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________________ २०, बर्ष ३५, कि० ३ अनेकान्त पुद्गल द्रव्य की दूसरी परिभाषा की जाती है कि पुरुष अर्थात् जीव शरीर, आहार, विषय, इन्द्रिय उपकरण के रूप में निगलते हैं, ग्रहण करते है वे पुद्गल कहलाते है । परमाणुओं को भी जीव स्कन्ध दशा में निगलते है। अत परमाणु पुद्गल द्रव्य है । देवसेन ने अणु को ही वास्तव मे पुद्गल द्रव्य कहा है।" जैन दर्शन की तरह वैशेषिक और ग्रीक दर्शन में भी परमाणु भौतिक द्रव्य माना गया है । (२) परमाणु अविभाज्य है-जैन-दर्शन मे परमाणु को अविभागी कहा गया है। जैन आचार्यों ने बतलाया है। कि पुद्गल द्रव्य का विभाजन करते-करते एक अवस्था ऐसी अवश्य आती है जब उसका विभाजन नही हो सकता है । यह अविभागी अंश परमाणु कहलाता है । ग्रीक" पीक" और वैशेषिक दार्शनिको ने भी परमाणु को जैन- दार्शनिको की तरह अविभाज्य माना है । (३) परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म है जैन दार्शनिको ने बतलाया कि पुद्गल द्रव्य के छह प्रकार के भेदो मे परमाणु सूक्ष्म-सूक्ष्म अर्थात् अत्यन्त सूक्ष्म होता है इससे सूक्ष्म दूसरा कोई द्रव्य नही है । अन्य परमाणुवादियो ने भी परमाणु को अत्यन्त सूक्ष्म माना है।" (४) परमाणु अप्रत्यक्ष है— परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रियों के द्वारा अग्राह्य होते है। ग्रीक और वैशेषिक दार्शनिक भी जैनों की उपर्युक्त बात से सहमत हैं। लेकिन जैनो ने परमाणु को केवलज्ञान के द्वारा प्रत्यक्ष माना है। वैशेषिक दर्शन मे भी परमाणु योगियों द्वारा प्रत्यक्ष माना गया है 33 ग्रीक दर्शन मे इस प्रकार के प्रत्यक्ष की कल्पना नही दी गई है । (५) परमाणु सगुण है- जैन दर्शन और वैशेषिक दर्शन में परमाणु सगुण माना गया है, इसके विपरीत ग्रीक दार्शनिकों ने परमाणु को निर्गुण माना है। जैन दर्शन में परमाणु के बीस गुण माने गये है। परमाणु पुद्गल ग्रस्य का अंतिम भाग है, इसलिए इसमें एक रस ( अरल, मधुर कटु, कषाय और तिक्त मे से कोई एक ) एक वर्ण (कृष्ण, नीज, रक्त, पीत और श्वेत में से कोई एक एक गंध ( सुगन्ध और दुर्गन्ध में से कोई एक ) अविरोधी दो स्पर्श (शीत, उष्ण, रूक्ष, स्निग्ध, लघु, गुरू, मृदु ओर कठोर में में से कोई दो ) इस प्रकार परमाणु में कुल पांच गुण पाये जाते हैं । ये गुण परमाणुओं के कार्य में स्पष्ट दिखलाई पड़ते हैं। यहाँ ध्यातव्य है कि जैन-दर्शन में द्रव्य और गुण वैशेषिकों की तरह भिन्न न होकर अभिन्न माने गये है। इसलिए परमाणु का जो प्रदेश है वही स्पर्श का, वही वर्ण का है। इसलिए वैशेषिकों का यह कहना युक्ति संगत नहीं है कि पृथ्वी के परमाणु में सर्वाधिक चारों गुण जल के परमाणुओं मे रूप, रस और स्पर्श, अग्नि के परमाणुओं में और रूपर्ण गुण और वायु के परमाणु मे स्वर्ग गुण होता है।" वैशेषिको का उपर्युक्त कथन इसलिए ठीक नही क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर गुण से अभिन्न अप्रदेशी परमाणु ही नष्ट हो जायेगा ।" जैन-दर्शन मे किसी में भी गुणों की न्यूनाधिकृता नही मानी गई है। पृथ्वी आदि चारों धातुओं में परमाणु के उपर्युक्त चारों गुण मुख्य और गौण रूप से रहते है। पृथ्वी में स्पर्श आदि चारों गुण सुख्य रूप से जल मे गध गुण गौण रूप से शेप मुख्य रूप से अग्नि में गंध और रस गोणता और शेष की मुख्यता और वायु मे स्पर्श गुण की मुख्यता और शेष तीन की गोणता रहती है । 3 (६) परमाणु नित्य है--जैन वैशेषिक एवं ग्रीक दर्श में परमाणु नित्य माना गया है, लेकिन जैनपरमाणुवाद की यह विशेषता है कि परमाणु की उत्पत्ति ओर विनाश होता है जब कि ग्रीक और वैशेषिक दार्शनिक परमाणु को उत्पत्ति विनाश रहित मानते है । जैन परमाणु वाद के अनुसार द्रव्य दृष्टि से परमाणु नित्य है लेकिन पर्याय की अपेक्षा वे अनित्य भी है। - (७) परमाणु एक ही प्रकार का है—जैन दर्शन के अनुसार परमाणु एक ही जड तत्व से बने है । लेकिन वैदिक परमाणुवाद के अनुसार चार प्रकार के है— पृथ्वी के परमाणु जल के परमाणु, बायु के परमाणु और अग्नि के परमाणु । जैन परमाणुवाद के अनुसार पृथ्वी आदि चार धातुओं की उत्पत्ति एक जाति के परमाणु से हुई है । (८) परमाणु गोल है-जैन और वैशेषिक दर्शन में परमाणु का आकार गोल बताया गया है, लेकिन ग्रीक परमाणुवादियों का मत है कि परमाणुओं का आकार
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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