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________________ २० वर्ष ३४०४ अब जिस वस्तु से सम्बन्ध जुड़ता है वह ज्ञान का ही जुड़ता है अज्ञान का नहीं पर पदार्थ को देखता है तो वह । सुन्दर या असुन्दर प्रतिभासित नही होता उसमें राग द्वेष का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता और फिर भी जितना राग-द्वेष होना है उसे अपनी कमजोरी ही मानता है। असल में देखा जाए तो यह शरीर तो राग करने का बिल्कुल स्थान ही नहीं है, शरीर तो इतनी खोटी चीज है। कि ये तो मंगत्य के बिल्कुल ही योग्य नहीं है इसलिए ये मूल बात यही है कि उस अज्ञानता को छोड़ दे । उसे साथ लेकर यदि समवसरण मे भी जायगा तब भी कल्याण होने का नहीं है । यदि अपने स्वभाव को ठीक कर ले तो वह जहां रहे वहां मन्दिर हो जाए और अगर अज्ञानता न छोड़े तो मन्दिर भी अखाड़ा हो जाता है। मक उस अज्ञानता को मेटने के लिए हम शास्त्र पढ़ते हैं परन्तु शास्त्र हमारी अज्ञानता मेट नही सकता, शास्त्र तो केवल हमें हमारी अज्ञानता का बोध करा सकता है, मेटनी तो वह हमें स्वयं को ही है। पण्डित व त्यागी को तत्व की प्राप्ति इसीलिए दुर्लभ हो जाती है क्योंकि पत्रि समझता है कि मैं जान गया और त्यागी समझता है कि मैं हो गया । तत्व की प्राप्ति तो उसे हो जो यह समझे कि 新 भी नही जानना और मै कुछ भी नहीं है जो सम कुछ कि मैं कुछ हो गया वह तो हो ही गया फिर भीतर जाकर क्या करे खोज ? तो शास्त्र ज्ञान व व्रतों मे अहंकार होने से व्यक्ति अपने को नहीं जान पाता और अपने को न 'जानने से शास्त्र ज्ञान व व्रतों में अहकार होता है। अज्ञानी अपने को फिर भी जल्दी जान सकता है क्योकि वह सम झता है कि मैं कुछ नही जानता । ये शरीर तुझे अपना लगता है क्या ? यदि अपना लगता है तो समझना अज्ञानता है। अब शरीर में अपनेपने की अज्ञानता का बोध तो हमें शास्त्र ने करा दिया पर इतने मात्र से शरीर मे अपनापन तो छूटा नहीं, वह तो जब हम छोड़ेंगे तभी छूटेगा। दूसरा काम शास्त्र करता है एक प्यास, सड़प व छटपटाहट पैदा करने का वह कहता है जबकि तत्व को जान लेने से तेरा एक अद्वितीय रूप हो जाएगा । सारे संगार का अनादि काल का तेरा दुख मिट जाएगा तब इसके भीतर मे एक जिज्ञासा पैदा होती है कि कैसे अपने को समझू व जानू । शास्त्र ने तो जिज्ञासा पैदा कराके छोड़ दिया अब अपने को जानना तो हमे स्वयं ही है। गुरु भी ये ही दोनों काम करता है, अज्ञानता का बोध कराने का व तड़पन पैदा करने का । यदि शास्त्र अज्ञानता मेट सकता होता तो ११ अग ६ पूर्व का पाठी अज्ञानी कैसे रह जाता ? हम ये चाहे कि राग द्वेष तो हमारा मिट जाए और अज्ञानता बनी रहे तो ये तो होने का ही नह है। दीपायन मुनि ने कितनी तपस्या की, लोगों ने उन्हें उठा कर फेंक दिया, उन पर थूक दिया और उन्होंने उफ नही की पर भीतर मे अज्ञानता बनी रही चिनगारी सुल गती रही और एक दिन वह आग बनकर भभक उठी । अतः यदि अन्दर की अज्ञानता न जाए और बाहर में कितना भी उपसर्ग व परीपह सहन करे तब भी वह कार्यकारी नही है । सारे द्वादशांग के उपदेश का जोर उस अज्ञानता को मेटने पर है क्योंकि यह अज्ञानता ही प्रत्येक वस्तु को उल्टा दिखाती है और फिर हम सोचते हैं कि उस वस्तु या व्यक्ति को सीधा कर दें । अरे ! उसे तू क्या सीधा करेगा। वह तो सीधा ही है, उल्टा तो तू है, तू अपनी उस अज्ञानता को मेट कर सीधा हो जा। आपने को ठीक करना है पर को नही । इसलिए मूल बात उस अज्ञानता को छोड़ने की है और वह हमारे अपने कारण से हुई और अपनेही कारण से छूटेगी । किसी दूगरेके कारणसे होती तो उसके छोडने से छूट जाती पर ऐसा नहीं है। पागल कपडे फाड रहा है और हम चाहते हैं कि ये न फाड़े और हम उसे रोक रहे है तो उस रोकने का भी क्या फायदा है ? अरे । वो कपडा फाड़ना बन्द करेगा तो अन्य और कुछ गडबड करेगा, कुछ तोडने फोड़ने लगेगा इसलिए हमारा पुरुषार्थ उसको उन त्रियाक्षों से रोकने मे नही वरन् उसका पागलपन मेटने में है । आचार्यों ने कहा कि होना चाहिये मिध्यादृष्टि का सारा आचरण मिथ्याचरित्र है। अब वह सम्यक्चारित्र कैसे हो ? वह तो मिथ्यादर्शन के मेटने से ही होगा, क्रिया को बदली करने शास्त्र तो अज्ञानता का बोध कराता है, कहता है कि से तो होगा नहीं । मूल भूल को मिटाना चाहिए | X
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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