मुट्ठियो (ग्रासो) को खिला हसमिथुन प्रेम का प्रतीक है। प्रेम की अवतारणा कर बड़ा किया गया और तुम्हारे द्वारा पुत्र के समान कृष्ण मृग और मृगी मे हुई है। मृगी को मृग पर इतना पाला गया मग तुम्हारे मार्ग को नहीं छोड़ रहा है। अगाध विश्वास और प्रेम है कि वह उस के सीग पर
जीवन मे अहिंसा की भावना सर्वोपरि है। जिसके अपनी बाई आंख खुजला रही है। जीवन में अहिंसक आचरण नही है। उसका लोकनिन्दित इस प्रकार सारी प्राकृतिक सृष्टि के प्रति संवेदनशील जीविका वाले व्यक्ति भी परिहास करते है। शाकुन्तल के महाकवि कालिदास ने अपने सुकुमार भावों की व्यजना में छठे अंक मे जब श्याल मत्स्योपजीवी की हँसी उड़ाता है, अहिंसा को पर्याप्त स्थान दिया है। तब वह अनुकम्पा मदु श्रोत्रिय का उदाहरण देकर अपने
( शेष पृष्ठ ६ पर)
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नियमसार को ५३वीं गाथा की व्याख्या और अर्थ में भूल
डॉ० दरबारोलाल कोठिया, न्यायाचार्य, वाराणसी आचार्य कुन्दकुन्द का नियमसार जैन परम्परा मे उसी सशोधन नही किया। आश्चर्य यह है कि सोनगढ़ से प्रकाशित प्रकार विश्रुत और प्रसिद्ध प्राकृत ग्रन्थ है जिस प्रकार नियमसार व उसकी सस्कृत-व्याख्या का हिन्दी अनुवाद भी उनका समयसार है। दोनो ग्रन्थो का पठन-पाठन और अनुवादक श्री मगनलाल जैन ने वैसा ही भूलभरा किया है । स्वाध्याय सर्वाधिक है। ये दो तो ग्रन्थ मूलतः आध्यात्मिक यहाँ हम उसे स्पष्ट कर देना आवश्यक समझते है, है। हाँ, समयसार जहाँ पूर्णतया आध्यात्मिक है वहाँ जिससे उक्त भूल सुधारी जा सके और उस भूल की गलत नियमसार आध्यात्मिक के साथ तत्त्वज्ञान प्ररूपक भी है। परमारा आगे न चले। नियमसार की वह ५३वी गाथा समयसार, प्रवचनसार और पचास्तिकाय इन तीन
पवनमार और पनास्तिकार हननी ओर टीकाकार पद्मप्रभमल धारिदेव द्वारा प्रस्तुत उसकी पर आचार्य अमृतचन्द्र की सस्कृत-टीकाएँ है, जो बहुत ही टीका निम्न प्रकार हैदुरूह एव दुरवगाह है। किन्तु तत्त्वस्पर्शी और मूलकार
___सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा। आचार्य कुन्दकुन्द के अभिप्राय को पूर्णतया अभिव्यक्त करने ____ अंतर हेऊ भणिदा दंसणमोहस्स खयपहुदो ॥५३-1 वाली तथा विद्वज्जनानन्दिनी है। नियमसार पर उनकी
__'अस्य सम्यक्त्वपरिणामस्य बाह्यसहकारिकारण सस्कृत टीका नही है, जब कि उस पर भी उनकी सस्कृत
वीतराग-सर्वज्ञमुखकमलविनिर्गतसमस्तवस्तुप्रतिपादनपदार्थटीका होना चाहिए, यह विचारणीय है।
समर्थ द्रव्यश्रुतमेव तत्त्वज्ञानमिति । ये मुमुक्षव. तेप्युपचारतः
निर्णयहेतुत्वात् अन्तरङ्गहेतव इत्युक्ता दर्शनमोहनीयकर्मक्षयनियमसार पर पद्मप्रभमलधारि देव की सस्कृत-व्याख्या
प्रभते: सकाशादिति।' है, जिसमे उन्होने उसकी गाथाओ की सस्कृत गद्य व्याख्या
--टीका पृ० १०६, सोनगढ स० तो दी ही है। साथ मे अपने और दूसरे ग्रन्थकारो के प्रचुर
गाथा और उसकी इस सस्कृत-व्याख्या का हिन्दी सस्कृत-पद्यो को भी इसमे दिया है। उनकी यह व्याख्या
अनुवाद, जो प० हिम्मतलाल जेठालाल शाह के गुजराती अमृतचन्द्र जैसी गहन तो नहीं है, किन्तु अभिप्रेत के समर्थन
अनुवाद का अक्षरश रूपान्तर है, श्री मगनलाल जैन ने इस मे उपयुक्त है ही।
प्रकार दिया हैकिसी प्रसग से हम नियमसार की ५३वी गाथा और 'सम्यक्त्व का निमित्त जिनसूत्र है जिन सूत्र के जानने उसकी व्याख्पा देख रहे थे। जब हमारी दृष्टि नियमसार वाले पुरुषों को (सम्यक्त्व के) अन्तरग हेतु कहे हैं, क्योंकि की ५३वी गाथा और उसकी व्याख्या पर गयी, तो हमे उनको दर्शन मोह के क्षयादिक है।' (गाथार्थ)। इस सम्यक्त्व प्रतीत हुआ कि उक्त गाथा की व्याख्या करने में उन्होंने परिणाम का बाह्यसहकारी कारण वीतराग सर्वज्ञ के मुख बहुत बड़ी सैद्धान्तिक भूल की है। श्री कानजी स्वामी भी कमल से निकला हुआ समस्त वस्तु के प्रतिपादन मे समर्थ उनकी इस भूल को नहीं जान पाये और व्याख्या के द्रव्यश्रुत रूप तत्त्वज्ञान ही है । जो मुमुक्षु है उन्हें भी उपचार अनुसार उन्होने उक्त गाथा के प्रवचन किये। सोनगढ़ और से पदार्थ निर्णय के हेतुपने के कारण (सम्यक्त्व परिणाम के) अब जयपुर से प्रकाशित आत्मधर्म में दिये स्वामी जी के अन्तरंग हेतु कहेहैं, क्योंकि उन्हें दर्शन मोहनीय कर्म के उन प्रवचनों को भी उसी भूल के साथ प्रकट किया गया अयादिक है।' है। सम्पादक डॉ. हुकुमचन्द जी भारिल्ल ने भी उसका इस गाथा (५३) के गुजराती पद्यानुवाद का हिन्दी
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पद्यानुवाद भी मगनलाल जैन ने दिया है, जो निम्न गतियो मे विभिन्न प्रतिपादन किये है। परन्तु अभ्यन्तर प्रकार है
साधन सभी गतियों में दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम, क्षय जिन सूत्र समकित हेतु है, अरु सूत्रज्ञाता पुरुष जो। और क्षयोपशम बतलाया है। यथावह जान अन्तर्हेतु जिसके वर्शमोहक्षयादि हो॥५३॥ 'साधन द्विविध अभ्यन्तर बाह्य च । अभ्यन्तर वर्शन
श्रीकान जी स्वामी ने भी गाथा और टीका का ऐसा मोहस्योपशम. क्षय क्षयोपशमो वा । बाह्य नारकाणां ही प्रवचन किया है, जो आत्मधर्म मे भी प्रकाशित है। प्राक्चतुर्थ्याः सम्यग्दर्शनस्य साधन केषाञ्चिज्जातिस्मरण
किन्तु टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा की केषाञ्चिद्धर्मश्रवण केषाञ्चिद्वेदनाभिभवः । चतुर्थीमारभ्य गयी उक्त (५३वीं) गाथा की संस्कृत-टीका, दोनो (गाथा आ सप्तम्या नारकाणां जातिस्मरण वेदनाभिभवश्च । और सस्कृत-टीका) का हिन्दी अनुवाद और जिस गुजराती तिरश्चा केषाञ्चिज्जातिस्मरण केषाञ्चिद्धर्मश्रवणं केषाअनुवाद पर से वह किया गया है वह तथा स्वामी जी के ञ्चिज्जिनविम्बदर्शनम् । मनुष्याणामपि तथैव ।...' उन (गाथा और सस्कृत-टीका) दोनो पर किये गये प्रवचन
--स० सि० पृ० २६१ न मूलकार आचार्य कुन्दकुन्द के आशयानुसार है और न आचार्य अकलकदेव ने भी तत्त्वार्थवात्तिक (१-७) मे सिद्धान्त के अनुकूल है।
लिखा है कि वर्शनमोहोपशभादिसाधनम, बाह्य चोपदेयथार्थं मे इस गाथा मे आचार्य कुन्दकुन्द ने सम्यग्दर्शन देशादि, स्वात्मा वा।'- अर्थात् सम्यक्त्व का अभ्यन्तर के बाह्य और अन्तरग दो निमित्त कारणो का प्रतिपादन साधन दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम, क्षय और क्षयोपशम किया है। उन्होने कहा है कि सम्यक्त्व का निमित्त (बाह्य) है तथा बाह्य साधन उपदेशादि है और उपादानकारण जिनसूत्र और जिनसूत्र के ज्ञाता पुरुष है तथा अन्तरग स्वात्मा है। हेतु (अभ्यन्तर निमित्त) दर्शनमोहनीय कर्म का क्षय आदि इन दो आचार्यों के निरूपणो से प्रकट है कि सम्यक्त्व है। यहाँ 'पहदी-प्रभृति' शब्द प्रथमा विभक्ति के बह- का अभ्यन्तर (अन्तरग) निमित्त दर्शन मोहनीय कर्म का वचन-'प्रभृतयः' का रूप है। पचमी विभस्ति-'प्रभतेः' क्षय, क्षयोपशम और उपश म है । जिन सूत्र के ज्ञाता पुरुष का रूप नहीं है, जैसा कि सस्कृत-व्यख्याकार पद्मप्रभमल- सम्यक्त्व के अभ्यन्तर निमित्त (हेतु) नही है। वास्तव में धारिदेव और उनके अनुसर्ताओ (श्री कानजी स्वामी, जिन सूत्र ज्ञाता पुरुष जिन सूत्र की तरह एकदम पर (भिन्न) गुजराती अनुवादक प० हिम्मतलाल जेठालालशाह तथा है। वे अन्तरंग हेतु उपचार से भी कदापि नहीं हो सकते । हिन्दी अनुवादक श्री मगनलाल आदि) ने समझा है। क्षायिक सम्यग्दर्ग: को केवली या श्रुतकेवली के पाद'प्रभृति' शब्द से आचार्य कुन्दकुन्द को दर्शन मोहनीय कर्म सान्निध्य में होने का जोगिद्धान्त शास्त्र मे कथन है उसी के क्षयोपशम और उपशम का ग्रहण अभिप्रेत है, क्योकि को लक्ष्य में रख कर गाथा मे जिन सूत्र के ज्ञाता पुरुषों वह दर्शन मोहनीय के क्षय के साथ है, जो कण्ठत उक्त (श्रुतकेवलियों) को सम्यक्त्व का बाह्य निमित्त कारण कहा है। और इस प्रकार क्षायिक, क्षयोपशमिक और औपशमिक गया है। उन्हे अन्तरग कारण कहना या बतलाना सिद्धान्तइन तीनो सम्यक्त्वो का अन्तरग निमित्त क्रमश दर्शन- विरुद्ध है। उनमें दर्शनमोहनीय कर्म के क्षयादिका सम्बन्ध मोहनीय कर्म का क्षय, क्षयोपशम और उपशम है। अतएव जोड़ना भी गलत है। वस्तुतः सम्यक्त्व के उन्मुख जीव मे 'पहुदी' शब्द प्रथमा विभक्ति का बहुवचनान्त है, पचमी ही दर्शन मोहनीय कर्म का क्षय, क्षयोपशम या उपशम विभक्ति का नहीं।
होना जरूरी है; अतएव वह उसके सम्यक्त्व का अन्तरंग सिद्धान्त भी यही है। आचार्य पूज्यपादने सर्वार्थसिद्धि हेतु है और जिन सूत्र श्रवण या उसके ज्ञाता पुरुषों का (१-७ में तत्त्वार्थ सूत्र के निर्देश स्वामित्व साधन...' आदि सान्निध्य बाह्य निमित्त है। सूत्र (१-७) की व्याख्या करते हुए सम्यग्दर्शन के गह्य और कुन्दकुन्द भारती के सकलयिता एवं सम्पादक डॉ. अभ्यन्तर दो साधन बतला कर बाह्य साधन तो चारों पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने भी नियमसार की उक्त
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नियमसार की ५३वों गाया की व्याख्या और अर्थ में भूल
(५३वीं) गाथा का वही अर्थ किया है, जो हमने ऊपर इस विवेचन से स्पष्ट है कि नियमसार के संस्कृतप्रशित किया है। उन्होने लिखा है कि 'सम्यक्त्व का बाह्य टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारिदेव ने उल्लिखित गाथा की निमित्त जिनसूत्र-जिनागम और उसके ज्ञायक पुरुष हैं तथा व्याख्या में जिन सूत्र के ज्ञाता पुरुषो को सम्यक्त्व का अन्तरंग निमित्त दर्शन मोहनीय कर्म का क्षय आदि कहा उपचार से अन्तरग हेतु वतला कर तथा उनसे दर्शनमोहनीय गया है।' इसका भावार्थ भी उन्होने दिया है। वह भी कर्म के क्षयादिक का सम्बन्ध जोड कर महान् सैद्धान्तिक दृष्टव्य है। उसमे लिखा है कि 'निमित्तकारण के दो भेद भूल की है। उसी भूल का अनुसरण सोनगढ़ ने किया है। है--१. बहिरंगनिमित्त और २. अन्तरगनिमित्त । साम्यक्त्व पता नहीं इस भूल की परम्परा कब तक चलेगी ! लगता की उत्पत्तिका बहिरंगनिमित्त जिनागम और उसके ज्ञाता है कि श्री कान जी स्वामी ने पद्मप्रभमलधारिदेव की इस पुरुष है तथा अन्तरगनिमित्त दर्शनमोहनीय अर्थात् मिथ्यात्व, गाथा (५३) की सस्कृत-व्याख्या पर ध्यान नहीं दिया। सम्यमिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व प्रकृति एव अनन्ता वन्धी इसी से उनकी व्याख्या के अनुसार गाथा और व्याख्या के क्रोध, मान, माया, लोभ इन प्रकृतियो का उपशम, क्षय उन्होने गलत प्रबचन किये तथा गुजराती और हिन्दी और क्षयोपशम का होना है। बहिरग निमित्त के मिलने अनुवादको ने भी उनका अनुवाद वैसा ही भलभरा किया। पर कार्य की सिद्धि होती भी है और नही भी होती, परन्तु आशा है इन भूलो का परिमार्जन किया जायेगा तथा अन्तरङ्ग निमित्त के मिलने पर कार्य की सिद्धि नियम से गलत परम्परा पर चलने से बचा जाबेगा। होती है ॥५३॥', पृ० २० ।
सम्बोधन
अनादि-निधन धर्म की सीमितकालीन प्राचीनता सिद्ध करने में कौन-सा सार है ? बहत हो चका पाषाण और शिलाखण्डों का अन्वेषण । अब ऐसे व्यावहारिक शोध-प्रबंध एवं लेखादि का लेखन भी पिष्टपेषण हा होगा-इनका भी प्रभूत भण्डार हो चुका है।
अब तो जैन भूगोल पर शोध को आवश्यकता है आध्यात्मिक और व्यावहारिक विषयों को अन्तरंग में उतारने को आवश्यकता है--जिनकी ओर से लोग आँख मूंद रहे है और वे भक्ष्याभक्ष्य, आचार, व्यवहार तथा देवशास्त्र गुरु की श्रद्धा से विमुख होकर पतन के कगार पर खड़े है। आज तो लोग धार्मिक सभा-सोसायटियों तक में मारपीट पर उतारू होते देखे जाते हैं- उनके सुधार पर थीसिस होने चाहिए।
धर्माचार बिना मनुष्य, पशतुल्य है। धर्भाचार अन्तरंग शुद्धि के लिए अभ्यास है। इसलिए धर्माचार की प्रेरणा के लिए-मद्य, मांस, मधु, अण्डा आदि तथा रात्रि भोजन और अनछने जल से हानियाँ दर्शाने वाले व हिंसादि पापों सप्त व्यसनों आदि से विरक्ति दिलाने वाले विषयों पर वैज्ञानिक और सैद्धान्तिक, आर्षक शोध-प्रबंधों की ओर प्रयत्नशील होना चाहिए।
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गतांक से मागे
अपभ्रश काव्यों में सामाजिक-चित्रण
0 डा. राजाराम जैन, रोडर एवं अध्यक्ष-संस्कृत प्राकृत विभाग, पारा
स्वयंवर प्रथा:
साहस ही न किया और जो भी प्रतियोगी अपनी हेठी __सुलोचना का स्वयंवर रचाया जाता है जिसमे देश- वाधकर भाग लेने आए उन्हे हार कर शूली पर झूलना देश के राजकुमार आशाओं के तान-वितान बिनते हुए पडा। श्रीपाल ने जब यह सुना तो वह भी अपना भाग्य स्वयंवर मण्डप में आते है। जब राजकुमारी अपने अमात्य अजमाने चल पडता है। राज-दरवार में सर्वप्रथम के साथ मण्डप मे आती है तब उसके अप्रतिम सौन्दर्य को राजकुमारी सुवर्ण देबी उससे निम्न समस्या की पूर्ति के देख कर सभी राजा आशा एवं निराश के समुद्र मे डूबने लिये कहती हैउतराने लगते है। प्रस्तोता द्वारा परिचय प्राप्त करती हई १. समस्या-गउ पेक्खतह सच सुलोचना अन्त में सेनापति मेघेश्वर के गले मे वरमाला पूर्ति--जोवण विज्जा रापयह किज्जह किपि ण गब्बु । डाल देती है।' स्वयम्बर का यह वर्णन कालिदास के
जम रुट्टइ णट्ठि एहु जमु गउ पेक्खतहु सब्बु ।। इन्दुमति-स्वयंवर से पूर्णतया प्रभावित है ?
अर्थात् यौवन, विद्या, एव सम्पति पर कभी भी गर्व समस्या-पूति-परम्परा :
नहीं करना चाहिए क्योकि इस ससार मे जब यमराज अपभ्रश-साहित्य में समस्या-पूर्ति के रूप मे कुछ रूठ जाता है तब सब कुछ देखते ही देखते चना' जाता है। गाथाए उपलब्ध होती है इनके प्रयोग राज दरबारो या २. समस्या--ते पचाणणसीह । सामान्य-कक्षो में होते थे। इनका रूप प्राय. वही था जो
पूर्ति-रज्जु-मोउ-महि-घरिणि-धरुभव-भमणहुनणिवीह । आजकल के 'इण्टरव्यू' का है। व्यक्ति के बाह्य परीक्षण
जे छडेवि बरतउ करहि ते पचाणिण सीह ।। के तो अनेक माध्यम थे, किन्तु चतुराई, प्रतिमा,
अर्थात् राज्यभोग, पृथ्बी, गहिणी एव भवन इन्हे आशुकवित्व प्रश्न के तत्काल उत्तर-स्वरूप आशुप्रतिमा
भव-भ्रमण का कारण जान कर जो व्यक्ति उनका आदि के परीक्षणार्थ समस्यापूर्ति के पद्यो से व्यक्ति के
त्याग कर देते है तथा श्रेष्ठ तप का आचरण करते है स्वभाव, विचारधारा उसको कुलीनता एवं वातावरण का
'उनकी आत्मा पचाग्नि-शिखा के समान निर्मल हो जाती है।' भी सहज अनुमान हो जाता था।
३. समस्या-तहु कच्चरु सुमट्ठि । 'सिरिवाल चरिउ' मे एक प्रसंग आया है जिसके
पूर्ति-जेहिं ण लद्धउ अप्पपुणु तह विसयह सुहइट्ठ । अनुसार कोंकणणापट्टन नरेश यशराशि को १६००
जेहि ण मक्खिउ केलिफलु तहु कच्चरु सुमिट्ठ ।। राजकुमारियों में से ८ हठीली एवं गर्वीली राजकुमारियो
अर्थात् जिसने आत्मगुण नही किया, वह विषय-वासना ने प्रतिज्ञा की थी कि वे ऐसे व्यक्ति के साथ अपना विवाह के सुखो को ही सुख मानता है। जिसने कभी भी केला करेंगी जो उनकी समस्याओं की पूर्ति गाथा छन्द में नहीं खाया हो उसे 'कचरा भी मीठा लगता है। करेगा। उनकी यह भी शर्त थी कि जो भी प्रतियोगी उनके ४. समस्या-कासु पियावउ खीरु । उत्तर नही दे सकेगा, उसे शूली पर चढा दिया जायगा पूर्ति—पज्जणु वि छठ्ठी निसिहि हरिणियउ जा वीरु । फलस्वरूप हीनबुद्धि व्यक्तियों ने तो उसमें भाग लेने का
ता रुप्पिणि सहियह मणइ कासु पियावउ खीरु।। १. मेहेसर चरिउ-४।१०।
२. मिरिवालचरिउ-८।६।१-८ ।
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अपभ्रंश काव्यों में सामाजिक-चित्रण
अर्थात् अपनी छट्ठी की रात्रि में ही एक विद्याधर बड़ा भारी अपमान है। अत: अब तत्काल यहां से चल द्वारा प्रद्युम्न का अपहरण कर लिया गया। इसीलिए देना चाहिए।' यह विचार कर वह अगले दिन ही सबसे रुक्मिणी अपनी सखियों से कहती है कि मैं अपना स्तनपान आज्ञा लेकर चल देता है। किसे कराऊँ ?
बेटी की विदा: ५. समस्या-काइ विटतउ तेण
विवाह के बाद बेटी की विदा माता-पिता के जीवन पूर्ति-धरहु तेणजि पवरघणु दाणु न दिण्णउ तेन । की सर्वाधिक मार्मिक एवं करुण घटना है। भारतीय समाज
लोह मरि नरयहं गयउ काइं विटत्तउ तेण ॥ मे बेटी का जन्म प्रारम्भ से ही उसके माता-पिता के लिये अर्थात् प्रचुर धनार्जन करके घर तो भर लिया किन्तु एक बडी भारी धरोहर के रूप में माना जाता रहा है। दान नहीं दिया और लोभ के कारण नरक मे जा पड़ा। एक और तो उन्हे सुयोग्य विवाह-सम्बन्ध के हो जाने तथा तब 'ऐसे धनार्जन से लाभ ही क्या?
पुत्री के स्वर्णिम भविष्य की कल्पना से आल्हाद उत्पन्न ६ समस्या-पुण्णं लब्भह एहु ।।
होता था, तो दूसरी ओर विवाहोपरान्त विदा करते समय पूर्ति-विज्जा-जोदण-व-घणु-परियणु कय णेहु ।
उसके दिछोह का असहनीय दुख भी होता है। किन्तु यह बल्लहजण मेलायउ पुणे लपइ एहु ।।
एक ऐसा सामाजिक नियम है कि जिसकी उपेक्षा नही की अर्थात् ससार में विद्या यौवन, सौ. दर्य, धन, भवन, जा सकती। अपभ्रश-कवियो ने इस प्रसग को बडा ही परिजनो का स्नेह एवं प्रियजनो का सयोग पूण्य से ही करणाजनक बताया है। मेहेसर चरिउ के एक प्रसंग में प्राप्त होता है।
अपनी बेटो की विदा के समय राजा अकम्पन का सारा उक्त समस्यापूर्तियो मे पौराणिक, आध्यात्मिक, परिवार एव नगर शोकाकुल हो जाता है। पिता उसे सामाजिक एव लोकिक सभी प्रकार के प्रसग आए है। अवरुद्ध कण्ठ से शिक्षाए देता हुआ वहता है-'हे पुत्रि, श्रीपाल अपने शिक्षा काल मे गुरु चरणो मे बैठ कर सभी अप। शील उज्ज्वल रखना, पति के प्रतिकूल कोई भी विद्याओं में पारंगत हो चुका था अत राजदरबार के इस कार्य मत करना । कडए एवं कठोर वचन मत बोलना, साक्षात्कार मे वह उत्तीर्ण हो गया और उन हठीली एव सास ससुर को ही अपना माता-पिता मान कर विनय गर्वीली राजकुमारियो को जीत लिया।
करना, गुरुजनो को प्रत्युत्तर मत देना, सभी से हसी-मजाक जामाताओं का ससुराल में निवान :
मन करना। घर में सभी को सुला कर सोना एव सबसे जामाताओ के लिये ससुगल का मुख सर्वाधिक सन्तुष्टि पहले जाग उठना । बिना परीक्षण किए कोई भी कार्य मत का कारण होता है क्योकि वहा माले-सालियो के साथ करना । ऐसा भी कोई कार्य मत करना, जिससे मुझ प्रेमालाप, मधुर मिष्ठान एव सभी प्रकार के सम्मान सहज अपयश का भागी होना पडे ।" ही उपलब्ध रहते हैं। अन अपभ्रश काव्यो मे अनेक फिर वह अपने जामाता से कहता है-"हमारे ऊपर जामाता विवाहोपरान्त कुछ समय के लिये ससुराल मे स्नेहकृपा बनाये रखना तथा समय-समय पर आते-जाते रहते हुए देखे जाते है। श्रीपाल भी अपनी ससुराल में बने रहना । अपनी बेटी सुलोचना तुम्हारे हाथों में सौप दी जब कुछ दिन रह लेता है तब एक दिन अर्धरात्रि के समय हैं अत अब उसका निर्वाह करना। जाउ के आगे भी उसकी नीद खुल जाती है और विचार करने लगता है कि कुछ कहना चाहता था, किन्तु उसका गला रुध गया, वाणी मैं ससुराल मे पड़ा हुआ हूँ। यहा लोग मुझे 'राज जवाई' मूक हो गई और आसुओ के पनारे बहने लगे, फलस्वरूप कहते हैं। न तो मेरा कोई नाम एव शौर्य-पराक्रम ही वह बेचारा आगे कुछ भी न कह सका।' जानता है और न मेरे पराक्रमी तिा तथा उनके साम्राज्य परिवार में पुत्र का महत्व: के विषय में ही किसी को कोई जानकारी है। यह तो मेरा भारतीय सामाजिक-परिवार मे पुत्र का स्थान पूर्ण १. सिरिवाल चरिउ-४१ ।
२. मेहेस र चरिउ-७1८-६ ।
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उत्तरदायित्वपूर्ण माना गया है, क्योंकि नवीन पीढ़ी का वह कर्णधार होता है। आचार संहिता के अनुसार पिता को दीक्षा लेने का अधिकार उस समय तक नही रहता जब तक कि उसे पुत्र प्राप्ति न हो जाय। 'सुक्कोमल चरिउ में बताया गया है कि अयोध्या को राजा कीर्तिधवल जिस समय ससार से उदास होकर सन्यास लेने का विचार करता है तभी उसका सुबुद्ध मन्त्री उसे सविधान का स्मरण दिलाता है तथा कहता है कि राजन् यह आपके कुल की परम्परा रही है कि जब तक उत्तराधिकारी पुत्र का जन्म न हो जाय तब तक किसी ने सन्यास नही लिया ।""
अपभ्रंश काव्यों मे पुत्र महिमा का गान कई स्थलो पर किया गया है । 'मेहेसर चरिउ में एक प्रसंग में कहा गया है कि "पुत्र अपने कुलरूपी मन्दिर का दीपक है, यह अपने परिवार का जीवन है, कुल की प्रगति का द्योतक है, परिजनों की आशा-अभिलाषाओं की साकार प्रतिमा है, कुल के भरण-पोषण के लिये वह कल्पवृक्ष के समान है और वृद्धावस्था में वह माता-पिता को हर प्रकार के सकटो से बचाने वाला है।
मनेकान्त
'सुकौसल चरिउ' में एक अद्भुत उदाहरण भी मिलता है। जब राजा सुकोशल संसार से उदास होकर संन्यास लेने का विचार करता है तब पुत्रजन्म के अभाव मे उसको सम्मुख भी राज्य छोड़ने सम्बन्धी बाधा उपस्थित हुई। संयोग से उसकी तीस रानियों में से चित्रमाला नाम की एक रानी, गर्भवती थी अतः वह उसके गर्भस्थ बच्चे को ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर तथा उसे नृपपट्ट बांध कर स्वयं वनवास धारण कर लेता है । समाज में कवियों को प्राभयदान
अपभ्रंश-साहित्य के निर्माण का अधिकाश श्रेयश्रेष्ठियों, राजाओं अथवा सामन्तो को है। मध्यकालीन श्रेष्ठि वर्ग एव सामन्त गणराज्य के आर्थिक एव राजनीतिक विकास के मूल कारण होने के कारण राज्य में सम्मानित एवं प्रभावशाली स्थान बनाये हुए थे। समयसमय पर इन्होने साहित्यकारो को प्रेरणाए एव आश्रयदान देकर साहित्य की बड़ी सेवाएं की है।
१. सुकोसल ०३३१८ ।
२. मेहेसरचरिउ -- २८१-३ ।
इन आश्रयदाताओं की अभिरुचि बड़ी सात्विक एवं परिष्कृत रूप परिष्कृत रूप में पाई जाती है। भौतिक समृद्धियों एवं भोग-विलास के ऐश्वर्यपूर्ण वातावरण मे रह कर भी वे धर्म, समाज, राष्ट्र साहित्य एवं साहित्यकारों के प्रति अपने दायित्व को विस्मृत नहीं करते महामात्य भरत, उनके पुत्र नन्न एवं कमल सिंह सपवी प्रमृति आश्रयदाता इसी कोटि मे आते है ।
पायकुमार चरिउ एवं जहसर चरिउ तथा तिसपुरिमगुणाकार जैसे शिरोमणि काव्यों के प्रणेता महाकवि पुष्पदन्त 'अभिमानमेरु' अभिमानचिह्न काव्यपिशाच जैसे गर्वीले विशेषणों से विभूषित थे। उनकी ज्ञान-गरिमा को देखते हुए सचमुच ही वे विशेषण सार्थक प्रतीत होते है । उनका साहित्यिक अभिमान एव स्वाभिमान विश्व-वाङ्मय के इतिहास में अनुपम है किसी के द्वारा अपमान किये जाने पर उस वाग्विभूति ने तत्काल ही अपना राजसीनिवास त्याग दिया और वन मे डेरा डाल दिया । वहाँ अम्मद और इन्द्र नामक पुरुषो द्वारा पूछे जाने पर उन्होंने कहा था- "गिरिकन्दराओ मे घास खाकर रह जाना अच्छा, किन्तु दुर्जनों की टेढ़ीमेड़ी मोहे सहना अच्छा नही । माता की कोख से जन्मते ही मर जाना अच्छा, किन्तु किसी राजा के भ्रू कुचित नेत्र देखना और उसके कुबचन सुनना अच्छा नही, क्योकि राजलक्ष्मी दुरते हुए चवरो की हवा से सारे गुणों को उड़ा देती है, अभिषेक के जल से सारे गुणों को धो डालती है, विवेकहीन बना देती है और दर्प से फूली रहती है। इसीलिये मैने इस वन मे शरण ली है ।"*
राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज (तृतीय) के महामन्त्री भरत कवि के ज्वालामयी स्वभाव को जानता था और फिर भी वह उन्हे मान कर अपने घर ले आया और सभी प्रकार का सम्मान एव आश्वासन देकर साहित्य रचना की ओर उन्हें प्रेरित किया । तिसट्ठिमहापुरिस गुणालकारु' के प्रथम भाग की समाप्ति के बाद कवि पुनः वेद खिन्न हो गया तब भरत ने पुनः कवि से निवेदन किया हे महाकवि, आप खेद खिन्न क्यो है ? क्या काव्य-रचना में मन नहीं
लगता ? अथवा मुझसे कोई अपराध बन पड़ा है ? या क्या
३. सुकोसल
४. महापुराण- ११३०४-१५ ।
1612–0.
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है फिर आप निद्ध वाणी रूपी धेनु का नवरसक्षीर क्यो नही करते " भरत के इस मृदुशील भाषण एवं विनयशील स्वभाव के द्वारा फक्कड एव अक्खड महाकवि बड़ा प्रभावित हुआ और बडी ही आत्मीयता के साथ भरत से बोला - " मैं धन को तिनके के समान गिनता हूं, मैं उसे नही लेता। मैं तो केवल अकारण प्रेम का भूखा हू और इसी से तुम्हारे राजमहल मे रुका हूँ इतना ही नहीं, कवि ने पुन उसके विषय मे लिखा है "भरतस्वय सन्तजनों की तरह सात्विक जीवन व्यतीत करता है, वह विद्यायनी है उसका निवास स्थान संगीत, काव्य एव गोष्ठियों का केन्द्र बन गया है । उसके यहा लिपिक ग्रन्थो की प्रतिलिपियाँ किया करते है। उसमें लक्ष्मी एव सरस्वती का अपूर्ण समन्वय है ।""
कमल सिंह संघवी गोपाचल के तोमरवशी राजा डूंगरसिंह का महामात्य था । उसकी इच्छा थी कि वह प्रतिदिन किसी नवीन काव्य ग्रन्थ का स्वाध्याय किया करे । अतः वह राज्य के महाकवि रह से निवेदन करता है कि हे सरस्वती-निलय, शयनासन, हाथी, घोडे, ध्वजा, छत्र चवर सुन्दर रानिया, रथ, सेना, सोना चांदी, धन-धान्य, भवन, सम्पत्ति, कोष, नगर. ग्राम, बन्धुवान्धव, सन्तान, पुत्र भाई आदि सभी मुझे उपलब्ध है सौभाग्य से किसी भी प्रकार की भौतिक सामग्री की मुझे कमी नही है, किन्तु इतना सब होने पर भी मुझे एक वस्तु का अभाव सदा खटकता रहता है और वह यह कि मेरे पास काव्यरूपी एक भी सुन्दरमणि नही है। उसके बिना मेरा सारा वैभव फीका-फीका लगता है । अत. हे काव्यरत्नाकर, आप तो मेरे स्नेही बालमित्र है अतः अपने हृदय की गाठ खोल कर आपसे सच-सच कहता हूं, आप कृपा कर मेरे निमित्त से एक काव्य रचना कर मुझे अनुगृहीत कीजिए।" कवियों का सार्वजनिक सम्मान :
अपभ्रंश-काव्य-प्रशस्तियों मे विद्वान् कवियो के सार्वजनिक सम्मानों की भी कुछ घटनाएं उपलब्ध होती है ।
१. महापुराण -- ३८।३।।६-१० ।
महाकवि पुष्पदन्त पृष्ठ ८१ ।
अपभ्रंश काव्यों में सामाजिक-चित्रण
•
३. उपरोक्त – पृष्ठ ८१ ।
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४. सम्मत्तगुण० १।१४ । ५. सम्मत्तगुण० ६।३४ ।
इनसे सामाजिक अभिरुचियो का पता चलता है। 'सम्मतगुणणिहाण कव्व से विदित होता है कि महाकवि रघू ने जब अपने उक्त काव्य की रचना समाप्त की और अपने आश्रयदाता कमल सिंह सघवी को समर्पित किया तब कमल सिंह इतने आत्मविभोर हो उठे कि उसे लेकर वे नाचने लगे। इतना ही नहीं, उन्होंने उक्त कृति एव कृतिकार दोनों को ही राज्य के सर्वश्रेष्ठ शुभ्रवर्ण वाले हाथी पर विराजमान कर गाजे-बाजे के साथ सवारी निकाली और उनका सार्वजनिक सम्मान किया था । "
-
१५
इसी प्रकार एक अन्य घटना प्रसंग से विदित होता है कि 'पुष्णसवका' नामक एक अपक्ष ण कृति की परिसमाप्ति पर साहू साधारण को जब धीरदास नामक द्वितीय पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई तब बड़ी प्रसन्नता के स. साधारण साहू ने महाकवि रघू एवं उनकी कृति पुष्णका' को चौहानवशी नरेश प्रतापरुद्र के राज्यका नमन्द्रवापट्टन मे हाथी की सवारी देकर सम्मानित किया था। व्यक्तियों के नाम रखने को मनोरंज घटना
अपभ्रंश काव्य-प्रशस्तियों मे व्यक्तियों के नाम रखने सम्बन्धी 'कुछ मनोरंजक उदाहरण मिलते है। मेहेसर चरिउ नामक एक अप्रकाशित चरितकाव्य के प्रेरक एवं आश्रयदाता साहू णेमदास के परिचय प्रसंग में कहा गया है कि उसके पुत्र ऋषिराम को उस समय पुत्ररत्न की उपलब्धि हुई है जबकि यह पचकल्याणक प्रतिष्ठा के समय जिनप्रतिमा पर तिलक निकाल रहा था। इसी उपलक्ष्य में उस नवजात शिशु का नाम तिलकू अथवा तिलकचन्द्र रख दिया गया। राजनैतिक तथ्य :
अपन श-काव्यों के राजनैतिक अवस्था के जो भी चित्रण हुए है वे सभी राजतन्त्रीय है। कवियो ने सहताग राज्य' एव पचाग मन्त्रियों' के उल्लेख किये हैं । कौटिल्य के अनुसार दुर्ग राष्ट्र खनि सेतु, वन, वन एवं व्यापार
६. पुण्णा सव०
१३।१२।२ ।
७. उपरिवत् १२।११।१३-१४ ।
८. विशेष के लिये दे० र साहित्य का आलोचनात्मक
परिशीलन पृ० ४०६-२२ ।
६. उपरिवत् ।
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१६, वर्ष ३५ कि०३
अनेकान्त
दूत :
'सप्ताग राज्य' कहलाता है। एव कार्यारम्भ का उपाय, होने तक उसकी माता प्रतिनिधि के रूप में कार्य करती थी।' पुरुष तथा द्रव्य-सम्पत्ति, देश-काल का विभाव, विघ्नप्रतिकार एवं कार्यसिद्धि रूप पंचाग मन्त्री का होना
शासन : बताया है कवियो ने इनके विश्लेषण प्रस्तुत नही किये है।
राजतन्त्रीय व्यवस्था होने पर भी अमरकंकापुरी के राजा पद्मनाथ के भ्रष्ट-आचरण निकल जाने पर प्रजा
द्वारा राज्यच्युत किये जाने का भी उल्लेख मिलता है।' अपभ्र श-साहित्य मे दूतो के उल्लेख अधिक आए है।
शासन का कार्य यद्यपि राजा ही करता था, किन्तु कभीइसका कारण यह प्रतीत होता है कि उस युग मे युद्धो की
कभी उसे जनता की भावना का भी ध्यान रखना पड़ता। भरमार थी और युद्ध के पूर्व दूतो के माध्यम से समस्या
भविसयत्तकहा के एक प्रसगानुसार राजा भूपाल जब सुलझाने का प्रयास किया जाता था। दूतो की असफलता
बन्धुदत्त एव उसके पिता धनपति को कारागार में डाल युद्धो के आह्वान की भूमिका बनती थी।
देता है तब दूत उसे आकर समाचार देता है—घर-घर मे
कार्य बन्द हो गया है, नर-नारी रुदन कर रहे हैं । बाजार अध्ययन से विदित होता है कि इन कवियों ने प्राय मे लेन-देन ठप्प है तथा आपकी मुद्रा का प्रचलन भी बन्द शासनहर नामक दूत के ही अधिक उल्लेख किये है। वह है ? अन्त मे राजा को उसे छोड़ना पड़ता है।' घोडे आदि वाहनो पर सवार होकर शत्रु राज्य की ओर
व्रत-त्यौहार : प्रस्थान करता था। उसमे प्रत्युत्पन्नमनित्व का होना अत्यावश्यक था । वह शत्रु देश के वन रक्षक, नगर निवासिनो
व्रत-त्यौहार मानवजीयन की भौतिक एव आध्यात्मिक से मित्रता रखता था। शत्रु राजा के दुर्ग र ज्यमीमा,
समृद्धि के प्रतीक है। जीवन को एक रस जन्य विराग एव
निराशा से दूर रखने के लिये इनकी महती आवश्यकता आयु और राष्ट्र रक्षा के उपायो से वह सम्पररूपेण परिचित
है। अभ्र श-साहित्य में इनके पर्याप्त उल्लेख मिलते है। रहता था।
ऐसे व्रत त्यौहारो मे करवा चौथ, नागपचमी, गौरीतीज, राज्य का उत्तराधि. रो :
शीतलाष्टमी, सुगन्ध दशमी, मुक्तावली, निर्दुखसप्तमी, दुग्ध
__ एकादशी आदि व्रतो का नाम उल्लेखनीय है ।' राज्य के उत्तराधिकारी के निर्वाचन के सम्बन्ध में स्पष्ट सिद्धान्त नही मिलते । राजतन्त्रीय व्यवस्था में राजा इसी प्रकार विशेष अवसरों पर विविध पूजाओं के का बड़ा पुत्र ही राजा का उत्तराधिकारी समझा जाता भी उल्लेख आए है जिनमे से कुछ के नाम इस प्रकार हैथा। सर्वदा पट्टरानी का पुत्र ही राज्याधिकारी होता था। गौरीपूजा, गगापूजा, दूर्वादलपूजा, वटवृक्षपूजा, चन्द्रग्रहण वयस्क पुत्र के अभाव मे शिशु अथवा गर्भस्थ बालक को पूजा, छठपूजा, द्वादशीपूजा, नन्दीश्वरपूजा, श्री पचमीपूजा, उत्तराधिकारी घोषित कर दिया जाता था और उसके योग्य तपवमी पूजा आदि ।
(क्रमश) १. उपरिवत् । पृ० ४६१
पृ० २७६ से उद्धृत। २. सुकोसल० ४७ ।
५. अप्पसवोह० २।२५। ३. हरिवंस० १२।४ ।
६. अप्पसंवोह २।१३। ४. भविसयत्त पृ०७०, अपभ्रंश भाषा और साहित्य
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जैन और यूनानी परमाणुवाद : एक तुलनात्मक विवेचन
- डा. लालचन्द जैन
जेन-दर्शन के अहिंसावाद, अपरिग्रहवाद, कर्भवाद, सिद्धान्तो की तरह परमाणुवाद अत्यधिक प्राचीन है। जैन अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, अध्यात्मवाद और परमाणुवाद वाङ्मय मे परमाणु के स्वरूप भेद आदि का सूक्ष्म विवेचन मूलभूत सिद्धान्त है। इनमे से कतिपय सिद्धान्तो का उपलब्ध होता है। इस प्रकार विवेचन अन्यत्र अर्थात् तुलनात्मक विवेचन किया गया है। परमाणुवाद भी इसको भारतीय और पाश्चात्य वांगमय में नहीं हो सका है। अपेक्षा रखता है। परमाणुवाद जैन-दर्शन की भारतीय जैन-दर्शन में परमाण का स्वरूप-परिभाषाएँ: दर्शन को एक महत्वपूर्ण और अनुपम देन है। विश्व के परमाण शब्द 'परम' 'अण' के मेल से बना है। सामने सर्वप्रथम भारतीय चिन्तको ने यह सिद्धान्त प्रस्तुत
परमाणु का अर्थ हुआ सबसे उत्कृष्ट सूक्ष्मतम अणु । द्रव्यों किया था। अब प्रश्न यह उठता है कि भारत में सर्वप्रथम में जिससे छोटा दूसरा द्रव्य नहीं होता है वह अणु कहलाता किस निकाय के मनीषियों ने परमाणु-सिद्धान्त प्रस्तुत है अत अणु का अर्थ सूक्ष्म है। अणुओ में जो अत्यन्त सूक्ष्म किया? जैकोबी ने इस पर गहराई से विचार करके इसका
होता है वह परमाणु कहलाता है। बारहवे अंग दृष्टिवाद श्रेय जैनमनीषियों को दिया है। इसके बाद वैशेषिक
का दोहन करने वाले आचार्य कुन्दकुन्द के पाहुडों में दार्शनिक कणाद इस परम्परा मे आते है।'
परमाणु का सर्वप्रथम विवेचन किया है जिसका अनुकरण पाश्चात्य देशो मे जो दार्शनिक विचारधारा उपलब्ध अन्य आचार्यों ने किया है । है उसका बीजारोपण सर्वप्रथम यूनान (ग्रीस) मे ईसा पूर्व प्राचार्य कुन्दकुन्द : छठी शताब्दी में हुआ था। ग्रीक-दर्शन के प्रारम्भिक आचार्य कुन्दकुन्द ने परमाणु की निम्नाकित परिभाषा दार्शनिको को वैज्ञानिक कहना अधिक उपयुक्त समझा गया दी है। है। इनमे एम्पेडोक्लीज के समकालीन ईसा से पूर्व पाचवी
(क) परमाणु पुद्गल द्रव्य कहलाता है।' शताब्दी मे होने वाले 'ल्यूसीयस' और डिमाड्रिप्स का सिद्धान्त परमाणूवाद के नाम से प्रसिद्ध है। इनके इस
(ख) पुद्गल द्रव्य का वह सबसे छोटा भाग जिसको सिद्धान्त की जैनो के परमाणुवाद के साथ तुलना प्रस्तुत
पुन विभाजित नही किया जा सकता है परमाणु की जायेगी ताकि अनेक प्रकार की प्रातियों और आशकाओ
___कहलाता है।' का निराकरण हो सके।
(ग) स्कन्धों (छह प्रकार के स्कन्धों) के अंतिम भेद भगवान ऋषभदेव जैन धर्म-दर्शन के प्रवर्तक सिद्ध हो (अर्थात् अति सूक्ष्म-सूक्ष्म को जो शाश्वत्, शब्दहीन, एक चुके है। जैन-धर्म मे इन्हे तीर्थकर कहा जाता है। इस अविभागी और मूर्तिक परमाणु कहलाता है। प्रकार के तीर्थकर जैन-धर्म में चौबीस हुए हैं। भगवान (घ) जो आदेशमात्र से (गुणगुणी के संज्ञादि भेदों से) महावीर अंतिम तीर्थकर थे। ऋषभदेव की परम्परा से मूर्तिक है, पृथिवी, जल, अग्नि और वायु इन चार धातुओं प्राप्त जैन धर्म-दर्शन के सिद्धान्तों को ई०पू० ५४० मे का कारण है, परिणमन स्वभाव वाला है, स्वयं अशब्द रूप भगवान महावीर ने संशोधित-परिमार्जित करके नये रूप है, नित्य है, न अनवकाशी है, न सावकाशी है, एक प्रदेशी में प्रस्तुत किया था। तीर्थंकरों के उपदेश जिस पुस्तक में है, स्कन्धों का कर्ता है, काल संख्या का भेद करने वाला निबद्ध किये गये वे आगम कहलाते है। आगमों में अन्य है, जिसमें एक रूप, एक रस, एक गंध और दो स्पर्श होते
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१८, वर्ष ३५, कि०३
अनेकान्त
हैं, शब्द का कारण है स्वयं शब्दरहित है, और स्कन्धों से आदि है, वही मध्य और वही अन्त है।" जो भिन्न द्रव्य है वह परमाणु कहलाता है।
भट्ट अकलंकदेव : () जो स्वयं ही आदि है, स्वयं ही अत है, चक्षु परमाणु के स्वरूप का विवेचन करते हुए सर्वप्रथम आदि इन्द्रियो के द्वारा जिसे नही ग्रहण किया जा सकता है अकलंकदेव ने तत्वार्थवात्तिक मे परमाणु की सत्ता सिद्ध और जो अविभागी है, वह परमाणु कहलाता है।' करना आवश्यक समझा है।
(च) जो पृथ्वी आदि चार धातुओं का कारण है वह (१) परमाणु अप्रदेशी होते हुए भी खर-विषाण की कारण परमाणु और जो स्कन्धों के टूटने (अविभाज्य अश) तरह अस्तित्वहीन नही है क्योकि अप्रदेशी कहने का अर्थ से बनता है, वह कार्य परमाणु कहलाता है।
प्रदेशो का सर्वथा अभाव नहीं है अप्रदेशी का अर्थ है कि प्राचार्य उमास्वामी :
परमाणु एक प्रदेशी है। जिसके प्रदेश नहीं होते है उनका उमास्वामी ने तत्वार्थसूत्र में अनेक प्रदेश रहित द्रव्य अस्तित्व नही होता है। जैसे-खरविषाण । परमाणु के को अर्थात जिसके मात्र एक प्रदेश होता है उसे अणु एक प्रदेश होता है इसलिए उसका अस्तित्व है।" कहा है।
परमाणु की सत्ता सिद्ध करने के लिए दूसरा तर्क यह (ख) अणुओ की उत्पत्ति स्कन्धों के टूटने से होती है।" दिया है कि जिस प्रकार विज्ञान का आदि, मध्य और
श्वेताम्बरमत में मान्य उमास्वाति ने अपने भाष्य मे अन्त नही होता है फिर उसकी सत्ता सभी स्वीकार करते कहा है कि परमाणु आदि मध्य और प्रदेश से रहित है उसी प्रकार आदि, मध्य और अन्त रहित परमाणु की होता है।"
भी सत्ता है। अत आदि मध्य और अन्त रहित परमाणु (घ) भाष्य मे यह भी कहा गया है कि परमाणु की सत्ता न मानना ठीक नहीं है।" कारण ही है, अन्त्य है, (उसके अनन्तर दूसरा कोई भेद । (३) परमाणु के अस्तित्व सिद्ध करने के लिए तीसरा नही है)। सूक्ष्म है, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण गुणवाला है, कारण दिया है कि परमाणु की सत्ता है क्योकि उसका कार्यलिंग है अर्थात परमाणओ के कार्यों को देखकर उसके कार्य दिखलाई पड़ता है।
कार्य दिखलाई पडता है। शरीर, इन्द्रिय, महाभूत आदि अस्तित्व का बोध होता है।"
परमाणु के कार्य है। क्योकि परमाणुओ के सयोग से उनकी (ङ) परमाणु अबद्ध है अर्थात् वे परस्पर मे अलग
स्कन्ध रूप मे रचना हुई है। कार्य बिना कारण के नही अलग असंश्लिष्ट अवस्था में रहते है।"
होता है। यह सर्वमान्य सिद्धान्त है। अत कार्यलिंग से पूज्यपादाचार्य :
कारण के रूप मे परमाणु का अस्तित्व सिद्ध होता है।" तत्वार्थसूत्र के सर्वप्रथम टीकाकार आचार्य पूज्यपाद ने तत्वार्थधिगम-भाष्य में भी यह तर्क दिया गया है। सर्वार्थसिद्धि नामक तत्वार्थसूत्र की टीका से परमाणु की
इस प्रकार भट्ट अकलंकदेव ने परमाणु का अस्तित्व निम्नाकितपरिभाषा दी है
। सिद्ध किया है। ग्रीक और वैशेषिक-दर्शन में परमाणु की (क) अणु प्रदेश रहित अर्थात् प्रदेश मात्र होता है।"
स्वतन्त्र सत्ता नहीं सिद्ध की गई। क्योंकि अणु के अतिरिक्त अन्य कोई भी ऐसी वस्तु नही है जो अणु से भी अधिक अल्प परिमाण वाली अर्थात्
जहां भट्ट अकलंकदेव ने पूज्यपादाचार्य का अनुकरण छोटी हो।" अत. पूज्यपाद ने प्रदेश और अणु को एकार्थक करते हुए परमाणु के स्वरूप का विवेचनकिया है," वहीं माना है।"
उन्होने श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय मे मान्य तत्वार्थाधिगम (ख) प्रदेशमात्र मे होने वाले स्पर्शादि पर्याय को सूत्र के भाष्य में दिया गया परमाण के स्वरूप का उत्पन्न करने की सामर्थ्य रूप से जो अयन्ते अर्थात-शब्दो निराकरण भी किया है जो यहाँ प्रस्तुत हैके द्वारा कहे जाते है वे अणु कहलाते है।"
(१) परमाणु कथचित् कारण और कथंचित कार्य (ग) अणु अत्यन्त सूक्ष्म है। यही कारण है कि वही स्वरूप है
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जन और यूनानी परमाणुवार। एक तुलनात्मक विवेचन तत्त्वार्थाधिगम सूत्र भाष्य मे परमाणु को कारण ही परमाणु स्यात् कार्य है क्योकि स्कन्ध के भेदन करने ऐसा कहा गया है। भट्ट अकलंकदेव कहते है कि परमाणु से उत्पन्न होता है और वह स्निग्ध, रूक्ष आदि कार्यभूत को 'कारणमेव' अर्थात् 'कारण ही है। ऐसा मानना ठीक गुणों का आधार है। नहीं है क्योंकि परमाणु एकान्त रूप कारण ही नही है परमाणु से छोटा कोई भेद नही है इसलिए परमाणु बल्कि कार्य भी है।" उमास्वामी ने स्वय बतलाया है कि स्यात् अन्त्य है। यद्यपि परमाणु मे प्रदेश भेद नहीं होता परमाणु स्कन्धों के टूटने से बनते है। अतः परमाणु है, लेकिन गुण भेद होता है, इसलिए परमाणु स्यात् कथंचित् कारण और कथंचित् कार्य स्वरूप है ।
नान्त्य है। (२) परमाणु नित्य और अनित्य स्वरूप है
परमाणु सूक्ष्मरूप परिणमन करता है इसलिए वह कुछ जैन, वैशेषिक और ग्रीक दार्शनिकों ने परमाणु स्यात् सूक्ष्म है। को एकान्त रूप से नित्य ही माना है। भट्ट अकलंक कहते परमाणु में स्थूल कार्य उत्पन्न करने की योग्यता होती है कि परमाणु को सर्वथा नित्य मानना ठीक नहीं है क्योकि है। अत: परमाणु स्यात् स्थूल है। स्नेह आदि गुण परमाणु में विद्यमान रहने के कारण परमाणु द्रव्य रूप से नष्ट नही होता है इसलिए वह परमाणु अनित्य भी है। ये स्नेह, रस आदि गुण परमाणु स्यात् नित्य है।। मे उत्पन्न विनष्ट होते रहते है। परमाणु द्रव्य की अपेक्षा परमाणु स्यात् अनित्य भी है क्योकि वह बन्ध और नित्य और स्नेह-रूक्ष, रम, गध आदि गुणो के उत्पन्न- भेद रूप पर्याय को प्राप्त होता है और उसके गुणो का विनष्ट होने की अपेक्षा अनित्य भी है।" इसलिए परमाणु विपरिणमन होता है। को सर्वथा नित्य कहना ठीक नही है। दूसरी बात है कि अप्रदेशी होने से परमाणु मे एक रस, एक वर्ण और परमाणु परिणामी होते है। कोई भी पदार्थ अपरिमाणी दो अविरोधी रस होते है, अनेक प्रदेशी स्कन्ध रूप परिमणन नही होते है ।" इसलिए परमाणु कथचित् अनित्य भी है। करने की शक्ति परमाणु मे होती है, इसलिए परमाणु अनेक
(३) परमाणु सर्वथा अनादि नही है--परमाणु को रसो बाला भी है। कुछ दार्शनिक अनादि मानते हैं, अकलंकदेव ने इस कथन इस प्रकार अकलंकदेव भट्ट ने अनेकान्त प्रक्रिया के का खंडन किया है उनका कहना है कि परमाणु को सर्वथा द्वारा परमाणु का लक्षण निर्धारित किया है ।१८ अनादि मानने से उससे का उत्पन्न नही हो सकेगा। यदि जैन परमाणुवाद की विशेषताएं और ग्रोक एवं अनादिकालीन परमाणु से नघात आदि कार्यों का होना वैशेषिक परमाणवाद से उसकी तुलना : माना जायगा तो उसका स्वभाव नष्ट हो जायगा। अत: उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर जन-परमाणवाद कार्य के अभाव मे वह कारण रूप भी नही हो सकेगा। की निम्नाकित विशेषताए उपलब्ध होती हैअत. परमाणु अनादि नही है। दूसरी बात यह है कि १. जैन-दर्शन में परमाणु एक भौतिक द्रव्य माना अण भेद पूर्वक होते है, ऐसा तत्वार्थसूत्र में कहा गया है। गया है। भौतिक द्रव्य जैन दर्शन में पुद्गल कहलाता है।
(४) परमाणु निरवयव है–भट्ट अकल देव ने भी इसका मूल स्वभाव सड़ना-गलना और मिलना है। परमाण परमाणु को निरवयव कहा है क्योकि उगमे एक रम, एक भी पिंडो (स्कन्वो) की तरह मिलते और गलते है। भट्ट रूप और गंध होती है। अत. द्रव्याथिक नय की अपेक्षा अकलंकदेव ने परमाणु को पुद्गल द्रब्य सिद्ध करते हुए ही अकलंकदेव ने परमाणु को निरत्रयव बतलाया। कहा हैकि गुणो की अपेक्षा परमाणु में पुद्गलपने की सिद्धि ___भट्ट अकलकदेव ने अनेकान्त सिद्धान्त के आधार पर होती है। परमाणु रूप, रस, गन्ध और स्पर्श से युक्त होते परमाणु का स्वरूप प्रतिपादित किया है। परमाणु से है, उनमें एक, दो, तीन, चार, सख्येथ, असंख्येय और द्वयणुक आदि स्कन्धों की उत्पत्ति होती है इसलिए परमाणु अनन्त गुणरूप हानि-वृद्धि होती रहती है। अतः उनमें भी स्यात् कारण है।
पूरण-गलन व्यवहार मानने में कोई विरोध नही है।
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२०, बर्ष ३५, कि० ३
अनेकान्त
पुद्गल द्रव्य की दूसरी परिभाषा की जाती है कि पुरुष अर्थात् जीव शरीर, आहार, विषय, इन्द्रिय उपकरण के रूप में निगलते हैं, ग्रहण करते है वे पुद्गल कहलाते है । परमाणुओं को भी जीव स्कन्ध दशा में निगलते है। अत परमाणु पुद्गल द्रव्य है । देवसेन ने अणु को ही वास्तव मे पुद्गल द्रव्य कहा है।"
जैन दर्शन की तरह वैशेषिक और ग्रीक दर्शन में भी परमाणु भौतिक द्रव्य माना गया है ।
(२) परमाणु अविभाज्य है-जैन-दर्शन मे परमाणु को अविभागी कहा गया है। जैन आचार्यों ने बतलाया है। कि पुद्गल द्रव्य का विभाजन करते-करते एक अवस्था ऐसी अवश्य आती है जब उसका विभाजन नही हो सकता है । यह अविभागी अंश परमाणु कहलाता है । ग्रीक" पीक" और वैशेषिक दार्शनिको ने भी परमाणु को जैन- दार्शनिको की तरह अविभाज्य माना है ।
(३) परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म है जैन दार्शनिको ने बतलाया कि पुद्गल द्रव्य के छह प्रकार के भेदो मे परमाणु सूक्ष्म-सूक्ष्म अर्थात् अत्यन्त सूक्ष्म होता है इससे सूक्ष्म दूसरा कोई द्रव्य नही है ।
अन्य परमाणुवादियो ने भी परमाणु को अत्यन्त सूक्ष्म माना है।"
(४) परमाणु अप्रत्यक्ष है— परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रियों के द्वारा अग्राह्य होते है। ग्रीक और वैशेषिक दार्शनिक भी जैनों की उपर्युक्त बात से सहमत हैं। लेकिन जैनो ने परमाणु को केवलज्ञान के द्वारा प्रत्यक्ष माना है। वैशेषिक दर्शन मे भी परमाणु योगियों द्वारा प्रत्यक्ष माना गया है 33 ग्रीक दर्शन मे इस प्रकार के प्रत्यक्ष की कल्पना नही दी गई है ।
(५) परमाणु सगुण है- जैन दर्शन और वैशेषिक दर्शन में परमाणु सगुण माना गया है, इसके विपरीत ग्रीक दार्शनिकों ने परमाणु को निर्गुण माना है। जैन दर्शन में परमाणु के बीस गुण माने गये है। परमाणु पुद्गल ग्रस्य का अंतिम भाग है, इसलिए इसमें एक रस ( अरल, मधुर कटु, कषाय और तिक्त मे से कोई एक ) एक वर्ण (कृष्ण, नीज, रक्त, पीत और श्वेत में से कोई एक एक गंध ( सुगन्ध और दुर्गन्ध में से कोई एक ) अविरोधी दो स्पर्श
(शीत, उष्ण, रूक्ष, स्निग्ध, लघु, गुरू, मृदु ओर कठोर में में से कोई दो ) इस प्रकार परमाणु में कुल पांच गुण पाये जाते हैं । ये गुण परमाणुओं के कार्य में स्पष्ट दिखलाई पड़ते हैं। यहाँ ध्यातव्य है कि जैन-दर्शन में द्रव्य और गुण वैशेषिकों की तरह भिन्न न होकर अभिन्न माने गये है। इसलिए परमाणु का जो प्रदेश है वही स्पर्श का, वही वर्ण का है। इसलिए वैशेषिकों का यह कहना युक्ति संगत नहीं है कि पृथ्वी के परमाणु में सर्वाधिक चारों गुण जल के परमाणुओं मे रूप, रस और स्पर्श, अग्नि के परमाणुओं में और रूपर्ण गुण और वायु के परमाणु मे स्वर्ग गुण होता है।" वैशेषिको का उपर्युक्त कथन इसलिए ठीक नही क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर गुण से अभिन्न अप्रदेशी परमाणु ही नष्ट हो जायेगा ।" जैन-दर्शन मे किसी में भी गुणों की न्यूनाधिकृता नही मानी गई है। पृथ्वी आदि चारों धातुओं में परमाणु के उपर्युक्त चारों गुण मुख्य और गौण रूप से रहते है। पृथ्वी में स्पर्श आदि चारों गुण सुख्य रूप से जल मे गध गुण गौण रूप से शेप मुख्य रूप से अग्नि में गंध और रस गोणता और शेष की मुख्यता और वायु मे स्पर्श गुण की मुख्यता और शेष तीन की गोणता रहती है । 3
(६) परमाणु नित्य है--जैन वैशेषिक एवं ग्रीक दर्श में परमाणु नित्य माना गया है, लेकिन जैनपरमाणुवाद की यह विशेषता है कि परमाणु की उत्पत्ति ओर विनाश होता है जब कि ग्रीक और वैशेषिक दार्शनिक परमाणु को उत्पत्ति विनाश रहित मानते है ।
जैन परमाणु वाद के अनुसार द्रव्य दृष्टि से परमाणु नित्य है लेकिन पर्याय की अपेक्षा वे अनित्य भी है।
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(७) परमाणु एक ही प्रकार का है—जैन दर्शन के अनुसार परमाणु एक ही जड तत्व से बने है । लेकिन वैदिक परमाणुवाद के अनुसार चार प्रकार के है— पृथ्वी के परमाणु जल के परमाणु, बायु के परमाणु और अग्नि के परमाणु । जैन परमाणुवाद के अनुसार पृथ्वी आदि चार धातुओं की उत्पत्ति एक जाति के परमाणु से हुई है ।
(८) परमाणु गोल है-जैन और वैशेषिक दर्शन में परमाणु का आकार गोल बताया गया है, लेकिन ग्रीक परमाणुवादियों का मत है कि परमाणुओं का आकार
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जैन और यूनानी परमाणुवाद । एक तुलनात्मक विवेचन निश्चित नहीं होता है। अतः आकार की अपेक्षा उनमें अभौतिक आत्मा के कारण नही है। भेद है।"
परमाणु अचेतन है-परमाण भौतिक और बचेतन (e) सभी परमाणु एक ही तरह के हैं.--जैन-दर्शन में अर्थात् अजीब के उपादान कारण होने से जैन-दर्शन में सभी परमाणुओं को एक ही तरह का माना गया है। परमाणुओं को जड़ और अचेतन कहा गया है । ग्रीक और ग्रीक दार्शनिको के मतानुसार परमाणुओं में मात्रागत वैशेषिक परमाणुवादियो का भी यही मत है। (Quantity), आकारगत तौल, स्थान, क्रम और बनावट परमाणु एक ही भौतिक द्रव्य के हैं : (Shape) की अपेक्ष्य माना गया है ।" वैशेषिकों के जैन-दर्शन में परमाणु एक ही प्रकार के भौतिक द्रव्य अनुसार परमाणुओं में गुणात्मक और परिमाणत्मक इन पुद्गल के माने गये है। ग्रीक परमाणुवादियों का भी यही दोनों की अपेक्षा भेद माना गया है ।* जैन-दर्शन की यह मत है। लेकिन वैशेषिको ने चार प्रकार के भौतिक द्रव्य भी विशेषता है कि उसमे परमाणुगो मे गुणमात्रा आकार के परमाणु माने हैं। आदि किसी भी प्रकार का भेद नही माना है। परमाणु सावयव प्रौर निरवयव है:
(१०) परमाणु आदि-मध्य और अन्तहीन है-जैन- जैन-परमाणुवाद के अनुसार परमाणु सावयव और दर्शन मे परमाण को आदि मध्य और अन्तहीन बतलाया निरवयव है । परमाणु सावयव इसलिए है कि उसके प्रदेश गया है। ग्रीक और दर्शन में परमाणुओं को ऐसा नहीं होते है। ऐसा कोई द्रव्य ही नहीं हो सकता जो सर्वथा माना गया है। ग्रीक दर्शन में कुछ परमाणुओ को छोटा प्रदेश शून्य हो दूसरी बात यह है कि परमाण का कार्य और कुछ बड़ा बतलाया गया है ग्रीक दर्शन मे कुछ सावयव होता है। यदि परमाणु सावयव न होता तो परनाणुओं को छोटा और कुछ बड़ा बतलाया गया है।" उसका कार्य भी सावयव न होना चाहिए। अतः स्कन्धों परमाण गतिहीन और निष्क्रिय नहीं है:
को सावयव देखकर ज्ञात होता है कि परमाणु सावयव है।" जैन और ग्रीक दर्शन मे परमाणु को वैशेषिकों की परमाणु निरवयव भी है क्योंक परमाणु प्रदेशी मात्र तरह गतिहीन और निष्क्रिय नहीं माना गया है। जैन-ग्रीक है। जिस प्रकार अन्य द्रव्यों के अनेक प्रदेश होते हैं उस दार्शनिको ने परमाणु को स्वभावत' गतिशील और सक्रिय प्रकार परमाणु के नहीं होते है। यदि परमाणु के एक से कहा है वैशेषिको ने परमाणुओं मे गति का कारण ईश्वर अधिक प्रदेश (प्रदेश प्रचय) हो तो वह परमाणु ही नहीं माना है जबकि जैन और ग्रीक दार्शनिको को ऐसी कल्पना कहलायेगा।" परमाणु के अवयव पृथक-पृथक नहीं पाये नही करनी पड़ी है।
जाते है । इसलिए भी परमाणु निरवयव है।" परमाणु कार्य और कारगरूप है:
अतः जैन परमाणवादियो ने अनेकान्त सिद्धान्त के जैन दार्शनिकों ने परमाणु को स्कन्धो का कार्य माना द्वारा परमाणु को सावयव और निरवयव बतलाया। है क्योकि उसकी उत्पत्ति स्कन्धो के तोड़ने से होती है। द्रव्याथिक नय की अपेक्षा परमाणु निरवयव है और इसी प्रकार परमाणु स्कन्धो का कारण भी है। लेकिन पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा सावयव है। इसके विपरीत वैशेषिक और ग्रीक दर्शन मे परमाणु केवल कारण रूप ही ग्रीक और बैशुद्धिक परमाणुवादी दार्शनिकों ने परमाणु को है कार्य रूप नहीं।
निरवयव ही माना है। भौतिक परमाणु प्रात्मा का कारण नहीं है :
परमाणुकाल-संख्या का भेदक है-जैन-दर्शन के अनुग्रीक परमाणुवादियों के अनुसार आत्मा का निर्माण सार परमाणु काल संख्या का भेद करने वाला है। बाकाश परमाणओं से हुआ है। लेकिन जैन और वैशेषिक परमाणु- के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक जाने में समय रूप जो वादी ऐसा नहीं मानते हैं। जनपरमाणुवाद के अनुसार काल लगता है उसको भेद करने के कारण परमाणु काम परमाणु शरीर, वचन, द्रव्य मन, प्राणापान, सुख, दुख, अंश का कर्ता कहलाता है। अन्य परमाणुवादियों ने ऐसा जीवन, मरण आदि के कारण हैं। भौतिक परमाणु नही माना है।
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२२, वर्ष ३५, कि०३
अनेकान्त
परमाणु शब्द रहित और शब्द का कारण हैं : उपर्युक्त परमाणुओं के परस्पर संयोग प्रक्रिया के संबंध
जैन परमाणुवादियों ने परमाणु को शब्द रहित और मे जैन-दर्शन की दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परायें। शब्द का कारण बतलाया हैं । परमाणु शब्दमय इसलिए है एकमत नहीं है। दिगम्बर परम्परा की मान्यता है कि क्योंकि वह एक प्रदेशी है। शब्द स्कन्धो से उत्पन्न होता यदि दो परमाणुओं में से कोई एक भी परमाणु जघन्य गुण है। परमाणु शब्द का कारण इसलिए है क्योंकि शब्द जिन अर्थात् निकृष्ट गुण वाला है तो उनमे कभी भी बन्ध नही स्कन्धों के परस्पर स्पर्श से उत्पन्न होता है वे परमाणुओं होता दमके विपरीत श्वेताम्बर मत में दो परमाणुओं में के मिलने से बने हुए हैं।" अन्य परमाणुवादी वैशेषिको परस्पर मे सयोग तभी नही होगा जब वे दोनों ही जघन्य और ग्रीक-दार्शनिकों ने ऐसा नही माना है।
गुण वाले हों। यदि उन दोनो मे से कोई एक परमाणु जैन परमाणुवाद के अनुसार परमाणु जघन्य और जघन्य गुण बाला और दूसरा अजघन्य (उत्कृष्ट) गुण वाला उत्कृष्ट की अपेक्षा दो प्रकार का होता है।" पचास्तिकाय होगा तो बन्ध हो जायेगा। तात्पर्यवृत्ति मे द्रव्य परमाणु और भाव परमाणु की अपेक्षा
तीसरे नियम के सबध में भी दिगम्बरो की मान्यता परमाणु दो प्रकार और भगवती सूत्र में द्रव्य परमाणु क्षेत्र
है कि दो परमाणुओ मे चाहे वे सदृश (समान जातीय वाले परमाणु, काल परमाणु और भाव परमाणु की अपेक्षा
हो) या विसदृश्य (असमान जातीय वाले हो) बन्ध तभी ही परमाणु चार प्रकार का बतलाया गया है। ग्रीक और
होगा जबकि एक की अपेक्षा दूसरे मे स्निग्धता या रूक्षत्व वैशेषिक परमाणुवाद में इस प्रकार के भेद दृष्टिगोचर नही
दो गुण अधिक हो । नीन-चार-पांच सख्यात-असख्यातहोते है।"
अधिक गुण वालो के साथ कभी भी बन्ध नही होगा। परमाणुओं का परस्पर संयोग-जन परमाणुवाद के
इसके विपरीत श्वेताम्बर मत में केवल एक अश अधिक अनुसार दो या दो से अधिक परमाणुओ का परस्पर बन्ध
होने पर दो परमाणुओ मे बन्ध का अभाव बतलाया गया (संयोग) होता है। यह सयोग स्वय होता है इसके लिए
है। दो तीन, चार आदि अधिक गुण होने पर दो सदृश वैशेषिकों की तरह ईश्वर जैसे शक्तिमान की कल्पना नही
परमाणुओ मे बन्ध हो जाता है। की गई है। जैन परमाणुवादियो ने परमाणु सयोग के लिए एक रसायनिक प्रक्रिया प्रस्तुत की है, जो निम्नाकित है।
जैन परमाणुवाद में इस शका का भी समाधान उपलब्ध १. पहली बात यह है कि स्निग्ध और रूक्ष परमाणुओं ।
है कि परमाणुओ का परस्पर सयोग होने के बाद किस का परस्पर में बन्ध होता है।
परमाणु का किसमे विलय हो जाता है ? दूसरे शब्दों में २. दूसरी बात यह है कि जघन्य अर्थात् एक स्निग्ध
कोन परमाणु किसको अपने अनुरूप कर लेता है ? इस या रूक्ष गुण वाले परमाणु का एक, दो, तीन आदि स्निग्ध
विषय मे उमास्वाति का मत है कि परमाणुओ का परस्पर या रूक्ष वाले परमाणु के साथ बन्धन नही होता है।
मे बध होने के बाद अधिक गुणवाला कमगुणवाले परमाणु ३. समान गुणवाले सजातीय परमाणुओ का परस्पर
को अपने अनुरूप कर लेता है ? इस विषय मे उमास्वाति बन्ध नही होता है। जैसे दो स्निग्ध गुणवाले परमाणु का .
का मत है कि परमाणुओ का परस्पर में वैध होने के बाद दो स्निग्ध गुणवाले परमाणु के साथ बन्ध नही होता है। साधक गुण वाला कम गुण वाल परमाणु को अपने अनुरूप इसी प्रकार रूक्ष गुण वाले परमाणुओं के बन्ध का (स्वभाव के) कर लेता है। नियम है।
उपर्युक्त मान्यता दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ४. चौथी महत्वपूर्ण बात यह है कि दो गुण अधिक सम्प्रदाय मे मान्य है । लेकिन दोनों में एक भेद यह है कि सजातीय अथवा विजातीय परमाणुओं का परस्पर मे बन्ध । श्वेताम्बर परम्परा में मान्य सभाष्य तत्वार्थाधिगम भाष्य हो जाता है। दो से कम और दो से अधिक परमाणु का सूत्र में इस विषय में एक यह भी नियम बतलाया परस्पर में बन्ध नही होता है।
गया है
र नेचिन बोली में एक शोधमक
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जैन और यूनानी परमाणुवाद : एक तुलनात्मक विवेचन
२३
१. श्वेताम्बर मत में गुण-गत विसदृशता रहती है दार्शनिको और चिन्तको ने परमाणु का जितना सूक्ष्म तो कोई भी समपरमाणु दूसरे सम वाले परमाणु को अपने विवेचन प्रस्तुत किया उतना अन्यत्र उपलब्ध नहीं है ; अनुरूप कर सकता है अकलक भट्ट ने इस नियम को वैज्ञानिको का परमाणुवाद भी बहुत कुछ जैन परमाणवाद आगम विरुद्ध बतला कर निराकरण किया है।
से साम्य रखता है। इस पर और भी तुलनात्मक शोध उपर्युक्त तुलनात्मक विवेचन से स्पष्ट है कि जैन आवश्यक है।
सन्दर्भ सूची १. देवेन्द्रमुनि शास्त्री . जनदर्शन म्वरूपा और विश्लेषण १२. कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणु. । पृ० १६४-६५।
.....'कार्यलिंगश्च ॥ वही, ५२५, २. पोग्गल दव्वं उच्चइ परमाणु णिच्छएण। नियमसार, पृ०-२७४ । गाथा २६ ।
१३. इति तत्राणवोऽबद्धा... ... .."। वही। ३. परमाण चेव अविभागी। कुन्दकुन्दाचार्य पचास्ति- ८ अणो प्रदेशा न णन्नि ....."प्रदेशमात्रत्वात । काय, गाथा-७५ ।
सर्घार्थसिद्धि: ५।११, पृ०-२०५ । ४. सव्वेसि खघाण जो अतो त वियाण परमाणू । मो १५. किं च ततोऽल्पपरिमाणभावात् । न हायमेरल्पीया
सस्सदो असहो एक्को अविभागि मृत्तिभवो ।। वही, नन्योऽस्ति, " | घही । गाथा ७७ ।
१६. प्रदिश्यन्त इति प्रदेशा परमाणव । वही २१३८, ५. आदेशमतमुत्तो घादुचदुक्करक कारण जो दु।
पृ०-१३८ । सो ओ परमाण परिणाम गुणो मयममहो ।। १७ प्रदेशमात्रभाविस्पर्शादिपर्याय प्रसवसामर्थ्य नाण्यन्ते णिच्चो णाणवकामो ण सावकासो पदेसदो भेत्ता ।
शब्द्यन्त इत्यणव. । वही, ५२२५, पृ० २२० । खघाण पि य क्ता पविहता कालसखःण ॥ १८. मौषम्यादात्मादय आत्ममध्या आत्मान्ताश्च । वही,
वही, गाथा-७८ और ८० । श२५, पृ० २२० । ६. (क) एयरसवण्णगध दो फास मद्दकारणमगद्द । १६. ... ...| प्रदेशमात्रोऽणु न खरविषाणवदप्रदेश इति । खघरिद दव्व परमाणु त बियाणेहि ।।
तत्वार्थवात्तिक, ५।११।४, पृ०-४५४ ।
वही, गाथा-८१ । २०. यथा विज्ञानमादि मध्यान्ताव्यपदेशाभावेऽस्ति तथा(ख) एयरसगध दो फास त हवे सहावगुण ।
अणुरपि इति । वहीं, ५३१११५, पृ०-४५४ ।
२१. तेषामणूणामस्तित्व कार्यलिंगरवादगन्तव्यम् । कार्यआ० कुन्दकुन्द नियमसार, गाथा-२७ ।
लिंग हि कारण। ७. अत्तादि अत्तमज्झ अत्तत णेव इदिए गेजझ ।
ना सत्सुपरमाणुषु शरीरेन्द्रिय महाभूतादिलक्षणस्य ___ अविभागीज दव्व परमाणू त विणाणाणाहि ।।
कार्यस्य प्रादुर्भाव इति। आ० कुन्दकुन्द नियमसार, गाथा-२७ ।
वही, ५।२५।१५, पृ०-४६२ । ८. घाउचउक्कस्स पुणो ज हेक कारणति त णेयो। २२. भेदादणुः । तत्त्वार्थमूत्र, ५।२७ । खंघाणां अवसाणो णद्दव्वो कज्ज परमाणू ॥ २३. कारणमेव तदन्त्यमित्यसमीक्षितामिधानम, नितमसार, गा०-२५ ।
कथञ्चि कार्यत्वात् । ६. नाणोः । तत्त्वार्थसूत्र, ५॥११ ।
२४. नित्य इति चायुक्त स्नेहादि भावेनानित्यत्वात्। १०. भेदादणुः, वही, ५।२७ ।
स्नेहादयो हि गुणा: परमाणो प्रादुर्भवन्ति, ११. अनादिमध्योऽप्रदेशी हि परमाणु ।
वियन्ति च ततस्तत्पूर्वक मस्यानित्यमिति । सभाष्यत्वार्थाधिगम सूत्र, ५।११, पृ०-२५६ ।
वही, ५२२५७, पृ.४६१ ।
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२४ वर्ष २५ कि० ३
अनेकान्त
२५. नित्यवचनमनादि परमाण्वर्यमिति तन्न कि कारणम् ? तस्यापि स्नेहादि विपरिणामाभ्युपगमात् न हि निष्परिणामः कश्चिदर्थोस्ति भेदादणुः इति बचनात् । वही, ५२५ १०, पृ०-४६२ । २६. निरवयवारत एकरसवर्णागन्धः वही, ५।२५।१३, पृ० ४६२ ।
२७. तस्वार्थवार्तिक न चानादि परमाणुर्नाम कश्चिदस्तिर । वही ५।२५।१६ पृ० ४९२-४१३ । २८. वही ५।२५।१६, पृ० ४६२-४९३ ।
२६. तत्वार्थवार्तिक ५।१।२५ पृ० ४३४ । ३०. देवसेन नयचक्र, गाथा १०१ ।
३१. डब्लु०टी० स्टेट्स प्रीक फिलोसफी, पृ० ८८ । ३२. वही ।
३३. भारतीय दर्शन, सम्पादक डॉ० न० कि० देवराज पृ० ड५ड |
:
२४. प्रो० हरेन्द्रप्रसाद सिन्हा भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० २६८ ।
३५. आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वार्थप्रदीपिकावृत्ति, गाथा ७८, पृ० १३३ ।
३६. वही ।
:
१७. डब्लू० टी० स्टेट्स ग्रीक फिलोसोफी, पृ० ८ ३८. वही ।
1। उपाध्याय बलदेव भारतीय दर्शन, पृ० २४४ । ३६. प्रो० हरेन्द्रप्रसाद सिन्हा भा० द० रूपरेखा, पृ० २६ ।
४०. डब्लू टी० स्टेट्स ४१. वीरसेन धवला पु० पृ० २३ ।
४२. द्रष्टव्य पूज्यपाद सर्वार्थसिद्धि ५।११।
४३. वीरसेन धवला, पु० १३, खड ५, पु० ३, सूत्र ३२, पृ० २३ । ४४. गम्मटसार पृ० १००१ ।
जीवप्रदीपिका टीका, गा० ५६४,
४५. पञ्चास्तिकाय तत्वप्रदीपिका टीका, गाथा ८० पृ० १३७ ।
४६. सद्दो खघप्पभवो खघो परमाणु संगसंगघादो ।
पुट्टेसु तेसु जायदि सद्दो उप्पादगो णियदो || पचास्तिकाय गाथा ७१
४७. पद्मप्रभ नियमसार तात्पर्यवृत्ति, गा० २५ । ४८. भगवती सूत्र, २०१५ १२ ।
४६. छष्णद्रव्य तस्वार्थमूत्र ५०३२-३६ । ५०. पूज्यपादाचार्य सर्वार्थसिद्धि, पृ० २२७-२८६ । ५१. डा० मोहनलाल मेहता । जैनदर्शन, पृ० १८५-८६ । ५२. धिको परिणामको च तत्या १-५३७ ॥ ५३. बन्धे समाधिको पारिणामिको । ५। ३६ ।
समय से ही वह उक्त संस्था के भी परम सहयोगी हो गए, प्राय: प्रारम्भ में १०-१५ वर्ष पर्यन्त उसके मन्त्री भी बने रहे और उसकी गतिविधियों एवं प्रवृत्तियों में सक्रिय रुचि लेते रहे। इतना ही नही, उन्होंने दिल्ली समाज के अनेक सज्जनों को वीर सेवा मंदिर का सदस्य या सहयोगी बनाने में पर्याप्त एवं सफल प्रयत्न किया। मुख्तार सा० की अनेक पुस्तको व ट्रैक्ट आदि के मुद्रण-प्रकाशन की भी व्यवस्था की या कराई। आदरणीय मुख्तार साहब के साथ ला० पन्नालाल जी के जीवन पर्यन्त मधुर संबंध रहे । स्व० बाबू छोटेलाल जी और स्व० साहू शान्तिप्रसाद जी भी ला० पन्नालाल जी को अमूल्य सेवाओ का आदर करते थे। वीरसेवा मन्दिर के दिल्ली में स्थानान्तरित हो जाने
(टाइटिल २ का शेषाण )
५४. बन्धे सत्ति समगुणस्य समगुणः पारिणःमिको भवति, अधिक गुणो हीठास्येति । वही मट्टाकलकदेव : सार्धवार्तिक ५३६४०-५
-प्राकृत जैन शोध संस्थान, वैशाली
:
ग्रीक फिलोसोफी पृ० १ । १३ ख ५, ०३, ३२,
खड सूत्र
,
के उपरान्त भी उसके प्रति ला पन्नालाल जी का प्रेम पूर्ववत् बना रहा ।
ऐसे मूक, निःस्वार्थ एवं कर्मठ समाजसेवियों की जैन समाज मे आज अत्यन्त विरलता है। आशा है कि स्व० लाला पन्नालाल जी के कार्यों से प्रेरणा लेकर कोई-न-कोई सज्जन उनकी क्षतिपूर्ति के लिए शीघ्र ही अग्रसर होंगे ।
हम अपनी ओर से तथा वीर सेवा मन्दिर परिवार की ओर से वीर सेवा मन्दिर तथा साहित्यकारों के चिर सहयोगी स्व० लाला पन्नालाल जैन अग्रवाल के व्यक्तित्व और सेवाओ के प्रति हार्दिक श्लाघा एवं आदरभाव व्यक्त करते हैं । डॉ० ज्योतिप्रसाद जंन
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श्रावक के व्रत
पंग्रचन्द्र शास्त्री
व्रत का भाव विरति-विरक्तता है। साधुवर्ग संसार- 'यत् खलु कषाययोगात् प्राणाना द्रव्य-भावरूपाणाम् । शरीर भोग से निविण्ण होता है और श्रावक संसार-शरीर व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ।।'भोगो मे रहते हुए इनमे मर्यादाएँ करता है और अभ्यासपूर्वक धीरे-धीरे साधु-सस्था तक पहुचाता है । मर्यादा बाँध कषाय के योग-निमित्त अर्थात् वशीभूत होकर किसी कर भव-बन्ध कारक पापजनक क्रियाओ का त्याग करना जीव के द्रव्यरूप अथवा भावरूप या दोनो प्रकार के प्राणो यानी स्थूलरीति से पापो का त्याग करना अणुव्रत कहलाता का हरण करना-प्राणो को बाधा पहुचाना हिमा है। है । ऐसी अणुव्रती दशा में कोध, मान, माया, लोभ कपायो भावार्थ ऐसा है कि प्राण दो प्रकार के माने गए है---पाच का शमन, इन्द्रिय-जय की प्रवृत्ति भी मुख्य है। वास्तव में इन्द्रियाँ, मन-वचन-कायरूप तीनो बलो, आयु और श्वासोधर्म निवत्तिमार्ग है, और प्रवृत्ति से उसका सबध येवल च्छ्वागो में से किसी एक के हरण करने अथवा किसी एक आत्मा तक सीमित है। इसका अर्थ ऐसा है कि आत्म- का धान पहुचाने का नाम हिंसा है-यदि उन करने मे प्रवृत्ति के लिए पर-निवृत्ति आवश्यकीय साधन है। अत क्रोध, मान, माया अथवा लोभ किसी एक का भी सहकार श्रावक आत्म-विघातक पाँच पापो के त्याग पर बल देता है। क्योकि बिना कषायो के जाग्रत हुए पाप कर्म नही है और पाप त्यागरूप अहिंसा आदि पाँच अणुव्रतो को होता। अत मानव को अपनी कषायो पर अकुश रखना नियमत. पालता है। जिन अणुव्रतो को नियमत पालता
चाहिए। उक्त दश प्रकार के प्राणो को ही दो अपेक्षाओ है उन अणुव्रतो के संबंध मे यहाँ चर्चा की जाती है, वे
से (बहिरंग और अंतरंग) द्रव्य प्राण और भावप्राण नामों इस प्रकार है
से कहा गया है। इन दोनों प्रकार के प्राणों की रक्षा
करना धर्म है। ऐसा कहा गया है कि-'आत्मनः प्रति१. अहिंसा-अणुव्रत २. सत्य-अणुव्रत ३ अचीर्य-अणुव्रत कूलानि परेषा मा समाचरेत् ।'--अर्थात् सब आत्माओं को ४. ब्रह्मचर्य-अणुव्रत ५. परिग्रह परिणाम अणव्रत, इन्ही का अपने ममान ही समझना चाहिए । जब हमे सुई चुभने पर क्रमश वर्णन किया जाता है।
दुग्न होता है तब दूसरो को भी सुई मे दुख होना अवश्य
भावी है। जैनाचार्य इसकी अत्यन्त गहराई में चले गए है (१) अहिंसा अणुव्रत-बहुत से लोगों का ऐसा और उन्होने हिंसा से बचने के लिए यहाँ तक कह दिया है विचार है कि जीवो को उनके मौजूदा शरीर से पृथक् कर कि मन से, वचन से, काया से, समरंभ से समारंभ से, देना-मृत्यु को पहुंचा देना ही हिंसा है। और उनके कृत से, कारित से, अनुमोदना से, क्रोध, मान, माया, लोभ
रीर में आत्मा को रहने देना हिसा है। इसका तात्पर्य से या इन्द्रिय पुष्टि के बहाने से भी किसी जीव को कष्ट ऐसा हुआ कि जिन्होने जन्म से आज पर्यन्त किसी जीव के नहीं देना चाहिए। प्राणों का हरण नही किया वे सब अहिंसक है और ऐसे बहुत से आदमी आज मिल भी जाएँगे। पर, मात्र ऐसा ही जन-साधु महाव्रती होते हैं, उनके सभी प्रकार की नहीं है। जैनाचार्यों ने हिंसा-अहिंसा का जितना सूक्ष्म और हिंसा का सर्वया त्याग होता है। पर, श्रावक के हिंसा का विशद विवेचन किया है वैसा विवेचन निश्चय ही किसी त्याग मर्यादा पूर्वक यानी स्थूल रीति से होता है। इसका अन्य ने नहीं किया। उन्होंने कहा है
अर्थ यह है कि श्रावक गृहस्थ होता है और उसे आवश्यक
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अनेकान्त आजीविकोपार्जन करना होता है। उसके समरभ समारंभ हिंसा है। धावक को विरोधी हिंसा का त्याग उस स्थिति में और आरंभो मे प्राणि को पीड़ा सभव है। क्योंकि ससार अहभव है जब कोई धर्मध्वसी, आततायी, चोर आदि उस में कोई भी स्थान जीवों से अछूता नही और श्रावक अपनी पर-उसकी सम्पत्ति पर और धर्म आदि पर प्रत्यक्ष या आजीविका से अछूता नही। अतः श्रावक को मर्यादा में परोक्षरूप से हमला करें। वह उनका निराकरण करेगाअहिंसा धर्म का पालन करना होता है और वह इस प्रकार उन्हे भगाएगा। अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना, अणु व्रती स्थूलवती कहलाता है। इसका विशेष इस अन्याय का प्रतीकार करना कर्तव्य कम है। इस कर्तव्य इस प्रकार है
का पालन करने मे थावक को जागरूक रहना होता है___हिंसा को चार भागो मे विभक्त कर दिया गया है- उसके परिणाम किसी को कष्ट देने के नहीं होते, अपितु (१) सकल्पी (२) आरभी (३) उद्योगी (४) विरोधी। न्यायपूर्वक अपनी और अपने अधिकारों की रक्षा-नीति
संकल्पी हिंसा-क्रोध, मान, माया, लोभ के वशीभूत की रक्षा-धर्म की रक्षा के होते है। अथवा मनोविनोद आदि के लिए जानबूझ कर किसी जीव हिंसा से बचने और अहिंसा अण व्रत की रक्षा के लिए के प्राणों का हरण करना, धर्म के नाम पर जीवित पशुओं श्रावक के लिए कुछ नियम भी बताए है। उनमे से दोषों की बलि चढाना.शिकार खेलना, मॉस जैसे निन्द्य पदार्थ के के परिहार करने और व्रत को दढ करने वाली भावनाओ लिए पशुओ तथा अन्य जीवो को मारना अथवा जानबूझ के मनन-चितवन एव पालन करने से व्रत मे दृढता होती कर उसे परेशान करके उसके मन को कष्ट पहुचाना संकल्पी है। तथाहि हिंसा है श्रावक इस प्रकार की हिंसा का पूर्णरूप से त्यागी 'बन्ध - वधच्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोधा. ।'होता है वह मन-वचन-काय, कृत-कारित-अनुमोदना, सरभ, अर्थात् बन्धन, ताडन, छेदन, अतिभारारोपण और अन्नपान समारंभ, आरंभ सभी प्रकार से इसका त्यागी होता है और निरोध ये अहिंसावत के दोष है। यदि व्रती श्रावक पश स्वप्न मे भी इसमें भाग नहीं लेता।
आदि के सबध में उक्त कार्यों को करता है तब भी उसे आरंभी हिंसा-घर गृहस्थी के कार्य श्रावक को करने ।
हिंसा का भागी होना पड़ता है अर्थात् वह इन दोषों को आवश्यक होते है इनके बिना वह रह नहीं सकता। इन सदा टालता हा रह। ताकि किसी को कष्ट न हो। ऐसे कार्यों में जीवो का घात अवश्यभावी है . परन्तु वह इन
ही और भी बहुत से दोष गिनाए जा सकते है। इसके कामों को देखभाल कर-जीवों को बचा कर करता है, साथ-ही-साथ व्रतीधावक मन और वचन की गप्ति-बशीताकि कोई जीव मर न जाए या किसी जीव को कष्ट न करण के लिए सदा प्रयत्नशील रहे। उसके ऐसा करने से, पहुचे । ऐसी हिंसा, (जो अनजान मे हो जाती है) के लिए अन्य जीवो के प्रति कठोर भावो की सभावना नही रहेगी। श्रावक प्रतिक्रमण-आलोचना और प्रायश्चित करता है- व्रती को ईर्यासमिति-चार हाथ परिमाण भूमि आदि देख उसके मन में दया और करुणा का भाव रहता है।
कर चलने का यत्न रखना चाहिए। वस्तुओ के आदानउद्योगी हिंसा-आरभी हिंसा की भाँति इसे भी समझ
लेने और निक्षेपण रखने मे जीबो की रक्षा के प्रति जागरूक लेना चाहिए। व्यापार-उद्योग आदि में अनजान मे होने रहना चाहिए। भोजन को भलीभॉति देखभाल कर करना वाली हिंसा का भी श्रावक त्यागी नही होता। वह ऐसा चाहिए, जल भी शुद्ध निर्दोष और वस्त्रपूत-छना हआ व्यापार भी नही करता जिसके मूल मे हिंसा हो। जैसे लेना चाहिए। चमडे, शराब आदि हिंसाजन्य पदार्थों का व्यापार अथवा २. सत्य-प्रणवत: रेशम के कीडे पालने का व्यापार आदि ।
जो नही है या जो जैसा नहीं है, उसको वैसा कहना विरोधी हिसा-अपने आचार-विचार अथवा सामा- झूठ है। ऐसे वचन का स्थूल रीति से त्याग करना सत्यजिक नियम को भग करने वालों अथवा धन-धान्यादि अणुव्रत है। श्रावक सत्य-अणुव्रत का पालन करता है-वह हरण करने वालों का विरोध-मुकाबला करना विरोधी हास्य में या विनोदभाव से भी कभी गलत नहीं बोलता ।
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व्यवहार में सत्य के अनेक भेद किए गए हैं-जिन बातों के कार्य पर अधिकार हरण करने के कारण चारी में संमिलित करने मे धर्म का घात न हो और जो व्यवहार प्रसिद्ध हों, हो जाते है ऐसे पाप का त्याग करना ही उचित है : इस ऐसी बातें भी सत्य मे गभित है। जैसे-नाम सत्य, स्थापना अण व्रत के धारी का कर्तव्य है कि वह चोरी का प्रयोग सत्य, जनपदसत्य, संभावना सत्य, आदि ।
किसी को न सिखाए, चोरी से आई वस्तुओं का आदानसत्य-अणुवती श्रावक सत्य बोलता है पर ऐसा सत्य प्रदान न करे, राज्याज्ञा के विरुद्ध आचरण न करे, भी नही बोलता है। कटु-बचन, सत्य भले ही कहा जाय, हीनाधिक तौल-माप न करे, मिलावट न करे, आदि : पर वह दूसरों के दिल दुखाने वाला होने से झूठ ही माना ब्रह्मचर्याणवन: जाता है। पर की प्राण-रक्षा के निमित्त बोला गया असद् पुरुषवेद या स्त्रीवेद के उदय से एक दूसरे के साथ (असत्य) रूप वचन भी जीव रक्षा के कारण सत्य है। अतः रमण करने के भाव को अब्रह्म कहा गया है। रमण करे अणुव्रती को अहिंसा की रक्षा के निमिन ऐसे वचनों को या न करे, मन में भावमात्र होना भी ब्रह्मचर्य का भग है। बोलने का भी विधान है। महाव्रती, पर-जीवन की रक्षा इस पाप से आशिक निवृत्ति लेने वाला श्रावक ब्रह्मचर्याणके निमित्त असत्-रूप बचन कदापि नहीं बोलता और ऐसी व्रती कहलाता है। वह अपनी विवाहिता स्त्री, (और स्त्री स्थिति के उत्पन्न होने पर वह मौन रह जाता है। विवाहित-पुरुष) के सिवाय अन्य किसी के प्रति रमण के
सत्य बचन को महत्त्व इसलिए भी है कि सत्य, पदार्थ भाव नही रखता। वह एक दूसरे मे राग बढाने वाली का स्वरूप है। जो द्रव्य या परार्थ जिस रूप है, वह त्रिकाल बातो को न सुनता है और न सुनाता है, उसके अंर्गों को उसी मूलरूप मे रहेगा-उसकी पर्याय भले ही परिवर्तन- भी बुरे भावों से नही देखता । पहिले भोगे हुए भोगों की शील स्वभाव वाली हो। इसलिए जब तक हम सत्य पर याद भी नहीं करता । गरिष्ट भोजन भी नहीं करता और पर नही पहुंचेगे, तव तक हम हित-अहित का बोध न होगा, अपने शरीर को सजाता भी नही है : भाव ऐसा है कि मन हम ग्राह्य एव अग्राह्य मे मे भेद भी न कर सकेगे-हमे को अब्रह्म की ओर ले जाने वाला कोई कार्य नही करता। दुखों से मुक्ति भी न मिल सकेगी। अत. आत्म-लाभ की परिग्रहपरिमारखावत: दृष्टि से भी हमें सत्य व्रत लेना उचित और उपयोगी है। राग या लोभ के वशीभूत होकर धन-धान्य आदि का व्रत में दृढ़ता के लिए निम्न दोषो से भी बचते रहना संग्रह, परिग्रह कहलाता है। वास्तव में मूर्छा यानी ममत्वचाहिए । यथा
भाव ही परिग्रह है। लोग पदार्थों का सग्रह तब ही करते 'मिथ्योपदेशरहोऽभ्याम्ब्यानकटलेखक्रियान्यामापहार है, जब उन्हें पदार्थों के प्रति राग या लोभ होता है। जो साकार मत्रभेदा.।'
लोग अपनी आवश्यकताओ मे कृशता करके उन आवश्यककिसी को मिथ्या उपदेश न दें, किसी के गुप्त रहस्यो ताओं की पूर्ति के लिए यथावश्यक सचय कर उसका को सार्वजनिक रूप से प्रकट न करें, झूठे पत्र तैयार न उपयोग करते है, वे परिग्रह परिमाणाण व्रती है, ऐसे प्रती करें। इन बातों से हम सत्यव्रत की रक्षा कर सकते है। पदार्थों की मर्यादा भी निश्चित कर लेते है और वे मर्यादित ३. प्रचौर्य प्रणुव्रत :
पदार्थ आवश्यकताओं की कृशता की सीमा में होते है। एक प्रमाद-कषाय यानी, क्रोध, मान, माया और लोभ व्यक्ति जब अधिक सग्रह कर लेता है तो दूसरे अभावग्रस्त के वश मे होकर किसी की वस्तु को उसकी अनुमति के और दुखी हो जाते है। राष्ट्रो के पारस्परिक युद्ध भी बिना लेना चोरी है। इस पाप का स्थूल रीति से त्याग परिग्रह-सचय की दृष्टि में ही होते हैं। इसलिए सुख-शान्ति करना अचौर्याण व्रत है। अचोर्याण व्रती को ऐसा कोई कार्य के इच्छुकों को यह व्रत अत्यन्त उपयोगी है। या व्यापार भी नहीं करना चाहिए, जिसमे अनतिकता या दिग्वत: मिलावट का समावेश हो । असली घी मे नकली मिला कर पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण तथा ईशान आदि बेचना और दाम असली के लेना आदि धोखाधटी के सभी चतुष्कोण, ऊर्ध्व और अधो दिशाओं मे आने-जाने की मर्यादा
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२० वर्ष ३५, कि०३ बांध लेना, कि मैं जीवन भर इस मर्यादा का अतिक्रम नहीं यदि परिणामों में कलुषता बढ़ जाय तो प्रोषध करना और करूँगा। परिमाणकृत क्षेत्र से (मन-वचन-काय, संरंभ, न करना एक जैसा है परिणामों में निर्मलता रखना समारंभ-आरंभ, कृत-कारित और अनुमोदनापूर्वक) किसी उपवास का परम लक्ष्य है, इसमें शरोर आदि से ममत्व भी प्रकार का संबंध न रखना दिग्बत है। इससे अण व्रता को छोडना आवश्यक है । उपवास के दिन बाह्य आरंभजनक रक्षा में सहायता मिलती है।
क्रियाओं का त्याग भी आवश्यक है। देशवत:
भोगोपभोग परिमारण : दिग्व्रत की मर्यादा मे, काल एवं स्थान की दृष्टियो की
ऊपर परिग्रह परिमाण व्रत को बता आए हैं : किए हुए अपेक्षा से, संकोच कर लेना देशव्रत कहलाता है। जैसे कि
परिमाण मे भोग-उपभोग संबंधी पदार्थों के सेवन की मर्यादा मैं अपने ग्रहण किए हुए दिग्व्रतो में अमुक, घडी, घण्टा, दिन
बाँधना-परिग्रह परिमाणवत में सीमा का संकोच करना, अथवा महीनों तक इतने क्षेत्र का संकोच करता है । आदि। अनर्थदण्ड त्याग:
श्रावक को मुनि पद तक पहुंचाने में सहायक होता है और जिन कार्यों से अपने और पराये किसी का लाभ नही
इससे तृष्णा तथा ममत्व भाव के त्याग को बल मिलता है।
अतिथि संविभाग व्रत : होता हो, अपितु जीवों के घात का प्रसग आता हो या पदार्थों का अप-व्यय होता हो ऐसे कार्यों के त्याग को
जिसके आने की कोई तिथि नही होती-उसे अतिथि अनर्थदण्डविरत कहते है । व्रती श्रावक स्नान के लिए उतना
कहते है। प्राय इस श्रेणी मे साधु-साध्वी आते है। ही जल प्रयोग में लाएगा, जितने मे उसको पानी की बर्वादी
साधारणतया गृहस्थ भी-जैसे प्रतिमाधारी त्यागी-व्रती न करनी पडे। जैसे बहुत से लोग बैठे-बैठे जमीन को ।
भी इसमे ग्रहण कर लेने चाहिए। श्रावक का कर्तव्य है कि कुरेदते रहते हैं, तिनका तोडते या चबाते रहते है. और वह अतिथियों की सेवा करे। उन्हे आहार, वसतिका आदि मार्ग गमन के समय छडी से व्यर्थ मे पौधों को तोडते चलते से सतुष्ट करे . इससे धर्म सरक्षण को बल मिलता है और है : आदि ऐसे सभी कार्य छोडने चाहिए।
प्रभावना व स्थितिकरण में सहायता मिलती है। सामायिक :
उक्त प्रकार श्रावक के व्रतो का सक्षेप है। इसके साथ समय आत्मा को कहते है . आत्मा में होने वाली ही श्रावक का कर्तव्य है कि वह सप्त कु-व्यसनो से दूर रहे क्रिया सामायिक है : अथवा समताभावपूर्वक होने वाली तथा प्रतिदिन श्रावक के षट्कर्मों का पालन करे। प्रात. क्रिया सामायिक है। मनुष्य संसार सबंधी क्रियाएँ हर उठने के बाद और रात्रि को शयन से पूर्व अपने दोषो की समय करता है, उसे कुछ काल आत्मा की-अपनी क्रिया आलोचना करे और प्रायश्चित्त लेकर नियम करे कि कल करनी चाहिए। क्योकि आत्मा ही सार है-दूसरे की
वह उन दोषो से बचने की कोशिश करेगा जो दोष उसे क्रियाओं से लाभ नहीं। अत जो श्रावक प्रात , मध्याह्न,
आज लग गए है : इसके बाद पचपरमेष्ठी का स्मरण करते सायं किसी मन्दिर, वन सामायिक भवन या गृह के एकान्त
हुए अपने दैनिक कार्यो मे प्रवृत्त हो और यदि शयन का स्थान में बैठ कर आत्म-चिन्तवन करते हैं, वे सामायिक
समय है तो सोए। श्रावक को अन्य अनेक सत्कार्यों का व्रती होते हैं : सामायिक का उत्कृष्ट काल मुहूर्त और
सदा ध्यान रखना चाहिए और सदा ही निम्न प्रकार की मध्यम व जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है।
भावना के अनुसार व्यवहार करना चाहिएप्रोषधोपवास व्रत:
'सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोद, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । उपवास शब्द का अर्थ आत्मा के निकट-आत्मामें
माध्यस्थ्य भावं विपरीत वृत्ती, सदा ममात्मा विदधातु देव।" निवास करना है। और आत्म-वास में भोजन आदि वाह्य क्रियाओं का त्याग देना आवश्यक है अत परिपाटी में क्षेम सर्वप्रजानां, प्रभवतु वलवान् धार्मिको भूमिपाल: । सामायिक में निमित्तभूत होने से नियमित काल के लिए काले काले च सम्यग्वर्षतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम् ॥ आहारादि का त्याग प्रोषध या प्रोषधोपवास नाम पा गया दुर्भिक्ष चौर मारीक्षणमपिजगतां मास्म भूज्जीव लोके । है। श्रावक को निर्जल उपवास से पहिले और पिछले दिन जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु सततं सर्व सौख्य प्रदायि । एक-अशन ही करना चाहिए। इससे सहन-शक्ति बढ़ती है :
-वीर सेवा मंदिर, दिल्ली
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जरा सोचिए !
१. क्या कोई इस योग्य है ?
अब साक्षात् अरहंत नही, मिद्धों तक मेरी पहुच नहीं,
साधु मुझे मिलेंगे कहाँ ? धर्म मेरे साथ है और धर्मात्मा दुखी बहुत देखे, अभावग्रस्त भी मिले, पर उन जैसा .
जनी की खोज में है। अनूठा और बात का धनी आज तक न देखा। लाठी के
मैने कहा-बाबा, ऐसी कौनसी बात है आप दुखी न सहारे, चिथडो से आच्छादित, कपर झुकी, मुख पर झुर्रियाँ
हो। अभी तो जैनी लाखो की संख्या में जिन्दा है-आपकी फिर भी स-तेज । सहसा मेरी ओर बढ़े और दीवार के
व्यवस्था बन जाएगी। सहारे मेरे पास ही बैठ गए.---मौन ।
बाबा ने कहा-बेटा, जिन्हें तुम जैनी कह रहे हो, मैंने पूछा-बाबा क्या बात है, दुखी से दिखाई देते उन्हें मेरी और जिनेन्द्रदेव की आँखो से देखो-शायद मैं हो । क्या कोई कष्ट है या कुछ आवश्यकता है ? बताओ। ही तो भ्रम मे नही ! मुझे तो अष्टमूलगुणधारी दाता
बोले-बेटा, क्या कहू ? मेरी मांगने की आदत नहीं, नजर नही आते । वे आगे बोने-दातारों में कितने है जो मैं जैनी हूं। फिर कैसे मागू और किससे मांगू ? क्या कोई मद्य-मांस-मधु के त्यागी है, कितने हैं जो अहिंसा, सत्य, इस योग्य हैं जो मुझे कुछ दे सके, और जिससे मै ले सकू? अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रहपरिमाण व्रतों को निरति चार
मैंने कहा-कोई बात नही । आवश्यकता पड़ने पर पालते है ? या जिनके अनछने जल और रात्रि भोजन का सभी मांगते है। फिर देने वालो की कमी भी तो नही। त्याग है ? देव दर्शनादि आवश्यको के पालक कौन हैं? लोग आज भी हजारो लाखो की सख्या मे देते है। आप बाबा की बात सुन कर मैने दूर तक सोचा। मेरी कहिए तो? आपका वचन यथाशक्ति पूरा कराने का प्रयत्न दृष्टि मे ऐसा व्यक्ति नही आया जो जिनेन्द्र और बाबा की करूँगा।
परिभाषा में जैन हो और जिससे बाबा की कुछ सहायता वे बोले-बहुत दिनो की बात है। किसी पहुचे हुए कराई जा सके। फिर भी मैंने बाबा से कहा-बाबा, सन्त ने मुझे बताया था कि ससार में किसी से कुछ मत ऐसे लोग होगे जरूर । मैं तलाश करके बताऊंगा। मांगना । यदि मागना ही हो तो चार की शरण जाना-- बाबा ने उत्तर दिया--यदि कोई मिले तो उससे कुछ 'अरहते सरणं पवज्जामि, मिद्धे सरण पवज्जामि, साहू सहायता मैंगा कर रख लेना मै फिर हाजिर हो जाऊँगा। सरण पवज्जामि, केवलि पण्णत्त धम्म सरण पवज्जामि।' इतना कह कर बाबा अन्तर्धान हो गए। अर्थात अरहत, सिद्ध, साधु और धर्म की सरण जाना । यदि मैं अवाक रह गया ? इतना कठोर नियम-पालक । अधिक आवश्यकता पड जाय तो किती जैनी (मद्य-मास- धन्य है ऐसे लौह पुरुष को। मधु त्यागी और अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह- जरा सोचिए ! उक्त परिभाषा मे गभित किसी परिमाण व्रतो के निरतिचारपालक) की सहायता ले निरतिचार जैनी को और उसका नाम पता दीजिए ताकि लेना-वह भी तुम्हारा मनोरथ पूरा कर सकेगा। जरूरत पड़ने पर बाबा के लिए कुछ सहाय। मगाई जा
बाबा ने आगे कहा-जब मैं समर्थ था और मेरे हाथ- सके। पांव चलते थे तब मिहनत मजदूरी करके न्याय की कमाई से गुजारा चलाता रहा। जो बचता था वह जोड़ता रहा, २. धर्म संस्थानों का रजिस्ट शन क्या है? वह भी अब पूरा हो गया। ये तो तुम जानते ही हो कि धर्म और धर्म-संस्थाएँ स्वय में ऐसे केन्द्र है जो स्वयं न्यायपूर्वक अजित धन से किसके कोठी और महल बने है ही मानवो का रजिस्ट्रेशन करते हैं इनके आश्रितों को और कौन लाखो-करोड़ों का धनी हुआ है ?
अन्य किसी लौकिक रजिस्ट्रेशन की आवश्यकता नहीं
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अनेकान्त
होती-इनके आश्रित व्यक्ति अपने आचरण से सहज ही भी दे सकता है, जैसी कि मनोवत्ति आज राजनैतिक मानवता के प्रतीक बन जाते हैं ।
पार्टियों में स्पष्ट ही चल रही है, आदि : हमें आश्चर्य होता है जब कोई व्यक्ति स्वभावतः पहिले बुजुर्गों ने अनेकों संस्थाएँ खड़ी की उनके रजिस्ट्रेशन करने वाले धर्म या धर्म-सस्थान के लौकिक भौतिक रजिस्ट्रेशन भी कराए। वे रजिस्ट्रेशन क्या काम रजिस्ट्रेशन की चर्चा चलाता है । ऐसे व्यक्ति के आए लोग कानूनो मे उलझ गए और आज स्थिति यह प्रति मन में विविध शकाएँ होती है-कि इसके है कि न वे लोग रहे और ना वे संस्थाएँ ही रही । जो रही मन मे अवश्य कोई अनैतिकता का भूत सवार है। या तो भी उनमे कई तो व्यक्तियो के कमाने खाने मे ही सीमित यह सस्था के प्रति दूसरे के द्वारा भय-उत्पादन से शकित हो गई। सो यह तो समय का फेर है। जब धर्मी के मन से हैं या स्वयं ही भयावह है, जो लौकिक न्यायालय के सहारे धर्म निकल जाता है तब रजिस्ट्रेशन आदि सभी यूं ही घरे की ताक में है।
रह जाते है । अत धर्म और धार्मिक भावना की कद्र करना उस दिन एक व्यक्ति मिले। बोले-हमे अपने धार्मिक ही सबसे बडा रजिस्ट्रेशन है-इन वाह्य रजिस्ट्रेशनों मे न्यास का रजिस्ट्रेशन कराना है। मैं अवाक रह गया थोडी कुछ नही रखा । वम वे चुप हो गए। देर बाद मैंने ही उनसे कहा-धर्म और धर्म-सस्थानो का वास्तविकता क्या है ? धर्म-सस्थानो की रक्षा में धर्मआत्मा से तादात्म्य संबंध है। धर्म तो व्यक्ति का स्वय मे भाव मुख्य कारण है या वाह्य-लौकिक रजिस्ट्रेशन ? रजिस्ट्रेशन है। धर्म मानवता की रजिस्ट्री करता है । मानव जरा सोचिए । धर्म से तनिक भी च्युत हुआ कि वह पाप कर्म से जकड लिया गया इसमे किसी दूसरे न्यायालय की आवश्यकता ३. ऊध्र्व व मध्यलोक तथ्य है ! ही नहीं पड़ती। जब किसी व्यक्ति के मन में अनैतिकता का जैनी' जिनदेव का भक्त होता है। वह 'जिन' की वाणी प्रवेश होता है तब धर्म और धर्म सस्थान दोनो ही स्वतः का ज्ञाता और उपदेश का पालक भी होता है। देव-शास्त्रविघटित हो जाते है-वे अधर्म का रूप ले लेते है, उनकी गरु तीनों ही रत्न उसके अपने होते है और वह उनकी रक्षा का प्रश्न ही नहीं उठता। लोक में आज हम जिन्हें सभाल करता है। जो लोग कुदेवों की उपासना करते हों, धार्मिक संस्थान मानने लगे हैं वे सर्वथा ईट चूने और
जिन वाणी के रहस्य को न जानते हों और गुरुओं में सीमेन्ट के ढेर और चांदी सोने के टुकड़े मात्र है-उनकी
नि स्पृहता के दर्शन न करते हो-वे इन रत्नों की रक्षा रक्षा करके हम धर्म या धार्मिक न्यास की रक्षा नही कर
करने मे सर्वथा असमर्थ ही होंगे। सकते जब कि हम धर्म और मानवता-शून्य हों।
आज स्थिति ये है कि अनादि परम्परागत धर्म और वे बोले-आप तो पुण्य-याप की बात पर आ गए । मैं त्रिलोक-महल, जिन्हें गताब्दियो तक तीर्थकर और तो बाह्य-सम्पत्ति के संरक्षण की बात कर रहा हूँ कि
परम्परागत आचार्य सभालते रहे-सरक्षण देते रहे, अब भविष्य में वह सुरक्षित रहे ।
खण्डहर होने की बाट जोहने लगे है। और हम ऐसे निर्मम ___ मैंने कहा-यदि किसी को झगडा करना ही हो- है जो इनकी ओर कनखियो तक से निहारने को तैयार और यदि उसकी नीयत खराब हो तो झगड़ा अवश्य नही-सर्वथा मुख मोड़े बैठे है और कहीं पर प्रकाशित करेगा। वह रजिस्ट्रेशन होने पर भी अधिकार कर लेगा निम्न पंक्तियों को भी सुख से पढ़ रहे हैऔर आप बचा न सकेंगे। वहां तो कानून मे कानून है "ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक संबंधी वर्णन तो बाद के और साथ में 'जिसकी लाठी उसकी भैस' कहावत भी है। आचार्यों ने जो छमस्थ थे उस समय के इस विषय के वह अपने पक्ष में बहुमत सिद्ध करने के लिए अपने सदस्यो विद्वानो की मान्यतानुसार अपने शास्त्रों में किए हैं।" का बाहुल्य भी कर सकता है, उन्हे पदो आदि के प्रलोभन "छद्यस्थ आचार्यों द्वारा लिखी बात आधुनिक वैज्ञानिक
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जरा सोधिए !
जैसे
खोजो से गलत हो जाने से जैन धर्म का कुछ नही इतना ही क्यो ? जैन भूगोल और ऊर्ध्वलोक की बिगड़ता।" "जब हमारे विद्वान् मध्यलोक तथा ऊर्ध्वलोक मान्यता के अभाव में तीर्यकरो के जीवन चरित्र के संबंध संबधी अपनी शास्त्रीय मान्यताओ को आधुनिक वैज्ञानिक मे भी विवाद खडा हो जायगा। यत: जब स्वर्ग नही, तो खोजों के मुकाबले मे प्रमाणित करने में असमर्थ है, तीर्थकर के जीव का वहाँ होना और वहाँ से चयकर तत्त्वार्थसूत्र के तीसरे चौथे अध्याय व उनकी टीकाओ का माता के गर्भ में आने का प्रसग ही नही और गर्भ मे न पढ़ाना बन्द कर दिया गया है।"
आने से पैदा भी न हए। तथा देवगति के अभाव मे हमारे यहाँ देव-शास्त्र-गुरु को रत्न-सज्ञा दी गई है। भगवान पार्श्वनाथ पर कमठजीव (देवयोनि) द्वारा और इस समय इनमे से वीतराग देव का सर्वथा अभाव है और महावीर पर 'सगम' देव द्वारा उपसर्ग भी नही। ऊर्ध्वलोक गुरु भी अगुलियो पर गिनने लायक कुछ ही होगे- के अभाव मे सिद्धशिला (मुक्त जीवों का स्थान) भी सिद्ध अधिकाश मे तो लोगो की अश्रद्धा जैसी ही हो चली है। न हो सकेगा.. मुक्तिी समाप्त हो जायगी। और भी अब तो केवल शास्त्र ही स्थितिकरण के साधन है, जो उक्त बहुत से विरोध खड़े होगे। प्रकाशनों जैसे साधनो से मिथ्या होने लगेगे। और लोग हमारी दृष्टि में जैन आगम सर्वथा तथ्य है । अमेरिकी जो अश्रद्धा के कगार पर खडे है-गड्ढे में गिर पड़ेगे और वैज्ञानिको की मान्यता हो चली है कि चन्द्र अनेक होने यह सबसे बडा बिगाड होगा।
चाहिए-वे खोज में लगे है . खोज होने दीजिए । वास्तव यदि भूगोल सबधी जैन-रचना को मिथ्या माना जायगा में खोज कभी पूरी नहीं हो पाती क्योकि वस्तु अनन्त धर्म तो 'जैन' का अस्तित्व ही समाप्त हो जायगा-न नन्दीश्वर वाली है और अनन्त को अनन्त ज्ञान ही जान पाता है । द्वीप होगे न उनमे स्थित प्रतिविम्बो के पूजक ही होगे। समाज का लाखो रुपया जो दिखावट और यश-अर्जन
मे अथवा किन्ही सीमित हाथो मे अधिकार के लिए, इधर(१) जैन भूगोल के मिथ्या मानने पर विदेह क्षेत्र का उधर घूमता दिखाई देता है उसे वास्तविक 'ज्ञान-ज्योति' अभाव होगा जिससे वहाँ के विद्यमान बीम तीर्थकर असिद्ध (ज्ञानप्राप्ति-शोध) मे लगाये जाने की आवश्यकता है-- होंगे । आप बीस तीर्थकर-पूजा न करेगे?
बुझने वाली, अस्थायी किसी 'ज्ञान-ज्योति' में लगाने की (२) सुमेरु पर्वत का अभाव होगा, तब तीर्थकरो का नही। जन्म कल्याणक अभिषेकोत्सव असिद्ध होगा।
ऊर्व और मध्य लोक की रचना के बारे मे लोग (३) क्षीर-समुद्र का अभाव होने से जल-जो विद्वानो से पूछते है। आखिर, जैन-विद्वान तो उतना ही अभिषेक के लिए आया होगा-वह भी न होगा। बता सकेगे-जितना वे जानते हो। क्या समाज ने कभी
(४) इन्द्रादि देवगण (ऊर्ध्वलोक) के अभाव मे अभिषेक विद्वानो को साइन्स के एक्सपर्ट बनाने के साधन जुटाए किसने किया होगा?
है ? कोई ऐसी वैज्ञानिक रिसर्च शोधशाला खोली है जो (५) समवसरण देव रचते है, देवो के अभाव मे वह जैन भूगोल पर शोध करे ! क्षमा करे, समाज की दृष्टि रचा न गया होगा तब तीर्थकरों की दिव्य ध्वनि कहाँ से तो आज भी मिट्टी-पाषाण, भाषा-लिपि, और स्वत: मे हुई होगी?
सिद्ध- स्पष्ट साहित्य ग्रन्थो को कुरेदने-उनमे इतस्ततः (६) देवरचितअर्धमागधी भाषा के अभाव मे दिव्य- विभिन्न जोड़-तोड़ बिठाने वाले शोधकर्ताओं और ध्वनि का इस भाषा मे होना भी सिद्ध न होगा। तथाविध शोध-प्रबन्धो को तैयार करने कराने की बनी हुई
(७) इन्द्र की सिद्धि न होने से गणधर की उपलब्धि है। कोई उनमें छन्द-अलकार की खोज में लीन है तो कोई भी सिद्ध न होगी और गणधर के अभाव में दिव्य-ध्वनि व्यक्तित्व और कृतित्व म P.hd. चाहता है और कोई भी नही होगी। ऐसे मे तीर्थंकरो का कोई भी उपदेश सिद्ध पुरुषो की लम्बाई-चौड़ाई ही ढूढता है । आगम के मौलिक न हो सकेगा।
तथ्यों को उजागर करने-कराने वाले तो विरले ही है।
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३२, वर्ष ३५, कि०३
अनेकान्त
मेरी दृष्टि से लोक-रचना और तत्त्वो के तत्त्व पर और गुरु, गुरु न रहे वे कर्मचारी श्रेणी में जा पड़े। यह शोध किए बिना मात्र आगम को मिथ्या बताने से सब भौतिकता का प्रभाव है जो धन के लोभ और धन के कुछ हाथ नही आएगा। अपितु, रहा सहा जो है वह भी प्रभुत्व में क्रमश: पनपता रहा । पढाने वाले विद्वान् धर्मखो जाएगा । कृपया लोक रचना की पुष्ट-शोध कराइए ज्ञान जैसे धन को पैसे लेकर बेचने लगे और भौतिकऔर सोचिए।
विभूति वाले उसको खरीदने के आदी बन गए। कैसी ४. ज्ञान-प्रागार और शोध-संस्थान ? बिडम्बना चालू हुई ? जिनवाणी के सेवक कर्मचारी और जैन-धर्म और दर्शन स्व-पर स्वरूप को दिखाने वाले
तत्सबधी कुछ न करने वाले स्वामी होकर रह गए—जैसा जीवित शोध-सस्थान थे। इनके माध्यम से भेद-विज्ञान का
कि सरकारी और लौकिक चलन है। बस यही से पतन पाठ पढ़ाया जाता था और पढ़ाने वाले शिक्षक, आचार्य,
का श्रीगणेश हुआ-दृष्टि मे बदलाव आया-धर्म नियमो
मे राजनीति प्रविष्ट हुई जिसे कि नही होना चाहिए था। उपाध्याय और गुरु कहलाते थे। शोध-सस्थानो की यह परम्परा तीर्थकर ऋषभदेव के समय से महावीर पर्यन्त
इरा भौतिकता का प्रभाव यहाँ तक बढा कि बड़े-बड़े अविछिन्न रूप में चली आती रही-कभी कम और कभी भवन वनते रहे, उनके भौतिक रजिस्ट्रेशन होते रहे, अधिक । तत्त्वार्थसूत्र मे बतलाए गए साधुओ के भेदो में सरकारी मान्यताएँ मिलती रही। उनमे शोध-कार्य चले, गिनाए गए तपस्वी, शक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, साधु, मनोज्ञ
मनोज
आ
और कहने को कुछ सफल भी हुए। पर वास्तव में कुछ और अणुवती श्रावक सभी इन माध्यमो से ऊँची-ऊँची हाथ न लगा। जो भौतिक शोधे हुई वे ग्रन्थो, मन्दिरों पदवियो को पाते और स्व-पर कल्याण करते-कराते रहे। और मठो नक ही सीमित रह गई-रव-पर भेद विज्ञान से पर, तीर्थकर महावीर के बाद गौतम, जम्ब, मधर्मा नपा उनका कोई प्रयोजन नहीं। मानव आज भी पर मे लीनअन्य मान्य आचार्यों और थावको के उपरान्त धीरे-धीरे भव-विज्ञान शून्य है- उसे व्यावहारिक बातचीत का ढंग इस परम्परा मे धूमिलता आती गई। फिर भी इनका भी नहीं आया है। देव-शास्त्र-गुरु की पूजा तो दूर : वह चलन विद्यालयो, मन्दिरो और पुस्तकालयो के रूप में आचार-विचार से भी भ्रष्ट हो चला है। जारी रहा- इनके माध्यम से स्व-गर भेद विज्ञान का पाठ यह सब क्यो हुआ? इममे कारण, पास-प्रथा को चालू रहा। गुरु गोपालदाम वरैया, पूज्यवर्णी गणेशप्रसाद कायम रखने की मनोवृत्ति है या धर्म-ज्ञान की विक्री जी आदि जैसे उद्भट विद्वान भी तैयार होते रहे। की प्रवृत्ति या कुछ न करके भी अधिकारित्च जताने की
आज स्थिति यहाँ तक पहुन गई है कि विद्यालय, भावगा - Tण है । जरा सोचिए और पतन के कारणो को विद्यालय न रहे। वे ईट-पत्थरो के आगार मात्र रह गए रोकिए ।
-सम्पादक (आवरण पृष्ठ ३ का शेषाश) दूसरी प्रतिमा मे केवल शासन देवी अम्बिका का सिर प्राप्त हुआ है, जो पूर्णत. घिस गया है। जिन प्रतिमा का पार्श्व भाग :
__ संग्रहालय मे जिन प्रतिमा के पार्श्व भाग से सबधित तीन कलाकृतिया सग्रहीत है । प्रथम भाग मे जैन प्रतिमा का दायाँ पार्श्व भाग है । जिस पर अंकित जिन प्रतिमा भिन्न प्राय. है । दाई ओर गज व्याल बाईं ओर मालाधारी यक्ष एव नृत्यरत यक्षी का शिल्पांकन है।
दुसरी प्रतिमा जैन मूर्ति का बाँया भाग है। जिसका दायाँ पार्श्व भग्न है। दोनों ओर अभिषेक कलश सहित गजराज, जिन प्रतिमा यक्ष, गुन्धर्व एव मालाधारी छत्रावली आदि का आलेखन है।
तीसरी प्रतिमा जिन प्रतिमा का बायां भाग है। जिसमे छत्रावली, वादक, नर्तक, यक्ष, गन्धर्व तथा कलश लिए हुए हाथियों का शिल्पांकन है।।
केन्द्रीय पुरातत्व संग्रहालय गूजरी महल, ग्वालियर (म०प्र०) .
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संग्रहालय, ऊन में संरक्षित जैन प्रतिमाएँ
- नरेशकुमार पाठक
ऊन पश्चिमी निभाड़ मे जैन मूर्ति कला एवं स्थापत्य कला का प्रमुख केन्द्र रहा है। यहां प्रसिद्ध सुवर्णभद्र तथा अन्य तीन संतों को नमन पर जिन्होंने चेलना नदी के तट पर स्थित पावागिरि शिखर पर निर्माण प्राप्त किया था।' सग्रहालय में कुल नौ जैन प्रतिमाएं हैं। ये सभी कलाकृतियां हल्के काले रंग के पत्थर पर निर्मित है। कलाक्रम के आधार पर १२वी १३वी शती की हैं एवं ऊन के खण्डहरों से प्राप्त
शान्तिनाथ :
पद्मासन मुद्रा में निर्मित शान्तिनाथ का कमर से नीचे का भाग प्राप्त हुआ है। पैरो पर रखा हुआ दाहिना हाथ भी खडित है। पादपीठ पर मगवान शान्तिनाथ का ध्वज चिह्न हिरण तथा शखाकृतियो के मध्य में मूर्ति का स्थापना लेख उत्कीर्ण है । लेख का पाठ इस प्रकार है
सवत् १२१२ वर्षे देवचंद्र सुत (श्री) पालः प्रणमीत नित्य... पार्श्वनाथ:
तेईसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा पद्मासन मे निर्मित संग्रहालय की जैन प्रतिमाओं मे सबसे सुन्दर और आकर्षक प्रतिमा है। मूर्ति के सिर पर कुन्तलित केशराशि का आलेखन है। वक्ष पर 'श्री वत्स' चिह्न सुशोभित है। पैरो के नीचे भाग में प्रभावाली नागफणमौलि भग्नप्राय है। अलकरण उच्च स्तरीय है। लांछा विहान तोर्थकर प्रतिमाएँ:
यह तीर्थकर प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में निर्मित है। पत्थर के क्षरण के कारण प्रतिमा की कलात्मकता नष्ट हो गई है। गोमुख ८क्ष:
एक शिल्पखण्ड पर गोमुख यक्ष का शिल्पांकन है। बाए पार्श्व मे चामरधारी और दाएँ पार्श्व मे गज, सिंह एव व्यालाकृतियो का आलेखन मनोहारी है। अम्बिका :
भगवान नेमिनाथ की शासन यक्षी अम्बिका की यह प्रतिमा आशाधर और नेमिचन्द्र द्वारा वर्णित प्रतिमा लक्षणों के अनुरूप है जिनमें अम्बिका त्रिभग मुद्रा में शिल्याकित है। जो अपनी दाहिनी गोद में प्रियंकर को लिए है। बाई ओर की खडी प्रतिमा द्वितीय पुत्र शुभकर की है। दाए चामरधारी खडा है। चामरधारी के हाथ व पैर एवं मुंह भग्न अवस्था में हैं। अम्बिका, पारम्परिक आभूषणों से कानो में कुण्डल, गले मे माला बाजूबन्ध आदि से युक्त है। ये आलेखन आंशिक रूप में दिखाई दे रहे हैं। यह प्रतिमा निर्मित के समय काफी सुन्दर रही होगी।
(शेष पृष्ठ ३२ पर) १. आधुनिक इतिहासकार ऊन के पास बहने वाली नदी को चेलना नदी मानते है तथा पावागिरि को
आधुनिक ऊन से समीकृत करते हैं। २. सम्भवत: इस प्रतिमा का कमर से ऊपर का भाग इन्दौर संग्रहालय मे सरक्षित तीर्थंकर प्रतिमा का
ऊर्ध्व भाग होना चाहिए जो ऊन से प्राप्त हुआ है। ३. इन्दौर व विदिशा संग्रहालय में भी इस प्रकार की स्थानक अम्बिका की प्रतिमा संरक्षित है।
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Regd. with the Registrar of Newspaper at R.N.10591162
वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
तीर्थ :
प्रो. डा० मजिस्य ।
समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । जैसाम्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मगलाचरण
सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों मोर पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य
परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । ... नग्रम्प-प्रशस्ति संग्रह, भाग २: अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण सहविपन
प्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय पौर परिशिष्टों सहित। सं. पं. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। १५०० समाषितन्त्र पौर इष्टोपदेश : प्रध्यात्मकृति, १० परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित पवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन ..
३... ग्याय-दीपिका : मा० अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु०। १०.०० जैन साहित्य और इतिहास पर विशव प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्य । कसायपाहुमसुत्त: मूल ग्रन्थ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे। सम्पादक प हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपडे की पक्की जिल्द ।
२५.०० जम निबम्ब-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया
७.०० ज्यानशतक (ध्यानस्तव सहित) : संपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
१२-०० भावक धर्म संहिता : श्री दरयावसिंह सोषिया
५.८० बम लक्षणावली (तीन भागों में) : स०प० बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री
प्रत्येक भाग ४०.०० जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग : श्री पचन्द्र शास्त्री, बहुचित सात विषयो पर शास्त्रीय प्रमाणयुक्त तर्कपूर्ण विवेचन । प्राक्कथन : सिद्धान्ताचार्य श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री द्वारा लिखित
२-०० Jain Monoments : टी० एन० रामचन्द्रन
१५.०० Reality : मा० पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी में अनुवाद । बड़े पाकार के ३०० पृ., पक्की जिल्द ८००
.
आजीवन सदस्यता शुल्क : १०१.०० ३० वार्षिक मूल्य : ६) ३०, इस अंक का मूल्य : १ रुपया ५० पैसे
विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं। यह आवश्यक नहीं कि सम्पावक
मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो।
सम्पायक परामर्श मण्डल-डा.ज्योतिप्रसाद जैन, श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक-श्री पपचन्द्र शास्त्री प्रकाशक-रत्नत्रयधारी जैन वीर सेवा मन्दिर के लिए, कुमार बादर्स प्रिटिंग प्रेस के-१२, नवीन शाहदरा
दिल्ली-१२ से मुक्ति
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३५ : कि० ४
वोर सेवा मन्दिर का त्रैमासिक
अनेकान्त
(पत्र-प्रवर्तक आचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगबोर')
क्रम
:
इस अक मेंविषय
१. जिनवाणी महिमा
२. राजस्थान के इतिहास में जैनों का योगदान -डा० ज्योतिप्रसाद जैन
३. ब्रह्म जिनदास की तीन अन्य रचनाएं
-श्री अगरचन्द्र नाहटा
४. अभ्रश काव्यों में सामाजिक चित्रण -- डा० राजाराम जैन
-प्रो० प्रदीप शालिग्राम मेश्राम
To
१
१०. क्रान्तिकारी शीतल---श्री ऋषभचरण जैन
११. विश्व शान्ति मे भ० महावीर के सिद्धान्तों की उपादेयता कु० पुखराज जैन
२
५. जिला संग्रहालय खरगोन मे संरक्षित जैन प्रतिमाएं श्री नरेशकुमार पाठक
११
६. मामल की जैन मूर्तिया
६
"3
७. परिणामि नित्य - युवाचार्य महाप्रज्ञ
८. अज्ञानता -- श्री बाबूलाल जैन ( वक्ता )
६. जैन साहित्य मे कुरुवश, कुरु-जनपद एवं हस्तिनापुर --डा० रमेणचन्द्र जैन
८
अक्तूबर-दिसम्बर १९८२
१३
१५
१६
२१
२७
२८
१२. जरा सोचिए -सम्पादक
२६
१३. अनेकान्त के जन्मदाता की स्मृति में टाइटिल २ १४. अविश्वसनीय किन्तु सत्य
प्रकाशक
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
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'अनेकान्त' के जन्मदाता की स्मृति में
'अनेकान्त' और वीर सेवा मन्दिर के जनक, स्वनामधन्य स्व० आचार्य जुगलकिशोर जी मुख्तार 'युगवीर की इसी दिसम्बर मास में मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी के दिन १०५वीं जन्म जयन्ती थी और २२ दिसम्बर को उनकी १४वीं पुण्यतिथि थी। वर्तमान शती के इस महापुरुष के ६१ वर्ष के दीर्घ जीवनकाल का बहुभाग, साधिक ७० वर्ष, जैन-धर्म-संस्कृति साहित्य-समाज की एकनिष्ठ सेवा मे व्यतीत हुआ । इस सम्पादकाचार्य ने, विशेषकर 'अनेकान्त' के माध्यम से, जैन पत्रकारिता को अत्युच्च स्तर प्राप्त कराया । इस समालोचना सम्राट की साहित्य-समीक्षाएं निर्भीक, विस्तृत, तलस्पर्शी तुलनात्मक एवं विश्लेषणात्मक होने के कारण अद्वितीय होती थीं। पुरातन साहित्य की शोध-खोज के क्षत्र मे मुख्तार सा० ने अभूतपूर्व मान स्थापित किये। वह उच्चकोटि के ग्रन्थ-परीक्षक, टीकाकार एवं व्याख्याकार भी थे और समाजसुधार के उद्देश्य मे उन्होंने अनेकों सुविचारित एवं उद्बोधक लेख-निबन्धादि भी लिखे । वह सुवि भो थे और उनकी 'मेरी भावना' तो अमरकृति बन गई तथा बच्चे-बच्चे की जवान पर चढ़ गई। पुरातन आचार्यों की कृतियों की खोज एवं शोध तथा प्रकाशन की दिशा में उनके प्रयास अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रहे । 'पुरातन जैन वाक्य सूची', 'जंनग्रन्थ प्रशस्ति सग्रह', 'जैन लक्षणावला', जैन शास्त्र भंडारों की ग्रन्थ सूचियां प्रभूति उनके द्वारा नियोजित एवं सम्पादित सन्दर्भग्रन्थ शोधार्थियो के लिए अतीव उपयोगी रहे है और रहेंगे । प्रात स्मरणीय स्वामी समन्तभद्राचार्य के मुख्तार साहब अनन्य भक्त थे और उनके साहित्य के तलस्पर्शी अध्येता एवं व्याख्याता थे। राष्ट्रीय चेतना के प्रति सजग रहने के कारण उन्होंने सदेव शुद्ध खादी का प्रयोग किया ।
'अनेकान्त' और 'वीर सेवा मन्दिर' अपने इस साहित्य तपस्वी जनक के सजीव स्मारक है। स्व० मुख्तार सा० की अप्रकाशित कृतियों के प्रकाशन तथा प्रकाशित किन्तु अप्राप्य कृतियों के पुन प्रकाशन की आवश्यकता है। श्रद्धयार सा० को उपलब्धियां एवं सेवाएं अविस्मरणीय है ।
हम उनकी इस १०५वी जन्म-जन्ती एव १४वीं पुण्यतिथि के उपलक्ष्य में उनके प्रति अपनी तथा वीर सेवा मन्दिर एवं अनेकान्त परिवार को आर से विनयावनत स्मरणाञ्जलि अर्पित करते हैं । ज्योति निकुञ्ज, --डा० ज्योति प्रसाद जंन
चारबाग, लखनऊ
अपनी बात
'अनेकान्त' के वर्ष ३५ की अन्तिम भर प्रस्तुत करते हुए हमें सन्तोष है कि सभी प्रसंगों में 'अनेकान्त' का स्वागत किया गया है--कई सर हना सूचक संदेश भी मिलते रहे है जिसका समस्त श्रेय सहयोगी - सम्पादक मंडल, विद्वान् लेखक, प्रकाशक एवं संस्था की कमेटी को जाता है - सम्पादक तो भूलों के लिए क्षमा याचक और निमित्त मात्र है। कई प्रसंग ऐसे भी आते हैं जिनमें लेखनी फूंक-फूंक कर चलानी पड़ती है फिर भी स्खलित हो जाता है । पाठक और संबंधित महानुभव इसके लिए क्षमा करें ।
जिनेन्द्र देव की आराधना हमें शक्ति दे कि हम भविष्य में भी बिना किसी पक्षपात के वस्तुस्थिति का दिग्दर्शन कराने में समर्थ रह सक और 'अनेकान्त' अधिक से अधिक उपयोगी बन सभी को सुख-समृद्धि का स्रोत बना रह सके ।
सम्पादक
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राजस्थान के इतिहास में जैनों का योगदान
0 इतिहासमनीषी, डा. ज्योतिप्रसाद जैन राजस्थान का इतिहास मध्यकालीन भारतीय इतिहास जोधपुर के मुंशी देवीप्रसाद का इतिहास, ५० गुलेरी का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण अग है । इस प्रदेश मे उस लग- जी का ग्रंथ, विश्वेश्वरनाथ रेउ का 'भारत के प्राचीन भग एक सहस्र वर्ष के काल मे अनेक राजपूत राज्यवंशों राजवंश' म० म० गौरीशंकर हीराच द्र ओझा का 'राजएव राजपूत राज्यों के प्रभुत्व के कारण ही वह प्रदेश राज- पुताने का इतिहास', आदि ग्रथ राजस्थान इतिहास के प्रताना कहलाया । सामान्य इतिहास के पाठक उनमे से प्रधान साधन है। इन ग्रन्थो मे यद्यपि प्रमुख राजपूत राज्यप्रमुख राजपूत राज्यवशो और राजपूत नरेशो के नामादि वशों एवं रजवाड़ों के आश्रय से ही राजस्थान के ऐतिहाऔर कतिपय कार्यकलापा से ही परिचित होते है और सिक विवरण दिए गए है, तथापि उनसे यह भी स्पष्ट हो उनकी यह धारणा बन जाती है कि राजस्थान का इति- जाता है कि उक्त इतिहास में राजपूतो के अतिरिक्त जैनी हाम राजपूतों का ही इतिहास है, वे ही उस प्रदेश के बनियो, चारण, भाटो, कायस्थो तथा ब्राह्मणो का और इतिहास के एक मात्र निर्माता है। वस्तुतः, राजपूताने में भील, मीना आदि आदिम जातियों का भी बड़ा हिस्सा रवय राजपून एक अल्पसख्यक जाति है और उस प्रदेश की रहा है । सामान्य इतिहास पुस्तको मे अवश्य ही इन राजसंपूर्ण जनसख्या का एक बहुत बटा भाग राजपूतेतर लोग पूतेतर लोगो का प्राय. कोई उल्लेख नहीं रहता, अतः है। राजपूताने की पूर्ण जनसख्या को दो भागों में बाट सामान्य पाठक भी राजस्थान के इतिहास मे इन जातियों सकते है-एक नो सभ्य सभ्रान्त एव अपेक्षाकृत अर्वाचीन के महत्यपूर्ण योगदान के ज्ञान से बचित ही रहते है। निवासी है। इन। गहलोत, चोहान, कछवाहा, राठौर, मध्यकालीन इतिहास के एक माने हुए विशेषज्ञ प्रो० के. होडा आदि वी के राजपूत, बनिये या वैश्य जो प्राय. आर० कानूनगो के लेख 'दी रोल ऑफ नान राजपूत्स ओसवाल, खंडेलवार, अग्रवाल, श्रीमाल, पोरवाल, बघेर- इन दी हिस्टरी ऑव राजपूताना (मार्डन रिव्यू फर्वरी वाल, हमड, नरसिंह राजपुरा आदि हे और अधिकांशतः ५७ पृ० १०५) मे भी राजपूताने के इतिहास मे राजपूतों जैन धर्मावलम्बी रहे है, कायस्थ, चारण या भाट और के अतिरिक्त जिन चारण, वैश्य और कायस्थ तथा भील, वादाण प्रमख है। दुमरे, राजपूताने के आदिम निवासी मीना, मेव, मेढ नामक राजपतेतर जातियों का प्रमुख अधसभ्य जगली, पहाडी, या कृषक जातिया है । इनमे योगदान रहा है, उन पर सक्षिप्त प्र श डाला है। भील, मीने, मेव, जाट, मेढ़ आदि प्रसुख है । राजस्थान के
उपरोक्त जातियो मे से चारण या भाट तो राजस्थान इतिहास के निर्माण में इन दोनो ही वर्गों की राजपूतेतर की एक विशिष्ट जाति है और प्रायः उसी प्रदेश में सीमित जातियों ने महत्वपूर्ण भाग लिया है । राजपूताने का इति
है। बह जाति राजपूत बुग की एक महत्वपूर्ण एवं दिलहाग इन जातियो का भी उतना ही है, जितना कि स्वय चस्प विशेषता है। राजपतों के साथ उसका चोली-दामन राजपूतो का है।
का साथ रहा है । चारण वा भाट राजपूती सभ्यता और जैन धर्मावलम्बी मूना नेणसी की मध्यकालीन 'ख्यात' सस्कृति के अभिन्न अंग रहे है। कायस्थ और वैश्य, सुरजमल मिश्रण का 'वशभास्कर' (१६वी शती ई०) दोनो जातियों की प्रशंसा और प्रतिष्ठा भी खूब हुई है और भाटों और चारणो की विरुदावलियां, जैन पडित ज्ञानचन्द्र निन्दा भी काफी की गई है। अपनी प्रशासकीय एवं व्यापाकी सहायता से रचित कर्नल जेम्सटाड का राजस्थान, रिक बुद्धि के कारण वे अपरिहार्य रहे हैं और भारतवर्ष में
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राजस्थान के इतिहास में जनों का योगदान
सदैव एवं सर्वत्र विद्यमान रहे हैं। राजस्थान के सांस्कृतिक, वैश्य आदि को प्रधान पद पर नियुक्त करने का एक और धार्मिक, सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक जीवन में भी कारण था। रणयात्रा के समय यदि स्वयं राजा या तथा उस प्रदेश के इतिहास के निर्माण में उन दोनों जातियों युवराज सेना का नायकत्व नही करता था, तो अन्य राजका महत्वपूर्ण हाथ रहा है।
पूत सरदार किसी राजपूतेतर प्रधान की अधीनता में तो डॉ० कानूनगो के शब्दो मे "राजपूतों में सामान्यतया सहर्ष कार्य कर सकते थे किन्तु अपने किमी प्रतिद्वन्द्वी कल शारीरिक बल की ही प्रधानता रहती थी, युद्ध और शाति के मुखिया का सेनापति होना कभी भी स्वीकार नही कर दोनो ही अवसरो के उपयुक्त बुद्धि का उनमे प्रायः अभाव सकते थे । प्रत्येक ठिकाने में भी यही दशा थी। कर्नल टाइ रहता था। मेवाड के राणा कुंभा और सांगा, जयपुर के द्वारा उल्लिखित कोठारी भीमजी महाजन अपरनाम बेग ही मानसिंह और जयसिंह द्वय, जोधपुर के दुर्गादास और कोटा राजपूताने में इस बात का अकेला उदाहरण नही था कि के जालिमसिंह इस नियम के इने गिने अपवाद ही है। राज- जन्म से बनिये की दुकान में आटा तोलने वाला व्यक्ति पूत तो मुख्यतया एक छीन-झपट करने वाला योद्धा था, दोनों हाथो से तलवारे मतकर राजपूतो की बहादुरी को शासन प्रबन्ध की योग्यता का उसमे अभाव था। राजपूनी भी लज्जित कर सकता था ओर शत्र की पत्तियो को नोड इतिहास के पीछे जो कुछ बुद्धि दृष्टिगोचर होती है वह कर युद्धभूमि में वीरगति प्राप्त कर सकता था।' अधिकांशतया वैश्यो एव कायस्थों की और कुछ अशों में
राजपताने के इन वैश्य अथवा जन वीरों में सर्वप्रथम ब्राह्मणों की है। राजपूताने का यथार्थ इतिहास तब तक
भामाशाह का कुटुम्ब उल्लेखनीय है । मपर्ण राजस्थान में नही लिखा जा सकता जब तक कि इन राजपतेतर लोगो
भामाशाह का नाम आज भी उमी स्निग्ध स्नेह और श्रद्धा के जिन्होंने राजपूत राज्यों के ऊपर शासन किया था और
के साथ स्मरण किया जाता है जैसे कि महाराणा प्रताप जिनके हाथ में उनका सपूर्ण नागरिक प्रशासन था, पारि
का । वह कापडिया-गोत्रीय ओमवाल जैनी महाजन भारमल वारिक आलेखो की भली-भांति शोध-खोज नहीं की जाती ।
का पुत्र था। भारमल को महाराणा मागा ने रणथम्भौर के इतिहास ने अब तक केवल राजपूतों को जो गौरव प्रदान
अत्यन्त महत्वपूर्ण दुर्ग का दुर्गपाल नियुक्त किया था, और किया है, उसके एक बड़े भाग के न्याय अधिकारी ये लोग थे।
वह उस पद पर तब तक आरूढ़ रहा जब तक कि उस दुर्ग राजपूत संगीत आदि का तो प्रेमी होता था, किन्तु हिसाब
पर कुमार विक्रमाजीत के अभिभावक के रूप में उसके किताब प्रशासकीय, योग्यता, उद्योग और मितव्ययिता का
मामा बूदी के सूरजमल डाडा का अधिकार नही हो गया। उसमें प्रायः अभाव ही होता था। इसके विपरीत वैश्य,
भारमल के दोनों पुत्र, भामाशाह और ताराचन्द्र दुर्धर और कायत्थ में ये सब गुण तो होते ही थे, अवसर पड़ने
योद्धा एवं निपुण प्रशामक थ। ये दोनो ही हल्दीघाटी के पर वह सफल योद्धा और कूटनीतिज्ञ भी सिद्ध होते थे।
प्रसिद्ध युद्ध में महाराणा प्रताप की अधीनता मे वीरता इसके अतिरिक्त राजपूत नरेश राजनीतिक एवं आर्थिक पर्वक लडे थे। राणा प्रताप ने महामनीगम के स्थान में विभागों में किसी अन्य राजपूत के परामर्श पर प्राय. कभी । भामाशाह को अपना प्रधान नियुक्त किया और ताराचंद्र भी भरोसा नहीं करते थे। अतः राजपूत राज्यो मे राज्य को गोद्वार प्रदेश का अध्यक्ष बनाया था। महाराणा की के प्रधान या मुख्यमन्त्री का पद अनिवार्य रूप से वैश्य या विपन्नावस्था में भामाशाह ने गम्राट अकबर के मालवा के कायस्थ के हाथ मे रहता था । अधिकांश राजपून जागीर- मूबे पर आक्रमण किया और वहां से वीस लाख रुपया और दारों कामदार भी वैश्य या कायस्थ ही होते थे । नैणसी बीस हजार अशर्फी लूटकर महाराणा को अर्पित कर दी। मता की बात के अनुसार राजपूतों में एक उक्ति प्रचलित अकबर के अत्यन्त विचक्षण राजनीतिज्ञ एवं कुटनीतिज्ञ थी कि 'यदि अपने भाई को प्रधान बनाओ तो इससे अच्छा मंत्री अब्दुर्रहीम खानखाना ने नाना प्रकार के प्रलोभमों है कि राज्य से हाथ धो बैठो।' यह उक्ति राजपूतो की द्वारा भामाशाह को फुसलाने और मुगल मम्राट की सेमा अनिमत्ता को चरितार्थ करती है। विचक्षण एवं विश्वासी में आ जाने के लिए जी तोड़ प्रयत्न किया, किन्तु भामाशाह
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४, वर्ष ३५, कि४
तानाजी मालसुरे नहीं था, जो कि शिवाजी का सर्वाधिक महाराणा राजसिंह प्रथम के समय संघवी दयालदास वीर एवं विश्वस्त सेनापति होते हुए भी कुछ काल के लिए राज्य के प्रधान थे। जिन दिनों सम्राट औरंगजेब के साथ अपने स्वामी का परित्याग करके मुसलमान बन गया था। राजपूतो के इतिहास-प्रसिद्ध युद्ध चल रहे थे उस काल में मुगलों के साथ होने वाले राणा प्रताप के अन्तिम युद्धो मे संघवी दयालदास राणा राजसिंह के दाहिने हाथ और भामाशाह ने चूडावत और शेखावत सरदारो के साथ, प्रधान स्तम्भ इसी प्रकार के थे जिस प्रकार कि महाराणा विशेषकर दिवर की लड़ाई में, प्रमुख भाग लिया था।
प्रताप के लिए भामाशाह रहे थे। दयालदास के पिता राणा अमर सिंह के समय में भी २६ जनवरी सन् १६०० महाजन राजू थे जिनके पूर्वज सिसोदिया क्षत्री थे । शांतिई० मे अपनी मृत्यु पर्यन्न, वीर भामाशाह मेवाड़ का प्रधान पूर्ण जैनधर्म में दीक्षित होने के उपरान्त वे वणिको की बना रहा । मरते ममय उसने अपनी पत्नी को यह आदेश ओसवाल जाति मे समाविष्ट हो गए थे । संघवी दयालदास दिया था कि वह उसकी मृत्यु के बाद महाराणा को वह
के बीरतापूर्ण एव राजनीतिक गुद्धिमत्तापूर्ण कार्य-कलाप, पोथी सौंप दे जिममे भामाशाह ने मेवाड़ के भूमिस्थ
इतिहाम-प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त, उन्होंने राजसमुद्र रजानो का ब्यौरा लिख रखा था और जिनका रहस्य
झील के तट पर विपुल द्रव्य व्यय करके श्वेतमर्मर का उसके स्वयं के अतिरिक्त और कोई भी व्यक्ति नही जानता
अत्यन्त भव्य आदिनाथ जिनालय निर्माण कराया था। था। डॉ. कानूनगो कहते है कि उम प्रमिद मराठा राज- मेहता अगरचन्द के पूर्वज सिरोही राज्य के देउरावशी नीतिज्ञ नाना फाइनीम के प्रतिपक्ष में यह कितना श्रेष्ठ
चौहान शासक थे। एक प्रसिद्ध जैन मंत ने उसमे से एक
जैनधर्म में दीक्षित कर लिया था अत. उसके वंशज ओसएवं उदात्त उदाहरण है। नाना फाइनीस ने राजकीय कोप
वाल जाति मे समाविष्ट हो गए, जो राजस्थानी जैन का विपुल धन छुपा रखा था और उसे उसने अपने निजी
वणिको की एक प्रमुख जाति थी। अगरचन्द्र मेवाड़ के लाभ के लिए ही व्यय किया था और मरते समय उस
महाराणा अमरसिंह द्वितीय के प्रधान थे। उनके पश्चात खजाने की विवरण पुस्तिका भी वह विरसे के रूप में।
उनके पुत्र देवीचन्द्र राज्य के प्रधान बने । अपनी विधवा को ही सौप गया था।
भामाशाह का छोटा भाई ताराचन्द प्रसिद्ध योद्धा था। सेठ जोरावलमल बाफना का परिवार राजपूताना का उसकी शुरवीरता एवं रणकौशल की कीर्ति चहुं ओर फैल धन कुबेर परिवार था । अमेरिका के प्रसिद्ध धनकुबेर गई थी। उस तूफानी युग के किसी भी राजपूत वीर की राकचाइल्ड परिवार से उनकी तुलना की जाती है। इनके अपेक्षा इस जैन वीर ने जीवन का अधिक आनन्द, वैभव पूर्वज मूलतः परिहार राजपूत थे। ब्राह्मण धर्म का परिऔर गौरव के साथ उपभोग किया। अपने निवास स्थान त्याग करके जैनधर्म में दीक्षित होने के कारण उन्होने सदरी में उसने एक विशाल उद्यान के मध्य अत्यन्त सुदर वणिक वृत्ति अपना ली थी और ओसवाल जाति में भवन (बारादरी) और एक बावडी निर्माण कराई थी। सम्मिलित हो गए थे। जब कर्नल जेम्सटाड मेवाड के उक्त बावडी के निकट स्वयं ताराचद की, उसकी चार पोलिटिकल एजेण्ट नियुक्त होकर आए तो उन्होंने तत्कापलियों की, उसकी कृपापात्र खवास की, छ: नर्तकियों की लीन नरेश महाराजा भीमसिंह को यह परामर्श दिया था और सपत्नीक उसके संगीताचार्य की सुन्दर प्रस्तर मूर्तिया कि वे अपने दीवालिया राज्य की साख एवं आर्थिक स्थिति स्थापित है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस जैनी ओसवाल का पुनरुद्धार करने के लिए इन्दौर से सेठ जोरावरमल को वनिए ने वैभवपूर्ण जीवन-यापन की कला में उस काल के आमन्त्रित करें। अत. घाटे का सौदा होते हए भी मुगल अमीरो को भी मात दे दी थी। भामाशाह की मृत्यु जोरावरमल ने उदयपुर में अपनी गद्दी स्थापित कर दी। के पश्चात उनके पुत्र जीवाशाह राणा अमरसिंह के प्रधान असहाय महाराजा ने सेठ जी से कहा कि आप मेरे राज्य बने उनके उपरान्त उनके पुत्र अवधराज राणा कर्णसिंह के का समस्त प्रशासकीय एव राजकीय दाय अपनी कोठी से समय में मेवाड राज्य के प्रधान रहे।
भुगतान करें और राज्य की समस्त माय आपके यहां जमा
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राजस्थान के इतिहास में नों का योगदान
होती रहेगी। सेठ ने मानो जादू कर दिया। थोड़े ही निकले थे उस भयंकर युद्ध में जैन वीर मुहताविसन राजसमय में मेवाड़ राज्य के घाटे के बजट को उन्होंने पर्याप्त पूतों के साथ ही साथ युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त वचत के बजट में परिवर्तित कर दिया। इतना ही नहीं, हुए थे। राठौर दुर्गादास के प्रधान परामर्शदाताओं, सहाउन्होने महाराणा की विपुल व्यय-साध्य गया जी की तीर्थ- यको और सरदारों में आसकरन, रामचन्द्र, दीपावत, यात्रा की भी पूर्ति कर दी और राणा के ऊपर जो भारी खेमती का पुत्र सावतसिंह, जगन्नाथ का पुत्र हेमराज आदि आभार थे उनसे भी उन्हें मुक्त करा दिया। राणा के भंडारी देसीय जैन वीर थे। इन लोगो की सहायता से ही ऊपर अकेले स्वयं जोरावरमल का ही बीस लाख रुपये राजस्थान ने औरगजेब कालीन लम्बे राजपूत युद्ध में ऋण था। सेठ जोरावरमल बाफना की यह प्रशंसनीय मुगल साम्राज्य के छक्के छडा दिये थे। भडारी खीमती सफलता इस बात का ज्वलन्त प्रमाण है कि जो व्यक्ति महाराज अजितसिंह का अत्यन्त विश्वासी सामन्त था। एक व्यापारिक संस्थान का उत्तमता के साथ प्रवघ कर सैयद बन्धुओं के साथ महाराज के कूटनीतिक सबंध उसी सकता है, वह एक राज्य की अर्थव्यवस्था को भी सफलता के द्वारा निष्पन्न हुए थे। अजमेर पर अधिकार होने पर पूर्वक सम्हाल सकता है तथा एक नम्र वणिक उन न्याय- अजितसिंह ने उस महत्वपूर्ण दुर्ग मे भंडारी विजयराज विरोधी तत्वों का तथा राज्य के भ्रष्टाचारी कर्मचारियो और मुहनोत सांगों की नियुक्ति की थी। अहमदाबाद के का, जो कि भूमि एवं व्यापार से होने वाली राजकीय बाहर महाराजा अभयसिंह ने हैदरकुली खा की बर्बर आय के राजकीय कोष में प्रवाहित होते रहने में बाधक सेना पर आक्रमण किया था तो उन्होने अपनी सेना के होते हैं, सफलतापूर्वक दमन करने मे जबर्दस्त सिद्ध हो दक्षिण पक्ष का सेनाध्यक्ष भडारी विडैराज को नियक्त सकता है।
किया था और वाम पक्ष स्वय अपने छोटे भाई राजकुमार मेवाड़ की राजनीति में गाधी वंशजो ने भी महत्वपर्ण बक्षसिंह को सौपा था। मध्य भाग का नेतृत्व स्वयं महाभाग लिया। मोमचन्द्र गाधी ने पडयत्र द्वारा भीमसिंह के राज कर रहे थे, और उनकी सहायता जो प्रधान सेनासमय में प्रधान पद प्राप्त किया था और छल-बल से ही नायक और सरदार कर रहे थे उनमे भडारी वश के वह उस पर आरूढ़ रहा । उसमे राजनीतिक दूरदर्शिता गिरधर, रतन, डालो, धनस्थ, विजेराज सेतासियोत, एवं कुटनीतिक योग्यता भी पर्याप्त थी। बहुत समय तक सामलदाम लूनवत, अमरोदेवावत, लक्ष्मीचन्द्र, माईदास, उमने मराठो को मेवाड मे घुसने नहीं दिया और राज- देवीचन्द्र, सिंघवी अचल, जोधमल और जीवन, मुहतावंश पताने में मराठो के प्रभुत्व की जीत का प्रतिरोध करने मे के गोकुल, सुन्दर दासोत, गोपालदास, कल्यानदासोत. भी सफल रहा। अपनी शक्ति बनाए रखने के लिए उसने देवीसिंह, मेघसिंह, रूपमालोत तथा मोदी पाथल, टीकम चुडावतों और शक्तावतों की वंशगत प्रतिद्वन्द्वता की अग्नि आदि प्रमुख वणिक जैन वीर थे। को और अधिक भड़काया । फलस्वरूप रावत अर्जुनमिह इसी प्रकार अम्बर (जयपुर), बीकानेर, कोटा, बदी. वडावत के महलों में ही सोमचन्द्र का वध कर दिया गया। अलवर, सिरोही आदि राजस्थान के अन्य राजपत राज्यों उसके पुत्र सतीचन्द्र ने चूडावतो से पिता की हत्या का मे भी न केवल समृद्ध व्यापारी वर्ग, नगरसेठ, राज्यसेठ बदला लेने के उन्मत्त प्रयत्न में मेवाड़ के पतन का मार्ग आदि के रूप में वणिक जाति उन राज्यो की आर्थिक प्रशस्त कर दिया।
उन्नति और समृद्धि का प्रधान साधन रही वरन् प्रधान, मेवाड में ही नही, मारवाड़ में भी इन राजपूतेतरों, दीवान, मत्री, दुर्गपाल, जिलाधीश, सेनानायक आदि अनेक अर्थात जैन बनियों ने पर्याप्त महत्वपूर्ण भाग लिया था। उच्च राजकीय पदो पर रह कर उनके प्रशासन, राजनीमहाराज जसवंतसिंह की मृत्यु के पश्चात जब राठौर तिक जीवन में भी उनके योगदान महत्वपूर्ण रहे है। दर्गादास विश्वासघाती औरंगजेब की सेनाओ के ब्यूह को इतिहास का अर्थ मात्र राजा-महाराजाओ की जय-पराजय भेदकर शिशमहाराज अजितसिंह को लेकर दिल्ली से
(शेष पृष्ठ ६ पर)
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ब्रहम जिनवास की तीन अन्य रचनाएं
डा० प्रेमचन्द रांवका का शोधप्रबंध " महाकवि ब्रह्मजिनदास व्यक्तित्व एवं कृतित्व" के नाम से भी महावीर ग्रन्थ अकादमी, जयपुर द्वारा सन् ८० में प्रकाजिन हुआ है। जिसके सम्बन्ध मे मेरा एक लेख 'अनेकान्स' जनवरी-मार्च २ के अंक मे प्रकाशित हो चुका है।
अभी-अभी उस नागोर के भट्टारकीय प्राथ-भण्डार की सूची का पहला भाग डा० प्रेमचन्द जैन के सम्बन्धित 'सेण्टर फॉर जैन स्टडीज यूनिवर्सिटी ऑफ राजस्थान' जयपुर द्वारा सन् ८ १ में प्रकाशित हुआ है। इसमें नागौर के उक्त भण्डार की १८६२ प्रतियो की विषय-विभाजित
(पृष्ठ ५ का शेषांश) का विवरण नहीं होता, वह तो राजा प्रजा, शामक वर्ग और जनना, संपूर्ण जाति का इतिवृत्त होता है। राजस्थान का इतिहास भी राजस्थान के राजपूतों का ही नही वरन् राजपूतेतर जातियो का भी इतिहास है, जो उसके सास्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन के साधक एव अंग नही थे और इसमें संदेह नही है कि इन जातियो में राजस्थान की ओसवाल, अग्रवाल, खडेलवाल आदि वैस्य जातियों को मंग से अधिकांशतः जैनधर्मावल थी प्रमुख रही है। आज जबकि मध्यकालीन राजपूत योद्धा एक किस्से-कहानियों की वस्तु रह गया, उसकी दुनिया बिल्कुल उलट-पुलट गई है, राजस्थान से विकसित ये वणिक जातियाँ अपनी साहसिक व्यापारिक प्रवृत्तियों द्वारा राजस्थान की आत्मा को नवीन युग के नवीन वाता वरण मे भी सजीव बनाए हुए हैं। नोट- विशेष जानकारी के लिए देखिए भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली से प्रकाशित हमारी पुस्तकें- 'भारतीय इतिहास एक दृष्टि (डि. स.) तवा प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएं ।'
-चार बाग, लखनऊ
भी अगर चन्द नाहटा
सूची दी गई है। जबकि मूल भण्डार में १५ हजार हस्तलिखित प्रतिया व दो हजार गुटके होने का उल्लेख है अर्थात् समस्त प्रतियो की सख्या को देखते हुए यह करीब दसवें भाग की ही सूची है।
प्रकाशित सूचीपत्र को सरसरी तौर से देखने पर बहुत सी असावधानियां भी ज्ञात हुई, जिनके सम्बन्ध में यथावसर प्रकाश में लाया जाएगा। यहां तो केवल 'ब्रह्म जिनदास' की रचनाओं का इस मुभी मे उल्लेख है, उन्ही के सम्बन्ध मे प्रकाश डालते हुए इस शोध-प्रबन्ध में जिन रचनाओ का उल्लेख नहीं हुआ है उन्ही का विवरण प्रकाशित किया जा रहा है।
उक्त सूची में ब्रह्मजिनदास' किरण है। इनमें पहले की २ संस्कृत की बतलाई गई है। १. न. ३६८ अनन्तव्रत कथा, गाथा १७२ पत्र ५ हिंदीभाषा २. न. ३६२ आकाश पचमी कथा, गा० १२० पत्र-४ " ३. न. ३६३ अक्षय दशमी व्रतकथा, गा० ३११ पत्र-४ ४. न. ४०८ दशलक्षण कथा,
"1
"1
पत्र - ३ ५. न. ४२३ निर्दोष सप्तमी कथा, गा० १०६ पत्र - १५ ६. न. ४३२ पुष्पाजवि रूपा, गा० १६१ पत्र-४
वास्तव में इनकी भाषा गुजराती, राजस्थानी है, पर इस भाषा से हिन्दी अलग है पर बहुत से विद्वान नहीं समझ पाते ।
की ११ रचनाओं का हिन्दी की एवं अन्तिम
"1
अब मै
सुगन्ध दशमी कथा जिसका उल्लेख करना छूट गया है, पर नागौर भण्डार सूची मे इसका जो विवरण दिया है, वह मैं नीचे दे रहा हूँ।
1
। । ।
न. ४११ सुगन्ध दशमी कथा महाह्मजिनदास देशी कागज पत्र संख्या ८ । आकार १३॥ ८॥” दशा सुन्दर पूर्ण भाषा हिन्दी लिपि नागरी ग्रन्थ सख्या- २६०८। रचनाकाल - X। लिपिकाल- आश्विन कृष्णा १० मंगलवार स० १६४५ ।
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ब्रह्म जिनदास को तीन अन्य रचनाएं
खोज करने पर विदित हुआ कि प्रस्तुत सुगन्ध दशमी मिलेगी। कई रचनाओ के नाम तो मैने देखे भी है पर कथा सन् १९६६ में डा० हीरालाल जैन सम्पादित एव नोट नहीं किए। न अन्य भण्डारी की प्रकाशित सूचियां भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित 'सुगन्ध दशमी कथा' नामक देखने का ही समय मिला है । अत: मेरा तो यही लिखना ग्रन्थ के पृष्ठ ५१ से ६४ तक में प्रकाशित भी हो चुकी है कि नागौर भटार के प्रकाशित उक्त शोध-प्रबन्ध को है। डा. हीरालालजी ने इसकी भापा स्पप्टन गुजराती पूरा नहीं समझा जाय और कवि की अन्य रचनाओ व बतलाई है । और नव भापो-ठालो में यह विभक्त है। प्रतियों की खोज जारी रखी जाय, जिसमें नई जानकारी इसके आदि अन्त के कुछ पद्य नीचे दिए जा रहे है- प्रकाश में आती रहे। आदि--
वास्तव में तो कवि ने लम्बे काल तक साहित्य-सजन पच परम गुरु, पच परम गुरु । प्रणमेषु ।
किया है। अत. छोटी-बड़ी शताधिक रचनाएं प्राप्त सरस्वति स्वामीणमि विनवु सकल कीरति गुणसार । होगी । उनका एक संग्रह-ग्रन्थ हमारे 'समय सुन्दर कवि भुवन कीरति गुरा उपदेस्यु करस्यु रास निरभर । कुमुमाजलि' की तरह प्रकाशित होना चाहिए। जिससे सुगध दशमि कथा रवडी, ब्रह्म जिनदास भणे सार। कवि की रचनाओं का समुचित मूल्याकन हो सके।
भवियण जन सबोधवा, जिमि होद पुण्य विस्तार। यहा यह स्पष्टीकरण कर देना आवश्मक समझता हू अन्त -
कवि की रचनाओं की भाषा हिन्दी लिखी व मानी जाती श्री सकलकोरति प्रणमिजइ, मुनि भुवन कीरति भवतार । है पर वास्तव में वह तत्कालीन राजस्थानी व गुजराती ही
रास कियो मे निरमली, सुगध-दशमि सविचार ॥४२॥ है क्योकि कवि का विचरण क्षेत्र ये दोनो प्रान्त रहे है और पढे गुण जे साभल, मनि धरइ अनि भाव। उसमे भी गुजराती का प्रभाव अधिक है। ब्रह्म जिनदारा भणे सवडी, ते पामै सुख-ठाव ॥४३॥ डा० हीरालाल जैन ने सुगन्ध दशमी कथा को प्रस्ता
आश्चर्य है कि १६६६ मे रचित इस रचना का बना पृष्ठ २० ब्रह्म जिनदास ने ६७ रचनाओ के नाम उल्लेख भी डा० राबका ने नहीं किया।
दिये है उनमें सेअब सस्कृत की इन दो रचनाओ का विवरण नागौर १. बागधी २. जोगी ३. जीवदया ४. श्रेणिक ५. करभण्डार सूची से दिया जा रहा है जिनका उल्लेख उस कुण्डु ६. प्रद्युम्न ७. कलश दशमी ८. मद्रसप्तमी भ. अष्टाशोध-प्रबध मे, सस्कृत के दिए हुए ग्रन्थों की सूची में हिका १०. श्रावण द्वादशी ११. श्रुति स्कध के नाम डा० नही है।
रावका के शोध-प्रबन्ध में नहीं पाए जाते उनकी प्रतियो .४३६ बकचूल कथा-ब्रह्म जिनदास दशी कागज । पत्र की खोज होनी चाहिए। इस तरह खोजने पर और भी सख्या-५ । आकार १०॥४४१॥" । दशा प्राचीन । पूर्ण। बहुत-सी रचनाओं के नाम प्राप्त होने सम्भव है क्योकि भाषा संस्कृत । लिपि नागरी । ग्रन्थ संख्या २७२६ । रचना कवि ने दीर्घ आयु पाई सरकृत एब गुजराती में छोटी-मोटी काल-x लिपिकाल-X । विशेष-श्लोक संख्या १०६ हे। अनेको रचनाएं करते ही रहे है । जिन प्रदेशो में कवि का
८६२-होल रेणुका चरित-पं० जिनदास । देशी विचरण अधिक हुआ है उन प्रदेशो एव आस-पास के भडारी कागज । पत्र संख्या-४६ । आकार १०||४५" । दशा- मे तथा कवि के गुरू सकल कीर्ति का भण्डार एवं प्रभाव जीर्ण-क्षीण । पूर्ण। भाषा सस्कृत । लिपि नागरी। ग्रन्थ जहा अधिक रहा होगा वहा भी खोज की जानी चाहिए। सख्या-१५७३ । रचनाकाल-X । लिपिकाल-XI ७. न. ४६२ लब्धि-विधान गाथा १६६ पत्र-५ हिंदी भा. नागौर भण्डार सूची का अभी पहला भाग ही छपा
व्रत कथा है । अतः अन्य आगे के भागो में भी ब्रह्म जिनदास की ८. न. ४६१ सुन्ध दशमी कथा गा.x पत्र-८ , और रचनाएं हो सकती है । इसी तरह अन्य भण्डारों की
समस्या
पत्र-३ भूचियों में भी इस कवि की अन्य बहुत-सी रचनाएँ
(शेष पृ० १२ पर)
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( गतांक से आगे)
अपभ्रंश काव्यों में सामाजिक चित्रण
लोकाचार एवं अन्य विश्वास भारतीय जीवन में लोकाडियां एवं अन्धविश्वासों का अपना विशेष महत्व रहा है। ग्टजनों के स्वागत अथवा विदाई के समय उनके प्रति लोक विश्वासो के आधार पर श्रद्धा समन्वित भावना से कुछ कर्तव्यकार्य किये जाते हैं। इनमें दही, नरसों (सिद्धार्थ), दूर्वादल एवं मंगल कलश जैसी उपकरण सामग्रियों का प्रयोग किया जाता
था।
महाकवि पुष्पदन्त ने चक्रवर्ती भारत की दिग्विजय यात्रा से लौटने पर लिखा है कि "उस समय जनसमूह आनन्द विभोर हो उठा, राजमार्ग केशर से सीच दिया गया, कपूर की रगोली पूरी जाने लगी, दूर्वादल, दही एव सरसों से स्वागत की तैयारी की जाने लगी' । सर्वत्र वन्दन - बार सजाये जाने लगे " मेहेमर चरिउ 'मैं मगनावार मन्त्राचार, गीत-नृत्य आदि की भी चर्चाए आई है । शकुन-अपशकुन
शकुन-अपशकुन जन-जीवन की आस्थाएव विश्वास के प्रमुख तत्व है। अपभ्र श काव्यां में उनके प्रसग प्रचुर मात्रा मै उपलब्ध होते है | स्त्री का दाया एव पुरुषों का बाया नेत्र फरकना, बाल खोले हुए स्त्री का रोना, कोए का विरस बोलना, सियार का रोना, या लगडा कर चलना, गधे का रोना, नक्षत्रों का टूटना, मृग का दायी और भागना इन्हे कवियो ने अपशुकन की कोटि मे रखा है' |
स्वप्न में धरती का कम्पन, मूर्ति का हिलना, आकाश मे कबन्ध का नृत्य, राजछत्र का टूटना, दिशाओं का जलना दिखाई देना आदि को अपशुकन कहा गया है* ।
मेहेसर चरित में एक प्रसंग में कहा गया है कि सुलोचना जब अपने प्रियतम मेधेश्वर के साथ ससुराल के लिये प्रस्थान करती है सब मार्ग मे गंगा तट पर विश्राम करती है। रात्रि के अन्तिम प्रहर में वह स्वप्न देखती है कि एक कल्पवृक्ष गिर रहा है, और उसे कोई सम्हालने का प्रयत्न कर रहा है। इसी प्रकार एक दूसरे स्वप्न में वह माना मणिरत्नों से लदे हुए जहाज को समुद्र मे डूबते
डा० राजाराम जैन
हुए देखती है। प्रातःकाल जब वह अपने प्रियतम से इन स्वप्न का फल पूछती है तब मेघेश्वर उन्हें दुख स्वप्न कह कर भयंकर भविष्य की भूमिका बतलाता है ।
'सिरिवाल चरिउ' मे एक स्थान पर शुभ स्वप्न की चर्चा आई है। चम्पानरेश अरिदमन की महारानी कुन्दप्रभा रात्रि के अन्तिम प्रहर में दो स्वप्न देखती है । प्रथम मे यह वचन का दर्शन करनी है और दूसरे में फलों से लदे हुए कल्पवृक्ष का । वह प्रात काल ही अपने पति से स्वप्नफन पूछती है तो पति उसे शीघ्र ही सुन्दर पुत्ररत्न की प्राप्ति की सूचना देता है । आमोद-प्रमोद
अपक्ष - काव्यों में आमोद-प्रमोद एवं मनोरंजन की दो प्रकार की प्रथाएं देखने को मिलती है, एक तो वे, जिनका सम्बन्ध राजघरानों से था और दूसरी वे, जिनका सम्बन्ध जन-साधारण से था ।
राजघरानों में नृत्यगान गोष्ठिया आखेट जल कोड़ा तथा उपवन-कीडा प्रधान है। नृत्य-गान दोनों ही प्रकार के होते थे, शास्त्रीय भी एव लौकिक भी। पुष्पदन्त ने सगीत के भेद-प्रभेदों की भी चर्चा की है' जो भरत मुनि के नाट्यशास्त्र अध्याय ( ४, ५, ११) से पूर्णतया प्रभावित है । स्वयम्भूकृत पउमचरिउ मे भी इसी प्रकार के उल्लेख मिलते है ।
जन साधारण में दोला क्रीड़ा, रासलीला चर्चरी, द्यूतकीड़ा, साले तालियों से हसी मजाक आदि के उल्लेख मिलते है । नट-प्रदर्शन के प्रसंग भी प्राप्त होते हैं । पुष्पदन्त ने लिखा है कि नानकुमार यूतक्रीड़ा में बड़ा दक्ष था, उसने उसके द्वारा अर्जित सम्पत्ति से मा के गहने बनवाये थे। हरिवश चरित में वरणाहरण का उल्लेख भी मिलता है" ।
आर्थिक परिस्थितियां
अपभ्रंश -काव्यों में प्राय: समृद्ध समाज का ही वर्णन मिलता है अतः दीन-हीन एवं दरिद्रता प्रताड़ना से पीड़ित । जन इसमें क्वचिन् कदाचित् ही दिखाई पड़ते । हैं ।
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अपभ्रंश काव्यों में सामाजिक चित्रण
क्रय-विक्रय सम्बन्धी कई मनोरंजक उदाहरण मिलते धण्णकुमार चरिउ के एक प्रसंग में बताया गया है कि उसने हैं। महाकवि रइधु ने 'हरिवश चरिउ' के द्वारका-दहन बाजार से जो पलंग के पाथे खरीदे थे और घर पर उसकी प्रकरण में बताया है कि जब द्वारका अग्नि की भयकर मा जब उन्हें साफ करने लगी तब उनमे से उसे अनेक लपटो में व्याप्त थी तब कृष्ण एव बलदेव नगर के बाहर कीमती मणि-रत्नो की प्राप्ति हुई साथ ही एक शुभ्र-पत्र चले जाते है । चलते-चलते वे एक बन मे पहुचते है । वहा भी मिला जिसके अनुसार पत्रवाहक को उस नगर का कृष्ण को भूख सताने लगी। बलदेव उनकी व्याकुलता देख राज्य मिलना था। कर तड़प उठते है और उन्हे एक छायादार वृक्ष के नीचे प्रन्थों का प्रतिलिपि कार्य बैठाकर समीपवर्ती किसी नगर से अपने सोने के कड़े के अपभ्र श काव्यो मे ग्रथ प्रणयन का जितना महत्व है बदले में पुआ खरीदकर ले आते है"।
उतना ही महत्व ग्रन्थो की प्रतिलिपियो का भी माना गया 'धण्णकुमार चरिउ' में प्राप्त एक प्रसगानुसार धन्य- है, क्योंकि मुद्रणालयों एवं लिखने सम्बन्धी सुकर-सामग्रियों कमार एक ईधन सहित बैलगाड़ी के बदले में भेड़े खरीदता के अभावो में प्रतिलिपि कार्य बड़ा ही श्रमसाध्य समय है तथा उन्ही भेड़ो के बदले में पुनः पलग के चार पाये साध्य एव धैर्य का कार्य माना गया है। खरीद लेता है। धण्ण कुमार चरिउ मे हो एक अन्य प्रसग धण्णकुमार चरित" में इसीलिए त्यागधर्म के अन्तर्गत के अनुसार धन्यकुमार अपने पिता से ५०० दीनारे लेकर आर्थिक सहायता देने के साधनो में 'प्रथ-प्रतिलिपि को भी व्यापार प्रारम्भ करता है तथा सर्वप्रथम उनसे इंधन भरी स्थान दिया गया है । पुष्पदन्त ने महामात्य भरत के राजएक बैल गाडी खरीदता है।
महल मे ग्रथ प्रतिलिपियों की चर्चा की है" । सोलहकारणमजदूरी के बदले मे वस्तु के देने का उल्लेख मिलता पूजा एव जयमाला में भी कवि र इधू ने ग्रथ प्रणेता एव है। अकृतपुण्य नामक एक मजदूर अपनी मजदूरी के बदले ग्रन्थ के प्रतिलिपिक को समकक्ष रखा है। में चने की पोटली प्राप्त करता है"।
प्रतिलिपिक भी यह कार्य बड़ी श्रद्धा एव अभिरुचि के उक्त प्रसगो से यह निष्कर्ष निकलता है कि
साथ करते थे क्योकि उन्हें यह साहित्य-सेवा भी थी तथा १. वस्तुओ के बदले मे वस्तुओ का क्रय
आजीविका का साधन भी। २. मजदूरी के बदले मे अनाज या अन्य आवश्यक मध्यकालीन समुद्र यात्रा वस्तुओ का प्रदान तथा
अपभ्र श काव्यो से विदित होता है कि मध्यकाल में ३. सिक्को के बदले में वस्तुओ का क्रय ।
विदेशो से भारत के अच्छे सम्बन्ध थे । यातायात के साधनों बेची जाने वाली बाजार की वस्तुओं में मिलावट मे जलमार्ग प्रमुख था । सार्थवाह बड़े-बड़े जहाजों अथवा
बाजारों में बेची जाने वाली अच्छी वस्तुओं में पुरानी नौकाओ में व्यापारिक सामग्रिया भरकर कुंकुमद्वीप, सुवर्णएवं कम कीमत वाली वस्तुओं की मिलावट को इक्की- द्वीप, हसद्वीप, रत्नद्वीप, गजदीप, सिंहलद्वीप आदि द्वीपों में दुक्की चर्चा भी अपभ्रश-काव्यो मे आती है। पउमचरिउ जाकर लेन-देन का व्यापार करते थे। के अनसार जब हनुमानजी किष्किन्धापुरी के बाजार में समुद्री-यात्राओं का विशेष वर्णन करने वाले दो काव्य
उन्होने एक दुकान पर तेल मिश्रित घी प्रमुख है भविसयत्त कहा एव सिरिवाल चरिउ । इन रचदेखा था।
नाओं के कथानक इतने सरस एवं मनोरंजक हैं कि उनकी द्रव्य-सम्पति को सुरक्षित रखने के साधन
लोकप्रियता का पता इसीसे लग जाता है कि विभिन्नकालों सोना, चांदी आदि द्रव्य सम्पत्ति को सुरक्षित रखने के एवं विभिन्न भाषाओ में इन पर दर्जनों रचनाए लिखी आज जैसे साधन बैंक आदि उस समय न थे। अध्ययन गई। करने से पता चलता है कि लोग उसे जमीन या दीवाल महाकवि रइधू ने श्रीपाल की विदेश यात्रा के बहाने में गाडकर या पलग के पायों आदि मे बन्दकर रखतों। यात्रा के लिए अत्यावश्यक सामग्री, विदेशो में ध्यान देने
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१० बर्ष ३५, कि०४
अनेका
योग्य बातों एव समुद्री-यात्रा की कठिनाइयों, आदि का माखेट-कीड़ा वर्णन किया है । धवल सेठ जब समुद्री-यात्रा का आरम्भ आखेट-क्रीड़ा की आयोजनाएं प्रायः राज परिवारों में करता है तब उसके पूर्व वह अपने साथ चलने के लिए दस देखने को मिलती है । राजा लोग सदल बल जंगलों में सहस्र सुभटों को निमन्त्रित करता है तथा ध्वजा, छत्र, जाते थे तथा वहाँ सिंह, बाघ, जंगली भैसे एवं हिरण का लम्बे-लम्बे बांस, बड़े-बड़े बर्तन, ईधन, पानी, बारह वर्ष शिकार करते थे । जसहर चरिउ के अनुसार राजा तक के लिए सभी साथियो के लिए अनाज, विविध-खाद्य, यशोमति मृगया हेतु १५०० कुत्तों के साथ जाता था। तिल-तेल, चन्दन आदि सामग्रिया तैयार करता है।
भोजन ___ जहाज में बैठते समय यात्री अपने सिर पर लोहे की
अपभ्रश-काव्यों में भोजनों की चर्चा आहारदान, टोपी धारण करते थे तथा मुद्गर एवं बांस के डण्डे आदि विवाह अथवा अन्य उत्सवों के अवसर पर आई है। कवि हाथ मे धारण करते थे। यह सम्भवत: समुद्री जन्तुओं
स्वयम्भू ने इन खाद्य-पदार्थों के उल्लेख इस प्रकार लिखे एव अन्य भयंकर पक्षियों से सुरक्षित रहने के लिए किया हैं-भात, खीर, सोयवति, घेउर, मंडा, ईख, गुड़, नमक, जाता होगा। इसके लिए यात्रियों को रात्रि-जागरण भी मूंग की दाल, विविध प्रकार के कूर, सालज, माइणी, करना होता था।
माइन्द आलय, पिप्पली, गिरियामलय, असलक, मलूर,
रिमटिका, कचोर, वासुत, पेड़व, पापड़, केला, नारियल, समुद्री-यात्रा के समय अन्य कई कठिनाइयों की भी दही, करमर, करवद, खोले (शर्वत), वक, वाइडण, चर्चा आई है । इनमें सर्वाधिक कठिनाई समुद्री डाकुओं के कारेल, मही, वघारी हुई बडी आदि। आक्रमण से होती थी। समुद्री डाकू सामूहिक रूप में बड़ी उक्त तथ्यो से यह स्पष्ट है कि जपभ्र श कवियों ने भयकरता के साथ आयुधास्त्रों के साथ मालवाहक जहाजों मानव-जीवन के प्रत्येक पहलू को लेकर उन पर हर पर आक्रमण करते थे । धवल सेठ अपने साथियों के साथ दृष्टिकोण से गहन विचार किया है। वस्तुतः अपभ्र श गाता-नाचता एव विविध मनोरजन करता हुआ जब चला साहित्य मध्य
साहित्य मध्यकालीन भारत का एक जीवित प्रामाणिक
चित्र है जो कालदोष से आच्छन्न हो गया और जिस पर जा रहा था । जहाज भी वेग के साथ आगे बढ़ा जा रहा था
गम्भीर एव तुलनात्मक शोध कार्य अत्यावश्यक है । उसके तभी पीछे से भयकर आवाज सुनाई दी लोग निर्णय नहीं अभाव में मध्यकालीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति मे कर सके समुद्री जानवरो ने आक्रमण किया था या प्रामाणिकता एवं पूर्णतया नही आ सकती। डाकुओ ने"।
-महाजन टोली नं०२, आरा (बिहार)
सन्दर्भ सूची १. महापुराण० १।२६२
११. हरिवंश ६११ २. मेहेसर० ७।६
१२. धण्णकुमार० २।५-६ ३. रइध-साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन
१३. उपरिवत्-३९ पृ० ३-६ ।
१४. पउमचरिउ २।१६७ ४. उपरिवत् ।
१५. धण्णकुमार०१७ ५. मेहेसर चरिउ-७११२
१६. धण्णकुमार० ४।१६ ६. सिरिवाल०-३।२
१७. महापुराण सन्धि २१ पुष्पिका ७. महाकवि पुष्पदन्त-पृष्ठ १७३
१८. शास्त्रभक्ति पत्र ८. अपभ्र श भाषा और साहित्य-पृष्ठ २७८
१६. सिरिवाल. ५।१३।१-३
२०. सिरिवाल. २०१२-४ ६. अपभ्र श भाषा और साहित्य, पृष्ठ २७८
२१. उपरिवत् ५।२१।१-१. १०. हरिवंश० १२।१२।१-४
२२. जसहर बरिन ।
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"जिला संग्रहालय खरगोन में संरक्षित जैन प्रतिमाएं "
मार्गदर्शक : नरेशकुमार पाठक
जिला संग्रहालय खरगोन की स्थापना मध्यप्रदेश पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग द्वारा जिला पुरातत्व संघ खरगोन के सहयोग से सन् १९७४ में की गई। यहां पर जिले के विभिन्न स्थानों से प्राप्त लगभग ५५ कलाकृतियों को एकत्रित कर जिलाध्यक्ष कार्यालय खरगोन के सामने के उद्यान में प्रदर्शित किया गया है । संग्रहालय की ये प्रतिमाएं हिन्दू व जैन सम्प्रदाय से सम्बन्धित हैं । जैन सम्प्रदाय से सम्बन्धित ग्यारह प्रतिमाओं का संग्रह है । जिनमें अधिकांशतः खरगोन जिला के प्रसिद्ध जैन तीर्थस्थल ऊन (पावागिरि सिद्ध क्षेत्र) से प्राप्त हुई है। तथा एक बोली ग्राम से इस संग्रहालय को उपलब्ध हुई है । संग्रहित प्रतिमाओं का विवरण इस प्रकार है।
चन्द्रप्रभुः
संगमरमर के पत्थर पर निर्मित आठवें तीर्थंकर भगवान चन्द्रप्रभु पद्मासन (स० क्र० ३१ ) की ध्यानस्थ मुद्रा में बैठे हुए हैं। सिर पर कुन्तलित केशराशि, कर्णचाप एवं वक्ष पर श्रीवत्स का आलेखन है । चोकी पर भगवान चन्द्रप्रभु का ध्वज लांछन चन्द्रमा अंकित है। दुर्भाग्य से प्रतिमा का प्राप्ति स्थान अज्ञात है । परन्तु यह खरगोन जिले के किसी स्थान से ही मिली होगी । पादपीठ पर १६वीं २०वीं शती ईस्वी की देवनागरी लिपि में लेख उत्कीर्ण है । लेकिन पत्थर के क्षरण के कारण अपठनीय है। मल्लिनाथ:
संग्रहालय में ऊन से प्राप्त (सं० क० १२) उन्नीसवे तीर्थंकर मल्लिनाथ की ध्यानस्थ मुद्रा में शिल्पांकित मूर्ति का मुख व वितान भग्न है। चौकी पर उनका शासन देवता, यक्ष, कुबेर एवं खण्डित अवस्था में यक्षी अपराजिता का आलेखन मनोहारी है। लाल बलुआ पत्थर पर निर्मित १३वीं शती की यह प्रतिमा निर्मित के समय अवश्य ही सुन्दर रही होगी ।
पाश्वाथ:
सोप स्टोन पर निर्मित तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ (स० ० ३०) का सिर भग्न है । वक्ष पर श्रीवत्स सुशोभित है । अठारहवीं शती की इस प्रतिमा की कलात्मक अभिव्यक्ति सामान्य है ।
लांछन विहीन तीर्थंकर प्रतिमाएँ:
संग्रहालय में लांछन विहीन तीर्थंकर प्रतिमा से सबधित तीन प्रतिमाएँ सरक्षित है। लाल बलुआ पत्थर पर निर्मित १३वी शती ईस्वी सन् की ये सभी प्रतिमाएँ कन से प्राप्त है । प्रथम (स० क्र० १९ ध्यानस्थ मुद्रा मे अंकित तीर्थंकर के सिंहासन पर अस्पष्ट यक्ष यक्षी प्रतिमा अंकित है । वितान में मालाधारी विद्याधर युगलो का अकन है ।
दूसरी प्रतिमा में (सं० ऋ० १६) भव्य आसन पर चार लघु तीर्थंकर प्रतिमाएँ अंकित है। जिनमे दो कायोत्सर्ग एवं दो पद्मासन की ध्यानस्थ मुद्रा में अकित है । वितान में विद्याधर युगलो का आलेखन मनोहारी है ।
तीसरी प्रतिमा (स० क्र० २२) काफी खण्डित अवस्था में है। पत्थर के क्षरण के कारण मूर्ति की कलात्मकता समाप्त हो गई है।
अम्बिका:
भगवान नेमिनाथ की शासन यक्षी अम्बिका की दो प्रतिमाएँ संग्रहालय में संरक्षित है । प्रथम काले स्लेटी रंग के पत्थर ० ० ४ ) पर निर्मित द्विभुजी प्रतिमा ऊन से प्राप्त हुई है। देवी के हाथो मे बीजपूर तथा गोद में अपने लघु पुत्र प्रियंकर को लिये हुए है। पादपीठ पर दोनों ओर परिचारक एव पूजक प्रतिमाएँ अकित है ।
ऊन से ही प्राप्त दूसरी प्रतिमा में शासनदेवी अंबिका भव्य ललितासन में बैठी हुई शिल्पांकित है । (स०क्र०१५) देवी के पीछे आम्र लुम्बी का आलेखन है । गोद मे अपने म पुत्र प्रियंकर को लिए हुए है। देवी के आयुध भग्न
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१२, बर्ष १५, कि.४
पादपीठ पर दोनों भोर बामरणारी प्रतिमाओं का के दर्शन हो जाते हैं। जिससे मानव का कल्याण होता है। आलेखन आकर्षक है। कालक्रम की दृष्टि से ये दोनों इसीलिए चारों तरफ मूर्तियों वाली प्रतिमाओं को सर्वतोप्रतिमा १३वी शती ईस्वी की है।
भद्रिका की संज्ञा दी गई है । प्रस्तुत सर्वतो-भद्रिका के गोमेद-अम्बिका:
चारों ओर तोर्थकर प्रतिमाओं का अंकन है। जिन्हें लांछन नोकर नेमिनाथ के शासन यक्ष गोमेद, यक्षी अंबिका के अभाव में पहिचानना कठिन है। किन्तु सर्वतोभद्रिका स्थानक मुद्रा में शिल्पांकित यह प्रतिमा ऊन से प्राप्त हुई प्रतिमाओं में चार विशिष्ट तीर्थकरो की प्रतिमाएं अधिकहै। पीछे कल्पवक्ष (आम्र-लम्बी) का आलेखन आकर्षक तर बनाई जाती रही है। यथा ऋषभनाथ, नेमिनाथ.
जा में बीजपर पर दोनों पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी । अतएव इस सर्वतोभद्रिका ओर दो लघु जिन प्रतिमाएं एव वृक्ष पर आठ अन्य जिन
की चारों प्रतिमा ऋषभनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवं प्रतिमाओं का शिल्पांकन है। १३वी शती ईस्वी की यह प्रतिमा कलात्मक दृष्टि से परमार कालीन शिल्पकला के जिन प्रतिमा वितान अनुसार है।
जिन प्रतिमा वितान से सम्बन्धित इस (सं०क० ४४) सर्वतोभद्रिका:
शिल्पखण्ड में त्रिछत्रावली, अभिषेक करते हुए ऐरावत, चोली से प्राप्त हुई इस प्रतिमा के चारों ओर तीर्थकर दुन्दुभि-वादक एवं कलश लिए हुये विद्याधर युगलों का प्रतिमाओं को अकित किया गया है। (स० ऋ० ५१) इस आलेखन किया गया है। प्रकार की प्रतिमाओं को किमी तरफ देखा जाय तीर्थंकर -केन्द्रीय पुरातत्व संग्रहालय गुजरी महल ग्वालियर
(पृष्ठ ७ का शेष) १०.नं.४३६ वंक चूल कथा श्लोक-१०६ पत्र-५ संस्कृत लिखी गई है, जबकि नागौर सूची में गाथा १७२ है। ११.नं.८९२ होल रेणुका चरित्र पत्र-४४६, अर्थात् सभी रचनाओ पद्य सख्या न्यूनाधिक है। अतः
मिलान करना जरूरी है। इनमें से लब्धि-विधान व्रत कथा का दूसरा नाम 'गौतम स्वामी रास' बतलाया गया है। पद्य संख्या १३२ दी है। लगता है नागोर भण्डार का सम्यक्त्व रास, संभवतः नंबर २३ समकित अष्टांग कथा रास । पहले तो मैंने सोचा डॉ० संवका के लिखित नं० ५५ समकित-मिथ्यात्व रास कि नाम के अनुसार नंबर २३ मागौर भण्डार में जो होगा, जिसकी पद्य संख्या ७० है। खोज करने पर विदित समकित रास है, वही यह होगा पर उसकी पद्य संख्या हुआ कि यह रास "राजस्थान के जैन सत" नामक परिशिष्ट ८२६ बतलायी गई है वह इससे भिन्न ही मालूम देता है में छपा है।
पत्रों में इनके २६ पद्य शायद ही लिखे गये है। उपरोक्त रचनाओं मे २ अर्थात् संस्कृत रास बंकचल ०३० में पुष्पाजलि रास के विवरण में पद्य संख्या व होल-रेणुका चरित्र का लेखक ने ब्रह्म जिनदास के संस्कत १३४ बतलायी है, जबकि नागौर भण्डार सूची में १६१ ग्रंथो मे उल्लेख नही किया है। पर गुजराती या हिन्दी
।नं० ३१ आकाश पंचमी कथा में छन्द संख्या ६४ बत- रचनाओं में उल्लेख है। जिनमे से न० २५ होली राम ना । जबकि नागौर सूची मे गाथा १३० है। नं. ३४ के पद्य १४६ है और नं० २८ बंकचूल रास का विवरण में निर्दोष सप्तमी कथा रास के छन्द की संख्या ८५ लिखी देते हुए लेखक ने लिखा है कि "यह कृति अधरी मिली है जबकि नागौर भण्डार सूची में गाथा १०६ है। नं० ३५ है। इसमें बंकचूल का आख्यान है। जिसमें सम्यक्त्व के अक्षय दशमी रास की छन्द संख्या ८६ है, जबकि नागौर नियमों के पालन से देव गति प्राप्त की गई है। रासका
बार सची में गाथा १११ है। नं० ३६ दशलक्षण व्रत कथा प्रारम्भ वस्तु छंद हैं।" पर वास्तव में सम्यक्त्व के नियमों रास की छन्द संख्या ८२ बतलायी गई है। नागौर सूची का नहीं, कुछ अन्य नियमो के ग्रहण करने का सफल इसमें में नहीं दी है। नं. ३८ अनन्त ब्रत रास में छन्द १२५ बतलाया है। -नाहटों की गवाड, बीकानेर
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मासल को जैन मतियां
-प्रो० प्रदीप शालिग्राम मेश्राम 'मासल' यह भंडारा जिले में पवनी से लगभग १५ तक बहुत बारीकी से मूर्ति के आकार के अनुपात में बनाई किलोमिटर दूर एक छोटा सा गांव है। यहां श्री संपत गई हैं। मोतीराम भाग-भणारकर नामक एक मछेरे के आंगन में पादपीठ दो इंच ऊंचा है, आसन मे कमल का चिन्ह लगभग ५० वर्षों से, तीन जैन मूर्तियां धूप, यर्षा में धूल खा बना है। जो घिस जाने से अभी मद्य चषक जैसा प्रतीत रही अपने उद्धार की प्रतीक्षा कर रही हैं । हरी छटा वाले होता है। यह निश्चित ही कमल है अतः इसे इक्कीसवें काले रंग के पत्थर की बनी यह मूर्तियां कलात्मक एवं तीर्थंकर नेमिनाथ की प्रतिमा कहना उचित होगा। पुरातत्व की दृष्टि से बेजोड़ है। किंतु प्रचार के अभाव में संभवतः यह मुर्ति उपासना हेनु निर्मित की गई थी, इसकी अभी तक पुरातत्व प्रेमियों का विशेष कोई ध्यान आक- वजह से इसकी सुंदरता और सौदर्य बोध पर विशेष ध्यान षित नही कर पाई है। इसमें से दो मूर्तियां जो एक जैसी दिया गया है। दोनों गालो, होठों एव गले को बच्चों ने हैं खड़ी या खड्गासन में है । तीसरी मूर्ति मात्र ध्यान मुद्रा हाथ लगा-लगा कर खुरदरा बना दिया है। शेप पॉलिश में बैठी हैं। इनका नीचे वर्णन प्रस्तुत है।
की स्निग्धता अब भी कायम है। अन्य दोनों मूर्तियां लगध्यान मुद्रा में बैठी मूर्ति पादपीठ सहित २' २" ऊची भग एक जैसी है। दोनो आठ इच चौडे पत्थर पर बनी है है। पादपीठ दो इच ऊंचा है जो आकार में वर्नुलाकार एक २ " और दूसरी २' १०" ऊची है। यह दोनो प्रतीत होता है। ध्यान मुद्रा में बैठी इस मूर्ति के वक्ष प्रतिमाएं सिंहासन पर कायोत्सर्ग या खड़गासन मे अधिक स्थल पर श्रीवत्स चिन्ह बना है। ग्रीवा की त्रिवली, नासाग्र,
____ सुघड़ और सौम्य हैं, जिन्हें घिम कर यथेष्ट चिकना बनाया दृष्टि, मूर्ति के मुखमडल पर शांति और वैराग्य का भाव गया दर्शाते है। कान कंधो पर टिके है, जो महापुरुष लक्षणो सिंहासन मे सिंहयुगल का अंकन सूक्ष्मता और सुन्द में से एक है। भौहें लचीली एवं लंबी हैं। सिर के केश
रता से किया गया है। बीच मे कलश रखा है, जिस पर परम्परागत अंगुष्ठ मात्र कुंचित है जो चार समान जूड़ो में
पात्र ढका है। जैन ग्रंथों में वर्णित लांच्छनो के अनुसार बंटे हैं।
यह मूति १६वें तीर्थंकर मल्लिनाथ की है। श्वेताम्बर प्रस्तत मति का पादपीठ छोटा होने से दोनों आर पथीय इसे स्त्री मानते है तो दिगंबरो के अनुसार यह पांव बाहर निकलते दिखाई देते है। दोनों हाथ एक दूसरे पाष है। के ऊपर रखे हैं। दाहिना हाथ जो ऊपर रखा है में प्रस्तुत प्रतिमा के हाथ लम्बे, घुटनों तक लटक रहे हैं बलाकार चक्र है तथा इसको माध्यमिका टूटी है। हाथ- तथा हथेलियों पर कमल पुष्प या चक्र का अंकन है। मूर्ति
व तथा पेट के मध्य जो शेष जगह है उसमे मूर्ति को पूर्णत: नग्न है और इसकी आंखें वन्द हैं । वक्ष पर श्रीवत्स सोते समय जल संग्रहित न हो इसलिए, नाभी के निचले चिन्ह बना है। सिर पर तीन छत्र है। हिस्से में एक छेद बना है। यह सहजता से दिखाई नहीं सिंहासन के पादमूल में दाए ओर हाथ के नीचे एक देता। इससे होता हुआ जल बिना किसी रुकावट के बाएं छोटी पुरुष प्रतिमा है। इसके एक हाथ में अंकुश सदश पांव से होता हुआ सीधा दाहिने पांव के ऊपर से बाहर कोई वस्तु है, दूसरे हाथ में वर्तुलाकार कोई वस्तु है। निकल जाता है। यह मूर्ति सर्वांग है । मूर्ति का मुख तथा इसके पीछे एक पुरुष प्रतिमा उकेरी है जो तीर्थकर के अंग सौष्ठव अत्यंत आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक है, उंगलियां हथेलियों तक पहुंचती है। इस प्रतिमा के कण्ठ में माला,
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१४,
२५, कि०४
कानों में कुण्डल हैं। दाहिने हाथ की वस्तु स्पष्ट नहीं है, दिन भर वच्चे इन मूर्तियों से लिपट-लिपट कर खेलते हैं। दूसरा हाथ नीचे की और है। बाएं ओर एक बैठी स्त्री मकान मालिक इन्हे 'ऋषी-मुनी' कहते हैं तो गांव वाले प्रतिमा है जिसके आसन पर मत्स्य (Fish) का अंकन है। 'उघडा (नंगा) देव' कहते है। इन मूर्तियों के पिछवाड़े ही इसका एक हाथ आसन पर है तो दूसरा हाथ कंधे पर। हेमाडपथी मंदिर की जगती और कुछ स्तंभ बिखरे पड़े हैं, उसके पीछे खड़े पुरुष का वायां हाथ नीचे की ओर है तो जो यहा मंदिर होने के प्रमाण प्रस्तुत करते है। इससे लगकर दायां हाथ सभवत. कमल उठाकर इस ढंग से रखा है कि ही तालाब है, जिसके किनारे भी अनगिनत हिंदू धर्म से तीर्थंकर के हथेली को छूने लगे । प्रतिमा की ग्रीवा त्रिवली संबधित मूर्तिया बिखरी पड़ी है। युक्त है, कान कधे पर लटक रहे है तथा सिर पर बाल आज भी पवनी के इर्द-गिर्द प्राचीन अवशेष यथेष्ट तीन समान जडो में बटे हैं। सिर पर उष्णीष है । सिर मात्रा में देखे जा सकते है। मासल से तीन किलो मीटर के पीछे प्रभावलय का अकन है जिसे चार वर्तुलाकार दूर तेलोता खैरी नामक एक छोटा-सा गाव है जहां प्राचीन रेखाओं से दर्शाया गया है। कधे के दोनो ओर दो उड़ते अवशेष 'कप स्टोन' (Cap stone) देखे जा सकते हैं । हरा विधाघर अकित है जिनके हाथों में सनाल कमल है। इसके तीन-चार किलोमीटर दूर निपानी पिपल गांव नामक दोनों की केश रचना एवं कान के आभूषण एक जैसे है। एक और गाव मे भी इसी प्रकार के अवशेष है। इन दोनो विद्याधर वे मनुष्य होते हैं, जो साधना या तपस्या के के बीच तथा पवनी के चारो ओर बृहदाश्म (Megaithic फलस्वरूप आकाशगामिनी आदि विद्याएँ सिद्ध कन लेते stone C!rocie) वर्तुल देखे जा सकते है। इन दोनों थे। अन्यत्र इन्हें तीर्थकर के मस्तक पर चंवर डलाते हए प्रकारों में शव दफनाए जाते थे। पाया जाता है।
पवनी प्राचीनकाल से ही हीनयान बौद्ध धर्म का एक तीर्यकर के सिर पर छत्रावली है जिस पर गजलक्ष्मी महत्वपूर्ण स्थान रहा है। यहा का जगन्नाथ स्तूप तो आसीन है। इसके दोनों ओर अलकृत हाथी सूड से कुंभ गौतम बुद्ध की अस्थियो पर बनाया गया था। अडम से उठाए लक्ष्मी के सिर पर अभिषेक कर रहे है। लक्ष्मी कुछ रोमन सिक्के भी प्राप्त हुए है, जिससे यहा विदेशी धन-धान्य आदि सर्व प्रदात्री देवी मानी गई है। इसे अभि- धर्म यात्रियों तक के आने का प्रमाण मिलता है। पवनी षेक लक्ष्मी भी कहते है। शुंग काल से ही यह देवी बौद्ध, के परिसर मे अनेक विहार तथा स्तूपों के अवशेष यथेष्ट जैन और ब्राह्मण इन तीनों संप्रदायों को मान्य थी। मात्रा में मिले है। भिवापूर, चांडाला, सातभोकी, कोरंभी तीर्थकर माता के स्वप्नो में अभिषेक लक्ष्मी की भी आदि जगहो पर कई प्राचीन गुहाए है। इतना ही नही गणना है।
यह स्थान प्राचीन व्यापारी मार्ग पर भी था। ग्रीवा की त्रिवली, मुखमंडल की सौम्यता और चम
खमंडल की सौम्यता और चम- बौद्ध धर्म के अवनति के पश्चात इस परिसर में हिंद बिमिलकर इन मानियो तथा जैनधर्म पथियो ने अधिकार कर लिया। मासल से का काल गुप्तोत्तर युग को सिद्ध करते है।
कुछ ही दूर पद्मपूर तथा भडारा में भी जैन अवशेष पाये तीर्थकर की कुल सख्या चौबिस है । आज की विचार जाते है। धारा के अनुसार इनमें केवल तीन को-नेमि, पार्श्व तथा यह मूर्तियां तथा पवनी का प्रदेश अभी तक अप्रचारित महावीर को मत्य मष्टि के परुष होता स्वीकार किया एव अनेक पुरातत्व प्रेमियों, पर्यटको के लिए अनजान है। जाता है।
पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की इस महत्वपूर्ण परिसर के प्रति
उपेक्षा खटकती है। गांवों में इतनी अधिक मूर्तियां पड़ी उक्त तीनो मूतिया लगभग ५० वर्ष पूर्व, घर के आगन हैं कि यहां एक विशाल संग्रहालय एवं दर्शनीय स्थल का में खुदाई करते समय मिली थीं। तब से अभी तक यह रूप दिया जा सके। मूतियां श्री भाणरकर के आंगण की शोभा बढ़ा रही है।
बेसनबाम, नागपुर-४४०००४
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परिणामि-नित्य
युवाचार्य महाप्रज्ञ
आंधी चल रही है। उसमे जितनी शक्ति आज है। उसका विनाश नही हुआ । ध्रौव्य, उत्पाद और व्यय को एक उतनी हो कल होगी, यह नहीं कहा जा सकता । जो कल क्रम देता है किन्तु अस्तित्व की मौलिकता में कोई अन्तर थी, उसका आज होना जरूरी नही है और जो आज है नही आने देता । अस्तित्व की मौलिकता समाप्त नही उसका आने वाले कल में होना जरूरी नही है। इस दुनिया होती। इस बिन्दु को पकड़ने वाले "कटस्थ नित्य" के में एकरूपता के लिए कोई अवकाश नही है। जिसका सिद्धात का प्रतिपाद करते है । अस्तित्व के समुद्र मे होने अस्तित्व है, वह बहुरूप है। जो बाल आज सफेद है वे कभी वाली ऊमियो को पकहने वाले "क्षणिकवाद" के सिद्धात काले रहे है । जो आज काले है, वे कभी सफेद होने वाले का प्रतिपादन करते है । जैन दर्शन ने इन दोनों को एक है। वे एकरूप नही रह सकते । केवल बाल ही क्या दुनिया ही धारा में देखा, इसलिए उसने परिणामि-नित्यत्ववाद के की कोई भी वस्तु एकरूप नहीं रह सकती। जैन दर्शन ने सिद्धात का प्रतिपादन किया। अनेकरूपता के कारणों के कारणों पर गहराई से विचार भगवान महावीर ने प्रत्येक तत्व की व्याख्या परिकिया है, अन्तर्बोध से उसका दर्शन किया है। विचार और णामि-नित्यत्ववाद के आधार पर की। उनसे पूछादर्शन के बाद एक सिद्धात की स्थापना की। उसका नाम “आत्मा नित्य है या अनित्य । पुद्गल नित्य है या है-"परिणामि-नित्यत्ववाद"।
अनित्य !" उन्होने एक ही उत्तर दिया, “अस्तित्व कभी इस सिद्धात के अनुसार विश्व का कोई भी तत्व सर्वथा ।
समाप्त नहीं होता । इस अपेक्षा से वे नित्य है । परिणाम नित्य नही है। कोई भी तत्व सर्वथा अनित्य नही है।
का श्रम कभी अवरुद्ध नही होता, इम दृष्टि से वे अनित्य प्रत्येक तत्व नित्य और अनित्य-इन दोनो धर्मों की बात
है। समग्रता की भ.पा में वे न नित्य है और न अनित्य, स्वाभाविक समन्विति है। तत्व का अस्तित्व ध्र व है, इस- किन्तु नित्यानित्य है। लिए वह नित्य है । ध्रुव परिणनमन-शून्य नहीं होता और वत्त मे दो प्रकार के धर्म होते है-सहभावी और परिणमन ध्र व-शून्य नहीं होता । इसलिए वह अनित्य भी क्रमभावी । महभावी धर्म तत्व की स्थिति और क्रमभावी है । वह एकरूप मे उत्पन्न होता है और एक अवधि के थमं उसकी गतिशीलता के मुचक होते है। सहभावी धर्म पश्चात् उस रूप से च्युत होकर दूसरे रूप में बदल जाता "गुण" और क्रमभावी धर्म "पर्याय" कहलाते है । जैन है। इस अवस्था मे प्रत्येक तत्व उत्पाद, व्यय और धौव्य
दर्शन का प्रसिद्ध सूत्र है कि द्रव्य-शून्य पर्याय और पर्यायइन तीनों धर्मों का ससवाय है। उत्पाद और व्यय-ये।
शून्य द्रव्य नही हो सकता । एक जैन मनीषी ने कूटस्थदोनों परिणमन के आचार बनते है और धौव्य उसका नित्यदादियों से पूछा, “पर्याय-शून्य द्रव्य किसने देखा ! अन्वयीसूत्र है। वह उत्पाद की स्थिति में भी रहता है और कहा देखा ! कब देखा ! किस रूप में देखा ! कोई बताये व्यय की स्थिति में भी रहता है । वह दोनो को अपने साथ तो सही।" उन्होंने ऐसा ही प्रश्न क्षणिकवादियो से पूछा जोड़े हुए है। जो रूप उत्पन्न हो रहा है, वह पहली बार कि वे बताए तो सही कि द्रव्य-शून्य पर्याय किसने देखा ! ही नही हो रहा है और जो नष्ट हो रहा है वह भी पहली कहा देखा ! कब देखा ! किस रूप में देखा ! अवस्थाबार ही नही हो रहा है । उससे पहले वह अनगिनत बार अवस्थावान और अवस्थावानविहीन अवस्थाएं-ये दोनों उत्पन्न हो चुका है और नष्ट हो चुका है। उसके उत्पन्न तथ्य घटित नही हो सकते । जो घटनाकम चल रहा है, होने पर अनित्य का सुजन नहीं हुआ और नष्ट होने पर उसके पीछे कोई स्थायी तत्व है। घटना-कम उसी में चल
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१६, वर्ष ३५ कि.४
भनेकास
रहा है । वह उससे बाहर नही है। तालाब में एक कंकर परिणमन स्वभाव से भी होता है और प्रयोग से भी। फेका और तरगें उठी। तालाब का रूप बदल गया। स्वाभाविक परिणमन अस्तित्व की आंतरिक व्यवस्था से
ल शात था, वह कुछ हो गया, तरगित हो गया। होता है। प्रायोगिक परिणमन दूसरे के निमित्त से घटित तरंग जल में है। जल से भिन्न तरग का कोई अस्तित्व होता है। निमित्त मिलने पर ही परिणमन होता है, ऐसी नहीं है । जल मे तरंग उठती है इसलिए हम कह सकते वात नही है। परिणमन का क्रम निरंतर चालू रहता है । हैं कि तालाब तरंगित हो गया । तरगित होना एक घटना
रागत हाना एक घटना काल उसका मुख्य हेतु है। वह (काल) प्रत्येक अस्तित्व है। वह विशेष अवस्थावान में घटित होती है। जलाशय
म घाटत हाता है। जलाशय का आयाम है। वह परिणमन का आतरिक हेतु है । इसनही है तो जल नही है । जल नहीं है तो तरग नहीं है। लिए प्रत्येक अस्तित्व में व्याप्त होकर वह अस्तित्व को तरंग का होना जल के होने पर निर्भर है। जल हो और परिणमन शील रखता है। स्वाभाविक परिणमन सूक्ष्म तरग न हो-ऐमा भी नही हो सकता। जल का होना होता है। वह इद्रियो की पकड़ में नहीं आता, इसलिए तरंग होने के साथ जुडा हुआ है। जल और तरंग- अस्तित्व में होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों की इन्द्रिय-ज्ञान के दोनों एक-दूसरे में निहित है-जल मे तरग और तरग
स्तर पर व्याख्या नहीं की जा सकती। जीव और पुद्गल मे जल ।
के पारस्परिक निमित्तो से जो स्थल परिवर्तन घटित होता द्रव्य पर्याय का आधार होता है। वह अव्यक्त होता
है, हम उस परिवर्तन को देखते है और उसके कार्य-कारण है, पर्याय व्यक्त । हम द्रव्य को कहा देख पाते है । हम
की व्यवस्था करते है। कोई आदमी बीमारी से मरता है, देखते है पर्याय को। हमारा जितनाज्ञान है, वह पर्याय का ।
कोई चोट से, कोई आघात से और कोई दूसरे के द्वारा ज्ञान है । मेरे सामने एक मनुष्य है । वह एक द्रव्य है । मै'
मारने पर मरता है। बिमारी नही, चोट नहीं, आघात उसे नही जान सकता। मै उसके अनेक पर्यायो में से एक
नही और कोई मा ही
पाला भी नही, फिर भी वह मर पर्याय को जानता हूं और उसके माध्यम से यह जानता हू
जाता है । जो जन्मा है, का मरना निश्चित है। मृत्यु कि यह मनुष्य है। जब आख से उसे देखता हू तो उसकी
एक परिवर्तन है। जीवन मे उसकी आतरिक व्यवस्था आकृति और वर्ण-इन दो पर्यायो के आधार पर उसे
निहित है। मनुष्य जन्म से पहले क्षण मे ही मरने लग मनुष्य कहता हूं। कान से उसका शब्द सुनता हूं, तब उसे
जाता है। जो पहले अण मे नही मरता, वह फिर कभी शब्द पर्याय के आधार पर मनुष्य कहता है। उसकी सम
नहीं मर सकता। जो एक क्षण अमर रह जाए, फिर ग्रता को कभी नही पकड़ पाता। आम को कभी मै रूप
उसकी मृत्यु नही हो सकती। बाहरी निमित्त से होने पर्याय में जानता हू, कभी गन्ध-पर्याय से और कभी रस
वाली मौत की व्यवस्था बहुत सरल है। शारीरिक और पर्याय से । किन्तु सब पर्यायो से एक साथ जानने आदि का
मानसिक क्षति से होने वाली मौत की व्याख्या उससे कठिन मेरे पास कोई साधन नही है। गध का पर्याय जब जाना
है। किन्तु पूर्ण स्वस्थ दशा में होने वाली मौत की व्याख्या जाता है तब रूप का पर्याय नीचे चला जाता है। इस
वैज्ञानिक या अतीन्द्रिय ज्ञान के स्तर पर ही की जा समग्रता के सदर्भ मे मै कहता हूं कि मै द्रव्य को नहीं सकती है। देखता हूं, केवल पर्याय को देखता हूं और पर्याय के आधार पर द्रव्य का बोध करता हूं।
कुछ दर्शनिक सृष्टि की व्याख्या ईश्वरीय रचना के हमारा पर्याय का जगत् बहुत लम्बा-चौड़ा है और
आधार पर करते है। किन्तु जैन दर्शन उसकी व्याख्या द्रव्य का जगत् बहुत छोटा है। एक द्रव्य और अनन्त
जीवन और पुदगल के स्वाभाविक परिणमन के आधार पर्याय । प्रत्येक द्रव्य पर्यायों के बलय से घिरा हुआ है।
पर करता है। सूक्ष्म विकास या प्रलय--जो कुछ भी प्रत्येक द्रव्य पर्यायों के पटल मे छिपा हआ है। उसका
घटित होता है, वह जीव और पुद्गल की पारस्परिक बोध कर द्रम को देखना इन्द्रिय ज्ञान के लिए संभव
प्रतिक्रियाओ से घटित होता है। काल दोनों का साथ देता ही है। बसपटनाओं में बाहरी निमित्त भी अपना योग
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परिणामि-नित्य
देते है। सृष्टि का अव्यक्त और व्यक्त-समग्र परिवर्तन परिवर्तित होने की क्षमता नही होती, वह दूसरे क्षण में उसके अपने अस्तित्व में स्वय सन्निहित है।
अपनी सत्ता को बनाए नही रख सकता। अस्तित्व दूसरे परिणमन सामुदायिक और वैयक्तिक-दोनो स्तर क्षण में रहने के लिए उसके अनुरूप अपने आप मे परिपर होता है। पानी मे चीनी घोली और वह मीठा हो वर्तन करता है और तभी वह दूसरे क्षण में अपनी सत्ता को गया। यह सामुदायिक परिवर्तन है। आकाश में बादल बनाए रख सकता है एक परमाणु अनन्तगुना काला है। मडराये और एक विशेष अवस्था का निर्माण हो गया। वही परमाणु एक गुना काला हो जाता है। जो एक गुना भिन्न-भिन्न परमाणु-स्कन्ध मिले और बादल बन गया। काला होता है, वह कभी अनन्तगुना काला हो जाता है । कुछ परिणमन द्रव्य के अपने अस्तित्व में ही होते है। यह परिवर्तन बाहर से नहीं आता। यह द्रव्यगत परिवर्तन अस्तित्वात जितने परिणमन होते है, वे सब वैयक्तिक होते है। इसमे भी अनन्तगुणहीन और अनन्तगुण अधिक तारहै। पाच अतिकाय (अस्तित्व) है। धर्मास्तिकाय, अधर्मा- तम्य होता रहता है। अनन्त काल के अनन्त क्षणों और स्तिकाय और - काशास्तिकाय मे स्वाभाविक परिवर्तन अनन्त घटनाओ मे किसी भी द्रव्य को अपना अस्तित्व ही होता है। जी और पुद्गल मे स्वाभाविक और प्रायो- बनाए रखने के लिए अन- परिणमन करना आवश्यक है। गिक-दोनोर के परिवर्तन होते है। इसका स्वाभा- यदि उसका परिणमन अनत न हो तो अनतकाल में वह विक परिवर्तन वैयक्तिक ही होता है। किन्तु प्रायोगिक अपने अस्तित्व को बनाए नही रख सकता। परिवर्तन सामुदायिक भी होता है। जितना स्थूल जगत् है अस्तित्व में अनत धर्म होते है, कुछ अव्यक्त और कुछ वह सब इन दो द्रव्या के सामुदायिक पारवतन द्वारा हा व्यक्त । प्रश्न हुआ कि क्या धास मे धी है ? इसका उत्तर निर्मित है । जो कुछ दृश्य है, उसे जीवो ने अपने शरीर के
होगा घास मे घी है, किन्तु व्यक्त नहीं है। क्या दूध मे
दो रूप में उपस्थित रूपायित किया है। इसे इन शब्दो मे भी।
घी है ? दूध मे घी है, पर पूर्ण व्यक्त नहीं है। दूध को प्रस्तुतत किया जा सकता है कि हम जो कुछ दख रहे है बिलोया या दही बनाकर बिलोया, घी निकल आया। वह या तो जीवच्छरीर है या जीवों द्वारा त्यक्त शरार है। अव्यक्त धर्म व्यक्त हो गया। द्रव्य मे "ओष" और "समु
प्रत्येक अस्तित्व का प्रचय (काय, प्रदेश राशि) होता चित"-ये दो प्रकार की शक्तियां काम करती है । “ओघ" है। पदगल को छोडकर शेष चार अस्तित्वों का प्रचय नियामक शक्ति है। उसके आधार पर कारण-कार्य के स्वभावतः अविभक्त है। उसमे संगठन और विभाजन नहीं नियम की स्थापना की जाती है। कारण कार्य के अनुरूप होता। पदगल का प्रचय स्वभाव मे अविभक्त नहीं होता। रीटोता है। कारण अETAH उपमे सगठन और विधान-ये दोनों घटित होत है। एक है। अब आप पूछ कि धारा मे धी है या नही? तो उत्तर परमाणु का दूसरे परमाणुओ के साथ योग होने पर स्कन्ध
होगा-“ओप" शक्ति की दृष्टि से है, किन्तु "समुचित" के रूप में रूपान्तरण हो जाता है और उस स्कन्ध के सारे
शक्ति की दृष्टि से नहीं है। पुद्गल द्रव्य में वर्ण, गंध, रस परमाण वियुक्त होकर केवल परमाणु रह जाते है । वास्त- और स्पर्श-ये चारों मिलते है । गुलाब के फूल में जितनी विक अर्थ में सामुदायिक परिणमन पुद्गल में ही होता है। सुगध है, उतनी ही दुर्गध है। किन्तु उममे मुगंध व्यक्त है दश्य अस्तित्व केवल पुद्गल ही है। जगत् के नानारूप और दुगंध अव्यक्त। चीनी जितनी मीठी है, उतनी ही उसी के माध्यम से निर्मित होते है । यह जगत् एक रंगमंच कड़वी है। किन्तु उसमें मिठास व्यक्त है और कड़वाहट है। उस पर कोई अभिनय कर रहा है तो वह पुद्गल ही अव्यक्त । सडान में जितनी दुर्गध है, उतनी ही सुगंध भी है। वही विविध रूपों में परिणत होकर हमारे सामने छिपी हुई है। राजा जितशत्रु नगर के बाहर जा रहा था। प्रस्तत होता है। उसमें जीव का योग भी होता है, किन्तु मंत्री सुबुद्धि उसके साथ था। एक खाई आई, उसमें जल उसका मुख्य पात्र पुद्गल ही है।
भरा था। वह कूड़े-करकट से गदा हो रहा था। उसमें अस्तित्व में परिवर्तित होने की क्षमता है। जिसमें मृत पशुओं के कलेवर सड़ रहे थे। दूर तक दुगंध फट
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अनेकान्त
१८, वर्ष ३५, कि० ४
नाक को दबा
रही थी । राजा ने कपड़ा निकाला और लिया । कितनी दुर्गंध आ रही है ! राजा ने मंत्री की ओर मुड़कर कहा। मंत्री तत्त्ववेत्ता था। उसने कहा, महाराज ! यह पुद्गलों का स्वभाव है। उसने राजा के भाव की तीव्रता को अपनी भावभंगी से मंद कर दिया। बात वहीं समाप्त हो गई । कुछ दिनों बाद मंत्री ने राजा को अपने घर भोजन के लिए निमंत्रित किया। भोजन के मध्य राजा ने पानी पिया । पानी तुम कहां से लाते हो ? इच्छा होती है कि एक गिलास और पीऊं। मैं तुम्हें अभिन्न मानता हूं, किन्तु तुम मुझे वैसा नही मानते । तुम इतना अच्छा पानी पीते हो मुझे कभी नही पिलाते । "मंत्री मुस्कराया और बोला, "महाराज ! यह पानी उस खाई से लाता हूं, जहां आप ने नाक-भौं सिकोड़ी थी और कपड़े से नाक ढंकी थी।" राजा ने कहा, "यह नहीं हो सकता । यह पानी उस खाई का कैसे हो सकता है !" मंत्री अपनी बात पर अटल रहा। राजा ने उसका प्रमाण चाहा । मंत्री ने उस खाई का पानी मंगवाया। राजा की देखरेख में सारी प्रक्रिया चली और वह पानी वैसा ही निर्मल, मधुर और सुगंधित हो गया जैसा राजा ने मंत्री के घर पिया था । केवल पानी ही क्या, हर बस्तु बदलती है । परिणमन का चक्र बदलता ही रहता है, वस्तुएं बदलती हैं। "ओष" शक्ति की दृष्टि से हम किसी पौद्गलिक पदार्थ को काला या पीला, खट्टा या मीठा, सुगन्धमय या दुर्गन्धमय, चिकना या रूखा, ठंडा या गर्म, हल्का या भारी, मृदु या कर्कश नही कह सकते। एक नीम के पत्ते में वे सारे धर्म बिद्यमान है जो दुनिया में होते हैं । किन्तु "समुचित" शक्ति की दृष्टि से ऐसा नहीं है। उसके आधार पर देखें तो नीम अत्यन्त निर्मल, अत्यन्त मधुर और अत्यन्त सुगन्धित है। राजा बोला, "मंत्री ! पत्ता हरा है, चिकना है। उसकी अपनी एक सुगन्ध है । वह हल्का है और मृदु है। हमारा जितना दर्शन है, वह आनुभविक और प्रात्ययिक है ।
पर्याय- परिवर्तन के द्वारा वस्तुकों में बहुत सारी बातें घटित होती हैं । उनमें ऊर्जा की वृद्धि और हानि भी एक है। ऊर्जा परिणमन से ही प्रकट होती है । सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया कि
द्रव्य (Mass) को शक्ति (Energy ) में और शक्ति को द्रव्य में बदला जा सकता है। इस द्रव्यमान, द्रव्यसंहति और शक्ति के समीकरण के सिद्धांत की व्याख्या परिणामिनित्यवाद के द्वारा ही की जा सकती है । आइन्स्टीन से पहिले वैज्ञानिक जगत् में यह माना जाता था कि द्रव्य को शक्ति में और शक्ति को द्रव्य में नही बदला जा सकता । दोनों स्वतंत्र हैं । किन्तु आइन्स्टीन के बाद यह सिद्धांत बदल गया । यह माना जाने लगा कि द्रव्य और शक्तिये दोनों भिन्न नहीं, किन्तु एक ही वस्तु के रूपान्तरण हैं । एक पौंड कोयला में और उसकी द्रव्य संहति को शक्ति में बदलें तो दो अरब किलोवाट की विद्युत शक्ति प्राप्त हो सकती है।
जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य में अनन्त शक्ति है । वह द्रव्य चाहे जीव हो या पुद्गल । काल की अनन्त धारा मे वही द्रव्य अपना अस्तित्व रख सकता है जिसमें अनन्त शक्ति होती है । वह शक्ति परिणमन के द्वारा प्रकट होती रहती है। आज के वैज्ञानिक जगत् में जितना प्रयोग हो रहा है, उसका क्षेत्र पौद्गलिक जगत् है । पौद्गलिक वस्तु को उस स्थिति में ले जाया जा सकता है, जहां उसकी स्थूलता समाप्त हो जाये, उसका द्रव्यमान या द्रव्य-संहिता समाप्त हो जाये और उसे शक्ति के रूप में बदल दिया जाये ।
से
है
जैन दर्शन ने द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक- इन दो नयों से विश्व की व्याख्या की है। हम विश्व को अभेद की दृष्टि से देखते हैं तब हमारे सामने द्रव्य होता है। यह नीम, मकान, आदमी, पशु-ये द्रव्य ही द्रव्य हमारे सामने प्रस्तुत हैं । हम विश्व को जब भेद या विस्तार की दृष्टि देखते हैं तब द्रव्य लुप्त हो जाता है। हमारे सामने होता पर्याय और पर्याय । परिणमन और परिणमन । आदमी कौन होता है ? आदमी कोई द्रव्य नहीं है। आदमी है। कहां ? आप सारी दुनिया में ढूंढें, आदमी नाम का कोई द्रव्य आपको नहीं मिलेगा । आदमी एक पर्याय है। नीम कोई द्रव्य नहीं है । वह एक पर्याय है । दुनिया में जितनी वस्तुओं को हम देख रहे हैं, वे सारी की सारी पर्याय हैं। हम पर्याय को देख रहे हैं, द्रव्य हमारे सामने नहीं जाता । (शेष पृ० २.१ पर)
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प्रज्ञानता
चाहे दूसरे कोटि भी उपाय करो पर बिना अज्ञानता को छोडे राग, द्वेष, मोह नहीं मिटेगा । इसीलिए यह कीमती बात है कि सम्यग्दर्शन के बिना सम्यक्चारित नही होता । सम्यक्चारित्र अर्थात् कषाय का छुटना । सम्यक्दर्शन क्या है-अपने को अपने रूप देखना । बंध क्या है ? संसार क्या है? भीतर की यह अज्ञानता ही सब कुछ है। हमने क्या किया ? इस अज्ञानता को तो भीतर रखी और जब घर में रहे तो वह स्त्री पुषादि के साथ जुड़ गई तब यह भासित हुआ कि ये मेरे है, यही मेरे लिए सब कुछ है । फिर उपदेश मिला कि मन्दिर जाया करो। जब मन्दिर आए तो अज्ञानता तो घर छोड़कर आए नहीं वह साथ-साथ मन्दिर आ गई तब यहां वह जुड़ी भगवान के साथ और यह दिखाई दिया कि यही तरण-तारण है । यही सुख देने वाला है, यही सब कुछ है। शास्त्र पढ़ने बैठे तो अज्ञानता उसमें जुड़ गई, तब उसके शब्दों में अटक गए, या खूब शास्त्र पढ़कर पंडित बन गए । अहंकार पैदा हो गया, या सोचा चलो कुछ तो पुण्य का बंध होगा । वह अज्ञानता अब पुण्य बंध के साथ जुड़ गई और पुण्य बंध पर दृष्टि रहने से निज तत्व की प्राप्ति मुश्किल हो गई इस पुण्य को पाप समझकर चलो तब अंतर धक्का लगेगा और 'स्व' पर दृष्टि जाएगी। वास्तव में ये पुण्य सार्थक नहीं है, जब इसका उदय आता है तो व्यापार में और अधिक फंसा देता है, रोटी खाने में हैरान, पूजा करने मे ईरान, शास्त्र पढ़ने में हैरान तो यह पुष्प का नहीं पान का ही उदय है और आगे चले जब मुनि बनते हैं और वह अज्ञानता साथ रह जाती है तो पहले उसके कारण लड़के बच्चों में अपनापन था अब सेठों में, भक्तों में, पिच्छी कमण्डलु में अपनापन या गया। अज्ञान दो अब भी अपना काम किए बिना नहीं रहेगा। पहले गृहस्थ भेष में अपनापन था अब मुनि भेष में आ गया। जंगल में गए तो वहां स्थान में अपनापन आ गया कि
ले० बाबूलाल जैन (बा)
अमुक जगह बड़ी अच्छी है, बड़े काम की है। वैष्णवों की कथा है कि बाबाजी ने जंगल में, अनाज बोया, गाय बांधी, लगान न देने पर राजा द्वारा सजा मिली जब उसने विचार किया कि इस सब झमेले की जड़ क्या है, घर-बार सब छोड़ने पर भी ये अड़ंगा क्या हुआ तब बहुत सोचते-सोचते उसकी समझ में आया- अरे सब कुछ तो छोड़ दिया पर मूल बात वह अपनापन तो छोड़ा ही नहीं जो सबसे पहले छोड़ना था वहां पर तो छोड़ आया पर यहां खेत में अपनापन मान लिया तो बाहर का क्षेत्र बेशक बदल गया पर भीतर में अपना मानने वाला जो बैठा है वह तो नहीं का बहीं है, उसे तो घर से यहां भी साथ ही ले आया हूं । इसीलिए कह रहे है कि इस अज्ञानता को साथ लेकर तू चाहे जहां चला जा, यह साथ जाएगी तो वहां जिस किसी के भी साथ में जुड़ेगी वही तुझे उल्टा दिखाई देने लगेगा । तब छोड़ना क्या है ? उस बाहरी वस्तु को नहीं, पदार्थ को नहीं, वह तो पर है ही उसे क्या छोड़ेगा । छोड़ना तो उस अज्ञानता को है जो तेरी अपनी नहीं है जिसे तू ने अपना रखा है और उस अज्ञानता को छोड़ने के बाद वही घर रहेगा वही स्त्री-पुत्रादि रहेंगे पर पहले तुझे वे ही सब कुछ दिखाई देते थे अब लगेगा अरे! ये तो घर है मैं इनमें कहां फंसा हुआ हूं। चीज तो वहीं है पर अन्दर की अज्ञानता छोड़ने से वही दूसरे रूप मे दिखाई देने लगती है । दूसरे रूप से मतलब सच्चे रूप में, पहले उसी वस्तु को गलत रूप मानता था । मन्दिर में आता अज्ञानता को छोड़कर तो अब दिखाई देने लगा कि जिनेन्द्र के माध्यम से मुझे अपनी चेतन आत्मा के दर्शन करने हैं। बार-बार जिनेन्द्र की तरफ देखता है तो एक धिक्कार फिर अन्दर से आती है कि वे तो अपने आप में लीन हैं और तू बाहर में घूम रहा है तू उनकी तरह भीतर में लीन क्यों नहीं हो जाता ? उस धिक्कारता के आने पर उसके अन्दर पुरुपार्थं जागृत होता है । धक्का लगता है तो नींद टूटती है ।
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२० वर्ष ३४०४
अब जिस वस्तु से सम्बन्ध जुड़ता है वह ज्ञान का ही जुड़ता है अज्ञान का नहीं पर पदार्थ को देखता है तो वह । सुन्दर या असुन्दर प्रतिभासित नही होता उसमें राग द्वेष का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता और फिर भी जितना राग-द्वेष होना है उसे अपनी कमजोरी ही मानता है। असल में देखा जाए तो यह शरीर तो राग करने का बिल्कुल स्थान ही नहीं है, शरीर तो इतनी खोटी चीज है। कि ये तो मंगत्य के बिल्कुल ही योग्य नहीं है इसलिए ये मूल बात यही है कि उस अज्ञानता को छोड़ दे । उसे साथ लेकर यदि समवसरण मे भी जायगा तब भी कल्याण होने का नहीं है । यदि अपने स्वभाव को ठीक कर ले तो वह जहां रहे वहां मन्दिर हो जाए और अगर अज्ञानता न छोड़े तो मन्दिर भी अखाड़ा हो जाता है।
मक
उस अज्ञानता को मेटने के लिए हम शास्त्र पढ़ते हैं परन्तु शास्त्र हमारी अज्ञानता मेट नही सकता, शास्त्र तो केवल हमें हमारी अज्ञानता का बोध करा सकता है, मेटनी तो वह हमें स्वयं को ही है। पण्डित व त्यागी को तत्व की प्राप्ति इसीलिए दुर्लभ हो जाती है क्योंकि पत्रि समझता है कि मैं जान गया और त्यागी समझता है कि मैं हो गया । तत्व की प्राप्ति तो उसे हो जो यह समझे कि 新 भी नही जानना और मै कुछ भी नहीं है जो सम कुछ
कि मैं कुछ हो गया वह तो हो ही गया फिर भीतर जाकर क्या करे खोज ? तो शास्त्र ज्ञान व व्रतों मे अहंकार होने से व्यक्ति अपने को नहीं जान पाता और अपने को न 'जानने से शास्त्र ज्ञान व व्रतों में अहकार होता है। अज्ञानी अपने को फिर भी जल्दी जान सकता है क्योकि वह सम झता है कि मैं कुछ नही जानता ।
ये शरीर तुझे अपना लगता है क्या ? यदि अपना लगता है तो समझना अज्ञानता है। अब शरीर में अपनेपने की अज्ञानता का बोध तो हमें शास्त्र ने करा दिया पर इतने मात्र से शरीर मे अपनापन तो छूटा नहीं, वह तो जब हम छोड़ेंगे तभी छूटेगा। दूसरा काम शास्त्र करता है एक प्यास, सड़प व छटपटाहट पैदा करने का वह कहता है जबकि तत्व को जान लेने से तेरा एक अद्वितीय रूप हो जाएगा । सारे संगार का अनादि काल का तेरा दुख मिट जाएगा तब इसके भीतर मे एक जिज्ञासा पैदा होती है कि कैसे अपने को समझू व जानू । शास्त्र ने तो जिज्ञासा पैदा कराके छोड़ दिया अब अपने को जानना तो हमे स्वयं ही है। गुरु भी ये ही दोनों काम करता है, अज्ञानता का बोध कराने का व तड़पन पैदा करने का । यदि शास्त्र अज्ञानता मेट सकता होता तो ११ अग ६ पूर्व का पाठी अज्ञानी कैसे रह जाता ? हम ये चाहे कि राग द्वेष तो हमारा मिट जाए और अज्ञानता बनी रहे तो ये तो होने का ही नह है। दीपायन मुनि ने कितनी तपस्या की, लोगों ने उन्हें उठा कर फेंक दिया, उन पर थूक दिया और उन्होंने उफ नही की पर भीतर मे अज्ञानता बनी रही चिनगारी सुल
गती रही और एक दिन वह आग बनकर भभक उठी । अतः यदि अन्दर की अज्ञानता न जाए और बाहर में कितना भी उपसर्ग व परीपह सहन करे तब भी वह कार्यकारी नही है ।
सारे द्वादशांग के उपदेश का जोर उस अज्ञानता को मेटने पर है क्योंकि यह अज्ञानता ही प्रत्येक वस्तु को उल्टा दिखाती है और फिर हम सोचते हैं कि उस वस्तु या व्यक्ति को सीधा कर दें । अरे ! उसे तू क्या सीधा करेगा। वह तो सीधा ही है, उल्टा तो तू है, तू अपनी उस अज्ञानता को मेट कर सीधा हो जा। आपने को ठीक करना है पर को नही ।
इसलिए मूल बात उस अज्ञानता को छोड़ने की है और वह हमारे अपने कारण से हुई और अपनेही कारण से छूटेगी । किसी दूगरेके कारणसे होती तो उसके छोडने से छूट जाती पर ऐसा नहीं है। पागल कपडे फाड रहा है और हम चाहते हैं कि ये न फाड़े और हम उसे रोक रहे है तो उस रोकने का भी क्या फायदा है ? अरे । वो कपडा फाड़ना बन्द करेगा तो अन्य और कुछ गडबड करेगा, कुछ तोडने फोड़ने लगेगा इसलिए हमारा पुरुषार्थ उसको उन त्रियाक्षों से रोकने मे नही वरन् उसका पागलपन मेटने में है । आचार्यों ने कहा कि होना चाहिये मिध्यादृष्टि का सारा आचरण मिथ्याचरित्र है। अब वह सम्यक्चारित्र कैसे हो ? वह तो मिथ्यादर्शन के मेटने से ही होगा, क्रिया को बदली करने शास्त्र तो अज्ञानता का बोध कराता है, कहता है कि से तो होगा नहीं । मूल भूल को मिटाना चाहिए | X
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जैन साहित्य में कुरुवंश, कुरुजनपद एवम् हस्तिनापुर
0 डा० रमेशचन्द्र जैन
हरिवंश पुराण में कुरुवंश सम्बन्धी विवरण
प्रभूततेज, प्रभूततेज के तेजस्वी, तेजस्वी के तपन, तपन जिनसेन कृत हरिबंश पुराण मे कुरुवश को सोमवंश के प्रतापवान, प्रतापवान् के अतिवीर्य, अतिबीर्य के के अन्तर्गत वणित किया गया है, तदनुसार षट्खण्ड पृथ्वी सुवीर्य, सुवीर्य के उदितपराक्रम, उदितपराक्रम के महेन्द्रके स्वामी भरत ने चिरकाल तक लक्ष्मी का उपभोग कर विक्रम, महेन्द्रविक्रम के सूर्य, सूर्य के इन्द्रद्युम्न, इन्द्रद्युम्न के अर्ककीर्ति नामक पत्र का अभिषेक किया और स्वयं अति- महेन्द्रजित्, महेन्द्रजित् के प्रभु, प्रभु के विभ, विभ के शय कठिन आत्मरूप परिग्रह से युक्त एव कठिनाई से अविध्वस, अविध्वम के वीतभी, वीतभी के वृषभध्वज, निग्रह करने योग्य इन्द्रिय रूपी मृगममूह को पकड़ने के लिए वृषभध्वज के गरुडाङ्क, और गरुडाक के मृगाडू आदि जाल के समान जिन-दीक्षा धारण कर ली। राजा अर्क- अनेक राजा सूर्यवश में उत्पन्न हुए। ये सब राजा विशाल कीति के स्मितयश नाम का पुत्र हुआ। अर्ककीर्ति उसे यश के धारक थे और पुत्रों के लिए राज्यभार सौप तप लक्ष्मी दे तप के द्वारा मोक्ष को प्राप्त हुआ । स्मितयश के कर मोक्ष को प्राप्त हुए । भरत को आदि लेकर चौदह लाख बल, बल के सुबल, सुबल के महाबल, महाबल के अतिवल, इक्ष्वाकुवंशीय राजा लगातार मोक्ष गए। उसके बाद एक अतिबल के अमृतबल, अमृतबल के सुभद्र, सुभद्र के सागर, राजा सर्वार्थसिद्धि से अहमिन्द्र पद को प्राप्त हुआ। फिर मागर के भद्र, भद्र के रवितेज, रवितेज के शशि, शशि के अस्सी राजा मोक्ष गए, परन्तु उनके बीच में एक-एक राजा
इन्द्र पद को प्राप्त होता रहा । सूर्यवश में उत्पन्न हुए (पृष्ठ १८ का शेषांश)
कितने धीरवीर राजा अन्त में राज्य का भार छोड़कर तप वह आंखों से ओझल रहता है। इस सत्य को आचार्य हैमचन्द्र ने इन शब्दों में प्रकट किया था--
का भार धारण कर स्वर्ग गए गए और कितने ही मोक्ष अपर्यायं वस्तु समस्यमान
गए । भगवान् ऋषभदेव के बाहुबली पुत्र थे, उनसे सोममद्रव्यमेतच्च विविच्यमानं ।
यश नामक पुत्र हुआ। वह सोमयश सोमवंश (चन्द्रवंश) का -हम अभेद के परिपार्श्व मे चनें तो पर्याय लुप्त हो
कर्ता हुआ । सोमयश के महाबल, महाबल के सुबल और जाएगा, बचेगा द्रव्य । हमारी दुनिया बहुत छोटी हो सुवल के महाबली पुत्र हुआ। इन्हें आदि लेकर सोमवंश में
उत्पन्न अनेक राजा मोक्ष को प्राप्त हुए । इस प्रकार जाएगी। विस्तार से शून्य हो जाएगी। हम भेद के परि
भगवान् ऋषभदेव का तीर्थ पृथ्वी पर पचास लाख करोड़ पार्श्व में चलें तो द्रव्य लुप्त हो जायेगा, बचेगा पर्याय ।
मगर तक अनवरत रहा । इस तीर्थकाल मे अपनी दो हमारी दुनिया बहुत बडो हो जायेगी। भेद अभेद को निगल
शाखाओं सूर्यवंश और चन्द्रवश मे उत्पन्न हुए इक्ष्वाकुजायेगा । केवल विस्तार और विस्तार ।
वशीय तथा कुरु वशीय अनेक राजा स्वर्ग और मोक्ष को परिणमन के जगत् मे जैसा जीव है, वैसा ही पुद्गल
प्राप्त हुए। है। किन्तु इस विश्व मे जितनी अभिव्यक्ति पुद्गल द्रव्य की है, उतनी किसी मे नहीं है। अपने रूप को बदल देने की हरिवंश पुराण के त्रयोदश पर्व के एक उल्लेखानुसार क्षमता जितनी पुद्गल में है, उतनी किसी में नही है। सर्वप्रथम इक्ष्वाकुवंश उत्पन्न हुआ, फिर उसी इक्ष्वाकुवंश मे हमारे जगत में व्यक्त पर्याय का आधारभूत द्रव्य यदि कोई मूर्यवंश और चन्द्रवंश उत्पन्न हुए । उसी समय कुरुवंश तथा है तो वह पुद्गल ही है।
xxx उग्रवश आदि अन्य वंण प्रचलित हए'। जो इक्ष्वाकु क्षत्रियों
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में वय तथा जाति-व्यवहार को जानने वाले थे, उन्हें लोक- नामक राजा हुए, जिनकी स्त्री का नाम श्रीमती था । उन बन्धु भगवान् ऋषभदेव ने रक्षाकार्य में नियुक्त किया जो दोनों के भगवान् कुन्थुनाथ उत्पन्न हए, जो तीर्थकर भी करुदेश के स्वामी थे, कुरु, जिनका शासन उन था, वे थे और चक्रवर्ती भी थे। तदनन्तर क्रम-क्रम से बहत से उग्र और जो न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करते थे, वे भोज राजाओं के व्यतीत हो जाने पर सुदर्शन नामक राजा हए. कहलाए । इनके अतिरिक्त प्रजा को हर्षित करने वाले अनेक जिनकी स्त्री का नाम मित्रा था । इन्हीं दोनों के सप्तम
समययान्स और सोम- चक्रवर्ती और अठारहवें तीर्थकर अरनाथ हुए । तदनन्तर प्रभ आदि कुरुवंशी राजाओं से यह भूमि सुशोभित हो रही अन्य राजाओं के हो चुकने पर इसी वंश मे पदममाल, थी'
सुभौम और पद्यरथ राजा हुए । उनके बाद महापद्म हरिवंश पराण के ४५वें पर्व में कुरुवंशी राजाओं की चक्रवर्ती हए । उनके विष्णु और पद्म नामक दो पुत्र हुए। विस्तृत परम्परा का वर्णन हुआ है। तदनुसार शोभा में ।
तदनन्तर सुपम, पद्मदेव, कुलकीति, कीर्ति, सुकीर्ति, कीति, उत्तर कुरु की तुलना करने वाले कुरुजाङ्गल देश के हस्ति- वसकीर्ति. वासकि.
वसुकीर्ति, वासुकि, वासव, वसु, सुवसु, श्रीवसु, बसुन्धर, नापुर (हस्तिनपुर) नगर में जो आभूषणस्वरूप श्रेयान्स और
वसुरथ, इन्द्रवीर्य, चित्र, विचित्र, बीर्य, विचित्र, विचित्रवीर्य, सोमप्रभ नामके दो राजा हए थे, वे कुरुवश के तिलक थे,
चित्ररथ, महारथ, धृतरथ, वृषानत, वृषध्वज, श्रीव्रत, व्रतभगवान ऋषभदेव के समकालीन थे और दानतीर्थ के नायक .
धर्मा, धृतधारण, महासर, प्ररिसर, शर, पाराशर, शरद्वीप, थे। उनमें सोमप्रभ के जयकुमार नाम का पुत्र हुआ। वह द्वीप, द्वीपायन, सुशान्ति, शान्तिभद्र, शान्तिषेण, योजनगंधा
यकमार ही आगे चलकर भरत चक्रवर्ती के द्वारा 'मेघ- के भर्ता शन्तनु और शन्तनु के राजा धृतव्यास पुत्र हए । म्वर नाम से सम्बोधित किया गया । जयकुमार से कुरु तदनन्तर धतधर्मा, धतेदय, धुततेज, धतयश, धतमान पत्र हआ , कुरु के कुरुचन्द्र, कुरुचन्द्र के शुभकर और शुभ और धृत हुए।धृत के धुतराज नामक पुत्र हुआ। उसकी कर के धृतिकर पुत्र हुआ। तदनन्तर कालक्रम से अनेक अम्बिका, अम्बालिका और अम्बा नामक तीन स्त्रियां थी, करोड़ राजा हुए और अनेक सागर प्रमाण तीर्थकरी का जो उच्चकुल में उत्पन्न हुई थी। उनमे अम्बिका के धृतअन्तराल काल व्यतीत हो जाने पर धृतिदेव, धृतिकर, राष्ट्र, अम्बालिका से पाण्डु और अम्बा से ज्ञानिश्रेष्ठ विदुर गङ्गदेव, तिमित्र, धृतिक्षेम, सुव्रत, वात, मन्दर, श्रीचन्द्र ये तीन पुत्र हए । भीष्म भी शन्तनु के ही वंश में उत्पन्न और सुप्रतिष्ठ आदि सैकड़ों राजा हुए। तदनन्तर धृतपद्म, हा थे। धतराज के भाई रुक्मण उनके पिता थे और राजधृतेन्द्र, धृतवीर्य, प्रतिष्ठित आदि राजाओं के हो चुकने पर
पुत्री गंगा उनकी माता थी। राजा धृतराष्ट्र के दुर्योधन तिदृष्टि, धृतिद्युति, धृतिकर, प्रीतिकर आदि हुए। तत्
आदि सौ पुत्र थे, जो नय-पौरुष से युक्त तथा परस्पर एकपश्चात् भ्रमरघोष, हरिघोष, हरिध्वज, सूर्यधीष, सुतेजस,
दूसरे के हित करने में तत्पर थे। राजा पाण्डु की स्त्री का पृथु और इभवाहन आदि राजा हुए । तदनन्तर विजय,
नाम कुन्ती था। जिस समय राजा पाण्डु ने गन्धर्व विवाह महाराज और जयराज हुए। इनके पश्चात् उसी वंश मे
कर कुन्ती से कन्या अवस्था में सम्भोग किया था, उस चतुर्थ चक्रवर्ती सनत्कुमार हुए, जो रूपपाश से खिंचकर
समय कर्ण उत्पन्न हुए थे और विवाह करने के बाद आये हुए देवों के द्वारा सम्बोधित हो दीक्षित हो गए थे। युधिष्ठिर, अर्जुन और भीम ये तीन पुत्र हुए । इन्हीं पाण्ड सनत्कुमार के सुकुमार नाम का पुत्र हुआ। उसके बाद की माद्री नामकी दूसरी स्त्री थी। उससे नकुल और वरकुमार, विश्व, वैश्वानर, विश्वकेतु और वृहद्ध्वज नामक
सहदेव ये दो पुत्र उत्पन्न हुए। ये दोनों ही पुत्र कुल के राजा हुए। तदनन्तर विश्वसेन राजा हुए, जिनकी स्त्री का
तिलकस्वरूप थे और पर्वत के समान स्थिर थे। युधिष्ठिर नाम ऐरा था । इन्हीं के पंचम चक्रवर्ती और सोलहवें को आदि लेकर तीन तथा नकुल और सहदेव ये पांच तीर्थंकर शान्तिनाथ हुए । इनके पश्चान् नारायण, नरहरि, पाण्डव कहलाते ये'। प्रशान्ति, शान्तिवर्द्धन, शान्तिचन्द्र, शशाङ्क और कुरु राजा आदि पुराण में उल्लिखित कुर जनपद-आदि पुराण हए । इत्यादि राजाओं के व्यतीत होने पर इसी वंश में सूर्य में कुरु 'और कुरुजाङ्गल इन दो राज्यों का उल्लेख भाषा
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जैन साहित्य में कुरुवंश, कुरु-जनपद एवम् हस्तिनापुर है । आदि पुराण के ४३वें पर्व में कुरुजाङ्गल की निम्न- २३. वहां के लोग सज्जन, उदारहृदय, उज्ज्वलता के लिखित विशेषताएं दृष्टिगोचर होती हैं
आधार, भीतर से निष्कपट एवं महापराक्रम से युक्त हैं। १. कुरुजाङ्गल देश धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन कल्पसूत्र के अनुसार ऋषभ के सौ पुत्रों में इक्कीसवें पुरुषार्थों की खान है।
का नाम कुरु था, जिनके नाम पर कुरु नामक राष्ट्र २. यह देश स्वर्ग के समान है अथवा स्वर्ग में भी प्रसिद्ध हुआ, किन्तु आदि पुराण के अनुसार बाहुबलि पुत्र इद्र के विमान के समान है।
सोमप्रभ ही इस नगर के राजा थे और उनकी दूसरी सज्ञा ३. कुरुजाङ्गल देश में स्थित हस्तिनापुर नगर सब कुरु होने से यह भूभाग कुरु देश कहलाया। प्रकार की सम्पदाओं से विचित्र है तथा वह समुद्र में लक्ष्मी जैन साहित्य में हस्तिनापुरकी उपत्यका को झूठा सिद्ध करता हुआ उसके कुलगृह के
जैन अ.गमों में हस्तिनापुर-स्थानाङ्ग सूत्र में दस समान जान पड़ता है।
महानदियो तथा चम्पा, मथुरा, वाराणसी, श्रावस्ती, __ असग कवि विरचित शान्तिनाथ पराण के त्रयोदश साकेत, हस्तिनापुर, काम्पिल्य, मिथिला, कौशाम्बी और सर्ग में कुरुदेश तथा उसमें स्थित हस्तिनापर नगर का राजगृह नामकी दस राजधानियों के नाम हैं " विस्तृत वर्णन मिलता है। तदनुसार कुरु देश में निम्न
विवागमुय मे उज्झिय नामक वणिक पुत्र के पूर्वजन्म लिखित विशेषाए दृष्टिगोचर होती हैं
की कथा है, जिमके अनुसार हस्तिनापुर मे भीम नामका १. यह लक्ष्मी से उत्तरकुरु की शोभा जीतता है।
एक कूटग्राह (पशुओं का चोर) था। उसके उत्पला नामकी २. साधु पुरुष यहां याचकों को कभी नहीं रोकते है।
भार्या थी । उत्पला गर्भवती हई और उसे गाय, बैल आदि ३. वहां के मनुष्यों में विरह तथा मुर्खजनो की सगति
का मांस भक्षण करने का दोहद हुआ । उसने गोत्रास नही देखी जाती है।
नामक पुत्र को जन्म दिया। यही गोत्रास वणियगाम में ४. अशोक वृक्षावलि के पल्लवो से मुक्त यहां के
विजय मित्र के घर उजिमय नामका पुत्र हुआ। उज्झिय सरोवर मूंगा के वनों से युक्त ज्ञात होते है।
जब बड़ा हुआ तो उसके माता-पिता मर गए और नगर५. यहां की स्त्रियां नाना प्रकार के बेल-बूटो से
रक्षकों ने उसे घर से निकालकर उसका घर दूसरों को दे प्रसाधन करती है तथा काम से उज्ज्वल से शोभा रमणीक
दिया । ऐसी स्थिति मे वह द्यूतगृह, वेश्यागृह और पाना
गारों मे भटकता हुआ समय यापन करने लगा। कामया ६. यहां के मनुष्यों की बात ही क्या, वनवृक्ष भी नामक वेश्या के घर पर वह आने-जाने लगा। यह वेश्या सत्पुरुषों के आचरण का पालन करते है।
राजा को भी प्रिय थी। एक दिन उज्झिय वेश्या के घर ७. उस देश के तालाबों में राजहंस निवास करते है। पकड़ा गया और राजपुरुषों ने उसे प्राणदण्ड दे दिया।
८. वहां के ब्राह्मण निर्दोष तलवार धारण करने वाले निसीह के नौवें उद्देशक में चम्पा, वाराणसी, श्रावस्ती, उत्तम राजाओं की सेवा करते हैं ।
साकेत, काम्पिल्य, कौशाम्बी, मिथिला, हस्तिनापुर और ९. उस देश के उत्तम राजा जगत् के दरिद्रयजनित राजगृह नामकी दस अभिषिक्त राजधानियां गिनाई गई दुःख को दूर करते हैं।
हैं। यहां राजाओं का अभिषेक किया जाता था। १०. वहां की नारियां बर्फ के समान शीतल जल आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य में हस्तिनापुर-आचार्य कुन्दधारण करती हैं।
कुन्द की निर्वाण भक्ति में अष्टापद, चम्पा, ऊर्जयन्त, पावा, ११. वहाँ का जन समूह विपत्तियों के अंश से रहित सम्मेदशिखर, गजपथा, शझुंजय, तुंगीगिरि, सुवर्णगिरि, फलश्री से युक्त तथा समीचीन आचार-विचार में स्थित हैं। कुथलगिरि, कोटिशिला, रेशिदीगिरि, पोदनपुर, हस्तिना
१२. वहां ऊंचे-ऊंचे पर्वत हैं। उन पर्वतों पर धव पुर, वाराणसी, मथुरा, अहिच्छत्र, श्रीपुर, चन्द्रगुहा आदि सपा देवदार के वृक्ष एवं लताएं हैं, एवं सिंह आदि बड़े. तीर्थस्थानों का उल्लेख हुआ है। यहां से अनेक ऋषि
मुनियों ने निर्वाण प्राप्त च्यिा पा"।
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२४, वर्ष ३५, कि ४
अनेकान्त
पौराणिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि-आदि तीर्थकर सुन्दर कन्याये उनके पास ले आए । जब वे कन्यायें भगवान भगवान् ऋषभदेव ने ५२ आर्य देशो की स्थापना की के लिए रुचिकर नही लगी, तब वे निराश होकर स्वयं थी उसमें कुरु-जांगल देश भी था। इस प्रदेश की अपने आपसे ही द्वेष करने लगी और आभूषण दूर फेंक राजधानी का नाम गजपुर था। सम्भवतः इस प्रदेश भगवान् का ध्यान करती हुई खडी रह गई। अथानन्तर के गङ्गातटवर्ती जगलो में हाथियो का बाहुल्य महल के शिखर पर खड़े हुए राजा श्रेयास ने उन्हे स्नेहहोने के कारण यह गजपुर कहलाने लगा। पश्चात् पूर्ण दष्टि से देखा और देखते ही पूर्वजन्म का स्मरण हो कुरुवश मे हस्तिन् नाम का एक प्रतापी राजा हुआ । उसके आया। राजा श्रेयास महल के नीचे उतर कर अन्त.पुर नाम पर इसका नाम हस्तिनापुर हो गया" । प्राचीन तथा अन्य मित्रजनो के साथ उनके पास आया और हाथ साहित्य में इस नगर के कई नाम आते है, जैसे-जपुर", जोड़ कर स्तुति पाठ करता हुआ प्रदक्षिणा देने लगा। हस्तिनापुर, गजेरावयपुर, नागपुर", आसन्दीवत्, ब्रह्म- भगवान को प्रदक्षिणा देता हुआ राजा श्रेयास ऐसा सुशोस्थल", कुजरपुर" आदि। यह नगर पाण्डवो को अत्यधिक भित हो रहा था, मानो मेरु के मध्य भाग की प्रदक्षिणा प्रिय पा, अत. श्रीग ने इसे पाण्डवो को प्रीतिपूर्वक देता हआ सर्य ही हो। सर्वप्रथम राजा ने अपने केशो से दिया था। जब पान्डव हास्तिनपुर (हस्तिनापुर) में यथा- भगवान के चरणों का मार्जन कर आनन्द के आँसूओ से योग्य रीति से रहने लगे, तब कुरुदेश की प्रजा अपने पूर्व
उनका प्रक्षालन किया, रत्नमयी पात्र से अर्घ्य देकर स्वामियों को प्राप्तकर अत्यधिक सन्तुष्ट हुई। पाण्डवों के ।
उनके चरण धोए और पवित्र स्थान मे उन्हे विराजमान सुखदायक सुराज्य क चालू हान पर दश क सभा वण आर किया, तदनन्तर उनके गुणो से आकृष्ट चित्त हो कलश मे सभी आश्रम धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन आदि को सर्वथा
रखा हुआ शीतल जल लेकर विधिपूर्वक श्रेष्ठ पारण कराई। भन गये। एक बार भीम के एक परिहास से क्रुद्ध होकर उसी समय आकाश में चलने वाले देवो ने प्रसन्न होकर कृष्ण पाण्डवो से रुष्ट हो गये और सुभद्रा के पुत्र अभिमन्यु साधु-साधु, धन्य-धन्य शब्दो के समूह से मिला एव दिग्मडल को राज्य देकर वहा से उन्होने पाण्डवो को क्रोधवश विदा को मुखरित करने वाला दुन्दुभिवाजो का भारी शब्द कर दिया। असमय में वज्रपात समान कठोर कृष्णचन्द्र किया। पाच रग के फूल बरसाए। अत्यन्त सुखकर स्पर्श की आज्ञा से पाण्डव अपने अनुकूल जनो के साथ दक्षिण सहित दिशाओ को सुगन्धित करने वाली वायु बहने लगी दिशा की ओर गए और वहाँ उन्होने मथुरा नगरी और आकाश को व्याप्त करती हुई रनो की धारा बरसने बसायी"।
लगी। इसी प्रकार राजा श्रेयास तीनो लोको को आश्चर्य प्रथम दानतीर्थ का प्रवर्तन पद्मचरित में हस्तिनपूर मे डालने वाले देवकृत सम्मान को प्राप्त हआ। सम्राट अथवा हस्तिनापुर में प्रथम तीर्थकर भगवान् ऋपभदेव भरत ने भी बहुत भारी प्रीति के साथ उनकी पूजा की। द्वारा आहार ग्रहण करने का वर्णन आया है, तदनुसार अनन्तर इन्द्रियजयी भगवान् ऋषभदेव मुनियों का व्रत शोभा मे मेरु के समान भगवान् ऋपभदेव किसी दिन कैसा है ? उन्हें किस प्रकार आहार दिया जाता है, इसकी विहार करते-करते मध्याह्न के समय हस्तिनापुर नगर मे प्रवृत्ति चलाकर फिर से शुभध्यान मे लीन हो गए। प्रविष्ट हुए"। मध्याह्न के सूर्य के समान दैदीप्यमान उन अनन्तर शुक्लध्यान के प्रभाव से मोह का क्षय होने पर पुरुषोत्तम के दर्शन कर हस्तिनापुर के समस्त स्त्री-पुरुष उन्हे लोक और अलोक को प्रकाशित करने वाला केवलज्ञान बड़े आश्चर्य से मोह को प्राप्त हो गए अर्थात् किसी को उत्पन्न हो गया। यह ध्यान नहीं रहा कि आहार की वेला है, इसलिए ७०० मुनियों की उपसर्ग निवृत्ति का क्षेत्र हस्तिना. भगवान् को आहार देना चाहिए। वहाँ के लोग अन्य पुर मे अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनियों के उपसर्ग का वाहन ला-लाकर उन्हें समर्पित करने लगे । विनीत वेष को निवारण हुआ। इसकी कथा इस प्रकार हैधारण करने वाले कितने ही लोग पूर्ण चन्द्रमा के समान किसी समय उज्जयिनी में श्रीधर्मा राजा रहता था। मुखपाली तथा कमलों के समान नेत्रों से सुशोभित सुन्दर- उसके बलि, बृहस्पति, नमुचि और प्रसाद ये चार मन्त्री
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जैन साहित्य में कुरुवंश, कुरु-जनपद एवम् हस्तिनापुर
२५ थे। किसी समय श्रुत के पारगामी महामुनि अकम्पन सात कुमार मुनि राजा पद्म के पास गए। राजा पद्म ने कहा सौ मुनियों के साथ उज्जयिनी के बाह्य उपवन मे विराज- कि मैने सात दिन का राज्य वलि को दे रखा है। अतः मान हुए। उनके दर्णन के लिए नगरनिवासियो की भाँति इस विषय मे मेरा कुछ अधिकार नही है। यह सुनकर राजा भी मन्त्रियों के साथ गया। मुनियो के दर्शन कर विष्णुकुमार मुनि बलि के पास गए तथा इस कुकृत्य को मन्त्री कुछ विवाद करने लगे। उस समय गुरु की आज्ञा रोका । जब बलि नही माना तब उन्होने बलि से तीन पग से सब मुनि सघ मौन लेकर बैठा था, इसलिए ये चारो भूमि दान स्वरूप प्राप्त कर विक्रिय ऋद्धि के द्वारा अपना मन्त्री विवश होकर लौट आए। लौटते समय उन्होंने एक शरीर बढ़ा लिया। उन्होने एक डग सुमेरु पर रखा, श्रुतसागर नाम के मुनि को देखकर राजा के समक्ष छेड़ा। दूसरा मानुषोत्तर पर, तीसरा डग अवकाश न मिलने के सब मन्त्री मिथ्यामार्ग से मोहित थे, अत. श्रुतसागर नामक कारण नही रख सके। इस प्रभाव से पृथ्वी पर खलबली मनिराज ने उन्हें जीत लिया। उसी दिन रात्रि के समय मच गई। देवो ने बलि को बाँध लिया और उसे दण्डित उक्त मुनिराज प्रतिमायोग से विराजमान थे कि मब मत्री कर देश से दूर कर दिया। मुनियों के उपसर्ग निवारण उन्हे मारने के लिए गए, किन्तु देव ने उन्हे कीलित कर की स्मृति स्वरूप ही श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को सारे देश में दिया। यह देख गजा ने उन्हे अपने देश से निकाल रक्षाबन्धन का पर्व मनाया जाता है। दिया।
__मुनि दीक्षा का केन्द्र - भगवान् मुनिमुव्रतनाथ के __ चारी मन्त्री हस्तिनापुर आए। उस समय वहाँ राजा समय नागपुर (हस्तिनापुर) का राजा बाहुवाहन था। पद्म राज्य करता था। राजा पद्म बलि आदि मन्त्री के उसकी पत्री मनोहरा थी। उसका विवाह साकेतपुरी के प्रदेश से किले में स्थित मिहबल राजा को पकडने मे सफल राजा विजय के पुत्र वज्रबाह के साथ हुआ था। विवाह हो गवा, अत: उसने बलि मे अभीष्ट वर मांगने के लिए के बाद जब वह अपनी पत्नी को लेकर जा रहा था, तब कहा। बलि ने उस वर को राजा के ही पास धरोहर के वसन्तगिरि पर एक ध्यानस्थ मुनि को दवा और उनका उपरूप रखा।
देश मुना । उपदेश सुनकर वह बहुत प्रभावित हुआ और उसने किसी समय अकम्पनाचार्य आदि गान सौ मुनिराज
२६ अन्य राजकुमारो के साथ मुनि दीक्षा ले ली । भगवान् हस्तिनापुर आए। उनके विषय में जानकर बलि आदि
मुनि सुव्रतनाथ के समय में ही गगदत्त श्रेष्ठी था। उसके मन्त्री भयभीत हो गए। बलि ने राजा पद्म से वर देने
पास सात करोड स्वर्ण मुद्राये थी। एक बार भगवान् की प्रतिज्ञा का निर्वाह करने हेतु मात दिन का राज्य
हस्तिनापुर पधारे । श्रेष्ठी ने भगवान् का उपदेश मुना। मॉगा। राजा ने बलि को सात दिन का राज्य दे दिया।
उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। उसने भगवान् के बलि ने सिंहासन पर आरूढ होकर उन गुनियों पर उपद्रव
पास ही मुनिव्रत अगीकार कर लिए"। इस प्रकार करवाया। उसने चारो ओर से मुनियों को घेरकर पत्तो
क्षेत्र पर अनेको महान् पुरुपो ने मुनि दीक्षा लेकर का धुआँ कराया तथा जूठन व कुल्हड़ आदि फिकवाए।
आत्मकल्याण किया। मुनिगण सावधिक संन्यास धारण कर उपसर्ग सहन करते
कल्याणक भूमि-हस्तिनापुर सोलहवे, सत्रहवे एव उस समय मिथिला नगरी में पद्म के छोटे भाई अठारहवे तीर्थकर शान्ति, कुन्थु और अरहनाथ के गर्भ, विष्णकमार मुनि के अवधिज्ञानी गुरु विराजमान थे। जन्म, तप और केवलज्ञान कल्याणक की भूमि रही है। अवधिज्ञानी उन गुरु से पुष्पदन्त नामक क्षुल्लक ने मुनियों इन त.नो के चरित के आधार पर अनेक महाकवियों ने पर उपसर्ग होने का दारुण समाचार सुना। वह गुरु की अपनी काव्य रचना की। कवि असग ने भगवान की जन्म आज्ञा से विष्णुकुमार मुनि के पास आया तथा विष्णुकुमार भूमि हस्तिनापुर की निम्नलिखित" विशेषताओ का वर्णन मुनि से कहा कि आपको विक्रिया ऋद्धि प्राप्त हो गई है, किया हैअतः आप ही इस उपसर्ग को दूर कर सकते है। विष्णु- १. हस्तिनापुर तीनो जगत की कान्ति को जीतने
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२६, वर्ष ३५, कि०४
अनेकान्त
वाली भरतक्षेत्र की लक्ष्मी का निवासभूत अद्वितीय कमल पत्रो में भरत और बाहबली प्रधान थे। शेष १८ भाई
भरत के ही सहोदर थे। जब भगवान् ऋषभदेव ने दीक्षा २. वहाँ के लोग विद्वान होते हुए भी अहंकार रहित ली तो उन्होंने अयोध्या के अपने पद पर भरत का राज्या
भिषेक किया और बाहुबली को तक्षशिला के पद पर । ३. वहाँ तलवार को ग्रहण करने वाले लोग है तथा शेष पत्रों को भी यथायोग्य राज्य प्रदान किया । अगकुमार वहां मूखों का सद्भाव नही है।
ने जिस देश को प्राप्त किया, वह अगदेश के नाम से प्रसिद्ध ४. वहाँ की स्त्रियाँ गले में हार धारण करती है। हुआ। कुरु नामक पुत्र के नाम से कुरुक्षेत्र और बग,
५. वहाँ के बाजारों में चित्र-विचित्र मणियों रखी कलिंग, सूरसेन एव अवन्ति के नाम से तत्तत् देश प्रसिद्ध गई हैं, जिनकी किरणों से शरीर कल्माषित होने के कारण हुए। कुरु का पुत्र हस्ति नामक राजा हुआ, जिसने लोग एक दूसरे को पहिचान नही पाते है।
हस्तिनापुर को बसाया। यहाँ गगा नामक पवित्र नदी ६. वहाँ के भवनो मे ऊँचे-ऊँचे स्तम्भ लगे हुए है। प्रवाहित होती है। मल्लिनाथ स्वामी का समवसरण ७. वहाँ के लोग दूसरे लोगों के सहायक है।
हस्तिनापुर आया था। इस नगर मे विष्णुकुमार मुनि ने ८. वहां के मनुष्य लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए अत्यधिक बलि द्वारा हवन के लिए एकत्र सात सौ मुनियो की रक्षा खेदयुक्त नहीं होते है।
की थी। सनत्कुमार, महापद्म, सुभौम और परशुराम का ६. वहाँ के लोग युद्ध मे विजय प्राप्त करते है। जन्म इसी नगर में हुआ था। इस महानगर मे शान्ति,
१०. वहाँ के निवासी ससारी होने पर आत्माधीन, कुन्थु, अरह और मल्लिनाथ के मनोहर चैत्यालय थे । सुखी तथा समान गुणो से युक्त है।
अम्बादेवी का प्रसिद्ध मन्दिर भी इसी नगर में विद्यमान ११. वहाँ का राजा विविध गुणो से युक्त है। था।
विविध तीर्थकल्प का उल्लेख-विविध तीर्थकल्प नामक ग्रन्थ में बताया गया है कि आदि तीर्थकर के सौ -अध्यक्ष, सस्कृत-विभाग वर्धमान कालेज, बिजनौर
१. जिनसेन : हरिवंशपुराण ४५॥६-३८ २. वही १३१७-१६ ३. वही १३।३३ ४. वही १३३४३-४५ ५. वही ४५॥६-६८ ६. जिनसेन : आदिपुराण १६३१५२ ७. वही १६३१५३ ८. असग : शान्तिनाथपुराण १३।१-१० ६. श्री सुदर्शनमेरुबिम्बप्रतिष्ठा स्मारिका पृ०७ पर डॉ०
ज्योतिप्रसाद जैन का लेख । १०. डॉ. जगदीशचन्द्र जैन : प्राकृत साहित्य का इतिसास
पृ० ६१। ११. वही पृ०६६ १२. वही पृ० १४१ १३. वही पृ० ३०३ १४. भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (प्रथम भाग) पृ० २२
१५. विमलसूरि : पउमचरिय ६५१३४ १६. श्रीमद्भागवत ११११४८ १७. पउमचरिय ६७१, २०।१० १८. वही २०११८० १६. वही ६५१३४ २०. हरिवंशपुराण ५३।४६ २१. वही ५४।२-३ २२. हरिवंशपुराण ५४।६३-७१ २३. वही ५४/७३ २४. पद्मचरित ४।६ २५. पद्मचरित ४१७-२२ २६. जिनसेन : हरिवशपुराण सर्ग-२० २७. विमलसूरि : पउमचरित २११४३ २८. शान्तिनाथ गुराण १३।११-२० २६. सिरिआइतित्थेसरस्स दोण्णि पुत्ता भरहेसर बाहुबलि
नामाणो आसि । भरहस्स सहोपरा अट्ठाणउई वि सेसु तेसु देसेसुं रज्जाई दिण्णाइं कुरुनरिंदस्स पुत्तो हत्थी नाम राया हुत्था । तेण हत्थिणाउरं निवेसि ।
विविध तीर्थकल्प (हस्तिनापुर) पृ. २७
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ब्रह्मचारी शीतल प्रसाद जी को सौवीं जन्मतिथि पर
क्रान्तिकारी शीतल
Dश्री ऋषभचरण जैन
"नंगे बदन रहते है । इण्टर या थर्ड मे होंगे। यह और किसी के पैर नही छुये परन्तु ब्रह्मचारी जी के पैर मुझे उनका फोटो रहा । सावला-सा रग है। जरा-जरा कुछ छुने पड़े। मैंने अपने अहंकारवश बहुत कम आदमियों को मुस्कुराते से, खूब मीठे-मीठे से व्यक्ति है। हजारीलाल जी अपने से बड़ा माना लेकिन ब्रह्मचारी जी को मैं मन ही तो तुम्हारे साथ है ही। उन्हें बहुत सत्कार पूर्वक लाना।" मन सदा बहुत बडा मानता रहा। मेरे जीवन की
सन् १९२४-२५ की बात है । हरदोई मे ब्रह्मचारी परिस्थितियां कुछ ऐसी रही कि मैं ब्रह्मचारीजी के जीवनजी आने बाले थे । बाबूजी (बै० चम्पतराय जी) ने उन्हे काल में उनकी किसी भी आज्ञा का पालन नहीं कर सका बुलाया था। हमारी और मुशी हजारीलाल जी की ड्युटी और न उनकी कोई सेवा मुझसे बन सकी। लेकिन उनके उन्हें स्टेशन पर 'रिसीव' करने की थी। बाबूजी के उप- बाद मैं उनके कार्य को अवश्य अग्रसर होकर करना रोक्त शब्दो में ही हमने ब्रह्मचारी जी का प्रथम परिचय चाहूंगा । चाहे इसमें मुझे कोई सहयोग दे या न दे। पाया। कुछ ही दिन पहिले ब्रह्मचारी जी समाज- बाबूजी के प्रेरक कुछ हद तक ब्रह्मचारी जी थे और सधार सम्बन्धी घोषणा कर चुके थे। और इस घोषणा ब्रह्मचारी जी की प्रेरक थी वह उत्कृष्ट आत्मा जिसकी ने जैन-समाज में बज्रपात का-सा कार्य किया था। सत्ता में हपे एकनिष्ठ विश्वास है । ___ "जैन-मित्र" और 'दिगम्बर जैन' में ब्रह्मचारी जी के ब्रह्मचारी जी कई दिन हरदोई में रहे । ब्रह्मचारी जी लेख हमने पढे थे । बिल्कुल एक बालक का-सा कौतुहल और बाबूजी दोनो ही महापुरुष थे । परन्तु एक प्रतिमाधारी मुझे ब्रह्मचारी जी मे मिला। अपना यह कौतुहल मैने था और दूसरा केवल एक अणुव्रती गृहस्थ । यह २५ बाबूजी पर प्रकट भी कर दिया था तथा उनसे वादा भी
- पट भी कर दिया था तथा उनसे वादा भी या २६ सन् की बात है। बाबूजी का जीवन करीब ले लिया था कि वे एक दिन ब्रह्मचारी जी के दर्शन मुझे १० वर्ष हुए, बदल चुका था। उन्होने अपने व्यस्त जीवन करायेगे। यह उस कहे की पूर्ति थी।
में से भी समय निकाल कर जैन धर्म सम्बन्धी बहत 'जन-समाज' के छ.-सात नाम बाबू जी के मुह में
से ग्रंथ रच डाले थे । दिगम्बर जैन परिषद' की बुनियाद अकसर निकलते थे । ये नाम थे, ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद पड़ चुकी थी और 'दि. जैन महासभा के कुछ सज्जन जी, बाबू देवेन्द्र कुमार आरा वाले, बाबू रतनलाल बाबू जी की अप्रिय आलोचना भी कर रहे थे । बाबूजी में (वकील), लाला राजेन्द्रकुमार (बिजनौरवाले), बावू नीतिमत्ता कुछ कम थी। वे अपनी बात सदा ओजस्वी अजितप्रसाद (एडवोकेट, लखनऊ), बाबू कामताप्रसाद(एटा) और बहुत सीधे ढग पर कह देते थे। 'महासभा' के साथ और बाबू मूलचन्द किसनदास कापड़िया। ब्रह्मचारी जी अपने मतभेद को भी इसी ओजस्वी और सीधे ढंग पर का नाम वास्तव में सबसे अधिक बार उनकी जबान पर उन्होने प्रकट कर दिया था । ब्रह्मचारी जी के साथ उनकी आता था। आज ये मेरे जीवन के अमिट भाग बन गए गाढ़ी मैत्री थी। दोनो मे बहुत-सी और बहुत लम्बी-लम्बी हैं जिन्हें मैं कभी भुलाए नही भूल सकता। और इनगे बाते हुई। कुछ इधर-उधर और कुछ मेरे सामने । मुझे ब्रह्मसे ब्रह्मचारी जी का सस्मरण लिखने का अवसर पाकर चारीजी के समक्ष बाबूजी भी कुछ हलके-हलके लगने लगे। मुझे अत्यन्त आनन्द प्राप्त हुआ है।
ब्रह्मचारी जी की वह सूरत हमारे मन में घर कर बिल्कुल ठीक उपरोक्त नख-शिख के ब्रह्मचारी जी थे। गई। वे बरामदे में कार के तख्त पर सोते थे और मेरी प्रकृति मे आरम्भ से ही एक खाप तरह की युक्त- बहुत तड़के उठते थे। दिन में एक ही बार भोजन करते प्रांतीय ऐंठ है । मैंने अपने जीवन में बाजी के अतिरिक्त
(शेष पृष्ठ आवरण ३ पर)
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विश्व शान्ति में भगवान महावीर के सिद्धान्तों की उपादेयता
कु० पुखराज जैन
आज भौतिक विज्ञान ने बहुत विकास कर लिया है देखें तो वहां भी वर्ग संघर्ष है, विकसित व विकासशील उसकी उपलब्धियो एव अनुसधानो ने विश्व को चमत्कृत देशो मे रस्साकशी है, विषमता बढ़ती जा रही है। कर दिया है। प्रति क्षण अनुसधान हो रहे है जो आज तक आज व्यक्ति ने न्यूट्रान बम और हाइड्रोजन बम बना नही खोजा जागका उसकी खोज में और जो नहीं सोचा लिया है। व्यक्ति स्वय अपनी जाति के सर्वनाश पर तुला उसे सोचने मे व्यक्ति व्यस्त है। आविष्कार का धरातल है, साथ ही ममस्त प्राणी जगत को भी अपने साथ नष्ट अब केवल भौतिक पदार्थों तक सीमित नहीं रहा, वरन् करना चाहता है। मनुष्य का मनुष्य की दृष्टि में कोई अन्तर्मनी चेतना को पहचानना व अध्ययन करना भी मूल्य नही, फैसी भयानक स्थिति है ? आज का विश्व युद्ध उसकी सीमा में आ रहा है। आज की वैज्ञानिक प्रगति की विभीपिका से सत्रस्त है। पता नही किस समय फौजे स्वर्ग की भौतिक दिव्यताओ को पृथ्वी पर उतारने के लिए आमने-सामने आ जाये । आज के युग मे जिस प्रकार के (कटिबद्ध प्रयत्नशील है। पाश्चात्य देशो ने अपनी समृद्धि विनाशक हथियारों का निर्माण हआ है और निरन्तर होता से उन दिव्यनाओ को खरीद भी लिया है।
जा रहा है उमसे भय है कि यदि युद्ध छिडा तो प्रलय का इतना होने पर भी आज का मनुष्य मुखी नही है। झझावात विश्व के बहुत बड़े भाग को अपनी चपेट में ले वह सूख की तलाश में भटक रहा है । आजकल परिवार लेगा । उम स्थिति की कल्पना मात्र ही भय से रोगटे खडा भौतिक साधन सम्पन्न तो देखे जाते है, लेकिन परिवारो कर देने वाली है। के सदस्यो मे परस्पर सद्भावना व विश्वास व्यय होता जा यह तो रहा विश्व का युद्धमय वातावरण । विज्ञान रहा है। व्यक्ति सम्पूर्ण भौतिक सुखो को अकेला ही भोगने ने केवल सामरिक क्षेत्र मे ही उन्नति नही की। विज्ञान ने के लिए व्यग्र है, लेकिन अन्ततः उसे अतृप्ति का अनु- भौतिक क्षेत्र मे इतना विकास किया है कि कहना चाहिए भव ही हो रहा है। ऐसे निराश एव संत्रस्त मानव को। अब आविष्कार आवश्यकता की जननी बन गए । व्यक्ति आशा एव विश्वास की मशाल थमानी है। आज हमे के सामने पदार्थों का ऐमा विश्वव्यापी समूह है जिसे वह मनुष्य को चेतना के केन्द्र में प्रतिष्ठित कर उसके पुरुषार्थ देख नहीं पा रहा, जान नहीं पा रहा, इसलिए कौन-सी व विवेक को जगाना है । उसके मन में जगत के सभी वस्तु का प्रयोग कहा पर हो सकता है यह जानकारी जीवों के प्रति अपनत्व का भाव लाना है मनुष्य-मनुष्य के प्राप्त करने मे बराबर प्रयत्नशील है जिससे वह विज्ञान बीच आत्मतुल्यता की ज्योति जलानी है जिससे परस्पर की प्रगति को अपने जीवन में समाहित कर सके। इन समझदारी प्रेम व विश्वास पैदा हो।।
आविष्कारो ने उसकी आवश्यकताओं मे अभिवृद्धि की आज भौतिकता अग्नि से जीवन मुख्यत पिघ । रहे है विज्ञान ने व्यक्ति के प्रत्येक अभाव को सदभाव में परिहैं। मानवता गल रही है, धर्म जल रहा है । और सस्कृति वर्तित कर दिया है। झलस रही है । शान्ति के नाम पर नर सहार, मित्रता के आज आवश्यकता है सामरिक व्यक्ति को सामाजिक नाम पर शोषण ब स्वार्थ की भावनायें बराबर जड पकड बनाने की जिससे प्राणी जगत का सर्वनाश करने वाला रही है। नैतिकता का पतन जिस गति से हो रहा है वह व्यक्ति प्राणी जगत का कल्याण कर सके वह सामाजिक कल्पनातीत है। राष्ट्रीय समाज, धर्म और सम्प्रदाय को बन कर प्राणी जगत के साथ जी सके। उनके हिताहित के लेकर अशान्त है: हिसक बना हआ है। विश्व के मानचित्र बारे में सोच सके । मानवता का सम्मान कर सके। (क्रमश.)
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जरा सोचिए!
१. ये विसंगतियां!
अपेक्षाबाद को निर्णायक माना जाता था वहां अब निरदूसरों को दोष देना लोगों का स्वभाव जैसा बन गया पेक्षवाद का प्रभुत्व है, जहां अनेकान्त था वहां एकान्त है। है। कहते हैं-आज संसार मे जो बदलाव आया है, छीना- इस प्रकार
इस प्रकार सभी तो विसंगतियाँ इकट्ठी हो गई हैं; जबकि झपटी, आपा-धापी मची हुई है वह सब समय के बदलाव का
न
धम
धर्म सभी विसगतियो से अछूता -वस्तु स्वभाव मे है। प्रभाव है । पर, यह कोई नही बतलाता कि यह सब घटित यदि कही विसंगतिया नजर आती हो तो उन्हें दूर कसे हुआ? जबकि समय, दिन-रात, घडी-घन्टा, मिनट- कीजिये । अन्यथा कही ऐसा न हो कि परिपक्व होने पर सैकिण्ड आदि में कोई बदलाव आया नहीं मालूम देना। ये विमगतिया ही धर्म का रूा ले बैठे। क्योकि बदलती समय तो तीर्थकरों के काल में और उससे बहुत पहिले परम्पराओ से यह स्पष्ट होने लगा है कि-धर्म मे अधर्म काल मे जैमा और जिस परिमाण मे था आज और अब तीव्रगति से घुमपैठ कर रहा है और हम एक-दूसरे का भी वैमा उसी परिमाण मे है। फिर काल-द्रव्य अन्य मंह देख रहे है । हममे जो एक करता है दूसरे भी वही पदार्थों के लिए प्रेरक भी तो नही-हर द्रव्य का परिणमन करने लगते है और करे भी क्यो नही ? कुछ अपवादो को उसका अपना और स्वाभाविक है-'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य छोड, प्राय हम मभी तो एक थैली के चट्ट-बट्टे जैसे है। युक्तं सत् ।'
पर, आश्चर्य न करे–बलिदान-निरोधक धर्म के मध्य भी सुना है, पहिले के लोग स्वार्थी उतने नहीं थे जितने बलिदान बैठा है। अधर्म निरोध के लिये सभी तीर्थंकरों परमार्थी । उनकी दष्टि दुसरो के उपकार पर अधिक को भी सर्वम्ब तक बलिदान (त्याग) करना पड़ा। अब धर्मरहती थी जबकि आज बिरले ही मानवो की बिरली ही रक्षा के लिये हमे क्या बलिदान (न्याग) करना है? जरा गतिविधियां परमार्थ के लिये समर्पित है । मनुष्य स्वय मोचिये और करिये । स्वार्थ की ओर दौड़ रहा है और बदनामी से बचने के लिये स्वय ही युग को 'अर्थयुग' या अर्थ के प्रभाव का नाम २. प्रचार किसका और कैसे : देकर बदनाम कर रहा है।
जैनधर्म आचार-मूलक है तथा इस में आभ्यन्तर और स्वार्थ के लिए मानव की दौड कहा-कहा है, यह जानने वाह्य दोनो आचारों के पालन का निर्देश है । जिसका अन्तके लिये लम्बे लम्बे व्यायामो की आवश्यकता नही । आज रग राग-द्वेष, मिथ्यात्व, कपायादि से रहित हो, और बाह्यतो मानव कहां नही दौड रहा ? यह आसानी मे जाना जा प्रवत्ति पचेन्द्रिय तथा मन के वशीकरण क्रिया से ओत-प्रोत सकता है, क्योंकि उसकी अ-दौड के क्षेत्र सीमित है और हो वही पूरा जैनी है, वही 'जिन' का सच्चा अनुयायी और दौड़ के क्षेत्र विस्तृत । मानव ने सभी क्षेत्र तो स्वार्थपूर्ति में वही जैन का समर्थक है। यहा तक कि पूर्वजन्म में तीर्थंकरव्याप्त कर रखे है-जो निःस्वार्थ है वे घन्य है। बहुत से प्रकृति का बन्ध करने वाले सभी जीवों को भी इसी मार्ग लोगो ने तो धर्म उपकरणों, स्थानो, और धर्म के नाम पर मे होकर गुजरना पड़ा और वे इस जन्म में भी निवृत्ति होने वाले कार्यक्रमों तक को स्वार्थ-पूर्ति मे अछूता नही रूप इमी प्रवृत्ति में केवलज्ञानी व 'जिन' बन सके। अत: छोडा है। बहुत से लोग दान देते है तो यश-कीनि-नाम के लोगो को 'जिन' व वीतगग की श्रद्धा व रुचि हो, वे लिये, सम्मेलन, जयन्तियों आदि के आयोजन करते है तो जिन-मार्ग पर चलें, जिन और जैनी बनने का प्रयत्न करें यश व अर्थ के लिए, भापण, कथा, प्रचार आदि करते हे यही उत्तम मार्ग है। यश व अर्थ के लिये और धार्मिक-साहित्य प्रकाशन आदि श्रद्धा करने और मार्ग पर चलने के लिये वह सब करते है तो वह भी व्यवसाय के लिये । कोई दूसरो को कुछ करना होता है जो महापुरुषों ने किया और जिसका नीचा दिखाने के लिये समन्वय के नाम पर विरोधी दाणी मूल चारित्र है। यत.-श्रद्धा और ज्ञान दोनो स्वयं भी बोल रहे है तो कही-जहा पहिले वस्तुनिर्णय के लिये जानने व अनुभूति रूप क्रिया होने से स्वयं चारित्र रूप ही
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३० बर्व ३५, कि०४
भमेकान्त हैं। फलतः चारित्र ही मुख्य है। जो जितना अन्तरंग व हैं इन सेमीनारों के विकृत-रूप, सम्मिलित होने वाले बहिरंग चारित्री होगा वह उतना ही 'जिन' और जैन के अनेकों महारथियों के आचार-विचार और धन के अप-व्यय निकट होगा। हां, इस चारित्र में शक्ति की अल्प व महत के विविध आयाम । किसी का कहना था कि उनके नगर व्यक्तत: की अपेक्षा अल्प -बहत्व अवश्य है-अल्प अणुव्रत मे पिछले वर्षों मे घटित एक सेमीनार में कुछ वाचकाचार्य व महत् महाव्रत कहलाता है। श्रावक का चारित्र अणुव्रत ऐसे भी थे जो नई पीढ़ी पर बिना छने पानी और कन्दमूल और मुनि का महाव्रत रूप है—पर, है वह सभी चारित्र। सेवन की छाप छोड गए और कुछ ने तो रात्रि-भोजन उक्त चारित्र के परिप्रेक्ष्य में आज की स्थिति क्या है? त्याग जैसे मोटे नियमो का भी उल्लघन किया। यह विचारणीय विषय बन रहा है।
उक्त प्रसगो मे सोचना पडेगा कि इन सेमीनारों के ___ आज लोगों में सम्यग्दर्शन प्राप्त करने को दबाव डाला आयोजन दुरूह तत्त्व-ज्ञान के आदान-प्रदान मात्र के लिए जाता है, आधुनिक के सन्दर्भ मे ज्ञान के विस्तार का हो या आचार-विचार का मूर्त-रूप प्रस्तुत करने के लिये निर्देश दिया जाता है, आध्यात्मिक चर्चाएं होती है । सम्मे- भी ? आज जबकि शास्त्रों-सम्बन्धी खोजों के प्रसगो से लनो और सेमीनारो के आयोजन किये जाते है--आदि ! भण्डार भर चुके है-लोग इतना लिख चुके है कि उन्हे यदि उक्त सभी आयोजन आचरण मे उतरने की ओर पढ़ने और छपाने वाले भी दुर्लभ हो रहे है। इन प्रभत अग्रसर दिखाई देते हों तो सभी सकल्प और आरम्भ शुभ लेखों और अनुवादो ने मूल भाषा और भावों को लोगो हैं। पर अधिकाशत: ये आयोजन क्या है ? चर्चाए क्या की आँखो से दूर-सा जा पटका है-वे आचार्यों के मूलहैं ? और सेमीनार क्या है ? इनके वास्तविक रूपो पर भावो से दूर जा पड़े है और वाह्याचार-विचार (प्रगट मे लोगों की दृष्टि नही । अन्यथा-क्या कषायपोपण और जैनत्व दर्शाने वाली-प्रभावक क्रिया) से भी शून्य जैसे हो आचार-विचार शून्यता में की जाने वाली सम्यग्दर्शन की रहे है । तब क्यों न मूल ग्रन्थो के पठन-पाठन की परिचर्चाएँ धर्म से दूर नहीं ? क्या वर्तमान उत्सव व सेमी- पाटी का पुनः प्रयत्न किया जाय और क्यो न मृत-आचारनारों के आयोजन प्रायः प्रभूत सम्पत्ति व्यय करने वाले विचार प्रसार के लिए चारित्र विषयक ग्रन्थो के शोध व और साधारण ज्ञान-पिपासुओं को लाभ देने से दूर नही? मूर्त आचार प्रस्तुत करने के मार्ग खोजे जाए? द्रव्य उधर क्या दोनों के ही मूल मे चारित्र का अभाव नही ? बहतों लगे या दिखावे मे ? जरा सोचिये ! मे प्रकट कषाय-मान आदि दृष्टिगोचर हैं नो बहुतो मे लोभादि के सद्भाव रूप अन्तरंग कलुषता और वाह्याचार- ३. धम का मूल अपरिग्रह शून्यता।
जिन धर्म वीतराग का धर्म है और इसकी भूमिका मे वर्तमान सेमीनार क्या कुछ दे जाते हैं, ये लेने वाले अपरिग्रह की प्राथमिकता है, चौबीसो तीर्थकर भी वीतजानें । पर अनुभव तो ऐसा है कि एक ओर जहा उत्सवो राग पहिले और धर्म-उद्घोषक बाद में बने पूर्ण ज्ञानी होने व सेमीनारो मे पठित कतिपय निबन्ध बहुत घिसे-पिटे और पर ही उनकी दिव्य-देशना हुई। फलतः जितने अशों में कई २ जगह वाँचे होते है-उनमें पिष्ट-पेषण भी अधिक जीव वीतरागी-अपरिग्रही होगा वह उतने अशों मे जैनी मात्रा में लक्षित होते हैं, तो दूसरी ओर बहुत से नये होगा। तीर्थकर महावीर का युग एक ऐसा युग था प्रबन्ध कुछ बुद्ध-वोधितो तक ही सीमित रह जाते है और जब हिंसा का बोलबाला था और उस समय लोगों का कई वाचकों में तो आचार-विचार सम्बन्धी मूर्तरूप भी परि. आकर्षण केन्द्र जीवो का चीत्कार बना हुआ था-वे अहिंसा लक्षित नहीं होता। ऐसे सेमीनारो में अधिकांश लोगों को का उपदेश चाहते थे । सयोग से ऐसे समय मे तीर्थकर की खासकर स्थानीय युवापीढ़ी को धर्म के अनुकूल कुछ नहीं सर्वधर्म-उद्घोषक देशना हुई और लोगों ने उसमें से एकमिल पाता और कभी-कभी तो इ: सेमीनारों से विप. मात्र वांछित धर्म-अहिंसा को प्रमुखता देकर महावीर रीत प्रभाव होता भी देखा जाता है जैसे—युवक जान लेते की देशना को मात्र अहिंसा धर्म विशेषण से प्रतिबद्ध कर
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जरा सोचिए
दिया । जबकि महावीर की देशना पूर्व-तीर्थंकरो की देशना जब आचार्यों ने आहार, औषध, ज्ञान और वसतिका से किंचित् भी भिन्न न थी। महावीर ने भी अन्य तीर्थ- (कही-कही अभय) देने को दान कहा है तब रुपया-पैसा करों की भाति वस्तु-तत्त्व का याथातथ्य --नग्न दिग्दर्शन देना दान में गभित है या आकिंचन्य में यह विचारणीय कराया और वस्तु के सभी धर्मों को कहा ।
है। फिर भी यदि यह दान में गभित है तो इसमे विधि, प्रश्न है कि तीर्थंकरों ने क्या और कंमा कहा ? तत्त्व
द्रव्य, दाता और पात्र पर दृष्टि देना भी तो न्यायोचित चिंतन की गहराई मे जाने पर स्पष्ट होता है कि सभी ।
है ! यदि दाता अनुकूल है तो उसे विचारणीय है कि जो तीर्थंकरों ने, वीतरागी व निर्विकल्प दशा में होने के कारण ।
रुपया वह दे रहा है उसके स्रोत क्या है ? वह दान के योग्य -वीतरागभाव से वीतरागतामयी देशना की। उनकी है या नहीं ! पान भी योग्य है या नही ? द्रव्य का उचित देशना 'याथातथ्यं बिना च विपरीतात्' 'अन्यूनमनतिरिक्त'
उपयोग होगा या नही? इसी प्रकार पात्र को भी दाता की थी और 'करो या न करो' के सकेत से रहित भी थी। निस्वार्थ भावना व वित्त की न्यायोपात्तता देखनी चाहिए। क्योंकि हाँ या ना का सकेत विकल्पदशा में ही सभव है। पर, आज य सब दखने वाले दाता और पात्र बिरले है
दोनों ही आखे मीचकर--स्वार्थपूर्तियों में लिए और तीर्थकरी ने वस्तु के जिस शुद्धस्वरूप को दशाया वह दिए जा रहे है और जो विसगतियाँ समक्ष आ रही हैं वे स्वरूप हर वस्तु के अपने निखालिसपने में समाहित था---
शोचनीय बन रही है-पैसे का दुरुपयोग । यदि ऐसी पर-सयोगो से सर्वथा अछुता और परिग्रही-मिलावटो से
परम्पराओ पर अकुश लगे तो धर्म की बहुत कुछ बढ़वारी सर्वथा पृथक् । जिन अन्य धर्म-अगो की हम चर्चा चलाते है
हो । उक्त प्रसगो मे यदि सुधारो की अपेक्षा हो तो परिग्रहवे सभी धर्म इम अपरिग्रह के होने पर स्वयमेव उसी मे
त्याग का सही मार्ग क्या हो? जरा सोचिए ! समाहित हो जाते है। इसीलिये तीर्थकरो ने मूल पर प्रहार किया और पहिले वे वीतरागी बने । यत -वीतरागता ४. वे जैनी ही तो थे ! (अन्तरग-बहिरग, परिग्रह राहित्य) होने पर अहिंसा, सत्य, अचौर्य आदि जैसे सभी धर्म स्वभावत. फलित हो जाते है।
'उपसर्गे दुभिक्षे जरसि रुजाया च निष्प्रतीकारे । अत: जीवो को अन्तरग रागादि और बहिरग धन-धान्यादि
धर्माय तनविमोचनमाह सल्लेखनामार्या. ॥' परिग्रहो से विरक्त होना चाहिये । इसीलिए आचार्यों ने
निष्प्रतीकारयोग्य उपसर्ग, भिक्ष, बुढापे, बीमारी सभी पापो मे प्रमाद (परिग्रह) को मूलकारण कहा है
आदि के कारण धर्म के लिए-धर्मसाधन हेतु शरीर का 'प्रमत्त योगात्।"
त्यागना सल्लेखना या समाधिमरण है। क्या कहे ! लोग बड़े व्यवहार चतुर है। उन्हे धर्मात्मा
-बड़े शोक में डूब गया देश और धार्मिक जगत् । बनने का चाव भी है और परिग्रह-सचय का भाव भी। जब बाबा विनोबा भावेजी का वियोग सुना। वे देशहित के फलत. उन्होंने ऐसा सरल-मार्ग खोज लिया है कि जिसमे सांप लिये राष्ट्र-पिता बापूजी के आदर्शों पर उनसे कन्धा भिड़ाभी मर जाये और लाठी न टे..वे धार्मिक बने रहे और कर चले और बापूके बाद में भी जीवनपर्यन्त धर्म की आन उन्हें इन्द्रिय-दमन व परिग्रह-त्याग जैसी कठिन साधनाओ को निभाते चले । भू-दान तो उनकी सेवापद्धति का एकमात्र से भी मुक्ति मिली रहे। क्योकि इन्द्रिय-सयम व परिग्रह उजागर रूप था। वे अपने अन्तस्तल में न जाने कितने त्याग दोनों उन्हें कठिन मालुम होते है । अपनी इस इष्ट-पूर्ति ऐसे यज्ञ छिपाये फिरते रहे जो जन-जन हितकारी थे। के लिए वे आज जी जान से जुट गए है और उन्होंने दैनिक जहां भी जैसी आवश्यकता प्रतीत हुई वहीं यज्ञ के अंश कठिन साधनाओं की उपेक्षा कर दान और बाह्य अहिंसा बिखेर दिये। उनकी अहिंसा, करुणा, परोपकार-बुद्धि आदित से नाता जोड़ लिया है। इसमें उन्हें संचय कर अल्प देना आदि की भावन, धार्मिक और पारमार्थिक यशथे। जब होता है-परिग्रह भी बढ़ता है और दानी भी बने रहते है। क जिए पर के लिये, देश के लिये और धर्म के लिए।
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३२, वर्ष ३५, कि० ४
अनेकान्त बाबा ने ससार चक्र को पैनी दृष्टि से परखा था स्थित हो, धर्मात्मा की खोज की जाना चाहिए । यद्यपि फलतः बे अन्तिम परीक्षा तक उत्तीर्ण होते रहे । हल्का वर्तमान अबार पचमकाल मे जीवो में चारित्रमोहनीय के दिल का दौरा पड़ने पर सभाल के प्रयत्न किये गए, देश उपशम-क्षय-क्षयोपशम मे मन्दता लक्षित होती है और वे प्रमुखों ने संबोधन दिये । पर, बाबा ने किसी की न सुनी। व्रत और नियमो की उच्च दशा मे नही पहुच पाते । वे एक सयमी- जैन सयमी को भाँति उस प्रतिज्ञा- तथापि धर्म के वाहकों को उतना तो होना ही चाहिए आस्था पर दृढ़ हो गये जो जन-जन को दुर्लभ होती है। जितना अवती श्रावक में अवश्यम्भावी है। जैसे आजन्म उन्होने औषधि, अन्न, आहार, उपचार आदि सभी से मद्य-मास-मधु का त्याग, पच उदुम्बरो का त्याग, अनछने विरक्ति ले ली। वे अपने मे इस आस्था से दृढ हो गए कि जल और रात्रि-भोजन का मन-वचन-काय, कृतकारितशरीर मरण धर्मा है ---इससे मेरा कोई सरोकार नही-- अनुमोदना से त्याग । यदि देव दर्शन, गुरुभक्ति करने का 'वस्त्राणि जीर्णानि या विहाय।'
नियम हो तो और भी उत्तम । जैनी को अबती बम्बा में भी अष्टमूल गुण धारी श्रावको का कर्तव्य है कि धार्मिक प्रसगो मे उत्सव के होना चाहिये-बनगो वहा बडी निधि है । बाबा मे जैन- मुखिया के चुनाव में उक्त बातो का ध्यान करे और जिनमान्य ऐमी कौन-सी विधि नही थी? मोटे रूप से वहुत सी शासन के महत्त्व को समझ धर्मचक्र को प्रभावक बनाने मे विधिया उनमें विद्यमान थी। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्य- सहायक हो । अन्यथा हमने कई वार कईयो के मुख से
चर्य और परिग्रह परिमाण, अणुव्रत सभी तो उनमे थे-- उलाहने सुने हैब नाम से भले ही न सही, व्यवहार से वे सच्चे जैन "क्या जिनदेव या गुग भी ऐसे ही मुखिया थे, जैसे
श्रावक थे। काश ! हमे सद्बुद्धि मिले और हम व्रत के अमुक धर्म-सभा के अमूक नेता ?----जिनमे 'जैनी' का एक बन्धन में न बधे रहकर भी बाबा की भाति आचरण में भी चिह्न नही था।" 'जैसे नेता वैमी सभा और वैसा ही अणु प्रतों जैसा पालन करने की सीख ले, तो हमे भी बिना प्रभाव' आदि । प्रयत्न के सहज सल्लेखना प्राप्त हो सकती है। जिसका धर्म-उत्मवो के मुखिया बनने का आग्रह आने पर जीवन न्याय नीतिपूर्ण रहे और अन्त मे समाधि-मरण हो, सबधित व्यक्तियो को भी सोच लेना चाहिए कि उक्त सदर्भ वह जैनी नही तो और क्या है ? मेरी दृष्टि मे तो वे जैनी मे वे उस पद के कहाँ तक योग्य है ? धार्मिक प्रसंग मे ही थे। उन्हें सादर नमन और श्रद्धाजलि ।
मुखियापने के लिए धर्म-विहीन-लौकिक बड़प्पन, लौकिक
या राजकीयपद अथवा लौकिक ज्ञान प्राप्त कर लेना कार्य५. और एक यह भी :
कारी नही अपितु मुखियापने के लिए या किन्ही धर्म उत्सवो __-धर्म का सच्चा स्वरूप चारित्र अर्थात् आचरण है। के उत्तरदायित्व संभालने के लिए जिन-धर्मानुकूल स्थूल और सम्यक चारित्र का धारक (धर्म को जीवन में आचरण और धर्मविषयक स्थूल ज्ञान होना अनिवार्य हैउतारने वाला) धर्मात्मा है। धर्म और धर्मात्मा दोनो ऊँचे नियमपालक और ज्ञाता हों तो सोने मे सुहागा । जरा परस्पर-सापेक्ष है । फलतः-जहाँ भी धर्म का प्रसंग उप- सोचिए ।
-संपादक
'अनेकान्त' के स्वामित्व सम्बन्धो विवरण प्रकाशन स्थान-वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ प्रकाशक-वीर सेवा मन्दिर के निमित्त श्री रत्नत्रयधारी जेन, ८ अल्का, जनपथ लेन, नई दिल्ली राष्ट्रीयता-भारतीय
प्रकाशन अवधि-मासिक सम्पादक-श्री पपचन्द्र शास्त्री, वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ राष्ट्रीयता-भारतीय।
स्वामित्व-वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ मैं रत्नत्र धारी जैन, एतद् द्वारा घोषित करता हूं कि मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपर्युक्त विवरण सत्य है।
रत्नत्रयधारोन
प्रकाशक
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अविश्वसनीय किन्तु सत्य
"जैनधर्म के अनुयायी अपने शुद्ध-सात्विक आहार-विहार एवं नैतिकतापूर्ण बीवन पद्धति के लिये प्रसिद्ध रहे हैं, किन्तु वा आज भो गिधवा गांव के आदर्श निवासियों की भांति वे अपने धर्मसम्मत आचरण पर दृढ रह गय हैं ? इस उदाहरण से उन्हें शिक्षा लेनी चाहिए-" .
-प्रेस ट्रस्ट आफ इडिया द्वारा प्रसारित २० मितम्बर अधिकारियों का भी कहना है कि इस ग्राम मे अथवा उसके ८२ के समाचार के अनुसार मध्यप्रदेश के रायपुर जिले मे निवामिया द्वारा कभी भी किसी अपराध का किया जाना अरगराजिम राजपथ पर स्थित गिधवा नाम का एक ग्राम " देखने सुनने में नहीं आया। मद्य-मांस-मत्स्य को तो चे छूते है जिसमें छ. सौ. व्यक्तियो, की आबादी है। इनमे अधि- श्री नहीं, बलात्कार, व्यभिचार आदि की भी कोई घटना काश गौड हैं, कुछ एक परिवार चन्द्रकरस साहु भो के हैं बड़ा नहीं होती। शनिवार १८ सितम्बर २ को इस गांव
और एक परिबार ब्राह्मणों का है। इस ग्राम के मभी में एक समारोह हआ जिसमें ग्रामवासियों ने अपनी प्रतिज्ञा निवासी कबीरपश्री हैं और परम्पर अत्यन्त सद्भाव और · को दोहराया । वे अपनी इस आदर्श जीवन-पद्धति पर गर्व भाईचारे के साथ रहते है। लगभग एक मो वर्ष पूर्व इस करते हे जो उचित ही है। ग्राम-प्रमुख ने बताया कि उक्त गाव के निवामियों ने कबीरपथ की दीक्षा ली थी और मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाले के साथ कडाई से कामप्रतिज्ञा की थी कि गांव का कोई भी व्यक्ति मांस-मछी
लिया जाता है. कोई रूपियायत नही की जाती। उसे आदि । भक्षण नहीं करेगा, भराव नही पियेगा, बलात्कार,
सदा के लिए गाँव से निर्वामित होना पडता है। किन्तु मे भार, दुराचार आदि कुकृत्य नही करेगा। तभी से।
अपगर बहुत कम ही आए है। इस गान के सभी frवामी अपनी इस उत्तम टेक को
आज के युग में यह स्थिति कितनी अविश्वसनीय किमतेचा जा रहा है । यदि गाव का कोई भो निवामी लगती भाव मर्वथा में
लगती है, तथापि यह सर्वथा मत्य है। स्व-धर्म को जीवन इन मर्यादाआ म मे किमी का भी उल्लपन करता है, कोई के माथ जोहने, जीवन में उतारने से ही धर्म की सार्थभी दु.कर्म करता है तो उसके लिए गांव छोड़कर चला कता है। जाने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं रहता। पुलिम
--ज्योति प्रसाद जैन
(पृ. २७ का पांण) थे और भोजन करते समय मौन रहते थे। वैसे तो वाबू जो कर कुछ ऐसे कार्य करता है जो उसके आदर्शों के नहीं, का भोजन भी बहुत पवित्रता पूर्वक तयार होता था, किंतु उसकी अन्तरात्मा के भी सर्वथा विपरीत होते हैं। परन्तु ब्रह्मचारी जी का भोजन विशेष तत्परता के साथ बनता अन्दर का आदमी सदा अपने मार्ग पर अयमर रहता है। था। मुझे याद है कि ब्रह्मचारी जी के लिए स्वय हमारी हमारी मम्मति मे वे ही गृहस्थ मच्चे गृहस्थ है जो कम से माताजी भोजन बनाती थी और ब्रह्मचारी जी मेज-कुर्मी पर कम व्यक्तिगत जीवन में अन्तरात्मा की आवाज के साथन लाकर चौके में भोजन करते थे। उनका व्यवहार अभ्या- चलते है। परन्तु माधु का अन्दर का और बाहर का गतों से लगाकर नौकर-चाकरों तक से ममता भग था। व्यवहार मर्वथा ममान होना चाहिए । ब्रह्मचारी जी मेरी
बाबूजी के साथ उनकी जो-जो बातें मेरे सामने होमी दृष्टि में एक सच्चे माधु इसलिये थे कि उन्होंने अन्तरात्मा थी मैं उन्हें बड़े ध्यान से सुनता था। समाज-सुधार और की आवाज को स्पष्टतापूर्वक संसार पर प्रकट कर दिया। अन्तर्जातीय विवाह सम्बन्धी उनके विचार तो प्रकाश में उन्हें न नेतृत्व की चाह थी और न कोई सांसारिक भाबीचोबेपरन्त नारी जाति के सर्वागीण उत्थान पर मोह था। वे एक सर्वथा वैरागमय पुरुष थे जिन्होंने अपना उनकी वारणायें अत्यन्त प्रभावशाली और प्रखर थीं। , जीवन जैन जाति के अभ्युत्थान में न्यौछावर कर दिया था
प्रत्येक आवमी के भीतर एक दूसरा आदमी रहता और जिनका तप तथा त्याग अवश्य एक दिन संसार में पर.का यादमी अकसर परिस्थितियों का शिकार बन अपना रंगलाकर रहेगा।
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दिल्ली-३२ से मुद्रित।
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